Friday, July 29, 2016

स्वामी रामतीर्थ


        जीवन-परिचय :-
स्वामी रामतीर्थ जी का जन्म सन १८७३ ई ० को दीपावली के पावन पर्व पर पंजाब प्रान्त के जनपद गुजरावाला के गाँव मराली में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित हीरानन्द  गोस्वामी था जो एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। पिता ने इनका नाम तीर्थराम रखा था।बचपन में ही इनकी माता का देहान्त हो गया जिसके कारण इनका बचपन कठिनाइयों में गुजरा।  इनके पिता की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी जिसके कारण वे इन्हें किसी अच्छे विद्यालय में नहीं पढ़ा सके। अतः जब तक वे अपने गांव मराली में रहे तब तक वहां स्थित प्राइमरी स्कूल में एक मौलवी से उर्दू पढ़ते रहे। नौ वर्ष की आयु में शहर के हाईस्कूल में प्रवेश दिला  दिया गया जहां इनके पिता एक मित्र धन्ना भगत इनकी देखभाल किया करते थे। मात्र दस वर्ष की अल्पायु में इनके पिता ने इनकी शादी करवा दी थी। गरीबी एवं विषम आर्थिक स्थितियों के मध्य  पन्द्रह वर्ष की आयु में इन्होंने अपनी माध्यमिक  शिक्षा पास करके पंजाब प्रान्त में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। सर्वप्रथम आने के कारण इन्हें विशेष छात्रवृत्ति मिलने लगी और इसी छात्रवृत्ति के आधार पर लाहौर के एक कालेज में बी ए में प्रवेश ले लिया।इनके पिता कालेज की पढाई के लिए राजी नहीं थे इसलिए उन्होंने किसी प्रकार की आर्थिक सहायता देने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी। रामतीर्थ अपनी पुस्तकों एवम फ़ीस आदि का खर्च तो छात्रवृत्ति से पूरा कर लेते थे और भोजन के लिए कोई ट्यूशन करके काम चला लेते थे। इनके पिता ने जब अपनी मर्जी के विरुद्ध कालेज में प्रवेश कर लेने की बात सुनी तब उन्होंने इनकी पत्नी को भी इनके पास भेज दिया ताकि जब खर्च की कमी पड़े तो कोई नौकरी कर लें। सन १८९१ ई ० में पंजाब विश्व विद्यालय की बी ए  परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त किये और फिर उच्च शिक्षा अर्थात एम ए में गणित विषय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उसी कालेज में अध्यापक के पद  पर नियुक्त हो गए।वे अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के पढाई में लगा दिया करते थे। साधारण जीवन यापन करना इन्हें प्रिय था।
इस प्रकार तीर्थराम को अपने विद्यार्थी जीवन में ही त्याग और तपस्या का पूरा परिचय देना पड़  गया था। उनके विद्यार्थी जीवनकाल की दो चार घटनाओं से विदित होता है कि उस समय भी वे एक योगी की भांति एकमात्र विद्याध्ययन को लक्ष्य बनाकर संसार की अन्य बातों को भूले हुए थे। उनके बचपन की कठिनाइयों के सम्बन्ध में कहा गया है कि यह सच है कि जिस भयानक गरीबी में तीर्थराम जी ने कालेज में शिक्षा प्राप्त की ,वह शायद ही और किसी विद्यार्थी ने अनुभव की हो। अनेक दिन ऐसे भी आये कि लाहौर जैसे शहर में केवल तीन पैसे रोज पर गुजारा करते रहे। सुबह के वक्त एक दुकान पर दो पैसे की रोटी खरीद लेते और दाल के साथ खा लेते। शाम को उसी दुकान से एक पैसे की रोटी कहते ,दाल मुफ्त में मिल जाती। कुछ दिन तो इसी तरह बिताये पर बाद में दुकानदार ने कह दिया कि एक पैसे की रोटी के साथ दाल मुफ्त में नहीं मिल सकती। इस पर लाचार होकर शाम का खाना बन्द कर देना पड़ा और सुबह एकबार ही खाकर सन्तोष कर लेते। उनके पास पहिनने को न तो कोट था और न पतलून। उनके पास खद्दर की बनी एक कमीज थी और एक पायजामा। पैरों में एक मामूली देशी जूता पहनकर काम चलते थे। कहा जाता है कि एकबार दुकान से कुछ सामान खरीदते समय उनकी एक जुटी नाली में गिर गयी थी तो दोसरे दिन वे एक जुटी पुरानी उसके साथ पहनकर कालेज गए। जब पैसे का प्रबन्ध हो गया तब एक नै जुटी खरीद लिए थे। उनकी यह दशा देखकर कुछ मित्र उन्हें यदा कदा थोड़ी बहुत सहायता भी कर दिया करते थे। सन १८९३ ई ० में लिखे गए एक पत्र में उन्होंने लिखा था --झंडामल ने मुझे दो कुर्ते और एक पायजामा दिया है और ज्वालाप्रसाद का कोई भी कपड़ा पहिं लेने की मुझे छूट है। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। 
तीर्थराम के एक निकटतम सहयोगी और उच्चकोटि के विद्वान प्रोफेसर पूर्ण सिंह ने स्वामी जी की छात्रावस्था का वर्णन करते हुए लिखा है --"रात को पढ़ने हेतु दीपक के तेल के लिए वे कभी कभी वस्त्र नहीं बनवाते थे व किसी किसी दिन भोजन भी नहीं करते थे। स्वामी राम की छात्रावस्था में प्रायः ऐसा हुआ है कि वे शाम से सबेरे तक पढ़ने में लीन रहे। वदया का प्रेम इतने जोर से उनके हृदय में मसोसता था कि विद्यार्थी जीवन में साधारण सुख और शारीरिक आवश्यकताएं बिलकुल भूल गयीं थीं। भूख प्यास और सर्दी गर्मी का उनकी इस ज्ञान पिपासा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। गुजरांवाला और लाहौर के जिन लोगों ने उन्हें उस समय देखा था ,उनका कहना है कि शुद्ध चित्त गोस्वामी तीर्थराम दिनरात असहाय और अकेला परिश्रम करता रहता था अर्थात बिना युद्ध के साधनों के जीवन में संग्राम करता था। " 
एकदिन कालेज में प्रिंसिपल ने इनसे पूंछा कि एम० ए० पास करने के बाद क्या करोगे ? तो तीर्थराम ने उत्तर दिया --"यदि कोई इच्छा है तो यही कि अपना सारा जीवन और हर एक साँस प्रभु की सेवा में लगा दूँ और मनुष्य मात्र की सेवा करूँ क्योंकि लोकसेवा ही ईश्वर -सेवा है। "स्वामी राम के ये मनोभाव बतलाते हैं कि एक सच्ची आत्मा में सेवा धर्म पालन करने की कैसी उत्कट अभिलाषा होती है ?जिस विद्यार्थी जीवन में सब कोई ऊँची नौकरी करने की बात करते हैं और भले बुरे सभी उपायों से उसी के लिए प्रयत्न करते रहते हैं ,उस समय तीर्थराम ने स्वयमेव मिलती हुई कलक्टर और जज की नौकरियों की तरफ निगाह भी नहीं डाली। उस समय भारतवासियों की पहुँच अधिक से अधिक इन्हीं पदों तक होती थी और अरविन्द,देशबन्धु दास, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि सर्वोच्च नेताओं के अभिभावकों ने उनको आई सी एस बनाकर इन पदों की ही अभिलाषा की थी। 
तीर्थराम जी ने बचपन से ही परोपकार की सक्रिय साधना प्रारम्भ कर दी थी। जब वे बी०ए०  की परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किये थे तभी उनको ६० रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिलने लग गयी थी जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो गयी किन्तु उन्होंने कभी भी आराम की जिंदगी नहीं गुजारी और न ही सान्सारिक भोगों में प्रवृत्त हुए। यद्यपि उनकी पत्नी साथ में थी तो भी वे धर्मशास्त्रों के नियमानुसार गृहस्थ -धर्म का पालन करने के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का सदैव ध्यान रखते थे। एम् ए में अध्ययन के समय वे गेहूं की रोटी खाना भी छोड़ दिए थे और कई कई दिन केवल दूध पर ही रह जाते थे या उबला हुआ चावल खाकर काम चला लेते थे। उनके ही शब्दों में -"जो लोग अपने पेट को हलुवा पूरी या अन्य बढ़िया समझें जाने वाले भोजन से भरे रहते हैं ,वे प्रतिभाशाली होने पर भी मूर्ख हो जाते हैं। भोजन जितना हल्का होता है दिमाग भी उतना ही काम करता है। इसके अतिरिक्त चित्त की एकाग्रता के लिए दिल की पवित्रता भी बहुत आवश्यक है। जिस विद्यार्थी का दिल पवित्र नहीं है ,जो गन्दे विचारों को मन में स्थान देता है ,वह किसी तरह अपने दिल दिमाग को ऐसी सही हालत में नहीं रख सकता जिससे विद्या और ज्ञान के क्षेत्र  में ऊँचा उठ सके। "
इस प्रकार तीर्थराम जी ने अपना उदाहरण दिखाकर लोगों को यह उपदेश दिया कि जीवन की वास्तविक सफलता बड़े पद पा लेने अथवा भरी चमक-दमक बढ़ लेने में नहीं है। सच्ची प्रसन्नता और शांति वही प् सकता है जो त्याग और परोपकार की जीवन बिताएगा। स्वामी रामतीर्थ में सान्सारिक विभूतियों के त्याग की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। वे उच्च कोटि के प्रतिभाशाली थे और गणित में जिनकी टक्कर लेने वाला उस समय कोई भी नहीं था। अगर वे शिक्षा के क्षेत्र में ही संलग्न रहते तो एक समय वे निश्चय ही अन्य प्रसिद्ध पुरुषों की तरह यश और नाम के साथ धन के अधिकारी भी हो जाते ,पर उनका झुकाव सदा अध्यात्म की ओर अधिक रहा। दूसरों की भलाई और उपकार को सदा वे तैयार रहे और हमेशा यही अभिलाषा रखी कि मुझसे संसार की जो अधिक से अधिक सेवा हो सकती है ,उसमें कमी न रहे।वे सदैव कृष्ण कृष्ण की रट लगाया करते थे। सन १८९७ ई में गुजरात काठियावाड़ की तरफ जगतगुरु शंकराचार्य जी की आगमन हुआ। उस समय स्वामी रामतीर्थ लाहौर की सनातन सभा के मंत्री नियुक्त किये गए थे और शंकराचार्य जी की सेवा का भर उन्ही के ऊपर था। शंकराचार्य जी उनके धर्मभाव को देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उनको अपने साथ रखकर वेदांत की शिक्षा देने लगे। इस भ्रमणकाल में उन्होंने ऋषकेश आदि कई स्थानों में रहकर एकांत में जप -तप और ध्यान भी किया। इसी समय उन्होंने उपनिषदों का भी अध्ययन किया। इससे उनके त्याग -भावना की और भी वृद्धि हुई और उन्होंने सांसारिक बन्धनों की निस्सारता समझकर अपना जीवन पूर्णरूप से धर्मप्रचार में लगा देने का निश्चय कर लिया।   
आगे चलकर स्वामी रामतीर्थ जी ने अद्वैतं  वेदांत का अध्ययन और मनन प्रारम्भ कर दिया और इसी समय उर्दू में एक मासिक पत्रिका "अलिफ़ "निकलना आरम्भ किया। इस समय इनके ऊपर दो महात्माओं का विशेष प्रभाव पड़ा -पहला द्वरिकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य और दूसरा स्वामी विवेकानंद जी का। वर्ष १९०१ ई में तीर्थराम ने लाहौर से अंतिम विदा लेकर परिजनों सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया।अलकनंदा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुंचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। तोहरी के समीप पहुंचकर नगर में प्रवेश करने की बजाय वे कोटि ग्राम के शालमि वृक्ष के नीचे ठहर गए। ग्रीष्मकाल होने के कारण उन्हें यह स्थान सुविधाजनक लगा और एकदिन मध्यरात्रि में वही पर उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ। उनके मन के सभी भ्रम व संशय मिट गए और वहीं पर उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया और वे प्रोफेसर तीर्थराम से स्वामी रामतीर्थ हो गए। उन्होंने द्वारिकापीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूंछ आदि का त्यागकर वहीं पर सन्यास ले लिया तथा अपनी पत्नी व अन्य साथियों को वहां से घर वापस जाने का आदेश दे दिया। 
रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी पुस्तक "मन की लहर "में "युवा सन्यासी "शीर्षक से स्वामी रामतीर्थ के सन्यास लेने पर यह मार्मिक कविता लिखी थी --
             वृद्ध पिता माता की ममता,बिन ब्याही कन्या का भार।
              शिक्षाहीन सुतों की ममता ,पतिव्रता पत्नी का प्यार।
                सन्मित्रों की प्रीति और ,कालेज वालों का निर्मल प्रेम,
                त्याग सभी अनुराग किया,उसने विराग में योगक्षेम।
                प्राणनाथ बालक सुत दुहिता,यूँ ही कहती प्यारी छोडी,
                  हाय! वत्स  वृद्ध के  धन , यूँ  रोती  महतारी  छोड़ी।
                    चिर सहचरी, रियाजी  छोड़ी, रम्यतटी , रावी  छोड़ी।
                     शिखा सूत्र  के साथ, हाय ! उन बोली पंजाबी छोड़ी। 
स्वामी जी ने सांसारिक जीवन त्यागकर सन्यासी हो जाने का निर्णय उसी दीपावली के दिन लिया जिस दिन उनका जन्म हुआ था। यह उनका निर्वाण दिवस था और ईश्वर की माया से उन्होंने अपना शरीर त्याग भी ३३ वर्ष की अवस्था में दीपावली के दिन ही सन १९०६ ई ० में किया था। स्वामी जी के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अन्य व्यक्ति सन्यास लेते समय अपने शिखा सूत्र एवं वस्त्रादि का परित्याग करते हैं किन्तु स्वामी रामतीर्थ ने बौद्धिक विषय अर्थात अपने प्रिय विषय गणित का भी उसी समय परित्याग कर दिया था। वे गणित में स्नातकोत्तर थे और उसी विषय के प्रोफेसर भी थे। पंजाबी उनकी मातृभाषा थी ,पर सन्यास लेने के बाद उन्होंने पंजाबी भाषा का भी परित्याग कर दिया था।सन्यास लेने के बाद वे भारत में हिंदी एवं विदेशों में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करने लगे। छब्बीस वर्ष की अल्पायु में उनका यह त्याग एक उदाहरण बनकर रह गया। सन्यास लेने के बाद उन्होंने कोई भी दैनिक प्रयोग की वस्तु अपने पास नहीं रखी और वे निश्चिन्त होकर उत्तराखण्ड के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। उत्तराखण्ड की विपरीत जलवायु का दुष्प्रभाव उन पर पड़ा तो वे बीमार हो गए थे। इसी समय इनकी मुलाकात श्री नारायण स्वामी से हुई जिनका स्नेह पाकर वे शीघ्र ही स्वस्थ हो गए। श्री नारायण स्वामी बाद में इनके शिष्य बन गए थे और इनके साथ ही रहने भी लगे थे। स्वामी रामतीर्थ के देहावसान के पश्चात श्री नारायण स्वामी ने इनके अधूरे कार्यों को पूर्ण किया और इनके उपदेशों ,भाषणों व अन्य लेखों को प्रकाशित भी कराया था।
मथुरा -यात्रा :-
सन १९०१ के दिसम्बर माह में मथुरा में एक बहुत बड़ा  धर्म -सम्मेलन आयोजित हुआ था जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों ने सहभागिता की थी। उस सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्वामी रामतीर्थ जी को सभापति चुना।  स्वामी जी सभी धर्मों के ज्ञाता थे अतः सभी विद्वान उनको सम्मान की दृष्टि से देखते थे। सम्मेलन के तीसरे दिन स्काट नामक एक पादरी ने हिन्दू-धर्म पर आक्षेप किया तो स्वामी जी ने अपने तर्कपूर्ण शब्दों से उसका समाधान प्रस्तुत करके सभी को हतप्रभ कर दिया था। बाद में उस पादरी ने क्षमा प्रार्थना भी की थी। वसुधैव कुटुम्बकम को भवन से स्वामी जी ने हिन्दू धर्म को सम्पूर्म विश्व में प्रतिष्ठित करके उसकी  सर्वोत्कृष्टता को प्रमाणित भी किया। सम्मेलन अपने नियत समय पर जब समाप्त हो गया तब वहां पर बैठे हुए दर्शक शांतभाव से स्वामी जी के उद्बोधन की प्रतीक्षा करने लगे थे। यह देखकर स्वामी जी ने इन शब्दों से उद्बोधित किया --"सभा का समय तो समाप्त हो चूका है और अब यहां कुछ कहना नियम विरुद्ध होगा। वैसे भी मैं इस चरों तरफ से बन्द  कुछ कहना पसन्द नहीं करता। इसलिए अगर आपको मेरा भाषण सुनना है तो यहां से उठकर यमुना के किनारे भगवान के बनाये शामियाने अर्थात आकाश के नीचे चलिए ,वहीं पर राम अपने खयालात को जाहिर करेगा। "यह कहकर स्वामी जी ने सभा को समाप्त करने की घोषणा कर दी और वहां से सीधे यमुना जी की तरफ चल दिए। समस्त श्रोतागण भी सभामण्डप से उठकर स्वामी जी के पीछे चल पड़े और यमुना जी के तट पर एकांत स्थान पर जाकर बैठ गए। पौष का महीना था और रात्रि के समय यमुना के तट की बालू ठंडी होने लगी थी तब पर भी सभी श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर आठ बजे तक स्वामी जी के वचनामृत का पान करते रहे। मथुरा में स्वामी जी कुछ समय तक एकांतवास करके वहां से  सन १९०२ ई ० के अप्रैल माह में टेहरी पहुँच गए। श्रीनारायण स्वामी भी उनके साथ ही थे। इस समय तक स्वामी जी की ख्याति विदेशों तक फ़ैल चुकी थी। टेहरी में ही टेहरी नरेश ने उनके लिए एक कुटी बनवा दी जिसमें वे कुछ दिनों तक रहे। 
विदेशों में धर्म-प्रचार :-
उन्ही दिनों समाचारपत्र में जापान की राजधानी टोक्यो में एक धर्म सम्मेलन आयोजित होने की खबर छपी थी। इसके पूर्व सन १८९३ ई में एक ऐसा ही धर्म - सम्मेलन अमेरिका में आयोजित हुआ था जिसमें स्वामी विवेकानंद जी ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। अतः टोक्यो में आयोजित धर्म-सम्मेलन में प्रतिनिधित्व हेतु लोगों ने स्वामी रामतीर्थ जी से अनुरोध किया। टेहरी के महाराजा ने यह सुनकर स्वामी  आग्रह किया कि वे जापान जाकर हिन्दू धर्म का प्रचार अवश्य करें। स्वामी जी हिन्दू धर्म की उच्च शिक्षाओं द्वारा विश्व कल्याण की भवन सदैव रखते थे अतः उन्होंने इसके लिए अपनी सहर्ष सहमति प्रदान कर दी। टेहरी के महाराजा ने उनकी जापान यात्रा का प्रबन्ध करवाया। जापान जाते समय जिन जिन बन्दरगाहों पर जहाज रुक ,वहां के हिन्दू व्यापारियों ने स्वामी जी का हार्दिक स्वागत किया। याकोहामा होकर जब वे टोक्यो पहुंचे तो सबसे पहले भारतीय जापानी क्लब में उनकी भेंट सरदार पूर्ण सिंह जी से हुई। पूर्ण सिंह जी जापान में उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु वहां पर गए थे। स्वामी जी वार्तालाप करने के बाद उनके जीवन पर इतना सकारात्मक प्रभाव पड़ा कि वे सिक्ख होते हुए भी स्वामी जी के शिष्य बन गए और अपने केश मुड़ाकर वहीं पर सन्यास लेने की घोषणा कर दी। बाद में सरदार पूर्ण सिंह देहरादून में प्रोफेसर भी रहे और आजीवन स्वामी जी के उपदेशों के प्रचार प्रसार में अपना जीवन समर्पित कर दिया। जापान में स्वामी जी लगभग दो सप्ताह प्रवास किये और इस दौरान वहां पर दिए गए भाषणों को लोगों ने बहुत अधिक पसन्द किया। लोगों का कहना था कि जितनी शांति उन्हें स्वामी जी के उपदेशों से प्राप्त हुई उतनी मैक्समूलर आदि बड़े विद्वानों के भाषणों से भी नहीं मिली। उसी दौरान एक जापानी नागरिक ने स्वामी जी से यह प्रश्न किया कि आपने घरबार और स्त्री बच्चों को क्यों छोड़ दिया ,तब स्वामी जी ने उसे उत्तर दिया था कि अपने छोटे से परिवार को एक बहुत बड़ा विशाल परिवार बनाने के लिए। वास्तव में स्वामी जी संसार के सभी मनुष्यों को चाहे वे किसी भी देश ,जाति व रंग के हों ,आत्मीय समझते थे। वे तो पशु पक्षी को भी आत्मवत मानते थे।  चलते समय उन्होंने वहां के लोगों से कहा था -"-राम जापानी लोगों को क्या  सिखाये ?यह तो सबके सब वेदांती हैं। ये राम की मूर्ति हैं। कैसे हंसमुख हैं। कैसे चुपचाप मेहनत करने वाले हैं ?राम इसी को जीवन का सार समझता है। "   
कहते हैं कि जिस धर्म-सम्मेलन का समाचार सुनकर वे जापान गए थे वह समाचार वास्तव में गलत था। यह ज्ञात होने पर स्वामी जी खूब हंसे थे और कहा था कि मैं तो यहां पर सरदार पूर्ण सिंह का मार्गदर्शन करने आया हूँ। इसके बाद वे वहीं से अमेरिका के लिए प्रस्थान कर दिए थे। अपने अमेरिका प्रवास के दौरान एक दिन उनके पास वहां के एक धनपति  ने आकर स्वामी जी से कहा कि लोग आपको बादशाह कहते हैं किन्तु आपके पास तो कोई भी सम्पत्ति नहीं है। इस पर स्वामी जी ने कहा था कि मेरे पास कुछ भी नहीं है इसीलिए तो मैं बादशाह हूँ। जो गरीब होता है वह संसार के सभी पदार्थों का संचय करता है। तुम भी बटोरते रहते हो इसलिए बादशाह नहीं हो। स्वामी जी की यह बात उस धनपति के मन में बैठ गयी और वह सोचने लगा कि धन्य है भारतवर्ष  जहां त्याग का इतना महत्व है। जो इच्छाओं का दास है वह बादशाह कैसे बन सकता है ?अमेरिका में स्वामी जी के सैकड़ों व्याख्यान हुए और लोगों ने उन्हें बहुत ही तन्मयता से सुना। कई लोग उनके शिष्य भी बन गए। मिसेज वाइटमन नामक एक महिला ने स्वामी जी के भाषणों पर कई लेख लिख डाले थे और उसे प्रकाशित भी करवाया था। एक दूसरी वृद्ध महिला श्रीमती वैलमन भी अपने मानसिक कष्टों से छुटकारा पाने के लिए स्वामी जी की शरण में आयी थी। पहले तो वह स्वामी जी को ध्यान और मौन अवस्था में बैठा हुआ देखकर कुछ विचलित हुई किन्तु स्वामी जी के उसे मां सम्बोधन करने पर वह उनके निकट बैठ गयी थी। स्वामी जी तभी ॐ का जप करने लगे थे और वह महिला उनका मन ही मन अनुसरण करनने लगी थी। उसके मनोभाव स्वयं परिवर्तित होने लगे। बाद में वह स्वामी जी की शिष्य बनकर भारतवर्ष आयी और स्वामी जी के जन्म स्थान जाकर वहां पर ग्रामवासियों से मुलाकात की थी। वहां से देहरादून आकर उसने सरदार पूर्ण सिंह से अपना अनुभव इस प्रकार व्यक्त किया था --"स्वामी जी की दृष्टि से मुझमें एक न्य जीवन आया। मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि मैं जमीन से उठकर हवा में रौशनी की तरह उड़ रहीं हूँ। उस समय मैंने अनुभव किया कि मैं जगत की मां हूँ। सभी देश मेरे हैं। सभी लोग मेरे बच्चे हैं। मेरे दिल में इतना आनंद आया कि भारत देखने की इच्छा हो आयी। ॐ शब्द मेरी हड्डियों में गूंजता है। मां का शब्द मुझे भगवान तक ले जाता है। मैं चाहती हूँ कि मैं उनके पैरों को पूजूँ और जो आनंद उन्होंने मुझे दिया है ,उसी में समा रहीं हूँ। मेरे अंदर अमृतस्रोत  बहने लग गए है जिससे मेरा सब मल दूर होकर मैं पवित्र हो गयी हूँ। "
स्वामी जी ने अपने अमेरिका के प्रवास के दौरान अपने सम्बोधन में कहा था -"संसार की सभ्य कौमें भी भेदभाव की जंजीरों में बंधीं हुई हैं। सबको अपनाने के बजाय वे लोग गरीबों से दूर हरते और प्रकृति के सहवास से हटकर बन्द कमरों में समय बिताना पसन्द करते हैं। उन्नति का असली उद्देश्य नीति व धर्म की रह पर आगे बढ़ना है। संसार का धन बटोर लेना या निकम्मी आवश्यकताओं को बढ़ लेना असली उन्नति नहीं है। योरोप और अमेरिका के लोग रुपया जमा करने के लोभ में फंसे हुए हैं।धन का लोभ ईश्वर दर्शन में सबसे बड़ी रुकावट है।"अमेरिका से लौटते समय वे रोम योरोप के रस्ते मिस्र पहुंचे और वहां भी कुछ दिनों तक ठहरे। इसी समय मिस्र में इस्लाम का प्रचार था जबकि किसी समय वहां पर भारत की प्राचीन सभ्यता का बोलबाला था। इन दोनों देशों का सम्बन्ध वैदिककाल  में भी था और आर्यों की किसी शाखा ने ही यहां पर प्रचार किया था। बाद में यहूदी और ईसाई धर्म का आविर्भाव होने से उसमें परिवर्तन हो गए और मुसलमानों ने तो तलवार के जोर से उसे पूरी तरह अपने धर्म में मिलाने की चेष्टा की। जिस समय स्वामी जी जापान होकर अमेरिका जा रहे थे तो रस्ते में जहाज पर किसी अमेरिकन ने उनसे प्रश्न किया कि स्वामी जी आपका सामान कहाँ है ?तब उन्होंने उत्तर दिया था कि मेरे शरीर पर जितना सामान है बस यही मेरा सामान है। फिर उसने पूंछा कि अमेरिका में आप का कोई मित्र है ?यह सुनकर स्वामी जी ने कहा कि मैं तो केवल आपको ही जानता हूँ और आप ही मेरे मित्र हैं। स्वामी जी के इस आत्मीयतापूर्ण उत्तर कसुनकर वह अमेरिकन जिसका नाम हिल्लर था ,चकित हो गया और उसी क्षण उनका शिष्य बन गया। वह उन्हें अपने साथ घर ले गया तथा दो वर्षों तक उसने स्वामी जी को अपने पास ही रखा। 
अमेरिका में ही एक महिला एक दिन स्वामी जी से मिलने आयी और अपने बच्चे की मृत्यु से उत्पन्न दुःख को दूर करने का उपाय स्वामी जी से जानना चाही तब स्वामी जी ने कहा कि राम ख़ुशी बेचता है पर तुम्हें उसकी कीमत देनी होगी। महिला तुरन्त तैयार हो गयी तो उन्होंने कहा -बहुत अच्छा,उस छोटे गरीब हब्सी बच्चे को ले लो  अपने बच्चे की तरह प्यार करो तथा उसका पालन पोषण करो। ख़ुशी प्राप्त करने का बस यही इलाज है। महिला ने कहा -ओह,यह तो बहुत मुश्किल है। स्वामी जी के पुनः समझाने पर बात उसकी समझ में आ गयी और उसने उस अश्वेत बच्चे को अपना बना लिया और कुछ दिन बाद वह अपना दुःख धीरे धीरे भूलने लगी। ये दोनों घटनाएं यह बतलाती हैं कि स्वामी जी आत्मसत्ता के इतना  निकट पहुँच गए थे जहां मनुष्य को कोई भी पराया नहीं जान पड़ता। उन्हें सब जगह एक ही आत्मा का अस्तित्व और प्रभाव दिखाई पड़ता था।  
स्वदेश आगमन एवं व्यावहारिक वेदान्त का प्रचार :-
सन १९०४ में स्वदेश लौटने पर लोगों ने स्वामी जी से अपना एक समाज बनाने का आग्रह किया तब उन्होंने कहा था कि भारत में जितनी भी सभ्य समाजें हैं ,सब राम की अपनी हैं। राम मतैक्य के लिए है मदभेद के लिए नहीं। देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की ,राष्ट्रधर्म और विज्ञानं की ,संयम और ब्रह्मचर्य की। टेहरी से उनका अगाध प्रेम था इसीलिए वे स्वदेश लौटने पर पुनः टेहरी आये। टेहरी उनकी आध्यात्मिक प्रेरणास्थली थी और वही उनकी मोक्षस्थली भी बनी सन १९०६ की दीपावली के पवन पर्व पर उन्होंने मृत्यु के नाम एक सन्देश लिखकर गंगा में जलसमाधि ले ली थी। यद्यपि स्वामी जी एक कुशल तैराक भी थे किन्तु जब गंगा में स्नान करने जाते समय उनका पैर फिसल गया था  तो वे गंगा की तेज धारा के साथ ही बह चले थे। शायद ऐसा उनके कुछ दिनों से अस्वस्थता के कारण से हुआ था  कि वे अपने को सम्भाल नहीं पाए।स्वामी जी को  देह की  नश्वरता ,आत्मा की अमरता की भावना  का अनुभव निरन्तर होता रहता था और वे मृत्यु  करने को सदैव प्रस्तुत रहते थे। जलसमाधि लेने के दिन भी उन्होंने ये पंक्तियाँ लिखी थी --"मुझे मृत्यु का कुछ भय नहीं है। मुझे तो सेवा करने की धुन है। जहां जिस रूप में रहूंगा ,कर्तव्यपालन करता रहूंगा। इस शरीर का बन्धन मुझे अपने में बांधकर नहीं रख सकता। मौत जब चाहे इसको ले जाये। मेरे पास व्यवहार करने के अनेक शरीर हैं। मैं सदा उनमें रहकर लोगों की सेवा करूँगा ,रोतों को हँसाऊँगा और हँसतों को और भी प्रसन्न करूँगा। "
उक्त कथन से स्वतः स्पष्ट है कि स्वामी जी ने आत्मतत्व को पूरी तरह से समझ लिया था और वे इस शरीर की उपयोगिता तभी तक समझते थे जब तक इसके द्वारा संसार की सेवा और कर्तव्यपालन होता रहे। जब उन्होंने अनुभव किया कि अस्वस्थता के कारण हम इसके द्वारा दूसरों की सेवा करने के बजाय उनसे अपनी ही सेवा कृते रहेंगे ,तो उन्होंने तुरन्त इसको बदल डाला। वे वास्तव में ऐसी जीवन्मुक्त स्थिति में पहुंचे हुए महापुरुष थे जिनके लिए जीवन और मृत्यु में कोई अन्तर नहीं होता। स्वामी जी के ये विचार मृत्यु के अवसर पर नहीं थे वर्ण अमेरिका में भी वे लोगों को यही उपदेश दिया करते थे। उनके देहावसान के बाद एक अमेरिकन शिष्य ने पूर्ण सिंह जी को अपने एक पत्र में लिखा था --"राम सदा हम लोगों से कहा करते थे कि हर घड़ी ऐसा अनुभव करो कि जो शक्ति सूर्य और नक्षत्रों में अपने को प्रकट करती है ,वही मैं हूँ ,वही तुम हो। इस वास्तविक आत्मा को अर्थात अपने गौरव को सोचो ,ऐसे अमर जीवन का चिंतन करो ,अपनी इस असली सुंदरता पर मनन करो और तुच्छ शरीर के समस्त विचार्रों तथा बन्धनों को साफ भूल जाओ ,मानों तुम्हारा इन मिथ्या और दिखाऊ बातों में कभी कोई सम्पर्क नहीं था। न कोई मृत्यु है ,न रोग न शोक। पूर्ण आनन्दमय जीवन पर नित्य ध्यान दो। पूर्ण मंगलमय पूर्ण शान्तिमय बनो। "
अद्वैतवादी चिन्तक  :-
स्वामी रामतीर्थ शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे किन्तु उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना। वे कहते हैं --हमें धर्म और दर्शनशास्त्र को भौतिक विज्ञानं की भांति पढना चाहिए। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित है। उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति में भी सत ,चित और आनन्द रूप से विद्यमान है। वही वास्तविक आत्मा है। वे विकासवाद के समर्थक थे। वे आनन्दवाद को ही जीवन का लक्ष्य मानते थे किन्तु जीवनपर्यन्त वे इसके श्रोत में परिवर्तन करते रहे। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते थे तो कभी किसी व्यक्ति में। वे आत्मा को ही आनंद का श्रोत मानते थे। उस आनंद के लिए वे प्राणों का भी उत्सर्ग करने को तत्पर दिखते थे।उनका कहना था कि जबसे भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारम्भ किया तभी से वे पतनोन्मुख हो गए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है और उसे देश एवं काल के अनुसार बदलना चाहिए। श्रम - विभाजन के आधार पर वर्ण व्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी पर आज हमने उसके नियमों को अटल बनाकर समाज के टुकड़े टुकड़े कर दिए हैं। आज देश के सामने एक ही धर्म है -राष्ट्रधर्म। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिए। उन्होंने भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी की थी -"चाहे एक शरीर द्वारा ,चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बींसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। "  
स्वामी रामतीर्थ जी वेदांती के नाम से भी जाने जाते हैं।कुछ लोग कहते हैं कि वेदांत निराशावाद की शिक्षा देता है किन्तु स्वामी जी का उनसे यह कथन था कि अपना तर्क वे अपने पास ही रखें और दूसरों के हाथ अपनी बुद्धि न बेंचें। वे अपनी बुद्धि को स्थिर रखते हुए विचार करें कि वेदांत की शिक्षा जीवन-शक्ति,उद्योग,सफलता का कारण होती है या किसी और चीज का ?यह प्रश्न मत करो कि भारत के निवासी इसका व्यवहार करते हैं या नहीं ?उनका कहना था कि "वेदांत केवल भारतीयों की सम्पत्ति नहीं है बल्कि उस पर पूरे विश्व का अधिकार है। उनका मत था कि वेदांत और योग की प्राप्ति के लिए आपको जंगलों में जाने और असाधारण कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। जब तुम कर्म में डूबे हुए हों ,जब किसी कर्तव्यपालन में पूर्णतः लीन हों तब समझ लो कि तुम योगीजनक हो ,तुम स्वयं शिव हो। वेदांत के अनुसार शरीर तुम्हारा है आत्मा नहीं। क्या आप यह नहीं देखते कि आप तभी अत्युत्तम कार्य कर दिखाते हैं जब आप उसमें इतने अधिक तन्मय हो जाएँ कि शरीर और मन का ध्यान ही न रहे।" उन्होंने देश एवं विदेश के भ्रमण के दौरान लोगों को वेदांत के मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। स्वामी जी का वेदांत जगत को मिथ्या कहकर भिक्षा मांगने अथवा लोगों को ठगने से अलग हटकर था। उनका कथन था कि वेदांत के अनुसार तो अत्यंत कार्य करना ही विश्राम है। यद्यपि यह कथन विरोधाभाषी प्रतीत होता है किन्तु इसका आशय सच्चे कार्य करने से है। स्वामी जी ने सफलता के मार्ग पर चलने हेतु निम्नांकित सात महत्वपूर्ण साधन बताये हैं :-
१-कार्य :-वेदांत के अनुसार मनुष्य को  समय उसमें इस प्रकार निमग्न हो जाना चाहिए कि अपने आप का भी ध्यान न रहे। सभी महान कार्य तभी पूरे होते हैं जब मनुष्य अहंभाव से ऊपर उठकर अपने को सर्वतोभावेन उसमें लगा दे। एक सैनिक जब युद्धक्षेत्र में लड़ता है तो वह अपने लक्ष्य के प्रति इतने तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने शरीर की सुधि नहीं रह जाती। इसी प्रकार कोई भी लेखक या कवि उस समय उच्च कोटि की रचना कर सकता है जब अन्य सभी बातों को छोड़कर वह तन्मयता का आश्रय ले लेता है। इसीलिए सफलता का पहला रहस्य यही है कि यदि तुम निश्चितरूप से सफल होना चाहते हो तो अन्य बातों को छोड़कर अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसी में लगा दो। 
२-त्याग :-त्याग ही संसार को जीवित और सक्रिय रखने का मुख्य साधन है। जो लोग द्रव्य संग्रह करने में लगे रहते हैं उनको उसकी रक्षा में ही ज्यादा समय लगाना पड़ता है। लोकहितार्थ त्याग करने वाला सदा निर्भय होकर विचरता है और उसे विघ्न बाधाओं का भी सामना नहीं करना पड़ता है। 
३- प्रेम :-सफलता का तीसरा सिद्धांत है प्रेम। इसका आशय है कि विश्व से एकता ,परिस्थिति के अनुकूल वातावरण। प्रेम का अर्थ है अपने निकटवर्ती अथवा अन्य संसर्ग में आने वाले से अपनी एकता और अभेदता का अनुभव करना। स्वामी जी के अनुसार दुनिया में कोई भी पराया नहीं है। यदि किसी में प्रेम भाव नहीं है तो अन्य गुण रहते हुए भी वह जीवन के मार्ग पर सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है। 
४- प्रसन्नता :-वेदांत यह शिक्षा देता है कि तुम अपने शरीर को ही सबकुछ मत समझो। यह तो अन्य बाह्य वस्तुओं की तरह ही एक वस्तु है। यदि बाह्य वस्तुओं से मोह का त्याग हो जाये तो उसे कभी भी कष्ट की अनुभूति नहीं हो सकती है। संसार के नाते रिश्तों का कोई भी महत्व नहीं है। अतः जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं का मोह त्यागकर समव्यवहार करता है ,वही सदा प्रसन्न रह सकेगा। 
५-निर्भयता :-सांसारिक जीवन की सफलता के लिए निर्भयता बहुमूल्य गुण माना जाता है।सदा भयभीत रहने वाला मनुष्य प्रत्येक कार्य में हाथ डालते ही संशयग्रस्त हो जाता है जिससे उसकी सफलता भी संदिग्ध हो जाती है।जो मनुष्य अपनी आत्मा को जितना अधिक पहचान ले वह निर्भयता के उतने ही निकट जा सकेगा। एक बार स्वामी जी की भेंट हिमालय क्षेत्र में किसी रीछ से हो गयी किन्तु स्वामी जी उसे देखकर भयभीत नहीं हुए बल्कि उन्होंने अपने को ब्रह्म मानते हुए अपनी आँखें फाड़कर रीछ की ओर अपलक देखने लगे और रीक्ष यह देखकर तुरन्त भाग निकला। अतः मनुष्य को अपनी आत्मशक्ति के प्रति सचेष्ट रहते हुए निर्भयता का प्रदर्शन करना चाहिए। 
६-आत्म विश्वास :-स्वयं पर पूर्ण विश्वास सफलता प्राप्त करने में सहायक होती है। उदाहरण के लिए आकार की दृष्टि से हाथी पहाड़ जैसा लगता है और उसके मुकाबले में सिंह का आकार बहुत ही छोटा होता है किन्तु सिंह को देखकर हाथियों का पूरा दल तुरन्त भाग निकलता है। अतः वेदांत का मन्तव्य है कि मनुष्य अपने को किसी से कम न समझे। वह अपने को शक्तिशाली और ब्रह्म का अंश समझे तो सफलता अवश्यम्भावी हो जाएगी। 
७-पवित्रता :-सफलता के लिए पवित्रता का होना भी अनिवार्य है। अपवित्र विचारों व कार्यों से व्यक्ति घृणा का पात्र बन सकता है। चाहे वह विद्वान व शूरवीर ही क्यों न हो। अतः पवित्रता  आत्मिक बल मिलता है और आत्मिक बल सफलता का आधार बन जाती है। 
देशभक्ति एवं समाजसेवा :-स्वामी रामतीर्थ जी ने किसी मिशन या संस्था की स्थापना नहीं की थी। उनसे जब इस सम्बन्ध में किसी ने पूंछा तो वे प्रायः यही उत्तर दिया करते थे कि "दुनिया में जो इतने कार्यकर्ता,सभाएं और संस्थाएं कार्य कर रहीं हैं ,वे सब मेरी ही हैं। असंख्य संस्था खड़ी करने की क्या आवश्यकता है ?"चूँकि स्वामी जी की  अल्पायु में ही आकस्मिक मृत्यु हुई थी अतः वे इस प्रकार की कोई कार्ययोजना नहीं बना सके थे। स्वामी जी अपने देश और देश के लोगों से अगाध प्रेम करते थे। उनके लिए सम्पूर्ण विश्व  कुटुंब की तरह था। उन्होंने जीवनभर परोपकार एवं दीनदुखियों की सेवा करने का ही उपदेश दिया। स्वामी जी की प्रेरणा से उस समय लाखों लोगों ने अपने जीवन में आशातीत सुधार ले आया था। ईश्वरीय सत्ता के उच्च स्तर पर पहुंचे हुए अधिकांश साधक कार्यरूप में जनता का मार्गदर्शन करने के बजाय विचारों द्वारा ही परिस्थितियों को बदलने का कार्य किया है। इसीलिए स्वामी जी ने कालेज की शिक्षा समाप्त करके उच्च सरकारी अधिकारी बनने की अपेक्षा अध्यापन का कार्य करना अधिक उचित समझा। जिसके द्वारा बहुसंख्यक विद्यार्थियों को आत्मोत्थान की शिक्षा देने का उन्हें अवसर मिला। इसके बाद जब उनका आत्मिक स्तर और ऊंचा हो गया तो उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़कर सन्यास ग्रहण कर लिया जिसका उदेश्य समस्त समाज को सत्य,धर्म,कर्तव्य का उपदेश देना था। उनका कथन था कि समयानुकूल परिवर्तन से घृणा मत करो और न पुरानी रीतियों तथा वंश-परम्परा पर अधिक जोर दो क्योंकि ये सभी मनुष्यता से गिराने वाली हैं। उन्होंने नारी उत्थान पर भी विशेष बल देते हुए स्त्रियों को निर्जीव पदार्थ मानने का विरोध किया था। उन्होंने देखा कि उद्योगहीनता,ऊँचनीच का भेदभाव,अहंकार,धर्म के नाम पर कुसंस्कारों को प्रोत्साहन और पाखण्डों का पालन आदि ऐसे दोष हैं जिनके कारण भारतवासी अवनति के गड्ढे में पड़े हैं। उनके अनुसार सर्वोपरि श्रेष्ठ दान जो आप किसी को दे सकते हैं वह विद्या या ज्ञान का दान है। आप किसी को आज भोजन दे दें फिरभी वह दूसरे दिन पुनः भूखा हो जायेगा। अतः आप उसे कोई ऐसी कला सीखा दें जिससे वह जीवनपर्यन्त अपनी जीविका को चला सके। धर्म का सारतत्व है अपने ऊपर से पर्दा हटाना अर्थात अपने आपका रहस्य समझना। सच्चे धर्म का आशय ईश्वर शब्द पर विश्वास करने से पहले भलाई पर विश्वास करना है। इस प्रकार स्वामी रामतीर्थ जी ने देश में यथार्थ ज्ञान की वह ज्योति जलाई जिसके प्रकाश में हमारी अकर्मण्यता और अन्धविश्वास दोनों का निराकरण होकर आत्मोद्धार के दर्शन होने लगे। स्वामी जी के उपदेश व उनके द्वारा बताये मार्ग हमेशा भारतवासियों के कल्याण के पथ को प्रशस्त करता रहेगा।                           

Tuesday, July 26, 2016

सन्त रानडे

  सन्त रानडे का जन्म ३ जुलाई सन् १८८६ ई० को जमखण्डी के एक सत्वशील कुल में हुआ था। इनकी माता पार्वती देवी ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जमखण्डी के पास स्थित रामेश्वर की सेवा की थी और उनकी सेवा सफल होकर मानों रामेश्वर के वरदपुत्र राम ही जन्म लेकर कर्नाटक प्रदेश के बीजापुर जिले में जमखण्डी की पावनभूमि पर अवतीर्ण हुए। माता की आध्यात्मिक संरक्षता में बालक का उत्तरोत्तर पथप्रदर्शन हुआ। नन्देश्वर मन्दिर के प्रमुख स्वामी जी ने रानडे को सदाचार एवं उन्नति के पथ पर अग्र्सित किया। इनकी माता भावविभोर होकर प्रायः कह उठती थी कि मेरे प्रिय ,तुम वास्तव में मेरी गोद में एक सन्त के रूप में पैदा हुए हो। रानडे के पिता श्री दत्तोपन्त ने स्वामी जी से ही बालक का नामकरण करवाया। रामेश्वर जी की कृपा होने के कारण इनका नाम रामचन्द्र रखा गया। बचपन में माता -पिता इन्हें प्यार में रामभाऊ कहकर पुकारा करते थे। आरम्भ से ही रामभाऊ में प्रबल आध्यात्मिक सम्भावनायें प्रकट होने लगीं। बाल्यकाल में वे जब कभी कोई तुलसी का पौधा,बेल का वृक्ष अथवा गाय को देखते थे ,तो उसे ईश्वरत्व का प्रतीक समझकर सिर झुकाया करते थे। 
इनकी शिक्षा का श्रीगणेश जमखण्डी में ही स्थित प्राइमरी पाठशाला से हुआ। प्राइमरी की शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद बड़ी बहन एवं माता जी की संरक्षता में इन्होने परशुराम भाउ हाईस्कूल में प्रवेश लिया। जब वे मैट्रिक के पूर्व के विद्यार्थी थे तभी इन्हें कई बार लोगो ने कक्षा के बाहर स्थित पहाड़ियों को एकाग्रचित्त होकर देखते हुए पाया। अतः इस बालक को सन् १९०१ ई में बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन पन्द्रह वर्ष की आयु में ही समर्थ भाऊ साहब महराज उमादि  ने ईश्वर नाम का नामस्मरण मन्त्र देकर परमार्थ पथ पर अग्रसित होने के लिए दीक्षित कर लिया। विद्यार्थी जीवन में रानडे बहुत ही योग्य एवं मेधावी छात्र रहे और इन्हें प्रथम शंकर सेठ छात्रवृत्ति मैट्रिक के उपरान्त मिली थी तथा मैट्रिक की परीक्षा में इनका दूसरा स्थान रहा। इस सफलता के बाद गुरु के सीधे सम्पर्क में आ जाने के कारण इनकी गुरुभक्ति दृढ़तर होती गई और साधना गंभीरतर। मैट्रिक के बाद आगे की शिक्षा के लिए इनका नाम डेक्कन कालेज पूना में लिखवाया गया। यहां आकर इन्होने अपने विद्यार्थी जीवन को अधिक सफल बनाने का प्रयत्न किया और इन्हें अपूर्व सफलता भी मिली। रानडे आरम्भ से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के छात्र रहे तभी तो इनके अंग्रेजी के अध्यापक ने कहा था कि यह एक मेधावी छात्र हैं और इनका उत्तर मौलिक एव अनुकरणीय है। नियमतः इसी लिए इन्हें सर्वाधिक अंक मिलते हैं। यहीं से रानडे ने इंटर की प्रथम एवं द्वितीय वर्ष की परीक्षाएं प्रत्म श्रेणी में उत्तीर्ण की। बी ० ए ० में इन्होने गणित विषय लेकर उच्च सफलता प्राप्त की। इसी बीच एक लम्बी एवं गम्भीर बीमारी इनके पोस्टग्रेजुएट अध्ययन में बाधक बन गई जिससे अप्रतिहत रामभाऊ ने अपने जीवन को एक नई दिशा की ओर मोड़ दिया और अपने गुरु पर अविचल श्रद्धा रखकर सतत गम्भीरतम साधना में लीन रहने लगे। 
सन् १९१३ ई ० में रानडे डेक्कन कालेज में संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट के क्यूरेटर के रूप में नियुक्त हुए किन्तु इसे कुछ कारणवश उपयुक्त नहीं समझा। अतः उन्होंने पुनः डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी में प्रवेश ले लिया और १९१४ ई में इसके आजीवन सदस्य बन गए। इसी वर्ष इन्होने दर्शन विषय लेकर एम० ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसपर इन्हें चांसलर का स्वर्णपदक व के ० टी ० तेलंग पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इसके पश्चात रानडे दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप में फर्गुसा कालेज में नियुक्त हो गए और दस वर्ष तक उसी पद पर बने रहे। इसी बीच सन् १९२० ई में इन्हें पुनः गम्भीर बीमारी का सामना करना पड़ा। सन् १९२६ ई में रानडे की पुस्तक" ए कंस्ट्रक्टिव सर्वे आफ उपनिषदिक फिलासफी "अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई। इस ग्रन्थ के माध्यम से रानडे को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई और इसी ग्रन्थ के प्रभाव से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति डॉ गंगनाथ झा के मन में रानडे के प्रति श्रद्धाभाव जागृत हुआ और उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष पद के लिए इन्हें आमन्त्रित किया। यद्यपि यह पद सम्माननीय होने के साथ ही आर्थिक दृष्टिकोण से भी उपयुक्त था तथापि रानडे ने इलाहाबाद की जलवायु  अपने शारीरिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से उपयुक्त समझने के पश्चात ही अपनी स्वीकृति प्रदान की। बाद में रानडे कुछ समय के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद को भी सम्मानित किया। अवकाश प्राप्त होने पर भी वे विश्वविद्यालय के एमिरेट्स प्रोफ़ेसर के सम्मान से विभूषित किये गए तथा यहीं से डी ० लिट ० की उपाधि भी इन्हें ससम्मान प्रदान की गई।
साधना-पथ :- 
सन् १९४६ ई में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होकर रानडे निम्बाल चले गए और वहीं पर एक छोटे से आश्रम में रहने लगे। वहां पर कर्नाटक प्रदेश ,महाराष्ट्र एवं इलाहाबाद से सैकड़ों लोग प्रतिदिन इनसे मिलने के लिए आया करते थे। इसी बीच वे पुनः अस्वस्थ हुए। अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए वे किसी प्रकार की औषधि का सेवन स्वीकार नहीं करते थे  सिर्फ गंगाजल का सेवन करके इन्होने आरोग्य की कामना की। जीवन के अंतिम चार दिनों में इन्होने अन्नजल दोनों का परित्याग कर दिया था फिरभी अंत तक वे पूर्णतः स्वस्थ एवं जाग्रत रहे। दिनांक ६ जून १९५६ ई को अपने हाथों जितना देवकार्य सम्भव था करके शांतचित्त से ध्यानमग्न अवस्था में निम्बाल में ही शरीर का परित्याग कर महासमाधि प्राप्त की।रानडे के साधना मार्ग एवं सिद्धि के सन्दर्भ में एक प्रसंग उल्लेखनीय है जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष थे उसी दौरान वे अपनी मोटर कार से कहीं जा रहे थे और रास्ते में किसी वीरान स्थान पर कार अचानक खराब हो गयी तब कार चालक ने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। रानडे जी ने कार चालक से कहा  कि वे थोड़ी देर तक यहीं पर साधना कर रहें हैं इस बीच तुम बोनट खोलकर देख लो कि क्या खराबी आयी है। साधना से उठने के बाद रानडे जी ने कहा देखो शायद मोटर ठीक हो गयी है। कार चालक ने ज्योंहि  मोटर स्टार्ट की तो मोटर चल पड़ी।इस प्रसंग से उनकी साधना की परिपक्वता की पुष्टि होती है।     
रानडे की दार्शनिक एवं रहस्यवादी प्रवृत्ति का ज्ञान उनके इस कथन से होता -"प्रारम्भ से ही आध्यात्मिक जीवन मेरा लक्ष्य रहा है , आशा है यही उपसंहार भी होगा। " रानडे का बचपन ही ऐसे आध्यात्मिक वातावरण में व्यतीत हुआ जिसमें दार्शनिक सम्भावनाएं स्वयं इनके मन में जाग्रत हुई। इस जाग्रति का क्रमशः विकास उन्हें रहस्यवाद की गहनतम अनुभूतियों तक ले गया। अपने विद्यार्थी जीवनकाल  में ही रानडे ने विवेकानंद , रामकृष्ण परमहंस जैसे चिंतकों के विचारों को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। प्राइमरी शिक्षा के बाद इन्होने तुकाराम ,ज्ञानदेव ,नामदेव ,एकनाथ एवं रामदास जैसे उच्चकोटि के संतों के उपदेशों एवं गर्न्थों को पढ़ा था। इस अध्ययन के प्रभाव से रानडे के मन पर इतना प्रभावकारी सिद्ध हुआ कि वे आजीवन सन्त बनने का ही प्रयास करते रहे। इन संतों की वाणियों को ईश्वरीय सन्देश के रूप में स्वीकार किया और स्वयं भी उच्च कोटि की साधना को अपनाकर परम साक्षात्कार की ओर उन्मुख हुए।
दार्शनिक पृष्ठभूमि :-
 रानडे अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति का श्रेय वैदिक एवं औपनिषदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित मंत्रों एवं ऋचाओं को देते हैं। इनमें वे रहस्यवाद के बीज पूर्व निहित मानते हैं।रानडे के अनुसार ईश्वरानुभूति एक व्यापक एवं सतत प्रक्रिया है। इसके लिए उन्होंने पांच विभिन्न सोपानों का वर्णन किया है :-प्रथम सोपान आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने की प्रेरणा ,दूसरा सोपान नैतिक तैयारी ,तीसरा सोपान साधक और साध्य का सम्बन्ध ,चौथा सोपानआध्यात्मिक यात्रा का शुभारम्भ और पाँचवा सोपान चरम उपलब्धि जिसमें साधक सिद्धि प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करता है  और साध्य में विलीन हो जाता है। रानडे आत्मानुभूति को ही मोक्ष मानते हैं। उनके लिए यह कोई घटना नहीं है बल्कि एक सतत प्रक्रिया है। इसे ही उन्होंने स्वानुभूति की संज्ञा दी। यही स्वानुभूति आगे चलकर आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। .इस स्वानुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत समाप्त हो जाता है। रानडे ने इसी प्रक्रिया से प्रभावित होकर अपने दर्शन को आनन्दवाद कहा।    
रहस्यवादी दर्शन के प्रणयन में रानडे ने धर्म एवं दर्शन के मूलतत्वों की प्रमाणिकता की जाँच बहुत ही सजग होकर की है। सर्वप्रथम वे तत्कालीन धार्मिक विचारों से प्रभावित हुए। पूर्व संस्कार एवं आध्यात्मिक परिवेश के कारण वे दर्शन की अपेक्षा रहस्यवाद के सम्पर्क में आ गए। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि दर्शनशास्त्र द्वारा निर्देशित तर्कप्रधान एवं बौद्धिक प्रयास की अपेक्षा रहस्यवाद का अनुभूति प्रधान मार्ग अधिक प्रमाणिक है। सर्वप्रथम उन्होंने इसे व्यावहारिक मार्ग के रूप में लिया क्योंकि इसमें तर्क एवं बौद्धिक विश्लेषण की प्रधानता नहीं थी। यह मार्ग आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करता है जिसके परिणामस्वरूप सहज ही द्वैतभाव विनष्ट होकर परम सत्य का साक्षात्कार करता है। अतः रानडे के अंतः प्रज्ञात्मक व आत्मानुभूतिवादी  पूर्व अन्य प्रमाणों का अध्ययन आवश्यक है। रानडे के शब्दों में -"जब शब्द ब्रह्म साक्षात्कार की अन्तःवृत्ति के स्वरूप का यथार्थ निर्देशन करने में असफल रहते हैं तो सुविधा के लिए मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक शब्द बुद्धि अथवा अंतर्ज्ञान कुछ भी कह लीजिए ,आविष्कृत कर लेना और उसे ब्रह्म साक्षात्कार का उत्तरदायी बनाना उपयुक्त है। 
रानडे वेद ,उपनिषद एवं भगवदगीता का सम्यक अध्ययन किया और इस अध्ययन के पश्चात उन्होंने उनकी  व्याख्या अपने ढंग से की। रानडे द्वारा लिखीं गई पुस्तकों के विवरण निम्नवत हैं --
  १-   ए कंस्ट्रक्टिव सर्वे आफ उपनिषदिक फिलॉसफी---    प्रकाशक -भारतीय विद्याभवन  १९२७ ई ० । 
  २-हिस्ट्री आफ इंडियन फिलॉसफी-  प्रकाशक -आर्यभूषण प्रेस पूना १९३३ ई ०। 
   ३ -मिस्टीसिज्म इन महाराष्ट्र        "
     ४ -पाथ वे टू गॉड इन हिंदी लिटरेचर - प्रकाशक अध्यात्म विद्या मंदिर सांगली १९५४ ई ०  . 
    ५ -पाथ  वे टु गॉड इन कन्नड़ लिटरेचर -प्रकाशक  भारतीय विद्या भवन बम्बई १९६० ई। 
  ६ -एस्सेज एन्ड रेफ्लेक्सन - प्रकाशक  भारतीय विद्या भवन बम्बई १९६४ ई ०। 
   ७- द  भगवदगीता एज ए फिलॉसफी आफ़ गाड़ रियलाइजेशन  नागपुर विश्व विद्यालय १९५९ ई ०। 
  ८- वेदान्त द कल्मिनेशन आफ इंडियन थॉट  प्रकाशक -भारतीय विद्या भवन १९७० ई ०। 
 ९- फिलॉसफी एण्ड अदर एस्सेज  -प्रकाशक -गुरुदेव सत्कार समिति जमखंडी १९५६ ई ०। 
१०- द  कन्सेप्शन आफ स्प्रिचुअल लाइफ इन महात्मा गांधी एन्ड हिंदी सेंट्स - प्रकाशक -गुजरात विद्या सभा  १९५६ ई ०                                                                                                                                                      
११ -परमार्थ सोपान  प्रकाशक --अध्यात्म विद्या मंदिर सांगली १९५४ ई ०             

Tuesday, July 19, 2016

पण्डित गोपीनाथ कविराज


  .जीवन-परिचय :--
 महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ कविराज का जन्म पूर्व बंग सम्प्रति बंगलादेश के ढाका जनपद के धमराई ग्राम में ०७ सितम्बर १८८७ ई ० को हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित बैकुंठनाथ बागची था तथा माता का नाम सुखदा सुन्दरी देवी था। इनकी  प्रारम्भिक शिक्षा इनके पिता के ननिहाल कंटालिया में हुई थी ततपश्चात धमराई के इंग्लिश स्कूल में प्रवेश लिया था। सन १८९६ ई में ९ वर्ष की आयु में इनका उपनयन संस्कार हुआ था। सन १८९८ ई तक यहीं पर बंगला,संस्कृत और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। तरह वर्ष की आयु में सन १९०० में कुसुमकामिनी देवी के साथ इनका विवाह हुआ था। इसके बाद किशोरीलाल जुबली स्कूल ढाका से सन १९०५ ई में परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस परीक्षा के बाद वे लगभग एक वर्ष तक मलेरिया ज्वर से पीड़ित रहे और वायु परिवर्तन के लिए सन १९०६ ई में जयपुर पहुँच गए और महाराजा जयपुर कालेज से प्रथम श्रेणी में इंटरमीडिएट परीक्षा सन १९०८ ई में उत्तीर्ण की। यहीं से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करके लगभग चार वर्ष तक जयपुर रहने के पश्चात सन १९१० ई में वापस लौट आये। जयपुर के प्रवासकाल में गोपीनाथ जी ने पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त दर्शन,धर्म,प्राचीन एवम मध्यकालीन इतिहास और पुरातत्व विज्ञानं का सम्यक अध्ययन किया था और फ्रेंच,स्पेनी,इतालवी,जर्मन एवम रुसी भाषाओँ की प्रमुख कृतियों का भी अध्ययन किया। अपने छात्र -जीवन में ही उन्होंने अंग्रेजी एवम बंगला में कतिपय कविताएं लिखीं जिससे उनके कवि-हृदय का परिचय मिलने लगा। कौन जनता था कि यह बालक आगे चलकर एक महान योगी बनकर अखण्ड महायोग द्वारा सर्वमुक्ति की दिशा में साधनारत होकर मानव-कल्याण के लिए इतना उत्कृष्ट कार्य करेगा।
सन १९१० ई ० में डॉ वेनिस के आकर्षण के कारण क्वीन्स कालेज ,वाराणसी में अध्ययन हेतु प्रवेश लिया। यहां पर स्नातकोत्तर में प्रवेश लेकर उन्होंनेइतिहास एवं संस्कृति,पुरालेख शास्त्र,मुद्राविज्ञान तथा पुरालिपि विषयों का अध्ययन डॉ वेनिस के निर्देशन में किया। माह अप्रैल सन १९१३ ई में इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम० ए० अंतिम वर्ष की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की करके प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। अनेक स्थानों पर नियुक्तियों हेतु प्रस्ताव ठुकराकर गोपीनाथ जी ने वाराणसी में रहकर शोधकार्य करना उपयुक्त समझा और सन १९१४ ई ० में सरस्वती भवन की स्थापना के बाद १२५ रूपये मासिक वेतन पर अधीक्षक के पद  पर नियुक्ति स्वीकार कर ली। यहां सरस्वती भवन में संग्रहीत दुर्लभ हस्तलेखों के प्रकाशन की जो योजना डॉ वेनिस ने बनाई थी उसे इन्होंने साकार रूप प्रदान किया और न्याय,वेदांत,धर्मशास्त्र,तन्त्र,भौतिकशास्त्र,मीमाँसा,पाँचरात्र,आगम तथा गणित आदि विषयों पर महत्वपूर्ण कार्य किया। डॉ. वेनिस के ४ अप्रैल सन १९१८ ई में निधन हो जाने के कारण उनके स्थान पर डॉ, गंगनाथ झा की नियुक्ति हुई। २१ जनवरी सन १९१७ ई में गोपीनाथ जी ने योगिराजाधिराज स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस देव से दीक्षा प्राप्त की और यहीं से इनका झुकाव भक्ति,दर्शन व आगमशास्त्र की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता गया।  अतः वे भारतीय आस्तिकवाद,गोरखपंथ,शैवमत तन्त्र-दर्शन,मध्यकालीन भक्ति सम्प्रदाय,मुख्य तथा गौड़ीय वैष्णव धर्म आदि के अध्ययन की ओर उन्मुख हो गए।
सन १९२४ ई में डॉ, गंगनाथ झा के बाद गोपीनाथ जी गवर्नमेंट कालेज वाराणसी के आचार्य के पद  पर प्रतिष्ठित हुए तब वे कुछ समय तक रजिस्ट्रार और परीक्षायोजक का कार्य भी सम्भालते रहे। सन १९३७ ई में अपनी अधिवर्षता आयु के पूर्व ही अवकाश लेकर स्वाध्याय एवम साधना में लग गए। इसी मध्य इनके दो सन्तानें पुत्री सुधा एवम पुत्र जितेंद्र पैदा हुए। सन १९२५ की १० अप्रैल को इनकी माता सुखदा  सुंदरदेवी का निधन हो गया था। पुत्री सुधा का विवाह करने के बाद पुत्र जितेंद्र का विवाह संन १९३३ ई में कर दिया था। जितेंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी,ए ,करने के पश्चात बैंक में नौकरी कर ली किन्तु कुछ दिन बाद उसे छोड़कर सीनियर मार्केटिंग इंस्पेक्टर के पद  पर नियुक्त हो गए। कुछ दिन बाद अल्पायु में ही पुत्र जितेंद्र की आकस्मिक मृत्यु हो गयी थी जिसके कारण गोपीनाथ जी बहुत दुखी हुए किन्तु उन्होंने अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ने के दृढ निश्चय से विचलित नहीं हुए।
कविराज के पास अनुभव सिद्ध समृद्ध ज्ञान का अक्षय भंडार था। जीवनव्यापी स्वाध्याय एवम साधना द्वारा संचित ज्ञान तथा दिव्य अनुभूतियाँ उनको उत्तरोत्तर आगे बढ़ा रहीं थीं।  अतः वे रात-दिन समस्त आगत शोधार्थी छात्रों एवम जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करते रहे। उनके मुखमण्डल की आभा एवम विशाल नेत्र उनकी जीवन्मुक्तावस्था का परिचय देने हेतु पर्याप्त थे। वे सुख दुःख में सदा समभाव रखते थे। उनकी ख्याति निरन्तर बढ़ती गयी और कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मांनद  उपाधि देने हेतु आमन्त्रित किया किन्तु वे कोई भी उपाधि लेने  वहां स्वयम नहीं गए।
योगसाधना एवम तत्व -चिन्तन :--
भारतीय दर्शन एवम संस्कृति में पारंगत पण्डित गोपीनाथ जी के जीवन के क्रियाकलाप में सूक्ष्म दर्शन तत्व के साथ तन्त्र की प्रयोगमूलक साधना मूर्त होने लगी थी। वे भागवत, बौद्ध ,शैव एवम शाक्त तत्वों के सूक्ष्मदर्शी व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध हो गए। वे प्रत्यभिक्षादर्शन के प्रवर्तक आचार्य अभिनवगुप्त ,अद्वैतदर्शन के प्रवक्ता पण्डित वाचस्पति मिश्र ,न्यायशास्त्र के पुरोधा आचार्य उदयन और बौद्धदर्शन व धर्म के व्याख्याता वसुबन्धु के प्रकांड पांडित्य की श्रृंखला में एक कड़ी बन गए। तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि के लेखन में वे कपिल,कणाद की परम्परा को आगे बढाये तथा प्राचीन आगमशास्त्र में जो ज्ञान व योग के रहस्य छिपे थे ,उसे उद्घाटित करके उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। भारतीय संस्कृति और साधना के तत्वान्वेषी कविराज जी की धारणा  इसे विश्व की प्राचीनतम संस्कृति एवम विश्व -मानव की साधना बनाने की थी। वे इस प्रयोग में सफल भी हुए क्योंकि वे समन्वय को विश्व-संचालन की मूलशक्ति मानते थे। सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा पारस्परिक विरोधी विचारों का परिहार करना इनके दार्शनिक चिंतन की मुख्य विशेषता थी जिसके आधार पर विश्व बन्धुत्व -भावना की प्रेरणा ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। रहस्यमय एवम प्रयत्नगम्य तन्त्रशास्त्र की दुरूहता को दूर करके कविराज ने गुह्यतम एवम लुप्तप्राय तंत्रज्ञान को विश्व के समक्ष रखा। उन्होंने साधक का साध्य के साथ साक्षात्कार अथवा परमशिव की प्राप्ति -साधना की प्रक्रिया तथा अन्य सभी आवश्यक तांत्रिक प्रक्रियायों और सिद्धांतों का विधिवत वर्णन किया।कविराज जी कहना था कि जब तक व्याकुलता नहीं आएगी तबतक कोई भी चीज नहीं मिलती। तर्क के द्वारा उन्हें पराजित कर उनसे ग्रहण करोगे यही तो मूर्खता है ,स्वयं पराजित हो जाओ। जो हारेगा वही जीतेगा। 
कविराज जी समन्वय को विश्व संचालन की मूलशक्ति मानते थे। सूक्ष्म विश्लेषणों द्वारा परस्पर विरोधी विचारों के विरोध का परिहार इनके दार्शनिक चिन्तन की मुख्य विशेषता थी। इनकी इस अन्तर्भेदी दृष्टि का अनुमान इस कथन से लगाया जा सकता है -"अनात्मवाद अनह्मवादी बनकर सबसे समत्व स्थापित करता है जबकि आत्मवादी सबमें आत्मभाव लाकर समत्व स्थापित करता है। लक्ष्य दोनों का एक है केवल साधन भिन्न भिन्न हैं। "इनके समन्वय दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता थी -समन्वय स्थापना की प्रक्रिया में सभी पक्षों के स्व की रक्षा करना। समन्वय को स्थायित्व प्रदान करने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है। कविराज के पास अनुभव सिद्ध समृद्ध ज्ञान का अक्षय भंडार था और रातदिन जितने भी जिज्ञासु तथा शोधार्थी मार्गदर्शन हेतु उनके पास आया करते थे ,उनको वे समुचित निर्देश देते थे। जीवनव्यापी स्वाध्याय एवम साधना द्वारा संचित ज्ञान तथा दिव्य अनुभूतियाँ इनके व्यक्तित्व में घुलकर इनके स्वभाव का अभिन्न अंग बन गयीं थीं। सुख में हर्षातिरेक से गदगद और दुःख में पीड़ा से व्याकुल उन्हें कभी नहीं देखा गया। दीर्घव्यापी भीषण बीमारी के मध्य अचेतावस्था में भी इन्होंने अपने सन्ध्या के कर्म को कभी नहीं तोडा और आत्मप्रशंसा से इन्हें अरुचि थी। वे प्रायः कहा करते थे की जो वस्तु आवश्यक होती है ,भगवान की कृपा से स्वतः प्राप्त हो जाती है। उनके अनुसार एक ही साम्य  है.वे इतने  कि उन्हें खोजना नहीं पड़ता और इतने दूर हैं कि उन्हें कोटिजन्म में भी पाया नहीं जा सकता। इन दोनों का समन्वय करना कठिन कार्य है।   
अखण्ड महायोग :--
कविराज जी के जीवन की चरम उपलब्धि है "अखण्ड महायोग "जिसके लिए वे आजीवन कृतसंकल्प रहे। अखण्ड महायोग का उद्देश्य है गुरु -कृपा के प्रभाव से काल की निवृत्ति। खण्ड रूप से यह कृपा अनादिकाल से अबतक चली आ रही है किन्तु इससे सामूहिक कल्याण पूर्णरूप से सम्भव नहीं हो पाया। उन्होंने इसके लिए  यह आवश्यक बताया कि मोक्ष पद की ओर आरोहण का कार्य समाप्त कर महाशक्ति के साथ अपना तादात्म्यभाव सिद्ध किया जाये, तभी हम महाशक्ति सम्पन्न होकर महाप्रेम की साधना के लिए उसे विश्व में अवतरित कर सकते हैं। इसी प्रक्रिया में आज भी गुरुधाम ज्ञानगंज में तपस्वीगण साधनारत हैं जिनका एकमात्र लक्ष्य है- सर्वदुख -निवृत्ति एवम सर्वमुक्ति की अवधारणा। अखण्ड महायोग की देन कविराज के योग और तन्त्र के पूर्ण समन्वय का प्रतीक है जो मानव-सृष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा। तान्त्रिक अध्यात्म-दृष्टि का लक्ष्य इसी परिपूर्ण अवस्था को पाना है न कि स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकगमन या कैवल्य-प्राप्ति। कविराज जी  का मानना है कि अपने उद्भव और विकास के विगत हजारों वर्षों से मनुष्य विचार,ज्ञान तथा अनुभव के दायरे में चक्कर काट रहा है। इसी वृत्त के अंतर्गत स्मृतियाँ पलती रहीं हैं। मनुष्य स्वयम मकड़ी के जाल में फँसता चला गया। मनुष्य के समक्ष दूसरी समस्या है चेतना की। चेतना के अंतर्गत विश्वास,अन्धविश्वास,चिंता,एकाकीपन,कष्ट,दुःख,निराश,अनिश्चितता आदि सभी कुछ अंतर्निहित है। यह प्रक्रिया सर्वव्यापी है जिसमें सम्पूर्ण मनुष्य जाति फंसी है अब समस्या है मानव चेतना के रूपान्तरण की। निरन्तर संघर्षरत होने पर भी मनुष्य चेतना की अन्तरवृत्तियों,दुःख,क्रोध,भय,निराश,अतृप्ति,अभाव आदि पर विजय नहीं  पा सका है। उनका मानना है कि वास्तव में मनुष्य स्थूल-भेदन की प्रक्रिया में ही लगा रहा है और सूक्ष्म-भेदन में पूर्णतयः असफल रहा है। विज्ञान द्वारा हुए अविष्कार सम्पूर्ण मनुष्य जाति को सुख सुविधा तो दे सकें हैं किन्तु सूक्ष्मस्तर पर दृष्टिपात करने पर हम देखते हैं कि आध्यात्मिक साधना के आधार पर मनुष्य ने केवल व्यक्तिगत मुक्ति या मोक्ष भले ही पा लिया हो किन्तु सर्वमुक्ति का स्वप्न अभी भी साकार नहीं हो पाया है जैसाकि प्रभुपाद जगद्बन्धु,वामाक्षेपा,मेहेरबाबा,विशुद्धानंद आदि सिद्धों ने इसकी परिकल्पना की थी। सर्वमुक्ति की दिशा में उन्मुख अंतरिक्ष में क्रियाशील कुछ महात्माओं का संकेत भी मिला है किन्तु वस्तुस्थिति तो यह है कि मनुष्य अपने तपोबल द्वारा दैवीय चेतना में स्वयम समाहित हो गया है। स्वयम वह इस चेतना को आयत्त नहीं कर पाए  है जबकि दैवी चेतना का समष्टि में रूपांतरण ही कविराज जी के सर्वमुक्ति स्वप्न अखण्ड महायोग की आधार शिला है।
महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ ने अरविन्द के अतिमानस या चैत्य पुरुष के अवतरण की संज्ञा को चन्द्रावतरण  कहा है। उनकी यौगिक सम्भावनाओं की सम्पूर्ति के लिए अपने सदगुरु परमहंस विशुद्धानन्द जी के निर्देश से कार्यरत अखण्ड महायोग या सूर्यविज्ञान के लिए सत्रह सत्रह मास की तीन बार घोर तपस्या की। उनके अनुसार सूर्यविज्ञान ही अखण्ड महायोग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है और इसी महाविज्ञान को मृत्युलोक में अवतरित करने के लिए ही विशुद्ध सत्ता के अवतरण हेतु विशुद्धानन्द जी प्रयत्नशील रहे किन्तु वे विज्ञान का मात्र पूर्वांश ही अवतरित कर सके। इसके बाद इस महाकर्म के अवशेष अंश को पूर्ण करने के लिए उन्हें अन्य शरीरों का आश्रय लेना पड़ा और उन्होंने कविराज के शरीर में प्रवेश करके वह अधूरा कार्य पूर्ण करने का कार्य कर रहें हैं। कविराज जी इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि महायोग का अर्थ है अनन्त प्रकार के असंश्लिष्ट और विक्षिप्त भावों को एक सूत्र में सँजोकर उसको तादात्म्यरूप में प्रतिष्ठित करना। शिव के साथ शक्ति का योग,आत्मा के साथ परमात्मा का योग,एक आत्मा के साथ दूसरी आत्मा का योग,महाशक्ति के साथ आत्मा का योग,लोक और लोकान्तरों का परस्पर योग,लोको के साथ लोकातीत का योग आदि सभी महायोग के अंतर्गत हैं। तात्विक दृष्टि से उन्होंने काल को दो भागों में बाँटते हुए इन्हें महाकाल और खण्डकाल कहा। महाकाल   निरन्तर सृष्टिशील और अखण्ड है। खण्डकाल अतीत,वर्तमान और अनागत तीन रूपों में बंटा है। काल का यह स्रोत अनादिकाल से चला आ रहा है किन्तु एक ऐसी भी स्थिति आती है जहां त्रिकाल नहीं है। एकमात्र नित्य वर्तमान अखण्डकाल विराजमान रहता है। व्यष्टि,समष्टि तथा महासमष्टि ये सभी काल के नियंत्रण में हैं किन्तु गुरुराज्य एक ऐसा है जो द्वंदातीत है। वहां रात-दिन नहीं,सृष्टि-संहार नहीं तथा चित- अचित का विभाजन भी नहीं है। इसी अखण्ड महाकाल में उपर्युक्त महायोग की स्थिति ही अखण्ड महायोग है।
गोपीनाथ जी  ने अरविन्द के योगमार्ग तथा विशुद्धानन्द जी के सूर्य-विज्ञान एवम आगमशास्त्रों में वर्णित परातंत्र की सेवा कर्म -पद्धति {कुमारी-सेवा }का अदभुत समन्वय कर अखण्ड महायोग की दिशा में अभूतपूर्व प्रगति की। मात्र मां के पुकार की उन्हें प्रतीक्षा है। अखण्ड महायोग की साधना में मनुष्य का श्रेष्ठतम प्रयत्न एवम परमात्मा के अनुग्रह की अपेक्षा है।  एक के लिए चाहिए पुरुषकार  और दूसरे के लिए एकीकरण। पुरुषकार के लिए चाहिए कर्मगत कौशल। पुरुषकार द्वारा तत्वों का लय करना पड़ता है क्योंकि सारा विश्व पृथ्वी से लेकर महामाया तक विस्तृत है। प्रथम तत्व जितना व्यापक है ,सूक्ष्मतत्व उससे अधिक व्यापक है। अंतिम तत्व सबसे अधिक व्यापक है। व्याप्य तत्व से व्यापक तत्व की प्राप्ति का उपाय एकमात्र कर्मगत कौशल है। दूसरा तत्व प्राप्त होते ही उसके मण्डल की प्राप्ति होता है और अंतिम तत्व की प्राप्ति पर सारा विश्व उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाता है। इस प्रकार साधक श्रेष्ठ पुरुषकार द्वारा एकीकरण की प्रक्रिया पूरी करता है।
अध्यात्म साधना में गुरु एवं उनकी दीक्षा का महत्वपूर्ण स्थान मानते हुए वे कहते हैं कि गुरु अपनी अंतर्दृष्टि से साधक की पात्रता व सामर्थ्य का आकलन करने के उपरांत ही दीक्षा देता है। जीव तो क्षण में जन्म लेकर साधक व काल में जन्म लेकर योगी बनता है। उन्होंने साधक दीक्षा व योगदीक्षा में अंतर बताते हुए कहा कि कुण्डिलिनी का जागरण शिष्य अपने प्रयत्न से भी कर सकता है किन्तु यह एक कठिन कार्य है।  अतः साधक को दीक्षा में इतनी शक्ति मिल जाती है जिसका पुरुषकार के साथ सदुपयोग करने पर कुण्डिलिनी जग जाती है। कुण्डिलिनी एक शक्तिमय ज्योति है। गुरुप्रदत्त दीक्षा द्वारा नित्यकर्म करते रहने पर वह जाग्रत शुद्ध तेज क्रमशः प्रज्ज्वलित हो जाता है और वासनादि का मायिक आवरण स्वतः समाप्त होने लगता है। कविराज अपने गुरु विशुद्धानंद द्धारा प्रतिपादित सेवा और कर्म द्वारा विज्ञान के अन्वेषण कार्य में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। कर्म, ज्ञान और भक्ति की त्रिवेणी का अजस्र श्रोत बढ़कर विश्वव्यापी हुआ। उन्होंने अपनी साधना एवं लेखनी द्वारा विश्व में व्याप्त लगभग समस्त प्रचलित साधना पद्धतियों एवं उनमें निहित सूक्ष्म भावों को उद्घाटित किया।इस प्रकार उनका समस्त ज्ञान अनुभव सिद्ध था।विशुद्धानंद जी द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक सम्पदा को अखण्ड महायोग नाम देकर कविराज जी ने इसे मुखरित किया जिसके कारण जीव जगत को इससे परिचय मिल स्का। यह अखण्ड महायोग आलोक ,अंधकार व मन से समझ जा सकता है।  
साधना और सिद्धि :-
दीक्षा पूर्व जीवन में अध्यात्म साधना की दिशा में किये गए स्वाध्याय,मन्त्रजप,सत्संग को कविराज जी ने कर्म की संज्ञा दी और उसे वे साधनामय जीवन में प्रवेश करने की आवश्यक भूमिका भी मानते हैं। उनका कथन है कि निज के अनुभव के बिना आंतरिक स्थिरता नहीं प्राप्त होती है। दीक्षा के बाद वे विधिवत साधना-पथ पर अग्रसित हुए थे और गुरु के उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करते हुए अखण्ड महायोग की सिद्धि द्वारा उन्होंने परिपूर्ण अवस्था की प्राप्ति की थी। इस प्रकार परमवस्तु की प्राप्ति में वे गुरु-कृपा को प्रधान मानते थे जबकि स्वप्रयास को गौण। कविराज मौलिक चिंतन पर विशेष बल देते थे। ज्ञानार्जन के तीन विभिन्न स्तर यथा अध्ययन,मनन तथा बोध की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि अध्ययन ऐंद्रिय व्यापार है। साधना की  विकासात्मक यात्रा में मन के स्तर पर वही मनन या चिंतन का रूप धारण कर लेता है किन्तु बोध इन दोनों से ऊपर की स्थिति है जिससे साधक बोधभूमि में पदार्पण करता है जो प्रज्ञात्मक है। यहां पर मानवीय चेतना का वह आलोक फूटता है जिससे शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्ध,आदि जगत का रहस्य खुलने लगता है और सर्व सर्वात्मक जगत की प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त हो जाती है। उनका अखण्ड महायोग इसी साधना पुष्ट मौलिक चिंतन का परिणाम है। वे प्रायः कहा करते थे कि केवल किसी चीज को रट लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि पूर्ण मनोयोग से स्वाध्याय करना चाहिए जिससे बुद्धि स्वतः सूक्ष्म विचार ग्रंथियों को खोलने की सामर्थ्य प्राप्त कर ले और उसका चरमोत्कर्ष स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे। वे समत्व,निर्वाह,अपरिग्रह,आप्तकामत्व एवं समन्वय की भावना के पोषक थे। दर्शन की भांति साधना के क्षेत्र में भी वे समन्वय के ही समर्थक थे। उनकी अपनी साधना -प्रणाली ज्ञान तथा योग से समन्वित थी। विश्व के प्रमुख दार्शनिक धाराओं के मर्मज्ञ होने के साथ शैव,शाक्त,वैष्णव,सूफी,ईसाई,बौद्ध,जैन आदि मतों में उपलब्ध भक्ति-साहित्य और उनके प्रवर्तकों के वे प्रशंसक थे। सांस्कृतिक अभेद के विकास को ही वे सारे अध्ययन का एकमात्र लक्ष्य मानते थे। उनके अनुसार मानव जीवन के परमलक्ष्य विश्वकल्याण की साधना अभेद स्थापना द्वारा ही सम्भव है। वे अपने समन्वय दर्शन में स्व की रक्षा करने के पक्ष में थे।  
अखण्ड महायोग की पूर्णता अमरत्व-प्राप्ति ,निराकार प्रेम और अंत में प्रेम -साधना में है। इस योग से संसार में वैचित्र्य तथा विभिन्नता रहने पर भी भेद नहीं रहता। एक की प्राप्ति से सभी की प्राप्ति का सम्बन्ध नित्य बना रहता है। एक की मुक्ति से सभी की मुक्ति तभी सम्भव है जब समष्टि या महासमष्टि की दृष्टि में सम्पूर्ण संसार में तादात्म्य स्थापित हो जाये।अखण्ड महायोग की प्रेमसाधना परमेश्वर की महाकरुणा प्राप्त कर अपनी आश्रित सत्ता को अनुग्रहीत करने में है। परमेश्वर की कृपा मनुष्य के कर्म एवम ज्ञान पर निर्भर नहीं है। इन दोनों से महाकृपा द्रवीभूत नहीं होती है। वह तो परमेश्वर की स्वातन्त्र्य- शक्ति पर निर्भर है। महा कृपा का संचार होते ही मनुष्य में शिवत्व आ जाता है क्योंकि उस व्यक्ति में स्वयम परमात्मा की क्रियाशक्ति कार्य करने लग जाती है और उसके विकसित होने पर शिवत्व पूर्णरूप से प्रतिष्ठित हो जाता है। इस प्रकार कविराज जी का मानना है कि कर्म और कृपा से ही योगी अखण्ड महायोग के मार्ग पर चल पाता है। अखण्ड महायोग का उद्देश्य है गुरुकृपा के प्रभाव से काल की निवृत्ति। यद्यपि खण्ड रूप से यह कृपा अनादि काल से मिलती आयी है किन्तु इससे सामूहिक कल्याण अभी तक नहीं हो पाया है। अतः इसके लिए आवश्यक है मोक्षपद की ओर आरोहण का कार्य समाप्त कर महाशक्ति के साथ अपना तादात्म्य सिद्ध करने का। महाशक्ति सम्पन्न होकर योगी महाप्रेम की साधना के लिए विश्व में अवतरण करे जिसका उद्देश्य है विशुद्ध प्रेम की साधनाउनका कहना था कि यदि निष्कपट और सरल भाव से तुम धर्म तत्व सम्बन्धी आलोचना का अनुसरण करते रहोगे तो एक दिन तुम्हारे हृदय में वास्तविक जिज्ञासा अवश्य ही उत्पन्न हो जायेगी और तबउसके समाधान के लिए तुम्हें किसी भिन्न उपदेष्टा के पास जाने की आवश्यकता नहीं होगी। तुम्हारे अनंतर से ही अंतर्मयी गुरु समस्त संशयों का समाधान कर देंगे। केवल आचार की विशुद्धता से शारीरिक पवित्रता दीर्घ आयु आरोग्य तथा चित्त की स्थिरता आदि में सहायता मिलती है। जो लोग उच्च तत्वों का विचार करते हैं परन्तु अपने व्यक्तिगत जीवन में उनका आचरण नहीं करते वे कभी सत्य धर्म का पता नहीं पा सकते। जो जिस परिणाम में श्री भगवान के अनुग्रह वितरण रूपी इस महायज्ञ में भाग ले सकते हैं उनको उतना ही सौभाग्यवान समझना चाहिए। जिनकी करुणा का प्रसार क्षेत्र जितना अधिक होता है ,श्री भगवान के साथ उनका तादात्म्य भी उतना ही गम्भीर होता है।   
इस महामनीषी का जीवन उस अथाह सागर की भाँति है जिसे मापना हम अल्पज्ञों के लिए सम्भव नहीं है। कविराज जी का सम्पूर्ण जीवन जिस महासंकल्प की पूर्ति हेतु समर्पित रहा है उस संकल्प से हम सभी लोगों की सतत युक्तता ही इस महामनीषी के प्रति सच्ची एवम सार्थक श्रद्धांजलि होगी। पूज्य कविराज कहा करते थे -"मात्र तुम्हें सदा मुझसे युक्त रहना है। "