महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ कविराज का जन्म पूर्व बंग सम्प्रति बंगलादेश के ढाका जनपद के धमराई ग्राम में ०७ सितम्बर १८८७ ई ० को हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित बैकुंठनाथ बागची था तथा माता का नाम सुखदा सुन्दरी देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके पिता के ननिहाल कंटालिया में हुई थी ततपश्चात धमराई के इंग्लिश स्कूल में प्रवेश लिया था। सन १८९६ ई में ९ वर्ष की आयु में इनका उपनयन संस्कार हुआ था। सन १८९८ ई तक यहीं पर बंगला,संस्कृत और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। तरह वर्ष की आयु में सन १९०० में कुसुमकामिनी देवी के साथ इनका विवाह हुआ था। इसके बाद किशोरीलाल जुबली स्कूल ढाका से सन १९०५ ई में परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस परीक्षा के बाद वे लगभग एक वर्ष तक मलेरिया ज्वर से पीड़ित रहे और वायु परिवर्तन के लिए सन १९०६ ई में जयपुर पहुँच गए और महाराजा जयपुर कालेज से प्रथम श्रेणी में इंटरमीडिएट परीक्षा सन १९०८ ई में उत्तीर्ण की। यहीं से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करके लगभग चार वर्ष तक जयपुर रहने के पश्चात सन १९१० ई में वापस लौट आये। जयपुर के प्रवासकाल में गोपीनाथ जी ने पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त दर्शन,धर्म,प्राचीन एवम मध्यकालीन इतिहास और पुरातत्व विज्ञानं का सम्यक अध्ययन किया था और फ्रेंच,स्पेनी,इतालवी,जर्मन एवम रुसी भाषाओँ की प्रमुख कृतियों का भी अध्ययन किया। अपने छात्र -जीवन में ही उन्होंने अंग्रेजी एवम बंगला में कतिपय कविताएं लिखीं जिससे उनके कवि-हृदय का परिचय मिलने लगा। कौन जनता था कि यह बालक आगे चलकर एक महान योगी बनकर अखण्ड महायोग द्वारा सर्वमुक्ति की दिशा में साधनारत होकर मानव-कल्याण के लिए इतना उत्कृष्ट कार्य करेगा।
सन १९१० ई ० में डॉ वेनिस के आकर्षण के कारण क्वीन्स कालेज ,वाराणसी में अध्ययन हेतु प्रवेश लिया। यहां पर स्नातकोत्तर में प्रवेश लेकर उन्होंनेइतिहास एवं संस्कृति,पुरालेख शास्त्र,मुद्राविज्ञान तथा पुरालिपि विषयों का अध्ययन डॉ वेनिस के निर्देशन में किया। माह अप्रैल सन १९१३ ई में इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम० ए० अंतिम वर्ष की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की करके प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। अनेक स्थानों पर नियुक्तियों हेतु प्रस्ताव ठुकराकर गोपीनाथ जी ने वाराणसी में रहकर शोधकार्य करना उपयुक्त समझा और सन १९१४ ई ० में सरस्वती भवन की स्थापना के बाद १२५ रूपये मासिक वेतन पर अधीक्षक के पद पर नियुक्ति स्वीकार कर ली। यहां सरस्वती भवन में संग्रहीत दुर्लभ हस्तलेखों के प्रकाशन की जो योजना डॉ वेनिस ने बनाई थी उसे इन्होंने साकार रूप प्रदान किया और न्याय,वेदांत,धर्मशास्त्र,तन्त्र,भौतिकशास्त्र,मीमाँसा,पाँचरात्र,आगम तथा गणित आदि विषयों पर महत्वपूर्ण कार्य किया। डॉ. वेनिस के ४ अप्रैल सन १९१८ ई में निधन हो जाने के कारण उनके स्थान पर डॉ, गंगनाथ झा की नियुक्ति हुई। २१ जनवरी सन १९१७ ई में गोपीनाथ जी ने योगिराजाधिराज स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस देव से दीक्षा प्राप्त की और यहीं से इनका झुकाव भक्ति,दर्शन व आगमशास्त्र की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता गया। अतः वे भारतीय आस्तिकवाद,गोरखपंथ,शैवमत तन्त्र-दर्शन,मध्यकालीन भक्ति सम्प्रदाय,मुख्य तथा गौड़ीय वैष्णव धर्म आदि के अध्ययन की ओर उन्मुख हो गए।
सन १९२४ ई में डॉ, गंगनाथ झा के बाद गोपीनाथ जी गवर्नमेंट कालेज वाराणसी के आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए तब वे कुछ समय तक रजिस्ट्रार और परीक्षायोजक का कार्य भी सम्भालते रहे। सन १९३७ ई में अपनी अधिवर्षता आयु के पूर्व ही अवकाश लेकर स्वाध्याय एवम साधना में लग गए। इसी मध्य इनके दो सन्तानें पुत्री सुधा एवम पुत्र जितेंद्र पैदा हुए। सन १९२५ की १० अप्रैल को इनकी माता सुखदा सुंदरदेवी का निधन हो गया था। पुत्री सुधा का विवाह करने के बाद पुत्र जितेंद्र का विवाह संन १९३३ ई में कर दिया था। जितेंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी,ए ,करने के पश्चात बैंक में नौकरी कर ली किन्तु कुछ दिन बाद उसे छोड़कर सीनियर मार्केटिंग इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हो गए। कुछ दिन बाद अल्पायु में ही पुत्र जितेंद्र की आकस्मिक मृत्यु हो गयी थी जिसके कारण गोपीनाथ जी बहुत दुखी हुए किन्तु उन्होंने अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ने के दृढ निश्चय से विचलित नहीं हुए।
कविराज के पास अनुभव सिद्ध समृद्ध ज्ञान का अक्षय भंडार था। जीवनव्यापी स्वाध्याय एवम साधना द्वारा संचित ज्ञान तथा दिव्य अनुभूतियाँ उनको उत्तरोत्तर आगे बढ़ा रहीं थीं। अतः वे रात-दिन समस्त आगत शोधार्थी छात्रों एवम जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करते रहे। उनके मुखमण्डल की आभा एवम विशाल नेत्र उनकी जीवन्मुक्तावस्था का परिचय देने हेतु पर्याप्त थे। वे सुख दुःख में सदा समभाव रखते थे। उनकी ख्याति निरन्तर बढ़ती गयी और कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मांनद उपाधि देने हेतु आमन्त्रित किया किन्तु वे कोई भी उपाधि लेने वहां स्वयम नहीं गए।
योगसाधना एवम तत्व -चिन्तन :--
भारतीय दर्शन एवम संस्कृति में पारंगत पण्डित गोपीनाथ जी के जीवन के क्रियाकलाप में सूक्ष्म दर्शन तत्व के साथ तन्त्र की प्रयोगमूलक साधना मूर्त होने लगी थी। वे भागवत, बौद्ध ,शैव एवम शाक्त तत्वों के सूक्ष्मदर्शी व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध हो गए। वे प्रत्यभिक्षादर्शन के प्रवर्तक आचार्य अभिनवगुप्त ,अद्वैतदर्शन के प्रवक्ता पण्डित वाचस्पति मिश्र ,न्यायशास्त्र के पुरोधा आचार्य उदयन और बौद्धदर्शन व धर्म के व्याख्याता वसुबन्धु के प्रकांड पांडित्य की श्रृंखला में एक कड़ी बन गए। तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि के लेखन में वे कपिल,कणाद की परम्परा को आगे बढाये तथा प्राचीन आगमशास्त्र में जो ज्ञान व योग के रहस्य छिपे थे ,उसे उद्घाटित करके उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। भारतीय संस्कृति और साधना के तत्वान्वेषी कविराज जी की धारणा इसे विश्व की प्राचीनतम संस्कृति एवम विश्व -मानव की साधना बनाने की थी। वे इस प्रयोग में सफल भी हुए क्योंकि वे समन्वय को विश्व-संचालन की मूलशक्ति मानते थे। सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा पारस्परिक विरोधी विचारों का परिहार करना इनके दार्शनिक चिंतन की मुख्य विशेषता थी जिसके आधार पर विश्व बन्धुत्व -भावना की प्रेरणा ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। रहस्यमय एवम प्रयत्नगम्य तन्त्रशास्त्र की दुरूहता को दूर करके कविराज ने गुह्यतम एवम लुप्तप्राय तंत्रज्ञान को विश्व के समक्ष रखा। उन्होंने साधक का साध्य के साथ साक्षात्कार अथवा परमशिव की प्राप्ति -साधना की प्रक्रिया तथा अन्य सभी आवश्यक तांत्रिक प्रक्रियायों और सिद्धांतों का विधिवत वर्णन किया।कविराज जी कहना था कि जब तक व्याकुलता नहीं आएगी तबतक कोई भी चीज नहीं मिलती। तर्क के द्वारा उन्हें पराजित कर उनसे ग्रहण करोगे यही तो मूर्खता है ,स्वयं पराजित हो जाओ। जो हारेगा वही जीतेगा।
कविराज जी समन्वय को विश्व संचालन की मूलशक्ति मानते थे। सूक्ष्म विश्लेषणों द्वारा परस्पर विरोधी विचारों के विरोध का परिहार इनके दार्शनिक चिन्तन की मुख्य विशेषता थी। इनकी इस अन्तर्भेदी दृष्टि का अनुमान इस कथन से लगाया जा सकता है -"अनात्मवाद अनह्मवादी बनकर सबसे समत्व स्थापित करता है जबकि आत्मवादी सबमें आत्मभाव लाकर समत्व स्थापित करता है। लक्ष्य दोनों का एक है केवल साधन भिन्न भिन्न हैं। "इनके समन्वय दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता थी -समन्वय स्थापना की प्रक्रिया में सभी पक्षों के स्व की रक्षा करना। समन्वय को स्थायित्व प्रदान करने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है। कविराज के पास अनुभव सिद्ध समृद्ध ज्ञान का अक्षय भंडार था और रातदिन जितने भी जिज्ञासु तथा शोधार्थी मार्गदर्शन हेतु उनके पास आया करते थे ,उनको वे समुचित निर्देश देते थे। जीवनव्यापी स्वाध्याय एवम साधना द्वारा संचित ज्ञान तथा दिव्य अनुभूतियाँ इनके व्यक्तित्व में घुलकर इनके स्वभाव का अभिन्न अंग बन गयीं थीं। सुख में हर्षातिरेक से गदगद और दुःख में पीड़ा से व्याकुल उन्हें कभी नहीं देखा गया। दीर्घव्यापी भीषण बीमारी के मध्य अचेतावस्था में भी इन्होंने अपने सन्ध्या के कर्म को कभी नहीं तोडा और आत्मप्रशंसा से इन्हें अरुचि थी। वे प्रायः कहा करते थे की जो वस्तु आवश्यक होती है ,भगवान की कृपा से स्वतः प्राप्त हो जाती है। उनके अनुसार एक ही साम्य है.वे इतने कि उन्हें खोजना नहीं पड़ता और इतने दूर हैं कि उन्हें कोटिजन्म में भी पाया नहीं जा सकता। इन दोनों का समन्वय करना कठिन कार्य है।
अखण्ड महायोग :--
कविराज जी के जीवन की चरम उपलब्धि है "अखण्ड महायोग "जिसके लिए वे आजीवन कृतसंकल्प रहे। अखण्ड महायोग का उद्देश्य है गुरु -कृपा के प्रभाव से काल की निवृत्ति। खण्ड रूप से यह कृपा अनादिकाल से अबतक चली आ रही है किन्तु इससे सामूहिक कल्याण पूर्णरूप से सम्भव नहीं हो पाया। उन्होंने इसके लिए यह आवश्यक बताया कि मोक्ष पद की ओर आरोहण का कार्य समाप्त कर महाशक्ति के साथ अपना तादात्म्यभाव सिद्ध किया जाये, तभी हम महाशक्ति सम्पन्न होकर महाप्रेम की साधना के लिए उसे विश्व में अवतरित कर सकते हैं। इसी प्रक्रिया में आज भी गुरुधाम ज्ञानगंज में तपस्वीगण साधनारत हैं जिनका एकमात्र लक्ष्य है- सर्वदुख -निवृत्ति एवम सर्वमुक्ति की अवधारणा। अखण्ड महायोग की देन कविराज के योग और तन्त्र के पूर्ण समन्वय का प्रतीक है जो मानव-सृष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा। तान्त्रिक अध्यात्म-दृष्टि का लक्ष्य इसी परिपूर्ण अवस्था को पाना है न कि स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकगमन या कैवल्य-प्राप्ति। कविराज जी का मानना है कि अपने उद्भव और विकास के विगत हजारों वर्षों से मनुष्य विचार,ज्ञान तथा अनुभव के दायरे में चक्कर काट रहा है। इसी वृत्त के अंतर्गत स्मृतियाँ पलती रहीं हैं। मनुष्य स्वयम मकड़ी के जाल में फँसता चला गया। मनुष्य के समक्ष दूसरी समस्या है चेतना की। चेतना के अंतर्गत विश्वास,अन्धविश्वास,चिंता,एकाकीपन,कष्ट,दुःख,निराश,अनिश्चितता आदि सभी कुछ अंतर्निहित है। यह प्रक्रिया सर्वव्यापी है जिसमें सम्पूर्ण मनुष्य जाति फंसी है अब समस्या है मानव चेतना के रूपान्तरण की। निरन्तर संघर्षरत होने पर भी मनुष्य चेतना की अन्तरवृत्तियों,दुःख,क्रोध,भय,निराश,अतृप्ति,अभाव आदि पर विजय नहीं पा सका है। उनका मानना है कि वास्तव में मनुष्य स्थूल-भेदन की प्रक्रिया में ही लगा रहा है और सूक्ष्म-भेदन में पूर्णतयः असफल रहा है। विज्ञान द्वारा हुए अविष्कार सम्पूर्ण मनुष्य जाति को सुख सुविधा तो दे सकें हैं किन्तु सूक्ष्मस्तर पर दृष्टिपात करने पर हम देखते हैं कि आध्यात्मिक साधना के आधार पर मनुष्य ने केवल व्यक्तिगत मुक्ति या मोक्ष भले ही पा लिया हो किन्तु सर्वमुक्ति का स्वप्न अभी भी साकार नहीं हो पाया है जैसाकि प्रभुपाद जगद्बन्धु,वामाक्षेपा,मेहेरबाबा,विशुद्धानंद आदि सिद्धों ने इसकी परिकल्पना की थी। सर्वमुक्ति की दिशा में उन्मुख अंतरिक्ष में क्रियाशील कुछ महात्माओं का संकेत भी मिला है किन्तु वस्तुस्थिति तो यह है कि मनुष्य अपने तपोबल द्वारा दैवीय चेतना में स्वयम समाहित हो गया है। स्वयम वह इस चेतना को आयत्त नहीं कर पाए है जबकि दैवी चेतना का समष्टि में रूपांतरण ही कविराज जी के सर्वमुक्ति स्वप्न अखण्ड महायोग की आधार शिला है।
महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ ने अरविन्द के अतिमानस या चैत्य पुरुष के अवतरण की संज्ञा को चन्द्रावतरण कहा है। उनकी यौगिक सम्भावनाओं की सम्पूर्ति के लिए अपने सदगुरु परमहंस विशुद्धानन्द जी के निर्देश से कार्यरत अखण्ड महायोग या सूर्यविज्ञान के लिए सत्रह सत्रह मास की तीन बार घोर तपस्या की। उनके अनुसार सूर्यविज्ञान ही अखण्ड महायोग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है और इसी महाविज्ञान को मृत्युलोक में अवतरित करने के लिए ही विशुद्ध सत्ता के अवतरण हेतु विशुद्धानन्द जी प्रयत्नशील रहे किन्तु वे विज्ञान का मात्र पूर्वांश ही अवतरित कर सके। इसके बाद इस महाकर्म के अवशेष अंश को पूर्ण करने के लिए उन्हें अन्य शरीरों का आश्रय लेना पड़ा और उन्होंने कविराज के शरीर में प्रवेश करके वह अधूरा कार्य पूर्ण करने का कार्य कर रहें हैं। कविराज जी इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि महायोग का अर्थ है अनन्त प्रकार के असंश्लिष्ट और विक्षिप्त भावों को एक सूत्र में सँजोकर उसको तादात्म्यरूप में प्रतिष्ठित करना। शिव के साथ शक्ति का योग,आत्मा के साथ परमात्मा का योग,एक आत्मा के साथ दूसरी आत्मा का योग,महाशक्ति के साथ आत्मा का योग,लोक और लोकान्तरों का परस्पर योग,लोको के साथ लोकातीत का योग आदि सभी महायोग के अंतर्गत हैं। तात्विक दृष्टि से उन्होंने काल को दो भागों में बाँटते हुए इन्हें महाकाल और खण्डकाल कहा। महाकाल निरन्तर सृष्टिशील और अखण्ड है। खण्डकाल अतीत,वर्तमान और अनागत तीन रूपों में बंटा है। काल का यह स्रोत अनादिकाल से चला आ रहा है किन्तु एक ऐसी भी स्थिति आती है जहां त्रिकाल नहीं है। एकमात्र नित्य वर्तमान अखण्डकाल विराजमान रहता है। व्यष्टि,समष्टि तथा महासमष्टि ये सभी काल के नियंत्रण में हैं किन्तु गुरुराज्य एक ऐसा है जो द्वंदातीत है। वहां रात-दिन नहीं,सृष्टि-संहार नहीं तथा चित- अचित का विभाजन भी नहीं है। इसी अखण्ड महाकाल में उपर्युक्त महायोग की स्थिति ही अखण्ड महायोग है।
गोपीनाथ जी ने अरविन्द के योगमार्ग तथा विशुद्धानन्द जी के सूर्य-विज्ञान एवम आगमशास्त्रों में वर्णित परातंत्र की सेवा कर्म -पद्धति {कुमारी-सेवा }का अदभुत समन्वय कर अखण्ड महायोग की दिशा में अभूतपूर्व प्रगति की। मात्र मां के पुकार की उन्हें प्रतीक्षा है। अखण्ड महायोग की साधना में मनुष्य का श्रेष्ठतम प्रयत्न एवम परमात्मा के अनुग्रह की अपेक्षा है। एक के लिए चाहिए पुरुषकार और दूसरे के लिए एकीकरण। पुरुषकार के लिए चाहिए कर्मगत कौशल। पुरुषकार द्वारा तत्वों का लय करना पड़ता है क्योंकि सारा विश्व पृथ्वी से लेकर महामाया तक विस्तृत है। प्रथम तत्व जितना व्यापक है ,सूक्ष्मतत्व उससे अधिक व्यापक है। अंतिम तत्व सबसे अधिक व्यापक है। व्याप्य तत्व से व्यापक तत्व की प्राप्ति का उपाय एकमात्र कर्मगत कौशल है। दूसरा तत्व प्राप्त होते ही उसके मण्डल की प्राप्ति होता है और अंतिम तत्व की प्राप्ति पर सारा विश्व उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाता है। इस प्रकार साधक श्रेष्ठ पुरुषकार द्वारा एकीकरण की प्रक्रिया पूरी करता है।
अध्यात्म साधना में गुरु एवं उनकी दीक्षा का महत्वपूर्ण स्थान मानते हुए वे कहते हैं कि गुरु अपनी अंतर्दृष्टि से साधक की पात्रता व सामर्थ्य का आकलन करने के उपरांत ही दीक्षा देता है। जीव तो क्षण में जन्म लेकर साधक व काल में जन्म लेकर योगी बनता है। उन्होंने साधक दीक्षा व योगदीक्षा में अंतर बताते हुए कहा कि कुण्डिलिनी का जागरण शिष्य अपने प्रयत्न से भी कर सकता है किन्तु यह एक कठिन कार्य है। अतः साधक को दीक्षा में इतनी शक्ति मिल जाती है जिसका पुरुषकार के साथ सदुपयोग करने पर कुण्डिलिनी जग जाती है। कुण्डिलिनी एक शक्तिमय ज्योति है। गुरुप्रदत्त दीक्षा द्वारा नित्यकर्म करते रहने पर वह जाग्रत शुद्ध तेज क्रमशः प्रज्ज्वलित हो जाता है और वासनादि का मायिक आवरण स्वतः समाप्त होने लगता है। कविराज अपने गुरु विशुद्धानंद द्धारा प्रतिपादित सेवा और कर्म द्वारा विज्ञान के अन्वेषण कार्य में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। कर्म, ज्ञान और भक्ति की त्रिवेणी का अजस्र श्रोत बढ़कर विश्वव्यापी हुआ। उन्होंने अपनी साधना एवं लेखनी द्वारा विश्व में व्याप्त लगभग समस्त प्रचलित साधना पद्धतियों एवं उनमें निहित सूक्ष्म भावों को उद्घाटित किया।इस प्रकार उनका समस्त ज्ञान अनुभव सिद्ध था।विशुद्धानंद जी द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक सम्पदा को अखण्ड महायोग नाम देकर कविराज जी ने इसे मुखरित किया जिसके कारण जीव जगत को इससे परिचय मिल स्का। यह अखण्ड महायोग आलोक ,अंधकार व मन से समझ जा सकता है।
साधना और सिद्धि :-
दीक्षा पूर्व जीवन में अध्यात्म साधना की दिशा में किये गए स्वाध्याय,मन्त्रजप,सत्संग को कविराज जी ने कर्म की संज्ञा दी और उसे वे साधनामय जीवन में प्रवेश करने की आवश्यक भूमिका भी मानते हैं। उनका कथन है कि निज के अनुभव के बिना आंतरिक स्थिरता नहीं प्राप्त होती है। दीक्षा के बाद वे विधिवत साधना-पथ पर अग्रसित हुए थे और गुरु के उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करते हुए अखण्ड महायोग की सिद्धि द्वारा उन्होंने परिपूर्ण अवस्था की प्राप्ति की थी। इस प्रकार परमवस्तु की प्राप्ति में वे गुरु-कृपा को प्रधान मानते थे जबकि स्वप्रयास को गौण। कविराज मौलिक चिंतन पर विशेष बल देते थे। ज्ञानार्जन के तीन विभिन्न स्तर यथा अध्ययन,मनन तथा बोध की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि अध्ययन ऐंद्रिय व्यापार है। साधना की विकासात्मक यात्रा में मन के स्तर पर वही मनन या चिंतन का रूप धारण कर लेता है किन्तु बोध इन दोनों से ऊपर की स्थिति है जिससे साधक बोधभूमि में पदार्पण करता है जो प्रज्ञात्मक है। यहां पर मानवीय चेतना का वह आलोक फूटता है जिससे शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्ध,आदि जगत का रहस्य खुलने लगता है और सर्व सर्वात्मक जगत की प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त हो जाती है। उनका अखण्ड महायोग इसी साधना पुष्ट मौलिक चिंतन का परिणाम है। वे प्रायः कहा करते थे कि केवल किसी चीज को रट लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि पूर्ण मनोयोग से स्वाध्याय करना चाहिए जिससे बुद्धि स्वतः सूक्ष्म विचार ग्रंथियों को खोलने की सामर्थ्य प्राप्त कर ले और उसका चरमोत्कर्ष स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे। वे समत्व,निर्वाह,अपरिग्रह,आप्तकामत्व एवं समन्वय की भावना के पोषक थे। दर्शन की भांति साधना के क्षेत्र में भी वे समन्वय के ही समर्थक थे। उनकी अपनी साधना -प्रणाली ज्ञान तथा योग से समन्वित थी। विश्व के प्रमुख दार्शनिक धाराओं के मर्मज्ञ होने के साथ शैव,शाक्त,वैष्णव,सूफी,ईसाई,बौद्ध,जैन आदि मतों में उपलब्ध भक्ति-साहित्य और उनके प्रवर्तकों के वे प्रशंसक थे। सांस्कृतिक अभेद के विकास को ही वे सारे अध्ययन का एकमात्र लक्ष्य मानते थे। उनके अनुसार मानव जीवन के परमलक्ष्य विश्वकल्याण की साधना अभेद स्थापना द्वारा ही सम्भव है। वे अपने समन्वय दर्शन में स्व की रक्षा करने के पक्ष में थे।
अध्यात्म साधना में गुरु एवं उनकी दीक्षा का महत्वपूर्ण स्थान मानते हुए वे कहते हैं कि गुरु अपनी अंतर्दृष्टि से साधक की पात्रता व सामर्थ्य का आकलन करने के उपरांत ही दीक्षा देता है। जीव तो क्षण में जन्म लेकर साधक व काल में जन्म लेकर योगी बनता है। उन्होंने साधक दीक्षा व योगदीक्षा में अंतर बताते हुए कहा कि कुण्डिलिनी का जागरण शिष्य अपने प्रयत्न से भी कर सकता है किन्तु यह एक कठिन कार्य है। अतः साधक को दीक्षा में इतनी शक्ति मिल जाती है जिसका पुरुषकार के साथ सदुपयोग करने पर कुण्डिलिनी जग जाती है। कुण्डिलिनी एक शक्तिमय ज्योति है। गुरुप्रदत्त दीक्षा द्वारा नित्यकर्म करते रहने पर वह जाग्रत शुद्ध तेज क्रमशः प्रज्ज्वलित हो जाता है और वासनादि का मायिक आवरण स्वतः समाप्त होने लगता है। कविराज अपने गुरु विशुद्धानंद द्धारा प्रतिपादित सेवा और कर्म द्वारा विज्ञान के अन्वेषण कार्य में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। कर्म, ज्ञान और भक्ति की त्रिवेणी का अजस्र श्रोत बढ़कर विश्वव्यापी हुआ। उन्होंने अपनी साधना एवं लेखनी द्वारा विश्व में व्याप्त लगभग समस्त प्रचलित साधना पद्धतियों एवं उनमें निहित सूक्ष्म भावों को उद्घाटित किया।इस प्रकार उनका समस्त ज्ञान अनुभव सिद्ध था।विशुद्धानंद जी द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक सम्पदा को अखण्ड महायोग नाम देकर कविराज जी ने इसे मुखरित किया जिसके कारण जीव जगत को इससे परिचय मिल स्का। यह अखण्ड महायोग आलोक ,अंधकार व मन से समझ जा सकता है।
साधना और सिद्धि :-
दीक्षा पूर्व जीवन में अध्यात्म साधना की दिशा में किये गए स्वाध्याय,मन्त्रजप,सत्संग को कविराज जी ने कर्म की संज्ञा दी और उसे वे साधनामय जीवन में प्रवेश करने की आवश्यक भूमिका भी मानते हैं। उनका कथन है कि निज के अनुभव के बिना आंतरिक स्थिरता नहीं प्राप्त होती है। दीक्षा के बाद वे विधिवत साधना-पथ पर अग्रसित हुए थे और गुरु के उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करते हुए अखण्ड महायोग की सिद्धि द्वारा उन्होंने परिपूर्ण अवस्था की प्राप्ति की थी। इस प्रकार परमवस्तु की प्राप्ति में वे गुरु-कृपा को प्रधान मानते थे जबकि स्वप्रयास को गौण। कविराज मौलिक चिंतन पर विशेष बल देते थे। ज्ञानार्जन के तीन विभिन्न स्तर यथा अध्ययन,मनन तथा बोध की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि अध्ययन ऐंद्रिय व्यापार है। साधना की विकासात्मक यात्रा में मन के स्तर पर वही मनन या चिंतन का रूप धारण कर लेता है किन्तु बोध इन दोनों से ऊपर की स्थिति है जिससे साधक बोधभूमि में पदार्पण करता है जो प्रज्ञात्मक है। यहां पर मानवीय चेतना का वह आलोक फूटता है जिससे शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्ध,आदि जगत का रहस्य खुलने लगता है और सर्व सर्वात्मक जगत की प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त हो जाती है। उनका अखण्ड महायोग इसी साधना पुष्ट मौलिक चिंतन का परिणाम है। वे प्रायः कहा करते थे कि केवल किसी चीज को रट लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि पूर्ण मनोयोग से स्वाध्याय करना चाहिए जिससे बुद्धि स्वतः सूक्ष्म विचार ग्रंथियों को खोलने की सामर्थ्य प्राप्त कर ले और उसका चरमोत्कर्ष स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे। वे समत्व,निर्वाह,अपरिग्रह,आप्तकामत्व एवं समन्वय की भावना के पोषक थे। दर्शन की भांति साधना के क्षेत्र में भी वे समन्वय के ही समर्थक थे। उनकी अपनी साधना -प्रणाली ज्ञान तथा योग से समन्वित थी। विश्व के प्रमुख दार्शनिक धाराओं के मर्मज्ञ होने के साथ शैव,शाक्त,वैष्णव,सूफी,ईसाई,बौद्ध,जैन आदि मतों में उपलब्ध भक्ति-साहित्य और उनके प्रवर्तकों के वे प्रशंसक थे। सांस्कृतिक अभेद के विकास को ही वे सारे अध्ययन का एकमात्र लक्ष्य मानते थे। उनके अनुसार मानव जीवन के परमलक्ष्य विश्वकल्याण की साधना अभेद स्थापना द्वारा ही सम्भव है। वे अपने समन्वय दर्शन में स्व की रक्षा करने के पक्ष में थे।
अखण्ड महायोग की पूर्णता अमरत्व-प्राप्ति ,निराकार प्रेम और अंत में प्रेम -साधना में है। इस योग से संसार में वैचित्र्य तथा विभिन्नता रहने पर भी भेद नहीं रहता। एक की प्राप्ति से सभी की प्राप्ति का सम्बन्ध नित्य बना रहता है। एक की मुक्ति से सभी की मुक्ति तभी सम्भव है जब समष्टि या महासमष्टि की दृष्टि में सम्पूर्ण संसार में तादात्म्य स्थापित हो जाये।अखण्ड महायोग की प्रेमसाधना परमेश्वर की महाकरुणा प्राप्त कर अपनी आश्रित सत्ता को अनुग्रहीत करने में है। परमेश्वर की कृपा मनुष्य के कर्म एवम ज्ञान पर निर्भर नहीं है। इन दोनों से महाकृपा द्रवीभूत नहीं होती है। वह तो परमेश्वर की स्वातन्त्र्य- शक्ति पर निर्भर है। महा कृपा का संचार होते ही मनुष्य में शिवत्व आ जाता है क्योंकि उस व्यक्ति में स्वयम परमात्मा की क्रियाशक्ति कार्य करने लग जाती है और उसके विकसित होने पर शिवत्व पूर्णरूप से प्रतिष्ठित हो जाता है। इस प्रकार कविराज जी का मानना है कि कर्म और कृपा से ही योगी अखण्ड महायोग के मार्ग पर चल पाता है। अखण्ड महायोग का उद्देश्य है गुरुकृपा के प्रभाव से काल की निवृत्ति। यद्यपि खण्ड रूप से यह कृपा अनादि काल से मिलती आयी है किन्तु इससे सामूहिक कल्याण अभी तक नहीं हो पाया है। अतः इसके लिए आवश्यक है मोक्षपद की ओर आरोहण का कार्य समाप्त कर महाशक्ति के साथ अपना तादात्म्य सिद्ध करने का। महाशक्ति सम्पन्न होकर योगी महाप्रेम की साधना के लिए विश्व में अवतरण करे जिसका उद्देश्य है विशुद्ध प्रेम की साधना।उनका कहना था कि यदि निष्कपट और सरल भाव से तुम धर्म तत्व सम्बन्धी आलोचना का अनुसरण करते रहोगे तो एक दिन तुम्हारे हृदय में वास्तविक जिज्ञासा अवश्य ही उत्पन्न हो जायेगी और तबउसके समाधान के लिए तुम्हें किसी भिन्न उपदेष्टा के पास जाने की आवश्यकता नहीं होगी। तुम्हारे अनंतर से ही अंतर्मयी गुरु समस्त संशयों का समाधान कर देंगे। केवल आचार की विशुद्धता से शारीरिक पवित्रता दीर्घ आयु आरोग्य तथा चित्त की स्थिरता आदि में सहायता मिलती है। जो लोग उच्च तत्वों का विचार करते हैं परन्तु अपने व्यक्तिगत जीवन में उनका आचरण नहीं करते वे कभी सत्य धर्म का पता नहीं पा सकते। जो जिस परिणाम में श्री भगवान के अनुग्रह वितरण रूपी इस महायज्ञ में भाग ले सकते हैं उनको उतना ही सौभाग्यवान समझना चाहिए। जिनकी करुणा का प्रसार क्षेत्र जितना अधिक होता है ,श्री भगवान के साथ उनका तादात्म्य भी उतना ही गम्भीर होता है।
इस महामनीषी का जीवन उस अथाह सागर की भाँति है जिसे मापना हम अल्पज्ञों के लिए सम्भव नहीं है। कविराज जी का सम्पूर्ण जीवन जिस महासंकल्प की पूर्ति हेतु समर्पित रहा है उस संकल्प से हम सभी लोगों की सतत युक्तता ही इस महामनीषी के प्रति सच्ची एवम सार्थक श्रद्धांजलि होगी। पूज्य कविराज कहा करते थे -"मात्र तुम्हें सदा मुझसे युक्त रहना है। "
No comments:
Post a Comment