नमोस्तु गुरुवे तस्मै, गायत्री रूपिणे सदा।
यस्य वागमृतं हन्ति,विषं संसारसञ्ज्ञकम।
भगवत्या जगनमातुः श्रीरामस्यजगदगुरो।
पादुका युगले वन्दे ,श्रद्धा प्रज्ञास्वरूपयोः।
जीवन परिचय :-
विज्ञानं एवं आध्यात्म के समन्वयक तथा नूतनधर्म के प्रतिष्ठापक पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म ऊतरप्रदेश प्रान्त के आगरा जनपद से १५ मील दूर स्थित आंवलखेड़ा नामक गाँव में आश्विन कृष्ण त्रयोदशी को सन १९११ ई० में हुआ था। इनके पिता पण्डित रूपकिशोर शर्मा एक जमींदार होने के साथ साथ उदभट विद्वान,राजपुरोहित एवम भागवत कथाकार भी थे। साधना के प्रति इनका झुकाव बचपन से ही परिलक्षित होने लगा था। किशोरावस्था में ही समाजसुधार व मानव कल्याण की उदात्त भावना इनके हृदय में हिलोरें लेने लगी थी। प्रारम्भिक शिक्षा ग्रामीण वातावरण से आरम्भ हुई और इसके आगे की शिक्षा की इन्होंने आवश्यकता ही नहीं समझी क्योंकि जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व का धनी हो उसे औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रखा जा सकता है ?अतः प्रायः वे हाट बाजारों में जाकर लोगों को स्वास्थ्य शिक्षा सम्बन्धी परिपत्र बांटना,पशुधन को सुरक्षित रखने तथा स्वावलम्बी बनाने के उपायों से लोगों को अवगत कराना आदि कार्यों का इन्हिने शुभारम्भ किया और इसके लिए इन्हें किसी विशेष शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। जनमानस को आत्मावलम्बी बनाने एवम राष्ट्र -भक्ति के स्वाभिमान का जन जागरण करने में वे तन्मयता से लग गए। नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए अपने गांव में ही एक बुनताघर स्थापित किया और उससे लोगों को हाथ से कपड़ा बुनने तथा उससे प्राप्त धन से आत्मावलम्बी बनाने के गुर सीखने लगे।
श्रीराम शर्मा जी को पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में बसन्त पंचमी की शुभवेला में अपने ही घर के पूजा-स्थली में गुरु सत्ता के आगमन का आभास हुआ था। यद्यपि इसके पूर्व वे काशी के महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय जी से गायत्री मन्त्र की दीक्षा ले चुके थे। उस दिन गुरुसत्ता ने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट करके उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में सम्पन्न किये गए क्रिया कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें यह भी बताया कि वह दुर्गम क्षेत्र हिमालय से उनके पास आये हैं एवम उनसे अनेकानेक महत्वपूर्ण ऐसे कार्य करवाना चाहते हैं जो अवतारी स्तर की ऋषि सत्ताएं उनसे अपेक्षा रखती हैं। गुरुसत्ता ने उन्हें चार बार कुछ दिन से लेकर एक वर्ष तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने और वहां पर कठोर तप करने का आदेश दिया। इसके बाद गुरुसत्ता ने तीन पृथक आदेश भी दिए जो निम्नवत हैं ---
१-गायत्री महाशक्ति के चौबीस -चौबीस लक्ष के चौबीस महांपुरश्चरण जिन्हें आहार के कठोर तप के साथ पूर्ण करना था।
२-अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं जन जन तक इसके प्रकाश को फ़ैलाने के लिए समय आने पर ज्ञानयज्ञ अभियान चलाना जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के सन १९३८ ई में प्रकाशन से लेकर विचारक्रांति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकट हुआ।
३- चौबीस महापुरश्चरणों के दौरान युगधर्म का निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त स्वयं को लगा देना,हिमालय की यात्रा करना तथा उनके सम्पर्क में आये हुए लोगों का मार्गदर्शन करना।
धर्म-साधना :--
उपर्युक्त आदेश के पश्चात पण्डित श्रीराम शर्मा जी ने गुरुसत्ता के निर्देशानुसार युगनिर्माण मिशन,गायत्री परिवार,प्रज्ञा अभियान का शुभारम्भ किया और यही उनके जीवन का बहुमूल्य एवम महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ जिसने भावी रीति -नीति का निर्धारण स्वयं कर दिया। पूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा जी ने अपनी पुस्तक "हमारी वसीयत और रियासत "में स्पष्ट रूप से यह लिखा है -"प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ। दो बातें गुरुसत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गयी थी -प्रथम संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं ,उसकी ओर से मुंह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते पर चलते रहना एवं दूसरा कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना। जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सामर्थ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी। बसन्त पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सदगुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवम परम सौभाग्य रहा। "
राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हें उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तप कर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने तोड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने संकेत भी सन्निहित था। सन १९२७ से १९३३ ई० का समय उनका एक सक्रिय स्वयंसेवक,स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में बीता जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल चलकर आगरा के उस शिविर में पहुचना जहां प्रशिक्षण दिया जा रहा था ,एक साहसी कदम था। अपने अनेकों मित्रों एवम समर्थकों के साथ भूमिगत होकर वे कुछ दिनों तक कार्य करते रहे तथा समय आने पर वे जेल भी गए। उन्हें ६- ६ माह की जेल कई बार दी गयी थी किन्तु वे जेल में भी निरक्षर कैदियों को शिक्षण देकर वे स्वयं भी वहीँ से अंग्रेजी भाषा का ज्ञान लेकर जेल से वापस आये। आसनसोल जेल में वे पण्डित जवाहरलाल नेहरु की माता स्वरूपरानी नेहरू,,श्री रफी अहमद किदवई, पण्डित महामना मालवीय,देवदास गाँधी जैसे हस्तियों के साथ रहे और वहीं से मालवीय जी से यह मूलमन्त्र सीखा कि जन जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए जन जन के अंशदान से मुट्ठी फंड से रचनात्मक प्रवृत्तियां चलाना। यही मन्त्र आगे चलकर एक घण्टा समयदान ,बीस पैसा नित्य अर्थात एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्मघट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया जिसका आधार था प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश करना ।
सन १९३५ ई ० के पश्चात उनके जीवन का नया दौर आरम्भ हुआ जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्रीअरविन्द से मिलने पांडिचेरी आश्रम,रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शांतिनिकेतन तथा महात्मा गाँधी से मिलने साबरमती आश्रम गए। सांस्कृतिक आध्यात्मिक मोर्चे पर राष्ट्र की स्वतन्त्रता हेतु उपयुक्त मार्ग निकाले जाने सम्बन्धी सुझाव व अनुष्ठान यथावत चलाते रहते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और आगरा से प्रकाशित हो रहे सैनिक समाचारपत्र के सम्पादक श्री कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पर्क में आये और उनके साथ सहसम्पादन का कार्य किया। बाबू गुलाबराय व पालीवाल से सम्पादन के गुर सीखकर ही उन्होंने सन १९३८ ई में अखण्ड ज्योति पत्रिका के प्रकाशन प्रारम्भ किये। यह कार्य उन्होंने आरम्भ में परिजनों के नाम पाती लिखकर पैर से संचालित मशीन द्वारा मात्र २५० पत्रिका छपवाने से की थी किन्तु क्रमशः इसकी संख्या बढ़ती गयी और आज अखण्ड ज्योति की दस लाख प्रतियां विभिन्न भाषाओँ में प्रकाशित हो रही हैं। इसी कार्य हेतु वे आगरा से मथुरा आ गये थे। यहां आकर दो तीन घर किराये पर लिए और जब उसमें असुविधा देखी तब वे घीयामंडी में एक अलग मकान लिया जहां आज अखण्ड ज्योति संस्थान स्थापित है।उनके इस कार्य में उनकी भार्या माता भगवती देवी शर्मा भी बढ़ चढ़कर हाथ बंटाने लगीं थी और उन्हीं के मर्मस्पर्शी पत्रों ने भावभरे आतिथ्य एवम ममत्व भरे परामर्श ने गायत्री परिवार की एक विशाल आधार भूमि तैयार कर दी। अखण्ड ज्योति पत्रिका लोगों को इतना प्रभावित किया कि इसके स्तम्भ में नियमित रूप से छप रही गायत्री चर्चा से लोग यज्ञमय जीवन जीने का सन्देश लेते हुए गायत्री मन्त्र का नियमित जाप भी प्रारम्भ कर दिए। इसी बीच गुरु सत्ता के बुलावे पर उन्हें हिमालय जाना पड़ा किन्तु पत्रिका का प्रकाशन व अन्य अनुष्ठान यथावत चलते रहे। सन १९५३ ई ० में गायत्री तपोभूमि की स्थापना,१०८ कुंडीय यज्ञ व उनके द्वारा दी गयी प्रथम दीक्षा के साथ समाप्त हुआ। धीरे धीरे गायत्री तपोभूमि एक साधनापीठ बन गयी और २४०० तीर्थों के जल वा रज की स्थापना वहां की गयी और २४०० करोड़ गायत्री मन्त्र लेखन कार्य सम्पन्न किये गए। सन १९५६ में नरमेघ यज्ञ ,१९५८ में सहस्रकूँडी यज्ञ करके लाखों गायत्री साधकों को एकत्रित कर गायत्री परिवार का विधिवत बीजारोपण कर दिया गया। १९५९ में पत्रिका के प्रकाशन का कार्य माता भगवती देवी को सौंपकर वे पौने दो वर्ष के लिए हिमालय चले गए थे और वहीं पर उन्होंने आर्षग्रन्थों का भाष्य,गायत्री महाविद्या पर विश्वकोश स्तर की रचना गायत्री महाविज्ञान के तीन खण्डों की रचना की। हिमालय से लौटने के बाद उन्होंने वेद,उपनिषद,स्मृति,आरण्यक,ब्राह्मण,योगवशिष्ठ,मन्त्र महाविज्ञान,तन्त्र महाविज्ञान जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों को प्रकाशित कर देव संस्कृति की मूल धरोहर को पुनर्जीवित किया।
युग निर्माण योजना एवम युग निर्माण सत्संकल्प के रूप में मिशन का घोषणा पत्र १९६३ ई ० में प्रकाशित हुआ। गायत्री तपोभूमि हरिद्वार अबतक एक विश्व विद्यालय का रूप लेने लगा था। तपोभूमि में समय समय पर अनेक शिविरों का आयोजन किया जाने लगा और गुरुदेव छोटे बड़े जन-सम्मेलनों, यज्ञायोजनों के द्वारा विचारक्रांति की मशाल लेकर सम्पूर्ण देश का भ्रमण करने में लग गए। सन १९७०-७१ में सम्पूर्ण देश में कुल पांच १००८ कुण्डी यज्ञ आयोजित हुए। इसी बीच जून १९७१ में परिजनों में विशेष कार्यभार सौंपकर एवम परम् वन्दनीया माता जी को शांतिकुंज हरिद्वार में अखण्ड दीप के समक्ष तप हेतु छोड़कर स्वयम हिमालय चले गए। एक वर्ष बाद वे गुरुसत्ता का सन्देश लेकर वापस लौटे एवम अपनी आगामी बीस वर्ष की क्रिया पद्धति बताई। ऋषि परम्परा का बीजारोपण,प्राण प्रत्यावर्तन संजीवनी व कल्प साधना सत्रों का मार्गदर्शन जैसे कार्य उन्होंने शांतिकुंज में ही सम्पन्न किये।
हिमालय से लौटने के बाद उन्होंने ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना शांतिकुंज हरिद्वार में की जहाँ विज्ञान एवम अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों पर शोध कर एक नए धर्म वैज्ञानिक धर्म के मूलभूत आधार रखे जाने थे। इस सम्बन्ध में गुरुदेव ने हजारों की संख्या में धर्म साहित्य की सर्जना की जिसमें अदृश्य जगत के अनुसन्धान से लेकर मानव की प्रसुप्त क्षमता के जागरण तक साधना से सिद्धि एवम दर्शन -विज्ञान के तर्क ,तथ्य प्रमाण के आधार पर प्रस्तुतीकरण सम्मिलित है। सन १९८० में सुसंस्कारिता ,आस्तिकता संवर्धन एवम जनजागृति के केंद्र बनाने में वे तत्पर हुए जिसके फलस्वरूप देश में अनेकों प्रज्ञा संस्थान ,शक्तिपीठ-प्रज्ञामण्डल ,स्वाध्याय मण्डल बनते गए। विश्व के ७६ से अधिक देशों में गायत्री परिवार की शाखाएं फ़ैल गयीं और ४६०० से अधिक भारत में निज के भवन वाले संस्थान विनिर्मित हुए। इसके बाद गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण में प्रवेश कर १९८५ में ही पांच वर्ष के अन्दर अपने सारे क्रिया कलापों को समेटने की घोषणा कर दी और एकांत साधना में लीन रहने लगे और अपने सभी अन्य कार्य वन्दनीया माता जी को सौंप दिया। राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों,विराट दीप यज्ञों के रूप में नूतन विधा को जन जन को सौंपकर राष्ट्र देवता की कुण्डलिनी जगाने हेतु उन्होंने स्थूल शरीर छोड़ने व सूक्ष्म में विलीन होने की,विराट से विराटतम होने की घोषणा करते हुए गायत्री जयंती २ जून १९९० को महाप्रयाण किया।
गुरुदेव के प्रमुख वाङ्गमय :--
गुरुदेव द्वारा लिखी गयी पुस्तकों की संख्या अनगिनत है किन्तु उनमें से कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के विवरण निम्नवत हैं --
गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन ,गायत्री साधना का गुह्य विवेचन,गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार,गायत्री की दैनिक एवम विशिष्ट अनुष्ठानपरक साधनायें,गायत्री की पंचकोशी साधना एवम उपलब्धियां, साधना की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि ,सावित्री,कुण्डलिनी एवम तन्त्र,मरणोत्तर जीवन ;तथ्य एवम सत्य,प्राणशक्ति ;एक दिव्य विभूति,चमत्कारी विशेषताओं से भरा मानवी मष्तिष्क,शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म,यज्ञ का ज्ञान विज्ञानं,यज्ञ एक समग्र उपचार प्रक्रिया,युग-परिवर्तन -कैसे और कब,सूक्ष्मीकरण एवम उज्ज्वल भविष्य का अवतरण,मर्यादा पुरुषोत्तम राम,संस्कृति संजीवनी श्रीमदभागवत ,षोडश संस्कार विवेचन,भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व ,धर्मचक्र प्रवर्तन एवम लोक मांस का शिक्षण,जीवेम शरदः शतम शिक्षा एवम विद्या ,यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
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जगद्गुरु कृपालु जी
उत्तरप्रदेश प्रान्त स्थित जनपद प्रतापगढ़ की पावन भूमि धर्म एवं राजनीति दोनों के लिए सदैव से ही उर्वरक मानी जाती रही है। जगद्गुरु कृपालु जी के पूर्व इस जनपद के कुंडा तहसील में स्वामी करुणासिन्धु जी महराज एवम स्वामी करपात्री जी महराज पैदा हुए थे जिनकी धर्मपरायणता से देश ही नहीं अपितु विश्व भी सुपरिचित है। इसी कुण्डा तहसील के मनगढ़ ग्राम में २२ अक्टूबर १९२२ ई ० को शरदपूर्णिमा तिथि को कृपालु जी महराज एक उच्च कुलीन ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे। मनगढ़ इनका ननिहाल था। इनका पूरा नाम राम कृपाल त्रिपाठी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही स्थित प्राइमरी स्कूल एवम कुण्डा स्थित मिडिल स्कूल से हुई थी। सातवीं पास करने के बाद वे आगे की पढाई के लिए मध्यप्रदेश चले गए थे और इन्दौर ,चित्रकूट एवम वाराणसी में क्रमशः साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया। सोलह वर्ष की अल्पायु में ही चित्रकूट में शरभंग आश्रम के समीप स्थित वनाच्छादित क्षेत्र एवं वृन्दावन के वंशीवट के निकट जंगलों में निवास किया। इनका विवाह पद्मादेवी से हुआ था और मनगढ़ में ही दोनों ने कुछ दिनों तक गृहस्थ जीवन व्यतीत किया था। अपने जीवन के प्रारम्भिक काल से ही वे राधाकृष्ण की भक्ति में तल्लीन रहने लगे थे। भक्तियोग पर आधारित उनके प्रवचनों को सुनने हेतु भारी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते थे जिसके कारण धीरे धीरे इनकी ख्याति देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक फैलने लगी। इनके दो पुत्र घनश्याम व बालकृष्ण त्रिपाठी तथा तीन पुत्रियां विशाखा,श्यामा और कृष्णा थीं। इनके दोनों बेटे दिल्ली में रहकर ट्रस्ट का सारा कार्यभार सम्भालते हैं। अपनी जन्मभूमि मनगढ़ में इनके द्वारा भक्तिधाम मन्दिर बनवाया गया है जिसकी निर्माण-शैली अद्वितीय है। इस मन्दिर के परिसर में ही एक भव्य अस्पताल,गोशाला व भक्तों के रहने हेतु आवास बनवाये गए हैं।------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
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जगद्गुरु कृपालु जी
मथुरा के निकट वृन्दावन में भगवान कृष्ण एवं राधा के अलौकिक प्रेम के प्रतीकस्वरूप प्रेम मन्दिर का निर्माण इनके द्वारा ग्यारह वर्ष में एक हजार से अधिक कारीगरों की सहायता से निरन्तर कार्य करते रहने के पश्चात लगभग एक हजार करोड़ रूपये की लागत पर करवाया गया है। यह मन्दिर महराज जी की जीवन्त कल्पना का अद्भुत प्रयोग माना जाता है तथा यह भारत ही नहीं बल्कि विश्व का सबसे सुंदर व भव्य मन्दिरमें से एक है। इस मन्दिर के निर्माण में इटैलियन संगमरमर का प्रयोग हुआ है तथा राजस्थान व उत्तरप्रदेश के शिल्पकारों ने पूर्ण तन्मयता के साथ इसका निर्माण किया था। इसका शिलान्यास स्वयं कृपालु जी ने किया था किन्तु इसके लोकार्पण के एक दिन पूर्व उनके देहावसान के कारण वे उसमें भाग नहीं ले सके थे। यह मन्दिर वास्तुकला के माध्यम से राधाकृष्ण के दिव्य प्रेम को साकार करता हुआ प्रतीत होता है। इसके दरवाजे चारों दिशाओं में खुलते हैं। मुख्य प्रवेश द्वार पर आठ मयूरों की नक्काशीदार तोरण का निर्माण करवाया गया है। सम्पूर्ण मन्दिर के बाहरी दीवार पर राधा कृष्ण की लीलाओं का सजीव चित्रण किया गया है। मन्दिर में कुल ९४ स्तम्भ निर्मित हैं जिनपर राधाकृष्ण की अमर प्रेमलीला अंकित की गयी है। अधिकांश स्तम्भों पर गोपियों की मूर्तियां बनी हुई हैं। इस मन्दिर का लोकार्पण १६ नवम्बर २०१३ ई ० को करवाया गया था।
सन १९५५ ई ० में कृपालु जी ने चित्रकूट में एक विराट दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें काशी के अनेक विद्वान,धर्मज्ञ एवम समस्त जगद्गुरु भी उपस्थित हुए थे। अगले वर्ष १९५६ में एक विराट सन्त सम्मेलन कानपुर में आयोजित किया गया जिसमे उपस्थित धर्मज्ञों एवम जगद्गुरुओं ने कृपालु जी की विद्वता एवं उनके कार्यों की अत्यधिक प्रशंसा की थी और काशी विद्वत परिषद् के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण शुक्ल षट्शास्त्री ने उसी सम्मेलन में सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी :--
"काशी के पण्डित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों विद्वान नहीं स्वीकार करते। हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारते हैं। हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं। हम आज इस मंच से इस विशाल विद्वन्मण्डल को यह बताना चाहते हैं कि हमने सन्ताग्रगण्य श्री कृपालु जी महराज एवं उनकी भगवद प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहते हैं कि आप भी इनको पहचाने और इनसे लाभ उठायें। आप लोगों के लिए यह परम् सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्गमय को उपस्थित करने वाले एक सन्त आपके बीच में आये हैं। काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है। हम उसी काशी के निवासी यहां बैठे हुए हैं। कल श्रीकृपालु जी के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नतमस्तक हो गए। हम चाहते हैं कि लोग श्रीकृपालु जी को समझें और इनके सम्पर्क में आकर उनके सरस्,सरल, अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक रूप से उतारकर अपना कल्याण करें। "
उक्त सम्मेलन में ही कृपालु जी को काशी विद्वत परिषद ने शीर्षस्थ ,शास्त्रज्ञ व वेदज्ञ विद्वानों की सभा में आने हेतु काशी आमन्त्रित किया गया। १४ जनवरी १९५७ ई को काशी में समस्त जगद्गुरुओं की उपस्थिति में इन्हें जगद्गुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया गया था। उस समय इनकी आयु ३४ वर्ष की थी। इनके पूर्व चार लोगों को जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया जा चुका था जिनमें जगद्गुरु शंकराचार्य,निम्बार्काचार्य,रामानुजाचार्य एवं मध्वाचार्य जी का नाम प्रमुख था। कृपालु जी पांचवें जगद्गुरु कहलाये। कृपालु जी की प्रमुख विशेषता यह थी कि वे प्रथम ऐसे जगद्गुरु हैं जिनका स्वयं का कोई गुरु नहीं है और उन्होंने भी अपना कोई शिष्य नहीं बनाया। इनके अनुयायियों की संख्या भले ही लाखों में है। कृपालु जी ऐसे प्रथम जगद्गुरु हैं जो अपने जीवनकाल में यह उपाधि प्राप्त की। इन्होंने ज्ञान और भक्ति दोनों में सर्वोत्कृष्टता प्राप्त करते हुए अनेकों लोकोपकारी कार्य किये। इन्होंने सम्पूर्ण विश्व में राधाकृष्ण की माधुर्यपूर्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार किया तथा ईश्वर के ध्यान,स्मरण,सुमिरन के स्थान पर रूपध्यान करने का सूत्रपात किया। इन्होंने ९० वर्ष की आयु में समस्त वेदों,उपनिषदों,भागवद्पुराणों,ब्रह्मसूत्र,गीता,रामायण आदि का सम्यक अध्ययन कर लिया था और उसी के कारण वे अपने प्रवचनों द्वारा श्रोताओं को मुग्ध कर दिया करते थे। जो सिद्धांत आज से ५०० वर्ष पूर्व चैतन्य महाप्रभु ने सिद्धांतरूप में प्रकट किया था उसे कृपालु जी साकाररूप देते हुए अपने भक्तिधाम की कल्पना के द्वारा मूर्तरूप प्रदान कर दिया। कृपालु जी महराज ९१ वर्ष की आयु में १५ नवम्बर २०१३ ई दिन शुक्रवार को प्रातः ७ बजकर ५ मिनट पर गुड़गांव के फोर्टिस अस्पताल में अपनी अंतिम साँस ली थी और पंचतत्व में विलीन हो गए थे।
प्रेम रस सिद्धान्त :-
अपनी पुस्तक प्रेमरस सिद्धान्त में उन्होंने जीव के चरम लक्ष्य,जीव एवं माया तथा भगवान का स्वरूप,महापुरुष का परिचय,कर्म,ज्ञान एवं भक्ति साधना,कुसंग का स्वरूप आदि विषयों पर अपने विद्वतापूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। जीव का चरम लक्ष्य निर्धारित किये जाने के सन्दर्भ में उन्होंने निष्कर्षतः यह बताया है कि विश्व का प्रत्येक जीव एकमात्र आनन्द ही चाहता है एवं उसी आनन्द की प्राप्ति हेतु प्रतिक्षण प्रयत्नशील रहता है। अंत में उन्होंने " रसो वै सः "का समर्थन करते हुए ईश्वर को ही आनन्द मान लिया और उसी को प्राप्त कर आनन्द प्राप्त करने के मार्ग को प्रशस्त किया है। ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में उन्होंने बताया है कि ईश्वर विश्वरूप है तथा जीव और माया का स्वामी है। ईश्वर सर्वथा अदृष्ट,अव्यवहार्य,अलक्षण एवं अचिन्त्य है। ईष्वर को प्राप्त करने के लिए उन्होंने भगवदकृपा को आवश्यक बताया है तथा भगवद्कृपा के लिए शरणागति का आश्रय लेने की सलाह दी है। मुक्ति और बन्धन का मध्यस्थ मन है। अतः मन की शरणागति होने पर अन्य इन्द्रियों की शरणागति स्वतः हो जाती है। उनके अनुसार मन संसार में आसक्त रहकर ईश्वरोपासना नहीं कर सकता है क्योंकि एक ही समय में वह दो कार्य एक साथ कैसे कर सकता है? शरणागति में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन करते हुए उन्होंने आत्मस्वरूप, संसार के स्वरूप एवं वैराग्य के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा है कि मैं इन्द्रिय, मन,आदि नहीं है अपितु ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश है। अतः हमारा सुख ईश्वरीय होगा। संसार के दो प्रकार पहला वासनात्मक और दूसरा स्थूल संसार मानते हुए बताया कि वासनात्मक संसार प्रत्येक जीव के अंतःकरण में वासना के रूप में विद्यमान होता है। स्थूल संसार उसे कहा है जो उस वासनात्मक जगत का विषय- स्वरूप है। संसार को त्रिगुणात्मक बताते हुए उन्होंने कहा कि सत्व,रज और तमस इन तीनों में जो अधिक बलवान हो जाता है ,वही प्रधान हो जाता है। संसार का वास्तविक स्वरूप समझकर ही मनुष्य को विरक्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए। संसार से वैराग्य की ओर उन्मुख होने के लिए मन को रागद्वेष रहित अर्थात संसार से उदासीन करना पड़ता है। मन की शासिका बुद्धि है और जबतक बुद्धि का सहयोग नहीं मिलेगा, मन ईश्वर में नहीं लग सकता है। वैराग्यभाव जगने के पश्चात उस ईश्वर तत्व को जानने के लिए ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की आवश्यकता पड़ती है। महापुरुष का आशय गुरु से बताया है। बिना गुरु के उस अज्ञेय तत्व की जानकारी हो पाना सम्भव नहीं बताया। उन्होंने कहा कि महापुरुष कोई कर्म नहीं करता है क्योंकि इससे वह बंधनग्रस्त हो जायेगा। उनके अनुसार ईश्वर माया का प्रेरक है ,माया जीव का प्रेरक है और जीव बुद्धि की प्रेरक है। बुद्धि को मन का प्रेरक बताते हुए अंत में उन्होंने मन को इन्द्रियों के विषयों का प्रेरक बताया। जब जीव और ईश्वर का मिलन हो जाता है तब उन दोनों के मध्य में रहने वाली माया स्वतः पृथक हो जाती है ,ऐसा उनका मानना है। ऐसी स्थिति में तब ईश्वर सीधे जीव का प्रेरक हो जाता है और तब जीव जो कुछ भी करता है, वह ईश्वरीय प्रेरणा का परिणाम माना जाता है।
कृपालु जी ने आगे बताया कि निरन्तर सत्संग से ही महापुरुष की पहिचान हो पाती है। अतः विरक्त होकर श्रद्धाभाव से गुरु को प्राप्त करना चाहिए। परमानन्द जो ईश्वर प्राप्ति का स्वरूप है ,को प्राप्त करने हेतु ईश्वरीय कृपा भी उन्होंने आवश्यक बताया। उनकी कृपा केवल शरणागत पर ही होती है। शरणागति मन की होती है और मन आदिकाल से संसार में ही सुख तलाशता रहा है। अतः मन को रागद्वेष रहित बनाकर गुरु की शरण में जाना आवश्यक है। ईश्वर प्राप्ति के उपाय के सम्बन्ध में उनका कथन है कि इस मार्ग पर अग्रसर होने के तीन मार्ग हैं -प्रथम मार्ग कर्म. द्वितीय ज्ञान और तृतीय भक्ति या उपासना। इन तीनों मार्गों का प्रतिनिधित्व ब्रह्म की तीन शक्तियां सतब्रह्म,चितब्रह्म,और आनन्द ब्रह्म द्वारा किया जाता है। इनमें सतब्रह्म का स्वभाव कर्मप्रधान है ,चित ब्रह्म का स्वभाव ज्ञान प्रधान है एवं आनन्द ब्रह्म का स्वभाव प्रेम प्रधान है। इन तीनों मार्गों का विस्तृत वर्णन कृपालु जी ने अपनी पुस्तक" प्रेम रस सिद्धान्त" में किया है।
निराकार ब्रह्म एवं साकार ब्रह्म दोनों ब्रह्म के ही स्वरूप बताते हुए उन्होंने कहा है कि इन दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है। अवतार रहस्य की व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि अवतार के कई कारण व प्रयोजन हो सकते हैं। सगुण साकार संसार को व्यवहार में लाते लाते जीवों का स्वभाव बन गया है कि उनके मन की रूचि सगुण साकार तत्व में ही होती है। अतएव ईश्वर ने अवतार लेकर लोगों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर दिया। आगे उन्होंने कहा कि भगवान के समस्त अवतार दिव्य होते हैं। ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम व सर्वसुलभ मार्ग इन्होंने भक्ति को बताया। भक्ति रुपी शक्ति एकमात्र ईश्वर के ही पास है। भक्ति तत्व का निरूपण करते हुए आगे बताया कि सत, चित एवं आनन्द अर्थात सच्चिदानन्द की प्राप्ति भक्ति का चरम लक्ष्य है। ईश्वर की शक्तियों को स्वरूप शक्ति,जीव शक्ति तथा माया शक्ति इन तीन भागों में विभक्त किया है। स्वरूप शक्ति के अन्तर्गत सच्चिदानन्द हैं जिसकी आह्लादिनी शक्ति प्रेम है और जिसे भक्ति भी कहते हैं। समस्त साधक भक्ति की ही कामना करते हैं। भक्ति का सरल मार्ग गोस्वामी तुलसीदास जी "मन क्रम वचन छाड़ि चतुराई। भजतहिं कृपा करत रघुराई। ",की इस चौपाई द्वारा स्पष्ट किया गया है। निष्कर्षतः उन्होंने कहा कि प्रथम तो सभी प्रकार की इच्छाओं से रहित होना अनिवार्य है और दूसरे भक्ति के ऊपर ज्ञान ,कर्म,तपश्चर्या आदि किसी का भी आवरण नहीं होना चाहिए और तीसरे शांत,दास्य,सख्य,वात्सल्य एवं माधुर्य इन पञ्च अनुकूल भावों से भगवान का निरन्तर अनुशीलन करते रहना चाहिए।
कर्मयोग की क्रियात्मक साधना के अन्तर्गत उन्होंने गीता के इस कथन "तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च "का समर्थन करते हुए कर्म के दो प्रकार बताये। पहला जिसमें मन बुद्धि का सँयोग मात्र होता है और दूसरा जिसमें मन बुद्धि का सँयोग नहीं वरन मन बुद्धि की आसक्ति भी होती है। इन दोनों से कर्मयोग के क्रियात्मक रहस्य को समझा जा सकता है। आगे उन्होंने बताया कि गृहस्थादि के कार्य करते हुए मन को ईश्वर में लगाते हुए कर्मयोग का क्रियात्मक पालन करना चाहिए और इसके लिए अनन्यता एवं रूपध्यान का सदैव अनुस्मरण करते रहना आवश्यक है। अनन्यता का तात्पर्य कोई अन्य नहीं से है। साधक के हृदय में यह भाव होना चाहिए कि भगवान कृष्ण के अतिरिक्त यदि उनमें कोई अन्य तत्व आ जायेगा तो वह बाधक होगा। रूपध्यान को साधना का सर्वाधिक सशक्त तत्व बताते हुए उन्होंने कहा कि बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही है। यदि रूपध्यान न किया जाये तो मन संसार में ही बना रहेगा। अतः मन से एकाग्रचित्त होकर भगवान का रूपध्यान करना चाहिए क्योंकि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप चिदानन्दमय स्वरूप है।
मूर्ति -पूजा का रहस्य बताते हुए उनका मन्तव्य है कि एक प्राकृत जड़ पदार्थ होता है और एक चैतन्य होता है जो प्रकृति के अधीन होती है। प्राकृत जड़ या चेतन सर्वान्तर्यामी नहीं है। प्राकृत पदार्थ में भी ईश्वरीय भावना से मन लगा देने से ईश्वरीय लक्ष्य को ही प्राप्त किया जाता है। अतएव जड़ पदार्थ में ही ईश्वरीय भावना द्वारा उपासना करने हेतु मूर्तिपूजा की प्रणाली संसार में प्रचलित है। कृपालु जी का मानना है कि यह प्राकृत रूपध्यान सर्वान्तर्यामी ईश्वर के द्वारा दिव्य फल ही प्रदान करेगा। रूपध्यान की सहायता के लिए मूर्तिपूजा का सहारा लिया जा सकता है। यदि न चाहें तो सीधे मन के द्वारा रूपध्यान कर सकते हैं। अपने दिव्यादेश में उन्होंने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म श्रीकृष्ण का नित्य दास है। अतः श्रीकृष्ण सुरशैक तात्पर्यमयी सेवा ही प्रत्येक प्राणी का एकमात्र लक्ष्य है। वह नित्य निष्काम सेवा श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम प्राप्त होने पर ही मिलेगा। वह दिव्य प्रेम किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ रसिक गुरु की कृपा से ही मिलेगा। वह रसिक गुरु अंतःकरण की शुद्धि हो जाने पर ही प्राप्त होगा । वह अंतःकरण शुद्धि गुरु निर्दिष्ट साधना भक्ति से ही होगी। अतएव गुरु शरणागति में गुरु निर्दिष्ट साधना द्वारा अंतःकरण पात्र को शुद्ध करना सर्वप्रथम परमावश्यक है। साधना के सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि "श्री राधाकृष्ण का रूपध्यान करते हुए उनके दिव्य प्रेम एवं दिव्य दर्शन की लालसा से रोकर ,उनका नाम -गुण लीलादि संकीर्तन करना है। रूपध्यान को उन्होंने सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है। रूपध्यान मन में बनाना सर्वश्रेष्ठ है फिर भी स्वेच्छानुसार मूर्ति अथवा चित्रादि का अवलम्ब लिया जा सकता है। उस रूप में दिव्य भावना रहती है क्योंकि उनका देह चिदानन्दमय दिव्य है। श्री कृपालु जी के अनुसार रूपध्यान नवजात शिशु से लेकर सोलह वर्ष की आयु तक का करना चाहिए। उस रूप का श्रृंगार आदि स्वेच्छापूर्वक नित्य करते रहना है और रूपध्यान के साथ साथ उनकी अनेक मनभायी लीलाओं का भी ध्यान करना है तथा उनके दीन बन्धुत्व,पतित पावनत्व आदि गुण भी सोचना है। श्री कृष्ण के नाम ,उनके गुण ,उनकी लीला ,उनके काम,उनके सन्तजनों में पूर्ण अभेद को मानना है ,ये सब श्री कृष्ण ही हैं। मोक्षपर्यन्त की कामना एवं अपने सुख की कामना का पूर्ण त्याग करना है। इष्टदेव एवं गुरु को सदैव सर्वत्र अपने साथ निरीक्षक एवं संरक्षक के रूप में मानना है। कभी भी स्वयं को अकेला नहीं मानना है। खाली समय में यत्र तत्र सर्वत्र श्वास से राधेश्याम नाम का जप करते रहना है। परदोष दर्शन, परनिन्दा,लोकरंजन,निराशा ,आलस्य,विषयीजनों का संग आदि कुसंग से बचना है।
उनके अनुसार संसार में सत्य और असत्य दो ही तत्व हैं जिनके संग को सत्संग और कुसंग कहते हैं। जिसके द्वारा भगवद विषय में मन बुद्धियुक्त लगाव हो जाये वही सत्संग है। कुसंग का बीज प्रत्येक देहाभिमानी जीव के अंतःकरण में नित्य रहता है और अनुकूल बाह्य गुण विषय पाकर वह प्रभावी हो जाता है। अतः भगवद के विपरीत विषयों में पड़ना भी कुसंग है। कुसंग से निवृत्ति हेतु उससे बचाव करना एकमात्र उपाय है। परदोषदर्शन भी कुसंग ही है क्योंकि इससे स्वाभिमान जाग्रत होता है और दोष चिन्तन करते करते बुद्धि भी धीरे धीरे दोषमय हो जाती है। अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से अपने मार्ग अथवा साधनादि के विषय में वाद- विवाद करना भी कुसंग की श्रेणी में आता है। लोकरंजन को भी उन्होंने कुसंग की श्रेणी में रखा है।
निराकार ब्रह्म एवं साकार ब्रह्म दोनों ब्रह्म के ही स्वरूप बताते हुए उन्होंने कहा है कि इन दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है। अवतार रहस्य की व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि अवतार के कई कारण व प्रयोजन हो सकते हैं। सगुण साकार संसार को व्यवहार में लाते लाते जीवों का स्वभाव बन गया है कि उनके मन की रूचि सगुण साकार तत्व में ही होती है। अतएव ईश्वर ने अवतार लेकर लोगों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर दिया। आगे उन्होंने कहा कि भगवान के समस्त अवतार दिव्य होते हैं। ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम व सर्वसुलभ मार्ग इन्होंने भक्ति को बताया। भक्ति रुपी शक्ति एकमात्र ईश्वर के ही पास है। भक्ति तत्व का निरूपण करते हुए आगे बताया कि सत, चित एवं आनन्द अर्थात सच्चिदानन्द की प्राप्ति भक्ति का चरम लक्ष्य है। ईश्वर की शक्तियों को स्वरूप शक्ति,जीव शक्ति तथा माया शक्ति इन तीन भागों में विभक्त किया है। स्वरूप शक्ति के अन्तर्गत सच्चिदानन्द हैं जिसकी आह्लादिनी शक्ति प्रेम है और जिसे भक्ति भी कहते हैं। समस्त साधक भक्ति की ही कामना करते हैं। भक्ति का सरल मार्ग गोस्वामी तुलसीदास जी "मन क्रम वचन छाड़ि चतुराई। भजतहिं कृपा करत रघुराई। ",की इस चौपाई द्वारा स्पष्ट किया गया है। निष्कर्षतः उन्होंने कहा कि प्रथम तो सभी प्रकार की इच्छाओं से रहित होना अनिवार्य है और दूसरे भक्ति के ऊपर ज्ञान ,कर्म,तपश्चर्या आदि किसी का भी आवरण नहीं होना चाहिए और तीसरे शांत,दास्य,सख्य,वात्सल्य एवं माधुर्य इन पञ्च अनुकूल भावों से भगवान का निरन्तर अनुशीलन करते रहना चाहिए।
कर्मयोग की क्रियात्मक साधना के अन्तर्गत उन्होंने गीता के इस कथन "तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च "का समर्थन करते हुए कर्म के दो प्रकार बताये। पहला जिसमें मन बुद्धि का सँयोग मात्र होता है और दूसरा जिसमें मन बुद्धि का सँयोग नहीं वरन मन बुद्धि की आसक्ति भी होती है। इन दोनों से कर्मयोग के क्रियात्मक रहस्य को समझा जा सकता है। आगे उन्होंने बताया कि गृहस्थादि के कार्य करते हुए मन को ईश्वर में लगाते हुए कर्मयोग का क्रियात्मक पालन करना चाहिए और इसके लिए अनन्यता एवं रूपध्यान का सदैव अनुस्मरण करते रहना आवश्यक है। अनन्यता का तात्पर्य कोई अन्य नहीं से है। साधक के हृदय में यह भाव होना चाहिए कि भगवान कृष्ण के अतिरिक्त यदि उनमें कोई अन्य तत्व आ जायेगा तो वह बाधक होगा। रूपध्यान को साधना का सर्वाधिक सशक्त तत्व बताते हुए उन्होंने कहा कि बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही है। यदि रूपध्यान न किया जाये तो मन संसार में ही बना रहेगा। अतः मन से एकाग्रचित्त होकर भगवान का रूपध्यान करना चाहिए क्योंकि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप चिदानन्दमय स्वरूप है।
मूर्ति -पूजा का रहस्य बताते हुए उनका मन्तव्य है कि एक प्राकृत जड़ पदार्थ होता है और एक चैतन्य होता है जो प्रकृति के अधीन होती है। प्राकृत जड़ या चेतन सर्वान्तर्यामी नहीं है। प्राकृत पदार्थ में भी ईश्वरीय भावना से मन लगा देने से ईश्वरीय लक्ष्य को ही प्राप्त किया जाता है। अतएव जड़ पदार्थ में ही ईश्वरीय भावना द्वारा उपासना करने हेतु मूर्तिपूजा की प्रणाली संसार में प्रचलित है। कृपालु जी का मानना है कि यह प्राकृत रूपध्यान सर्वान्तर्यामी ईश्वर के द्वारा दिव्य फल ही प्रदान करेगा। रूपध्यान की सहायता के लिए मूर्तिपूजा का सहारा लिया जा सकता है। यदि न चाहें तो सीधे मन के द्वारा रूपध्यान कर सकते हैं। अपने दिव्यादेश में उन्होंने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म श्रीकृष्ण का नित्य दास है। अतः श्रीकृष्ण सुरशैक तात्पर्यमयी सेवा ही प्रत्येक प्राणी का एकमात्र लक्ष्य है। वह नित्य निष्काम सेवा श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम प्राप्त होने पर ही मिलेगा। वह दिव्य प्रेम किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ रसिक गुरु की कृपा से ही मिलेगा। वह रसिक गुरु अंतःकरण की शुद्धि हो जाने पर ही प्राप्त होगा । वह अंतःकरण शुद्धि गुरु निर्दिष्ट साधना भक्ति से ही होगी। अतएव गुरु शरणागति में गुरु निर्दिष्ट साधना द्वारा अंतःकरण पात्र को शुद्ध करना सर्वप्रथम परमावश्यक है। साधना के सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि "श्री राधाकृष्ण का रूपध्यान करते हुए उनके दिव्य प्रेम एवं दिव्य दर्शन की लालसा से रोकर ,उनका नाम -गुण लीलादि संकीर्तन करना है। रूपध्यान को उन्होंने सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है। रूपध्यान मन में बनाना सर्वश्रेष्ठ है फिर भी स्वेच्छानुसार मूर्ति अथवा चित्रादि का अवलम्ब लिया जा सकता है। उस रूप में दिव्य भावना रहती है क्योंकि उनका देह चिदानन्दमय दिव्य है। श्री कृपालु जी के अनुसार रूपध्यान नवजात शिशु से लेकर सोलह वर्ष की आयु तक का करना चाहिए। उस रूप का श्रृंगार आदि स्वेच्छापूर्वक नित्य करते रहना है और रूपध्यान के साथ साथ उनकी अनेक मनभायी लीलाओं का भी ध्यान करना है तथा उनके दीन बन्धुत्व,पतित पावनत्व आदि गुण भी सोचना है। श्री कृष्ण के नाम ,उनके गुण ,उनकी लीला ,उनके काम,उनके सन्तजनों में पूर्ण अभेद को मानना है ,ये सब श्री कृष्ण ही हैं। मोक्षपर्यन्त की कामना एवं अपने सुख की कामना का पूर्ण त्याग करना है। इष्टदेव एवं गुरु को सदैव सर्वत्र अपने साथ निरीक्षक एवं संरक्षक के रूप में मानना है। कभी भी स्वयं को अकेला नहीं मानना है। खाली समय में यत्र तत्र सर्वत्र श्वास से राधेश्याम नाम का जप करते रहना है। परदोष दर्शन, परनिन्दा,लोकरंजन,निराशा ,आलस्य,विषयीजनों का संग आदि कुसंग से बचना है।
उनके अनुसार संसार में सत्य और असत्य दो ही तत्व हैं जिनके संग को सत्संग और कुसंग कहते हैं। जिसके द्वारा भगवद विषय में मन बुद्धियुक्त लगाव हो जाये वही सत्संग है। कुसंग का बीज प्रत्येक देहाभिमानी जीव के अंतःकरण में नित्य रहता है और अनुकूल बाह्य गुण विषय पाकर वह प्रभावी हो जाता है। अतः भगवद के विपरीत विषयों में पड़ना भी कुसंग है। कुसंग से निवृत्ति हेतु उससे बचाव करना एकमात्र उपाय है। परदोषदर्शन भी कुसंग ही है क्योंकि इससे स्वाभिमान जाग्रत होता है और दोष चिन्तन करते करते बुद्धि भी धीरे धीरे दोषमय हो जाती है। अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से अपने मार्ग अथवा साधनादि के विषय में वाद- विवाद करना भी कुसंग की श्रेणी में आता है। लोकरंजन को भी उन्होंने कुसंग की श्रेणी में रखा है।