स्वामी करपात्री जी dk tUe
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राजनैतिक पृष्ठभूमि
स्वामी -करपात्री जी ने जनसेवा के उद्देश्य से सन १९४८ में अखिल भारतीय रामराज्य परिषद नामक एक राजनैतिक दल बनाया और लोकसभा में तीन सीटें तथा विधान सभा में आठ सीटें जीतकर अपनी उपस्थिति प्रस्तुत कर दी थी। इन्होंने राजनीति में प्रवेश मात्र हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए किया था। मार्क्सवाद व रामराज्य इनकी रचनाएँ हैं जिनमें विशुद्ध भारतीय दर्शन का दिग्दर्शन होता है। इस प्रकार करपात्री जी एक महान सन्त के साथ साथ प्रसिद्ध स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी के रूप में भी जाने जाते हैं।
स्वामी करपात्रीजी ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। इन्होंने भूमि गोबर,गोमय,गोचिकित्सा व गोरोग हेतु आंदोलन भी किया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरागांधी द्व्रारा समुचित व्यवस्था न कराये जाने पर उन्हें अभिशाप भी दे दिया था जिससे वे लोकसभा चुनाव हार भी गयीं थीं किन्तु जब उन्हें इसका अहसास हुआ तब वे स्वयं स्वामी जी के पास आयीं और क्षमा मांगीं तब उनके आशिर्वाद से वे पुनः चुनाव जीत पायीं थी।इंदिरा गाँधी ने उनसे वादा किया कि चुनाव जितने के बाद गाय की हत्या बन्द हो जाएगी किन्तु मुस्लिमों एवं मार्क्सवादियों के दबाव में वे ऐसा कर नहीं पायीं। इसके बाद गोहत्या निषेध आंदोलन किया गया और ७ नवम्बर १९६६ ई को संसद भवन के सामने धरना प्रारम्भ हो गया इस धरने में मुख्य सन्तों में शंकराचार्य निरंजन देव स्वामी करपात्री जी और रामचन्द्र वीर सम्मिलित हुए। रामचन्द्र वीर तो आमरण अनशन पर बैठ गए थे किन्तु इंदिरागांधी ने उनपर गोलियां चलवा दी थी इसमें कई साधु सन्त मारे गए थे। इस हत्या कांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नन्दा ने अपना त्यागपत्र दे दिया था और इस हत्याकांड के लिए सरकार को जिम्मेदार माना। १६६ दिनों तक आंदोलन चलता रहा जो एक विश्व रिकार्ड माना जाता है। इस घटना को किसी भी समाचारपत्र ने नहीं छापा सिर्फ मासिक पत्रिका आर्यावर्त और केसरी ने ही इसे छापा था। कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका कल्याण ने अपने गौ अंक में इसे एक विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया। उस अंक में करपात्री जी ने इंदिरा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि --यद्यपि तूने निर्दोष साधुओं की हत्या करवाई है फिर भी मुझे इसका दुःख नहीं हैं लेकिन तूने गौहत्यारों को गायों की हत्या करने का मार्ग प्रशस्त किया है। आज मैं कहे देता हूँ कि गोपाष्टमी के दिन ही तेरे वंश का भी नाश होगा। जब वे यह अभिशाप दे रहे थे तो वहां पर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी भी मौजूद थे। अभिशाप सच हुआ और इंदिरा का वंश गोपाष्टमी के दिन ही नष्ट हो गया था क्योंकि संजय गाँधी व इंदिरा गाँधी दोनों गोपाष्टमी के दिन ही मारे गए थे। संयोगवश राजीवगांधी की हत्या भी गोपाष्टमी के दिन ही हुई थी। करपात्री जी ने रामचरितमानस की चौपाई सुनते हुए कहा था --सन्त अवज्ञा करि फल ऐसा। जारहिं नगर अनाथ करि जैसा।
त्याग एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति
स्वामी करपात्री जी १७ वर्ष की आयु में हिमालय जाकर अखण्ड साधना आत्मदर्शन एवं धर्म-सेवा का संकल्प ले लिया था। काशी में अपना शिखासूत्र परित्याग करने के पश्चात उन्होंने विद्वत सन्यास ग्रहण किया था। केवल ढाई गज कपड़ा एवम दो लँगोटी के सहारे गर्मी सर्दी व बरसात को सहन किया करते थे। १८ वर्ष की आयु में त्रिकाल सन्ध्या स्नान ध्यान भजन पूजन आदि करने लगे थे और इसी के साथ विद्याध्ययन भी जारी रखे थे। गंगा का तट पर फूस की झोपडी में एकाकी निवास एवम भिक्षार्जन द्वारा उदरपूर्ति तथा भूमिशयन पदयात्रा करना इनका स्वभाव बन गया था। गंगा जी के तट पर प्रत्येक प्रतिपदा को धूप में केवल एक लकड़ी के सहारे एक पैर पर खड़े होकर अखण्ड तप किया करते थे और चौबीस जब धूप की छाया उस लकड़ी के निकट आ जाती थी तब वे दूसरे पैर पर खड़े होकर तपस्या किया करते थे। ऐसी कठोर साधना एवं भिक्षा द्वारा प्राप्त किये गए भोजन अपने हाथ में जितना आ जाता था ,को ग्रहण करने के कारण ही वे करपात्री का नाम से जाने जाते हैं। २४ वर्ष की आयु में १००८ स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से विधिवत दण्ड ग्रहण करके वे अभिनव शंकर कहलाये।
स्वामी करपात्री जी वेदांत के प्रकांड ज्ञाता थे और आजीवन उन्होंने वेदांत की शिक्षाओं का प्रचार -प्रसार किया। उन्होंने कभी भी किसी पद या उपाधि की कामना नहीं की। वे कहा करते थे कि सहस्रार के चन्द्रगर्भ से स्रवित आसव को पहनकर ज्ञान कृपण से काम क्रोध लोभ और मोह आदि आसुर पशुओं को मारकर वंचना पिशुनता ईर्ष्या रुपी मछलियों को पकाकर आशा कामना निंदा रमण कर समरस की प्राप्ति होती है।
हिन्दू धर्म का -प्रसार
स्वामी करपात्री जी ने सम्पूर्ण भारतवर्ष की पैदल यात्रा सम्पन्न की और हिन्दू धर्म के प्रचार -प्रसार हेतु उन्होंने अखिल भारतीय धर्मसंघ की स्थापना काशी में की जो आज भी प्राणिमात्र के सुख शांति के लिए तथा गौहत्या बन्द करने के लिए प्रयत्नशील है। इनकी दृष्टि में सम्पूर्ण मानव ईश्वर के ही अंश हैं इसीलिए उन्होंने अपने नारे में अधर्मी के नाश के स्थान पर अधर्म का नाश हो का नारा दिया था। उनके अनुसार यदि मनुष्य सुख एवं शांति चाहता है तो उसे अन्य मनुष्यों की सुख एवं शांति का ध्यान रखना पड़ेगा। उन्होंने धर्मसंघ के प्रत्येक शुभ कार्यों के अंत में धर्म की जय हो प्राणियों में सदभावना हो अधर्म का नाश हो विश्व का कल्याण हो आदि पवित्र नारों से जनजागरण करने की व्यवस्था दी थी जो आज भी यथावत जारी है। इसीलिए करपात्री जी को हिन्दू धर्म सम्राट की उपाधि से अलंकृत किया गया था।
करपात्री जी अद्वैत दर्शन के समर्थक एवं अनुयायी थे। आत्मा परमात्मा व मोक्ष के सम्बन्ध में आदि शंकराचार्य जी द्वारा दी गयी युक्तियों से वे पूर्णतयः सहमत होते हुए उसी प्रचार प्रसार में आजीवन लगे रहे। इनकी विद्वता से ज्योतिर्मठ के तत्कालीन शंकराचार्य ब्रह्मानंद सरस्वती जिनसे वे दीक्षा ली थी काफी प्रभावित थे। एक बार ब्रह्मानंद सरस्वती ने इनसे शंकराचार्य की पीठ व पद सम्भालने को कहा था तब इन्होंने यह उत्तर दिया था किशंकराचार्य के पद पर आसीन होने के लिए अविवाहित होना अनिवार्य है। चूँकि वे विवाहित हैं और उनके एक पुत्री भी है अतः वे अपने को इस पद के लिए उपयुक्त नहीं मानते। बाद में इन्हें अभिनव शंकर की उपाधि से विभूषित किया गया था। करपात्री जी के जीवन का प्रत्येक पक्ष चाहे वह सन्त के जीवन का हो अथवा राजनैतिक पक्ष हो वे सभी में उच्च शिखर पर आसीन रहे। विद्वता में तो वे बेजोड़ थे। यही कारण है कि चारों पीठों के शंकराचार्य उनसे परामर्श लिया करते थे एवं उनका अत्यधिक आदर व सम्मान किया करते थे। करपात्री जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन काशी में ही व्यतीत किया केवल धर्म के प्रचार हेतु उन्होंने सम्पूर्ण भारत की यात्रा की थी।
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o fgUnw /keZ izoZrd FksA हिन्दू धर्म के प्रचार हेतु उन्होंने १९४० में जिस अखिल भारतीय धर्मसंघ की स्थापना की थी वह अभी भी प्राणी मात्र की सुख शांति के लिए तथा गौहत्या बन्द करने के लिए प्रयत्नशील है। हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अनेकों आंदोलन व समाजिक कार्यक्रमों के द्वारा इन्होंने जनजागरण किया और अपने सम्पूर्ण जीवन को तप एवम जनकल्याण के लिए समर्पित कर दिया था। करपात्री जी एक सरल स्वभाव के निश्छल एवं प्रखर वक्त थे। जिस भी विषय पर उनकी लेखनी चली उसे उन्होंने अम्र बना दिया। भक्ति की पराकाष्ठा एवं मानव कल्याण के प्रति जागरूकता ने उन्हें भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व की महान विभूतियों में सम्मानजनक स्थान प्रदान किया। त्याग एवं तपस्या की तो वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। चौबीस घण्टे में एकबार भोजन करना और एक बार में उनके हाथ में जितना भोजन आ जाये उसी से सन्तुष्ट हो जाना उनके त्याग को ही प्रतिबिम्बित करता है। os v}Sr n'kZu
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स्वामी करपात्री जी वेद एवं वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित थे। धर्म एवं दर्शन के गूढ़ विषयों पर उनके विचार स्पष्ट एवं प्रामाणिक होते थे। भक्ति मार्ग के पोषक तत्वों के निरूपण के सम्बन्ध में उनका कथन है कि सहस्रार के चन्द्रगर्भ से स्रवित आसव का पानकर ज्ञान कृपाण से काम क्रोध लोभ मोह आदि आसुर पशुओं को मारकर वञ्चना पिशुनता ईर्ष्या मछलियों को पकाकर आशा कामना ,निंदा रमण कर सामरस की प्राप्ति होती है।ईश्वर की प्राप्ति के सन्दर्भ में उन्होंने बताया कि साधक को अपने भगवान की पूर्णता परमानंदता आदि की सिद्धि के लिए स्वात्म समर्पण करना ही पड़ता है।
करपात्री जी की रचनाएँ
करपात्रीजी ने धर्म राजनीति एवं सामाजिक विषयों पर कई रचनाएँ की हैं जिनके विवरण निम्नवत हैं
१-रामायण मीमांसा २-भ्रमरगीत ३-श्रीराधासुधा ४-गोपीगीत ५-- विचार पीयूष ६-राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू धर्म ७-भक्ति-सुधा ८- मार्क्सवाद एवं रामराज्य ९- वेदार्थ पारिजात ।
स्वामी करपात्री जी वेद एवं वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित थे। धर्म एवं दर्शन के गूढ़ विषयों पर उनके विचार स्पष्ट एवं प्रामाणिक होते थे। भक्ति मार्ग के पोषक तत्वों के निरूपण के सम्बन्ध में उनका कथन है कि सहस्रार के चन्द्रगर्भ से स्रवित आसव का पानकर ज्ञान कृपाण से काम क्रोध लोभ मोह आदि आसुर पशुओं को मारकर वञ्चना पिशुनता ईर्ष्या मछलियों को पकाकर आशा कामना ,निंदा रमण कर सामरस की प्राप्ति होती है।ईश्वर की प्राप्ति के सन्दर्भ में उन्होंने बताया कि साधक को अपने भगवान की पूर्णता परमानंदता आदि की सिद्धि के लिए स्वात्म समर्पण करना ही पड़ता है।
करपात्री जी की रचनाएँ
करपात्रीजी ने धर्म राजनीति एवं सामाजिक विषयों पर कई रचनाएँ की हैं जिनके विवरण निम्नवत हैं
१-रामायण मीमांसा २-भ्रमरगीत ३-श्रीराधासुधा ४-गोपीगीत ५-- विचार पीयूष ६-राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू धर्म ७-भक्ति-सुधा ८- मार्क्सवाद एवं रामराज्य ९- वेदार्थ पारिजात ।
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