Tuesday, July 26, 2016

सन्त रानडे

  सन्त रानडे का जन्म ३ जुलाई सन् १८८६ ई० को जमखण्डी के एक सत्वशील कुल में हुआ था। इनकी माता पार्वती देवी ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जमखण्डी के पास स्थित रामेश्वर की सेवा की थी और उनकी सेवा सफल होकर मानों रामेश्वर के वरदपुत्र राम ही जन्म लेकर कर्नाटक प्रदेश के बीजापुर जिले में जमखण्डी की पावनभूमि पर अवतीर्ण हुए। माता की आध्यात्मिक संरक्षता में बालक का उत्तरोत्तर पथप्रदर्शन हुआ। नन्देश्वर मन्दिर के प्रमुख स्वामी जी ने रानडे को सदाचार एवं उन्नति के पथ पर अग्र्सित किया। इनकी माता भावविभोर होकर प्रायः कह उठती थी कि मेरे प्रिय ,तुम वास्तव में मेरी गोद में एक सन्त के रूप में पैदा हुए हो। रानडे के पिता श्री दत्तोपन्त ने स्वामी जी से ही बालक का नामकरण करवाया। रामेश्वर जी की कृपा होने के कारण इनका नाम रामचन्द्र रखा गया। बचपन में माता -पिता इन्हें प्यार में रामभाऊ कहकर पुकारा करते थे। आरम्भ से ही रामभाऊ में प्रबल आध्यात्मिक सम्भावनायें प्रकट होने लगीं। बाल्यकाल में वे जब कभी कोई तुलसी का पौधा,बेल का वृक्ष अथवा गाय को देखते थे ,तो उसे ईश्वरत्व का प्रतीक समझकर सिर झुकाया करते थे। 
इनकी शिक्षा का श्रीगणेश जमखण्डी में ही स्थित प्राइमरी पाठशाला से हुआ। प्राइमरी की शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद बड़ी बहन एवं माता जी की संरक्षता में इन्होने परशुराम भाउ हाईस्कूल में प्रवेश लिया। जब वे मैट्रिक के पूर्व के विद्यार्थी थे तभी इन्हें कई बार लोगो ने कक्षा के बाहर स्थित पहाड़ियों को एकाग्रचित्त होकर देखते हुए पाया। अतः इस बालक को सन् १९०१ ई में बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन पन्द्रह वर्ष की आयु में ही समर्थ भाऊ साहब महराज उमादि  ने ईश्वर नाम का नामस्मरण मन्त्र देकर परमार्थ पथ पर अग्रसित होने के लिए दीक्षित कर लिया। विद्यार्थी जीवन में रानडे बहुत ही योग्य एवं मेधावी छात्र रहे और इन्हें प्रथम शंकर सेठ छात्रवृत्ति मैट्रिक के उपरान्त मिली थी तथा मैट्रिक की परीक्षा में इनका दूसरा स्थान रहा। इस सफलता के बाद गुरु के सीधे सम्पर्क में आ जाने के कारण इनकी गुरुभक्ति दृढ़तर होती गई और साधना गंभीरतर। मैट्रिक के बाद आगे की शिक्षा के लिए इनका नाम डेक्कन कालेज पूना में लिखवाया गया। यहां आकर इन्होने अपने विद्यार्थी जीवन को अधिक सफल बनाने का प्रयत्न किया और इन्हें अपूर्व सफलता भी मिली। रानडे आरम्भ से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के छात्र रहे तभी तो इनके अंग्रेजी के अध्यापक ने कहा था कि यह एक मेधावी छात्र हैं और इनका उत्तर मौलिक एव अनुकरणीय है। नियमतः इसी लिए इन्हें सर्वाधिक अंक मिलते हैं। यहीं से रानडे ने इंटर की प्रथम एवं द्वितीय वर्ष की परीक्षाएं प्रत्म श्रेणी में उत्तीर्ण की। बी ० ए ० में इन्होने गणित विषय लेकर उच्च सफलता प्राप्त की। इसी बीच एक लम्बी एवं गम्भीर बीमारी इनके पोस्टग्रेजुएट अध्ययन में बाधक बन गई जिससे अप्रतिहत रामभाऊ ने अपने जीवन को एक नई दिशा की ओर मोड़ दिया और अपने गुरु पर अविचल श्रद्धा रखकर सतत गम्भीरतम साधना में लीन रहने लगे। 
सन् १९१३ ई ० में रानडे डेक्कन कालेज में संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट के क्यूरेटर के रूप में नियुक्त हुए किन्तु इसे कुछ कारणवश उपयुक्त नहीं समझा। अतः उन्होंने पुनः डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी में प्रवेश ले लिया और १९१४ ई में इसके आजीवन सदस्य बन गए। इसी वर्ष इन्होने दर्शन विषय लेकर एम० ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसपर इन्हें चांसलर का स्वर्णपदक व के ० टी ० तेलंग पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इसके पश्चात रानडे दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप में फर्गुसा कालेज में नियुक्त हो गए और दस वर्ष तक उसी पद पर बने रहे। इसी बीच सन् १९२० ई में इन्हें पुनः गम्भीर बीमारी का सामना करना पड़ा। सन् १९२६ ई में रानडे की पुस्तक" ए कंस्ट्रक्टिव सर्वे आफ उपनिषदिक फिलासफी "अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई। इस ग्रन्थ के माध्यम से रानडे को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई और इसी ग्रन्थ के प्रभाव से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति डॉ गंगनाथ झा के मन में रानडे के प्रति श्रद्धाभाव जागृत हुआ और उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष पद के लिए इन्हें आमन्त्रित किया। यद्यपि यह पद सम्माननीय होने के साथ ही आर्थिक दृष्टिकोण से भी उपयुक्त था तथापि रानडे ने इलाहाबाद की जलवायु  अपने शारीरिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से उपयुक्त समझने के पश्चात ही अपनी स्वीकृति प्रदान की। बाद में रानडे कुछ समय के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद को भी सम्मानित किया। अवकाश प्राप्त होने पर भी वे विश्वविद्यालय के एमिरेट्स प्रोफ़ेसर के सम्मान से विभूषित किये गए तथा यहीं से डी ० लिट ० की उपाधि भी इन्हें ससम्मान प्रदान की गई।
साधना-पथ :- 
सन् १९४६ ई में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होकर रानडे निम्बाल चले गए और वहीं पर एक छोटे से आश्रम में रहने लगे। वहां पर कर्नाटक प्रदेश ,महाराष्ट्र एवं इलाहाबाद से सैकड़ों लोग प्रतिदिन इनसे मिलने के लिए आया करते थे। इसी बीच वे पुनः अस्वस्थ हुए। अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए वे किसी प्रकार की औषधि का सेवन स्वीकार नहीं करते थे  सिर्फ गंगाजल का सेवन करके इन्होने आरोग्य की कामना की। जीवन के अंतिम चार दिनों में इन्होने अन्नजल दोनों का परित्याग कर दिया था फिरभी अंत तक वे पूर्णतः स्वस्थ एवं जाग्रत रहे। दिनांक ६ जून १९५६ ई को अपने हाथों जितना देवकार्य सम्भव था करके शांतचित्त से ध्यानमग्न अवस्था में निम्बाल में ही शरीर का परित्याग कर महासमाधि प्राप्त की।रानडे के साधना मार्ग एवं सिद्धि के सन्दर्भ में एक प्रसंग उल्लेखनीय है जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष थे उसी दौरान वे अपनी मोटर कार से कहीं जा रहे थे और रास्ते में किसी वीरान स्थान पर कार अचानक खराब हो गयी तब कार चालक ने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। रानडे जी ने कार चालक से कहा  कि वे थोड़ी देर तक यहीं पर साधना कर रहें हैं इस बीच तुम बोनट खोलकर देख लो कि क्या खराबी आयी है। साधना से उठने के बाद रानडे जी ने कहा देखो शायद मोटर ठीक हो गयी है। कार चालक ने ज्योंहि  मोटर स्टार्ट की तो मोटर चल पड़ी।इस प्रसंग से उनकी साधना की परिपक्वता की पुष्टि होती है।     
रानडे की दार्शनिक एवं रहस्यवादी प्रवृत्ति का ज्ञान उनके इस कथन से होता -"प्रारम्भ से ही आध्यात्मिक जीवन मेरा लक्ष्य रहा है , आशा है यही उपसंहार भी होगा। " रानडे का बचपन ही ऐसे आध्यात्मिक वातावरण में व्यतीत हुआ जिसमें दार्शनिक सम्भावनाएं स्वयं इनके मन में जाग्रत हुई। इस जाग्रति का क्रमशः विकास उन्हें रहस्यवाद की गहनतम अनुभूतियों तक ले गया। अपने विद्यार्थी जीवनकाल  में ही रानडे ने विवेकानंद , रामकृष्ण परमहंस जैसे चिंतकों के विचारों को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। प्राइमरी शिक्षा के बाद इन्होने तुकाराम ,ज्ञानदेव ,नामदेव ,एकनाथ एवं रामदास जैसे उच्चकोटि के संतों के उपदेशों एवं गर्न्थों को पढ़ा था। इस अध्ययन के प्रभाव से रानडे के मन पर इतना प्रभावकारी सिद्ध हुआ कि वे आजीवन सन्त बनने का ही प्रयास करते रहे। इन संतों की वाणियों को ईश्वरीय सन्देश के रूप में स्वीकार किया और स्वयं भी उच्च कोटि की साधना को अपनाकर परम साक्षात्कार की ओर उन्मुख हुए।
दार्शनिक पृष्ठभूमि :-
 रानडे अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति का श्रेय वैदिक एवं औपनिषदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित मंत्रों एवं ऋचाओं को देते हैं। इनमें वे रहस्यवाद के बीज पूर्व निहित मानते हैं।रानडे के अनुसार ईश्वरानुभूति एक व्यापक एवं सतत प्रक्रिया है। इसके लिए उन्होंने पांच विभिन्न सोपानों का वर्णन किया है :-प्रथम सोपान आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने की प्रेरणा ,दूसरा सोपान नैतिक तैयारी ,तीसरा सोपान साधक और साध्य का सम्बन्ध ,चौथा सोपानआध्यात्मिक यात्रा का शुभारम्भ और पाँचवा सोपान चरम उपलब्धि जिसमें साधक सिद्धि प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करता है  और साध्य में विलीन हो जाता है। रानडे आत्मानुभूति को ही मोक्ष मानते हैं। उनके लिए यह कोई घटना नहीं है बल्कि एक सतत प्रक्रिया है। इसे ही उन्होंने स्वानुभूति की संज्ञा दी। यही स्वानुभूति आगे चलकर आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। .इस स्वानुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत समाप्त हो जाता है। रानडे ने इसी प्रक्रिया से प्रभावित होकर अपने दर्शन को आनन्दवाद कहा।    
रहस्यवादी दर्शन के प्रणयन में रानडे ने धर्म एवं दर्शन के मूलतत्वों की प्रमाणिकता की जाँच बहुत ही सजग होकर की है। सर्वप्रथम वे तत्कालीन धार्मिक विचारों से प्रभावित हुए। पूर्व संस्कार एवं आध्यात्मिक परिवेश के कारण वे दर्शन की अपेक्षा रहस्यवाद के सम्पर्क में आ गए। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि दर्शनशास्त्र द्वारा निर्देशित तर्कप्रधान एवं बौद्धिक प्रयास की अपेक्षा रहस्यवाद का अनुभूति प्रधान मार्ग अधिक प्रमाणिक है। सर्वप्रथम उन्होंने इसे व्यावहारिक मार्ग के रूप में लिया क्योंकि इसमें तर्क एवं बौद्धिक विश्लेषण की प्रधानता नहीं थी। यह मार्ग आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करता है जिसके परिणामस्वरूप सहज ही द्वैतभाव विनष्ट होकर परम सत्य का साक्षात्कार करता है। अतः रानडे के अंतः प्रज्ञात्मक व आत्मानुभूतिवादी  पूर्व अन्य प्रमाणों का अध्ययन आवश्यक है। रानडे के शब्दों में -"जब शब्द ब्रह्म साक्षात्कार की अन्तःवृत्ति के स्वरूप का यथार्थ निर्देशन करने में असफल रहते हैं तो सुविधा के लिए मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक शब्द बुद्धि अथवा अंतर्ज्ञान कुछ भी कह लीजिए ,आविष्कृत कर लेना और उसे ब्रह्म साक्षात्कार का उत्तरदायी बनाना उपयुक्त है। 
रानडे वेद ,उपनिषद एवं भगवदगीता का सम्यक अध्ययन किया और इस अध्ययन के पश्चात उन्होंने उनकी  व्याख्या अपने ढंग से की। रानडे द्वारा लिखीं गई पुस्तकों के विवरण निम्नवत हैं --
  १-   ए कंस्ट्रक्टिव सर्वे आफ उपनिषदिक फिलॉसफी---    प्रकाशक -भारतीय विद्याभवन  १९२७ ई ० । 
  २-हिस्ट्री आफ इंडियन फिलॉसफी-  प्रकाशक -आर्यभूषण प्रेस पूना १९३३ ई ०। 
   ३ -मिस्टीसिज्म इन महाराष्ट्र        "
     ४ -पाथ वे टू गॉड इन हिंदी लिटरेचर - प्रकाशक अध्यात्म विद्या मंदिर सांगली १९५४ ई ०  . 
    ५ -पाथ  वे टु गॉड इन कन्नड़ लिटरेचर -प्रकाशक  भारतीय विद्या भवन बम्बई १९६० ई। 
  ६ -एस्सेज एन्ड रेफ्लेक्सन - प्रकाशक  भारतीय विद्या भवन बम्बई १९६४ ई ०। 
   ७- द  भगवदगीता एज ए फिलॉसफी आफ़ गाड़ रियलाइजेशन  नागपुर विश्व विद्यालय १९५९ ई ०। 
  ८- वेदान्त द कल्मिनेशन आफ इंडियन थॉट  प्रकाशक -भारतीय विद्या भवन १९७० ई ०। 
 ९- फिलॉसफी एण्ड अदर एस्सेज  -प्रकाशक -गुरुदेव सत्कार समिति जमखंडी १९५६ ई ०। 
१०- द  कन्सेप्शन आफ स्प्रिचुअल लाइफ इन महात्मा गांधी एन्ड हिंदी सेंट्स - प्रकाशक -गुजरात विद्या सभा  १९५६ ई ०                                                                                                                                                      
११ -परमार्थ सोपान  प्रकाशक --अध्यात्म विद्या मंदिर सांगली १९५४ ई ०             

No comments:

Post a Comment