जीवन-परिचय :-
देशभक्ति एवं समाजसेवा :-स्वामी रामतीर्थ जी ने किसी मिशन या संस्था की स्थापना नहीं की थी। उनसे जब इस सम्बन्ध में किसी ने पूंछा तो वे प्रायः यही उत्तर दिया करते थे कि "दुनिया में जो इतने कार्यकर्ता,सभाएं और संस्थाएं कार्य कर रहीं हैं ,वे सब मेरी ही हैं। असंख्य संस्था खड़ी करने की क्या आवश्यकता है ?"चूँकि स्वामी जी की अल्पायु में ही आकस्मिक मृत्यु हुई थी अतः वे इस प्रकार की कोई कार्ययोजना नहीं बना सके थे। स्वामी जी अपने देश और देश के लोगों से अगाध प्रेम करते थे। उनके लिए सम्पूर्ण विश्व कुटुंब की तरह था। उन्होंने जीवनभर परोपकार एवं दीनदुखियों की सेवा करने का ही उपदेश दिया। स्वामी जी की प्रेरणा से उस समय लाखों लोगों ने अपने जीवन में आशातीत सुधार ले आया था। ईश्वरीय सत्ता के उच्च स्तर पर पहुंचे हुए अधिकांश साधक कार्यरूप में जनता का मार्गदर्शन करने के बजाय विचारों द्वारा ही परिस्थितियों को बदलने का कार्य किया है। इसीलिए स्वामी जी ने कालेज की शिक्षा समाप्त करके उच्च सरकारी अधिकारी बनने की अपेक्षा अध्यापन का कार्य करना अधिक उचित समझा। जिसके द्वारा बहुसंख्यक विद्यार्थियों को आत्मोत्थान की शिक्षा देने का उन्हें अवसर मिला। इसके बाद जब उनका आत्मिक स्तर और ऊंचा हो गया तो उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़कर सन्यास ग्रहण कर लिया जिसका उदेश्य समस्त समाज को सत्य,धर्म,कर्तव्य का उपदेश देना था। उनका कथन था कि समयानुकूल परिवर्तन से घृणा मत करो और न पुरानी रीतियों तथा वंश-परम्परा पर अधिक जोर दो क्योंकि ये सभी मनुष्यता से गिराने वाली हैं। उन्होंने नारी उत्थान पर भी विशेष बल देते हुए स्त्रियों को निर्जीव पदार्थ मानने का विरोध किया था। उन्होंने देखा कि उद्योगहीनता,ऊँचनीच का भेदभाव,अहंकार,धर्म के नाम पर कुसंस्कारों को प्रोत्साहन और पाखण्डों का पालन आदि ऐसे दोष हैं जिनके कारण भारतवासी अवनति के गड्ढे में पड़े हैं। उनके अनुसार सर्वोपरि श्रेष्ठ दान जो आप किसी को दे सकते हैं वह विद्या या ज्ञान का दान है। आप किसी को आज भोजन दे दें फिरभी वह दूसरे दिन पुनः भूखा हो जायेगा। अतः आप उसे कोई ऐसी कला सीखा दें जिससे वह जीवनपर्यन्त अपनी जीविका को चला सके। धर्म का सारतत्व है अपने ऊपर से पर्दा हटाना अर्थात अपने आपका रहस्य समझना। सच्चे धर्म का आशय ईश्वर शब्द पर विश्वास करने से पहले भलाई पर विश्वास करना है। इस प्रकार स्वामी रामतीर्थ जी ने देश में यथार्थ ज्ञान की वह ज्योति जलाई जिसके प्रकाश में हमारी अकर्मण्यता और अन्धविश्वास दोनों का निराकरण होकर आत्मोद्धार के दर्शन होने लगे। स्वामी जी के उपदेश व उनके द्वारा बताये मार्ग हमेशा भारतवासियों के कल्याण के पथ को प्रशस्त करता रहेगा।
स्वामी रामतीर्थ जी का जन्म सन १८७३ ई ० को दीपावली के पावन पर्व पर पंजाब प्रान्त के जनपद गुजरावाला के गाँव मराली में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित हीरानन्द गोस्वामी था जो एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। पिता ने इनका नाम तीर्थराम रखा था।बचपन में ही इनकी माता का देहान्त हो गया जिसके कारण इनका बचपन कठिनाइयों में गुजरा। इनके पिता की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी जिसके कारण वे इन्हें किसी अच्छे विद्यालय में नहीं पढ़ा सके। अतः जब तक वे अपने गांव मराली में रहे तब तक वहां स्थित प्राइमरी स्कूल में एक मौलवी से उर्दू पढ़ते रहे। नौ वर्ष की आयु में शहर के हाईस्कूल में प्रवेश दिला दिया गया जहां इनके पिता एक मित्र धन्ना भगत इनकी देखभाल किया करते थे। मात्र दस वर्ष की अल्पायु में इनके पिता ने इनकी शादी करवा दी थी। गरीबी एवं विषम आर्थिक स्थितियों के मध्य पन्द्रह वर्ष की आयु में इन्होंने अपनी माध्यमिक शिक्षा पास करके पंजाब प्रान्त में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। सर्वप्रथम आने के कारण इन्हें विशेष छात्रवृत्ति मिलने लगी और इसी छात्रवृत्ति के आधार पर लाहौर के एक कालेज में बी ए में प्रवेश ले लिया।इनके पिता कालेज की पढाई के लिए राजी नहीं थे इसलिए उन्होंने किसी प्रकार की आर्थिक सहायता देने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी। रामतीर्थ अपनी पुस्तकों एवम फ़ीस आदि का खर्च तो छात्रवृत्ति से पूरा कर लेते थे और भोजन के लिए कोई ट्यूशन करके काम चला लेते थे। इनके पिता ने जब अपनी मर्जी के विरुद्ध कालेज में प्रवेश कर लेने की बात सुनी तब उन्होंने इनकी पत्नी को भी इनके पास भेज दिया ताकि जब खर्च की कमी पड़े तो कोई नौकरी कर लें। सन १८९१ ई ० में पंजाब विश्व विद्यालय की बी ए परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त किये और फिर उच्च शिक्षा अर्थात एम ए में गणित विषय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उसी कालेज में अध्यापक के पद पर नियुक्त हो गए।वे अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के पढाई में लगा दिया करते थे। साधारण जीवन यापन करना इन्हें प्रिय था।
इस प्रकार तीर्थराम को अपने विद्यार्थी जीवन में ही त्याग और तपस्या का पूरा परिचय देना पड़ गया था। उनके विद्यार्थी जीवनकाल की दो चार घटनाओं से विदित होता है कि उस समय भी वे एक योगी की भांति एकमात्र विद्याध्ययन को लक्ष्य बनाकर संसार की अन्य बातों को भूले हुए थे। उनके बचपन की कठिनाइयों के सम्बन्ध में कहा गया है कि यह सच है कि जिस भयानक गरीबी में तीर्थराम जी ने कालेज में शिक्षा प्राप्त की ,वह शायद ही और किसी विद्यार्थी ने अनुभव की हो। अनेक दिन ऐसे भी आये कि लाहौर जैसे शहर में केवल तीन पैसे रोज पर गुजारा करते रहे। सुबह के वक्त एक दुकान पर दो पैसे की रोटी खरीद लेते और दाल के साथ खा लेते। शाम को उसी दुकान से एक पैसे की रोटी कहते ,दाल मुफ्त में मिल जाती। कुछ दिन तो इसी तरह बिताये पर बाद में दुकानदार ने कह दिया कि एक पैसे की रोटी के साथ दाल मुफ्त में नहीं मिल सकती। इस पर लाचार होकर शाम का खाना बन्द कर देना पड़ा और सुबह एकबार ही खाकर सन्तोष कर लेते। उनके पास पहिनने को न तो कोट था और न पतलून। उनके पास खद्दर की बनी एक कमीज थी और एक पायजामा। पैरों में एक मामूली देशी जूता पहनकर काम चलते थे। कहा जाता है कि एकबार दुकान से कुछ सामान खरीदते समय उनकी एक जुटी नाली में गिर गयी थी तो दोसरे दिन वे एक जुटी पुरानी उसके साथ पहनकर कालेज गए। जब पैसे का प्रबन्ध हो गया तब एक नै जुटी खरीद लिए थे। उनकी यह दशा देखकर कुछ मित्र उन्हें यदा कदा थोड़ी बहुत सहायता भी कर दिया करते थे। सन १८९३ ई ० में लिखे गए एक पत्र में उन्होंने लिखा था --झंडामल ने मुझे दो कुर्ते और एक पायजामा दिया है और ज्वालाप्रसाद का कोई भी कपड़ा पहिं लेने की मुझे छूट है। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।
तीर्थराम के एक निकटतम सहयोगी और उच्चकोटि के विद्वान प्रोफेसर पूर्ण सिंह ने स्वामी जी की छात्रावस्था का वर्णन करते हुए लिखा है --"रात को पढ़ने हेतु दीपक के तेल के लिए वे कभी कभी वस्त्र नहीं बनवाते थे व किसी किसी दिन भोजन भी नहीं करते थे। स्वामी राम की छात्रावस्था में प्रायः ऐसा हुआ है कि वे शाम से सबेरे तक पढ़ने में लीन रहे। वदया का प्रेम इतने जोर से उनके हृदय में मसोसता था कि विद्यार्थी जीवन में साधारण सुख और शारीरिक आवश्यकताएं बिलकुल भूल गयीं थीं। भूख प्यास और सर्दी गर्मी का उनकी इस ज्ञान पिपासा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। गुजरांवाला और लाहौर के जिन लोगों ने उन्हें उस समय देखा था ,उनका कहना है कि शुद्ध चित्त गोस्वामी तीर्थराम दिनरात असहाय और अकेला परिश्रम करता रहता था अर्थात बिना युद्ध के साधनों के जीवन में संग्राम करता था। "
एकदिन कालेज में प्रिंसिपल ने इनसे पूंछा कि एम० ए० पास करने के बाद क्या करोगे ? तो तीर्थराम ने उत्तर दिया --"यदि कोई इच्छा है तो यही कि अपना सारा जीवन और हर एक साँस प्रभु की सेवा में लगा दूँ और मनुष्य मात्र की सेवा करूँ क्योंकि लोकसेवा ही ईश्वर -सेवा है। "स्वामी राम के ये मनोभाव बतलाते हैं कि एक सच्ची आत्मा में सेवा धर्म पालन करने की कैसी उत्कट अभिलाषा होती है ?जिस विद्यार्थी जीवन में सब कोई ऊँची नौकरी करने की बात करते हैं और भले बुरे सभी उपायों से उसी के लिए प्रयत्न करते रहते हैं ,उस समय तीर्थराम ने स्वयमेव मिलती हुई कलक्टर और जज की नौकरियों की तरफ निगाह भी नहीं डाली। उस समय भारतवासियों की पहुँच अधिक से अधिक इन्हीं पदों तक होती थी और अरविन्द,देशबन्धु दास, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि सर्वोच्च नेताओं के अभिभावकों ने उनको आई सी एस बनाकर इन पदों की ही अभिलाषा की थी।
तीर्थराम जी ने बचपन से ही परोपकार की सक्रिय साधना प्रारम्भ कर दी थी। जब वे बी०ए० की परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किये थे तभी उनको ६० रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिलने लग गयी थी जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो गयी किन्तु उन्होंने कभी भी आराम की जिंदगी नहीं गुजारी और न ही सान्सारिक भोगों में प्रवृत्त हुए। यद्यपि उनकी पत्नी साथ में थी तो भी वे धर्मशास्त्रों के नियमानुसार गृहस्थ -धर्म का पालन करने के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का सदैव ध्यान रखते थे। एम् ए में अध्ययन के समय वे गेहूं की रोटी खाना भी छोड़ दिए थे और कई कई दिन केवल दूध पर ही रह जाते थे या उबला हुआ चावल खाकर काम चला लेते थे। उनके ही शब्दों में -"जो लोग अपने पेट को हलुवा पूरी या अन्य बढ़िया समझें जाने वाले भोजन से भरे रहते हैं ,वे प्रतिभाशाली होने पर भी मूर्ख हो जाते हैं। भोजन जितना हल्का होता है दिमाग भी उतना ही काम करता है। इसके अतिरिक्त चित्त की एकाग्रता के लिए दिल की पवित्रता भी बहुत आवश्यक है। जिस विद्यार्थी का दिल पवित्र नहीं है ,जो गन्दे विचारों को मन में स्थान देता है ,वह किसी तरह अपने दिल दिमाग को ऐसी सही हालत में नहीं रख सकता जिससे विद्या और ज्ञान के क्षेत्र में ऊँचा उठ सके। "
इस प्रकार तीर्थराम जी ने अपना उदाहरण दिखाकर लोगों को यह उपदेश दिया कि जीवन की वास्तविक सफलता बड़े पद पा लेने अथवा भरी चमक-दमक बढ़ लेने में नहीं है। सच्ची प्रसन्नता और शांति वही प् सकता है जो त्याग और परोपकार की जीवन बिताएगा। स्वामी रामतीर्थ में सान्सारिक विभूतियों के त्याग की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। वे उच्च कोटि के प्रतिभाशाली थे और गणित में जिनकी टक्कर लेने वाला उस समय कोई भी नहीं था। अगर वे शिक्षा के क्षेत्र में ही संलग्न रहते तो एक समय वे निश्चय ही अन्य प्रसिद्ध पुरुषों की तरह यश और नाम के साथ धन के अधिकारी भी हो जाते ,पर उनका झुकाव सदा अध्यात्म की ओर अधिक रहा। दूसरों की भलाई और उपकार को सदा वे तैयार रहे और हमेशा यही अभिलाषा रखी कि मुझसे संसार की जो अधिक से अधिक सेवा हो सकती है ,उसमें कमी न रहे।वे सदैव कृष्ण कृष्ण की रट लगाया करते थे। सन १८९७ ई में गुजरात काठियावाड़ की तरफ जगतगुरु शंकराचार्य जी की आगमन हुआ। उस समय स्वामी रामतीर्थ लाहौर की सनातन सभा के मंत्री नियुक्त किये गए थे और शंकराचार्य जी की सेवा का भर उन्ही के ऊपर था। शंकराचार्य जी उनके धर्मभाव को देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उनको अपने साथ रखकर वेदांत की शिक्षा देने लगे। इस भ्रमणकाल में उन्होंने ऋषकेश आदि कई स्थानों में रहकर एकांत में जप -तप और ध्यान भी किया। इसी समय उन्होंने उपनिषदों का भी अध्ययन किया। इससे उनके त्याग -भावना की और भी वृद्धि हुई और उन्होंने सांसारिक बन्धनों की निस्सारता समझकर अपना जीवन पूर्णरूप से धर्मप्रचार में लगा देने का निश्चय कर लिया।
आगे चलकर स्वामी रामतीर्थ जी ने अद्वैतं वेदांत का अध्ययन और मनन प्रारम्भ कर दिया और इसी समय उर्दू में एक मासिक पत्रिका "अलिफ़ "निकलना आरम्भ किया। इस समय इनके ऊपर दो महात्माओं का विशेष प्रभाव पड़ा -पहला द्वरिकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य और दूसरा स्वामी विवेकानंद जी का। वर्ष १९०१ ई में तीर्थराम ने लाहौर से अंतिम विदा लेकर परिजनों सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया।अलकनंदा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुंचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। तोहरी के समीप पहुंचकर नगर में प्रवेश करने की बजाय वे कोटि ग्राम के शालमि वृक्ष के नीचे ठहर गए। ग्रीष्मकाल होने के कारण उन्हें यह स्थान सुविधाजनक लगा और एकदिन मध्यरात्रि में वही पर उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ। उनके मन के सभी भ्रम व संशय मिट गए और वहीं पर उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया और वे प्रोफेसर तीर्थराम से स्वामी रामतीर्थ हो गए। उन्होंने द्वारिकापीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूंछ आदि का त्यागकर वहीं पर सन्यास ले लिया तथा अपनी पत्नी व अन्य साथियों को वहां से घर वापस जाने का आदेश दे दिया।
रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी पुस्तक "मन की लहर "में "युवा सन्यासी "शीर्षक से स्वामी रामतीर्थ के सन्यास लेने पर यह मार्मिक कविता लिखी थी --
वृद्ध पिता माता की ममता,बिन ब्याही कन्या का भार।
शिक्षाहीन सुतों की ममता ,पतिव्रता पत्नी का प्यार।
सन्मित्रों की प्रीति और ,कालेज वालों का निर्मल प्रेम,
त्याग सभी अनुराग किया,उसने विराग में योगक्षेम।
प्राणनाथ बालक सुत दुहिता,यूँ ही कहती प्यारी छोडी,
हाय! वत्स वृद्ध के धन , यूँ रोती महतारी छोड़ी।
चिर सहचरी, रियाजी छोड़ी, रम्यतटी , रावी छोड़ी।
शिखा सूत्र के साथ, हाय ! उन बोली पंजाबी छोड़ी।
स्वामी जी ने सांसारिक जीवन त्यागकर सन्यासी हो जाने का निर्णय उसी दीपावली के दिन लिया जिस दिन उनका जन्म हुआ था। यह उनका निर्वाण दिवस था और ईश्वर की माया से उन्होंने अपना शरीर त्याग भी ३३ वर्ष की अवस्था में दीपावली के दिन ही सन १९०६ ई ० में किया था। स्वामी जी के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अन्य व्यक्ति सन्यास लेते समय अपने शिखा सूत्र एवं वस्त्रादि का परित्याग करते हैं किन्तु स्वामी रामतीर्थ ने बौद्धिक विषय अर्थात अपने प्रिय विषय गणित का भी उसी समय परित्याग कर दिया था। वे गणित में स्नातकोत्तर थे और उसी विषय के प्रोफेसर भी थे। पंजाबी उनकी मातृभाषा थी ,पर सन्यास लेने के बाद उन्होंने पंजाबी भाषा का भी परित्याग कर दिया था।सन्यास लेने के बाद वे भारत में हिंदी एवं विदेशों में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करने लगे। छब्बीस वर्ष की अल्पायु में उनका यह त्याग एक उदाहरण बनकर रह गया। सन्यास लेने के बाद उन्होंने कोई भी दैनिक प्रयोग की वस्तु अपने पास नहीं रखी और वे निश्चिन्त होकर उत्तराखण्ड के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। उत्तराखण्ड की विपरीत जलवायु का दुष्प्रभाव उन पर पड़ा तो वे बीमार हो गए थे। इसी समय इनकी मुलाकात श्री नारायण स्वामी से हुई जिनका स्नेह पाकर वे शीघ्र ही स्वस्थ हो गए। श्री नारायण स्वामी बाद में इनके शिष्य बन गए थे और इनके साथ ही रहने भी लगे थे। स्वामी रामतीर्थ के देहावसान के पश्चात श्री नारायण स्वामी ने इनके अधूरे कार्यों को पूर्ण किया और इनके उपदेशों ,भाषणों व अन्य लेखों को प्रकाशित भी कराया था।
मथुरा -यात्रा :-
सन १९०१ के दिसम्बर माह में मथुरा में एक बहुत बड़ा धर्म -सम्मेलन आयोजित हुआ था जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों ने सहभागिता की थी। उस सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्वामी रामतीर्थ जी को सभापति चुना। स्वामी जी सभी धर्मों के ज्ञाता थे अतः सभी विद्वान उनको सम्मान की दृष्टि से देखते थे। सम्मेलन के तीसरे दिन स्काट नामक एक पादरी ने हिन्दू-धर्म पर आक्षेप किया तो स्वामी जी ने अपने तर्कपूर्ण शब्दों से उसका समाधान प्रस्तुत करके सभी को हतप्रभ कर दिया था। बाद में उस पादरी ने क्षमा प्रार्थना भी की थी। वसुधैव कुटुम्बकम को भवन से स्वामी जी ने हिन्दू धर्म को सम्पूर्म विश्व में प्रतिष्ठित करके उसकी सर्वोत्कृष्टता को प्रमाणित भी किया। सम्मेलन अपने नियत समय पर जब समाप्त हो गया तब वहां पर बैठे हुए दर्शक शांतभाव से स्वामी जी के उद्बोधन की प्रतीक्षा करने लगे थे। यह देखकर स्वामी जी ने इन शब्दों से उद्बोधित किया --"सभा का समय तो समाप्त हो चूका है और अब यहां कुछ कहना नियम विरुद्ध होगा। वैसे भी मैं इस चरों तरफ से बन्द कुछ कहना पसन्द नहीं करता। इसलिए अगर आपको मेरा भाषण सुनना है तो यहां से उठकर यमुना के किनारे भगवान के बनाये शामियाने अर्थात आकाश के नीचे चलिए ,वहीं पर राम अपने खयालात को जाहिर करेगा। "यह कहकर स्वामी जी ने सभा को समाप्त करने की घोषणा कर दी और वहां से सीधे यमुना जी की तरफ चल दिए। समस्त श्रोतागण भी सभामण्डप से उठकर स्वामी जी के पीछे चल पड़े और यमुना जी के तट पर एकांत स्थान पर जाकर बैठ गए। पौष का महीना था और रात्रि के समय यमुना के तट की बालू ठंडी होने लगी थी तब पर भी सभी श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर आठ बजे तक स्वामी जी के वचनामृत का पान करते रहे। मथुरा में स्वामी जी कुछ समय तक एकांतवास करके वहां से सन १९०२ ई ० के अप्रैल माह में टेहरी पहुँच गए। श्रीनारायण स्वामी भी उनके साथ ही थे। इस समय तक स्वामी जी की ख्याति विदेशों तक फ़ैल चुकी थी। टेहरी में ही टेहरी नरेश ने उनके लिए एक कुटी बनवा दी जिसमें वे कुछ दिनों तक रहे।
विदेशों में धर्म-प्रचार :-
उन्ही दिनों समाचारपत्र में जापान की राजधानी टोक्यो में एक धर्म सम्मेलन आयोजित होने की खबर छपी थी। इसके पूर्व सन १८९३ ई में एक ऐसा ही धर्म - सम्मेलन अमेरिका में आयोजित हुआ था जिसमें स्वामी विवेकानंद जी ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। अतः टोक्यो में आयोजित धर्म-सम्मेलन में प्रतिनिधित्व हेतु लोगों ने स्वामी रामतीर्थ जी से अनुरोध किया। टेहरी के महाराजा ने यह सुनकर स्वामी आग्रह किया कि वे जापान जाकर हिन्दू धर्म का प्रचार अवश्य करें। स्वामी जी हिन्दू धर्म की उच्च शिक्षाओं द्वारा विश्व कल्याण की भवन सदैव रखते थे अतः उन्होंने इसके लिए अपनी सहर्ष सहमति प्रदान कर दी। टेहरी के महाराजा ने उनकी जापान यात्रा का प्रबन्ध करवाया। जापान जाते समय जिन जिन बन्दरगाहों पर जहाज रुक ,वहां के हिन्दू व्यापारियों ने स्वामी जी का हार्दिक स्वागत किया। याकोहामा होकर जब वे टोक्यो पहुंचे तो सबसे पहले भारतीय जापानी क्लब में उनकी भेंट सरदार पूर्ण सिंह जी से हुई। पूर्ण सिंह जी जापान में उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु वहां पर गए थे। स्वामी जी वार्तालाप करने के बाद उनके जीवन पर इतना सकारात्मक प्रभाव पड़ा कि वे सिक्ख होते हुए भी स्वामी जी के शिष्य बन गए और अपने केश मुड़ाकर वहीं पर सन्यास लेने की घोषणा कर दी। बाद में सरदार पूर्ण सिंह देहरादून में प्रोफेसर भी रहे और आजीवन स्वामी जी के उपदेशों के प्रचार प्रसार में अपना जीवन समर्पित कर दिया। जापान में स्वामी जी लगभग दो सप्ताह प्रवास किये और इस दौरान वहां पर दिए गए भाषणों को लोगों ने बहुत अधिक पसन्द किया। लोगों का कहना था कि जितनी शांति उन्हें स्वामी जी के उपदेशों से प्राप्त हुई उतनी मैक्समूलर आदि बड़े विद्वानों के भाषणों से भी नहीं मिली। उसी दौरान एक जापानी नागरिक ने स्वामी जी से यह प्रश्न किया कि आपने घरबार और स्त्री बच्चों को क्यों छोड़ दिया ,तब स्वामी जी ने उसे उत्तर दिया था कि अपने छोटे से परिवार को एक बहुत बड़ा विशाल परिवार बनाने के लिए। वास्तव में स्वामी जी संसार के सभी मनुष्यों को चाहे वे किसी भी देश ,जाति व रंग के हों ,आत्मीय समझते थे। वे तो पशु पक्षी को भी आत्मवत मानते थे। चलते समय उन्होंने वहां के लोगों से कहा था -"-राम जापानी लोगों को क्या सिखाये ?यह तो सबके सब वेदांती हैं। ये राम की मूर्ति हैं। कैसे हंसमुख हैं। कैसे चुपचाप मेहनत करने वाले हैं ?राम इसी को जीवन का सार समझता है। "
कहते हैं कि जिस धर्म-सम्मेलन का समाचार सुनकर वे जापान गए थे वह समाचार वास्तव में गलत था। यह ज्ञात होने पर स्वामी जी खूब हंसे थे और कहा था कि मैं तो यहां पर सरदार पूर्ण सिंह का मार्गदर्शन करने आया हूँ। इसके बाद वे वहीं से अमेरिका के लिए प्रस्थान कर दिए थे। अपने अमेरिका प्रवास के दौरान एक दिन उनके पास वहां के एक धनपति ने आकर स्वामी जी से कहा कि लोग आपको बादशाह कहते हैं किन्तु आपके पास तो कोई भी सम्पत्ति नहीं है। इस पर स्वामी जी ने कहा था कि मेरे पास कुछ भी नहीं है इसीलिए तो मैं बादशाह हूँ। जो गरीब होता है वह संसार के सभी पदार्थों का संचय करता है। तुम भी बटोरते रहते हो इसलिए बादशाह नहीं हो। स्वामी जी की यह बात उस धनपति के मन में बैठ गयी और वह सोचने लगा कि धन्य है भारतवर्ष जहां त्याग का इतना महत्व है। जो इच्छाओं का दास है वह बादशाह कैसे बन सकता है ?अमेरिका में स्वामी जी के सैकड़ों व्याख्यान हुए और लोगों ने उन्हें बहुत ही तन्मयता से सुना। कई लोग उनके शिष्य भी बन गए। मिसेज वाइटमन नामक एक महिला ने स्वामी जी के भाषणों पर कई लेख लिख डाले थे और उसे प्रकाशित भी करवाया था। एक दूसरी वृद्ध महिला श्रीमती वैलमन भी अपने मानसिक कष्टों से छुटकारा पाने के लिए स्वामी जी की शरण में आयी थी। पहले तो वह स्वामी जी को ध्यान और मौन अवस्था में बैठा हुआ देखकर कुछ विचलित हुई किन्तु स्वामी जी के उसे मां सम्बोधन करने पर वह उनके निकट बैठ गयी थी। स्वामी जी तभी ॐ का जप करने लगे थे और वह महिला उनका मन ही मन अनुसरण करनने लगी थी। उसके मनोभाव स्वयं परिवर्तित होने लगे। बाद में वह स्वामी जी की शिष्य बनकर भारतवर्ष आयी और स्वामी जी के जन्म स्थान जाकर वहां पर ग्रामवासियों से मुलाकात की थी। वहां से देहरादून आकर उसने सरदार पूर्ण सिंह से अपना अनुभव इस प्रकार व्यक्त किया था --"स्वामी जी की दृष्टि से मुझमें एक न्य जीवन आया। मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि मैं जमीन से उठकर हवा में रौशनी की तरह उड़ रहीं हूँ। उस समय मैंने अनुभव किया कि मैं जगत की मां हूँ। सभी देश मेरे हैं। सभी लोग मेरे बच्चे हैं। मेरे दिल में इतना आनंद आया कि भारत देखने की इच्छा हो आयी। ॐ शब्द मेरी हड्डियों में गूंजता है। मां का शब्द मुझे भगवान तक ले जाता है। मैं चाहती हूँ कि मैं उनके पैरों को पूजूँ और जो आनंद उन्होंने मुझे दिया है ,उसी में समा रहीं हूँ। मेरे अंदर अमृतस्रोत बहने लग गए है जिससे मेरा सब मल दूर होकर मैं पवित्र हो गयी हूँ। "
स्वामी जी ने अपने अमेरिका के प्रवास के दौरान अपने सम्बोधन में कहा था -"संसार की सभ्य कौमें भी भेदभाव की जंजीरों में बंधीं हुई हैं। सबको अपनाने के बजाय वे लोग गरीबों से दूर हरते और प्रकृति के सहवास से हटकर बन्द कमरों में समय बिताना पसन्द करते हैं। उन्नति का असली उद्देश्य नीति व धर्म की रह पर आगे बढ़ना है। संसार का धन बटोर लेना या निकम्मी आवश्यकताओं को बढ़ लेना असली उन्नति नहीं है। योरोप और अमेरिका के लोग रुपया जमा करने के लोभ में फंसे हुए हैं।धन का लोभ ईश्वर दर्शन में सबसे बड़ी रुकावट है।"अमेरिका से लौटते समय वे रोम योरोप के रस्ते मिस्र पहुंचे और वहां भी कुछ दिनों तक ठहरे। इसी समय मिस्र में इस्लाम का प्रचार था जबकि किसी समय वहां पर भारत की प्राचीन सभ्यता का बोलबाला था। इन दोनों देशों का सम्बन्ध वैदिककाल में भी था और आर्यों की किसी शाखा ने ही यहां पर प्रचार किया था। बाद में यहूदी और ईसाई धर्म का आविर्भाव होने से उसमें परिवर्तन हो गए और मुसलमानों ने तो तलवार के जोर से उसे पूरी तरह अपने धर्म में मिलाने की चेष्टा की। जिस समय स्वामी जी जापान होकर अमेरिका जा रहे थे तो रस्ते में जहाज पर किसी अमेरिकन ने उनसे प्रश्न किया कि स्वामी जी आपका सामान कहाँ है ?तब उन्होंने उत्तर दिया था कि मेरे शरीर पर जितना सामान है बस यही मेरा सामान है। फिर उसने पूंछा कि अमेरिका में आप का कोई मित्र है ?यह सुनकर स्वामी जी ने कहा कि मैं तो केवल आपको ही जानता हूँ और आप ही मेरे मित्र हैं। स्वामी जी के इस आत्मीयतापूर्ण उत्तर कसुनकर वह अमेरिकन जिसका नाम हिल्लर था ,चकित हो गया और उसी क्षण उनका शिष्य बन गया। वह उन्हें अपने साथ घर ले गया तथा दो वर्षों तक उसने स्वामी जी को अपने पास ही रखा।
अमेरिका में ही एक महिला एक दिन स्वामी जी से मिलने आयी और अपने बच्चे की मृत्यु से उत्पन्न दुःख को दूर करने का उपाय स्वामी जी से जानना चाही तब स्वामी जी ने कहा कि राम ख़ुशी बेचता है पर तुम्हें उसकी कीमत देनी होगी। महिला तुरन्त तैयार हो गयी तो उन्होंने कहा -बहुत अच्छा,उस छोटे गरीब हब्सी बच्चे को ले लो अपने बच्चे की तरह प्यार करो तथा उसका पालन पोषण करो। ख़ुशी प्राप्त करने का बस यही इलाज है। महिला ने कहा -ओह,यह तो बहुत मुश्किल है। स्वामी जी के पुनः समझाने पर बात उसकी समझ में आ गयी और उसने उस अश्वेत बच्चे को अपना बना लिया और कुछ दिन बाद वह अपना दुःख धीरे धीरे भूलने लगी। ये दोनों घटनाएं यह बतलाती हैं कि स्वामी जी आत्मसत्ता के इतना निकट पहुँच गए थे जहां मनुष्य को कोई भी पराया नहीं जान पड़ता। उन्हें सब जगह एक ही आत्मा का अस्तित्व और प्रभाव दिखाई पड़ता था।
अमेरिका में ही एक महिला एक दिन स्वामी जी से मिलने आयी और अपने बच्चे की मृत्यु से उत्पन्न दुःख को दूर करने का उपाय स्वामी जी से जानना चाही तब स्वामी जी ने कहा कि राम ख़ुशी बेचता है पर तुम्हें उसकी कीमत देनी होगी। महिला तुरन्त तैयार हो गयी तो उन्होंने कहा -बहुत अच्छा,उस छोटे गरीब हब्सी बच्चे को ले लो अपने बच्चे की तरह प्यार करो तथा उसका पालन पोषण करो। ख़ुशी प्राप्त करने का बस यही इलाज है। महिला ने कहा -ओह,यह तो बहुत मुश्किल है। स्वामी जी के पुनः समझाने पर बात उसकी समझ में आ गयी और उसने उस अश्वेत बच्चे को अपना बना लिया और कुछ दिन बाद वह अपना दुःख धीरे धीरे भूलने लगी। ये दोनों घटनाएं यह बतलाती हैं कि स्वामी जी आत्मसत्ता के इतना निकट पहुँच गए थे जहां मनुष्य को कोई भी पराया नहीं जान पड़ता। उन्हें सब जगह एक ही आत्मा का अस्तित्व और प्रभाव दिखाई पड़ता था।
स्वदेश आगमन एवं व्यावहारिक वेदान्त का प्रचार :-
सन १९०४ में स्वदेश लौटने पर लोगों ने स्वामी जी से अपना एक समाज बनाने का आग्रह किया तब उन्होंने कहा था कि भारत में जितनी भी सभ्य समाजें हैं ,सब राम की अपनी हैं। राम मतैक्य के लिए है मदभेद के लिए नहीं। देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की ,राष्ट्रधर्म और विज्ञानं की ,संयम और ब्रह्मचर्य की। टेहरी से उनका अगाध प्रेम था इसीलिए वे स्वदेश लौटने पर पुनः टेहरी आये। टेहरी उनकी आध्यात्मिक प्रेरणास्थली थी और वही उनकी मोक्षस्थली भी बनी सन १९०६ की दीपावली के पवन पर्व पर उन्होंने मृत्यु के नाम एक सन्देश लिखकर गंगा में जलसमाधि ले ली थी। यद्यपि स्वामी जी एक कुशल तैराक भी थे किन्तु जब गंगा में स्नान करने जाते समय उनका पैर फिसल गया था तो वे गंगा की तेज धारा के साथ ही बह चले थे। शायद ऐसा उनके कुछ दिनों से अस्वस्थता के कारण से हुआ था कि वे अपने को सम्भाल नहीं पाए।स्वामी जी को देह की नश्वरता ,आत्मा की अमरता की भावना का अनुभव निरन्तर होता रहता था और वे मृत्यु करने को सदैव प्रस्तुत रहते थे। जलसमाधि लेने के दिन भी उन्होंने ये पंक्तियाँ लिखी थी --"मुझे मृत्यु का कुछ भय नहीं है। मुझे तो सेवा करने की धुन है। जहां जिस रूप में रहूंगा ,कर्तव्यपालन करता रहूंगा। इस शरीर का बन्धन मुझे अपने में बांधकर नहीं रख सकता। मौत जब चाहे इसको ले जाये। मेरे पास व्यवहार करने के अनेक शरीर हैं। मैं सदा उनमें रहकर लोगों की सेवा करूँगा ,रोतों को हँसाऊँगा और हँसतों को और भी प्रसन्न करूँगा। "
उक्त कथन से स्वतः स्पष्ट है कि स्वामी जी ने आत्मतत्व को पूरी तरह से समझ लिया था और वे इस शरीर की उपयोगिता तभी तक समझते थे जब तक इसके द्वारा संसार की सेवा और कर्तव्यपालन होता रहे। जब उन्होंने अनुभव किया कि अस्वस्थता के कारण हम इसके द्वारा दूसरों की सेवा करने के बजाय उनसे अपनी ही सेवा कृते रहेंगे ,तो उन्होंने तुरन्त इसको बदल डाला। वे वास्तव में ऐसी जीवन्मुक्त स्थिति में पहुंचे हुए महापुरुष थे जिनके लिए जीवन और मृत्यु में कोई अन्तर नहीं होता। स्वामी जी के ये विचार मृत्यु के अवसर पर नहीं थे वर्ण अमेरिका में भी वे लोगों को यही उपदेश दिया करते थे। उनके देहावसान के बाद एक अमेरिकन शिष्य ने पूर्ण सिंह जी को अपने एक पत्र में लिखा था --"राम सदा हम लोगों से कहा करते थे कि हर घड़ी ऐसा अनुभव करो कि जो शक्ति सूर्य और नक्षत्रों में अपने को प्रकट करती है ,वही मैं हूँ ,वही तुम हो। इस वास्तविक आत्मा को अर्थात अपने गौरव को सोचो ,ऐसे अमर जीवन का चिंतन करो ,अपनी इस असली सुंदरता पर मनन करो और तुच्छ शरीर के समस्त विचार्रों तथा बन्धनों को साफ भूल जाओ ,मानों तुम्हारा इन मिथ्या और दिखाऊ बातों में कभी कोई सम्पर्क नहीं था। न कोई मृत्यु है ,न रोग न शोक। पूर्ण आनन्दमय जीवन पर नित्य ध्यान दो। पूर्ण मंगलमय पूर्ण शान्तिमय बनो। "
अद्वैतवादी चिन्तक :-
स्वामी रामतीर्थ शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे किन्तु उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना। वे कहते हैं --हमें धर्म और दर्शनशास्त्र को भौतिक विज्ञानं की भांति पढना चाहिए। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित है। उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति में भी सत ,चित और आनन्द रूप से विद्यमान है। वही वास्तविक आत्मा है। वे विकासवाद के समर्थक थे। वे आनन्दवाद को ही जीवन का लक्ष्य मानते थे किन्तु जीवनपर्यन्त वे इसके श्रोत में परिवर्तन करते रहे। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते थे तो कभी किसी व्यक्ति में। वे आत्मा को ही आनंद का श्रोत मानते थे। उस आनंद के लिए वे प्राणों का भी उत्सर्ग करने को तत्पर दिखते थे।उनका कहना था कि जबसे भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारम्भ किया तभी से वे पतनोन्मुख हो गए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है और उसे देश एवं काल के अनुसार बदलना चाहिए। श्रम - विभाजन के आधार पर वर्ण व्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी पर आज हमने उसके नियमों को अटल बनाकर समाज के टुकड़े टुकड़े कर दिए हैं। आज देश के सामने एक ही धर्म है -राष्ट्रधर्म। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिए। उन्होंने भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी की थी -"चाहे एक शरीर द्वारा ,चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बींसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। "
स्वामी रामतीर्थ जी वेदांती के नाम से भी जाने जाते हैं।कुछ लोग कहते हैं कि वेदांत निराशावाद की शिक्षा देता है किन्तु स्वामी जी का उनसे यह कथन था कि अपना तर्क वे अपने पास ही रखें और दूसरों के हाथ अपनी बुद्धि न बेंचें। वे अपनी बुद्धि को स्थिर रखते हुए विचार करें कि वेदांत की शिक्षा जीवन-शक्ति,उद्योग,सफलता का कारण होती है या किसी और चीज का ?यह प्रश्न मत करो कि भारत के निवासी इसका व्यवहार करते हैं या नहीं ?उनका कहना था कि "वेदांत केवल भारतीयों की सम्पत्ति नहीं है बल्कि उस पर पूरे विश्व का अधिकार है। उनका मत था कि वेदांत और योग की प्राप्ति के लिए आपको जंगलों में जाने और असाधारण कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। जब तुम कर्म में डूबे हुए हों ,जब किसी कर्तव्यपालन में पूर्णतः लीन हों तब समझ लो कि तुम योगीजनक हो ,तुम स्वयं शिव हो। वेदांत के अनुसार शरीर तुम्हारा है आत्मा नहीं। क्या आप यह नहीं देखते कि आप तभी अत्युत्तम कार्य कर दिखाते हैं जब आप उसमें इतने अधिक तन्मय हो जाएँ कि शरीर और मन का ध्यान ही न रहे।" उन्होंने देश एवं विदेश के भ्रमण के दौरान लोगों को वेदांत के मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। स्वामी जी का वेदांत जगत को मिथ्या कहकर भिक्षा मांगने अथवा लोगों को ठगने से अलग हटकर था। उनका कथन था कि वेदांत के अनुसार तो अत्यंत कार्य करना ही विश्राम है। यद्यपि यह कथन विरोधाभाषी प्रतीत होता है किन्तु इसका आशय सच्चे कार्य करने से है। स्वामी जी ने सफलता के मार्ग पर चलने हेतु निम्नांकित सात महत्वपूर्ण साधन बताये हैं :-
१-कार्य :-वेदांत के अनुसार मनुष्य को समय उसमें इस प्रकार निमग्न हो जाना चाहिए कि अपने आप का भी ध्यान न रहे। सभी महान कार्य तभी पूरे होते हैं जब मनुष्य अहंभाव से ऊपर उठकर अपने को सर्वतोभावेन उसमें लगा दे। एक सैनिक जब युद्धक्षेत्र में लड़ता है तो वह अपने लक्ष्य के प्रति इतने तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने शरीर की सुधि नहीं रह जाती। इसी प्रकार कोई भी लेखक या कवि उस समय उच्च कोटि की रचना कर सकता है जब अन्य सभी बातों को छोड़कर वह तन्मयता का आश्रय ले लेता है। इसीलिए सफलता का पहला रहस्य यही है कि यदि तुम निश्चितरूप से सफल होना चाहते हो तो अन्य बातों को छोड़कर अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसी में लगा दो।
२-त्याग :-त्याग ही संसार को जीवित और सक्रिय रखने का मुख्य साधन है। जो लोग द्रव्य संग्रह करने में लगे रहते हैं उनको उसकी रक्षा में ही ज्यादा समय लगाना पड़ता है। लोकहितार्थ त्याग करने वाला सदा निर्भय होकर विचरता है और उसे विघ्न बाधाओं का भी सामना नहीं करना पड़ता है।
३- प्रेम :-सफलता का तीसरा सिद्धांत है प्रेम। इसका आशय है कि विश्व से एकता ,परिस्थिति के अनुकूल वातावरण। प्रेम का अर्थ है अपने निकटवर्ती अथवा अन्य संसर्ग में आने वाले से अपनी एकता और अभेदता का अनुभव करना। स्वामी जी के अनुसार दुनिया में कोई भी पराया नहीं है। यदि किसी में प्रेम भाव नहीं है तो अन्य गुण रहते हुए भी वह जीवन के मार्ग पर सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है।
४- प्रसन्नता :-वेदांत यह शिक्षा देता है कि तुम अपने शरीर को ही सबकुछ मत समझो। यह तो अन्य बाह्य वस्तुओं की तरह ही एक वस्तु है। यदि बाह्य वस्तुओं से मोह का त्याग हो जाये तो उसे कभी भी कष्ट की अनुभूति नहीं हो सकती है। संसार के नाते रिश्तों का कोई भी महत्व नहीं है। अतः जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं का मोह त्यागकर समव्यवहार करता है ,वही सदा प्रसन्न रह सकेगा।
५-निर्भयता :-सांसारिक जीवन की सफलता के लिए निर्भयता बहुमूल्य गुण माना जाता है।सदा भयभीत रहने वाला मनुष्य प्रत्येक कार्य में हाथ डालते ही संशयग्रस्त हो जाता है जिससे उसकी सफलता भी संदिग्ध हो जाती है।जो मनुष्य अपनी आत्मा को जितना अधिक पहचान ले वह निर्भयता के उतने ही निकट जा सकेगा। एक बार स्वामी जी की भेंट हिमालय क्षेत्र में किसी रीछ से हो गयी किन्तु स्वामी जी उसे देखकर भयभीत नहीं हुए बल्कि उन्होंने अपने को ब्रह्म मानते हुए अपनी आँखें फाड़कर रीछ की ओर अपलक देखने लगे और रीक्ष यह देखकर तुरन्त भाग निकला। अतः मनुष्य को अपनी आत्मशक्ति के प्रति सचेष्ट रहते हुए निर्भयता का प्रदर्शन करना चाहिए।
६-आत्म विश्वास :-स्वयं पर पूर्ण विश्वास सफलता प्राप्त करने में सहायक होती है। उदाहरण के लिए आकार की दृष्टि से हाथी पहाड़ जैसा लगता है और उसके मुकाबले में सिंह का आकार बहुत ही छोटा होता है किन्तु सिंह को देखकर हाथियों का पूरा दल तुरन्त भाग निकलता है। अतः वेदांत का मन्तव्य है कि मनुष्य अपने को किसी से कम न समझे। वह अपने को शक्तिशाली और ब्रह्म का अंश समझे तो सफलता अवश्यम्भावी हो जाएगी।
७-पवित्रता :-सफलता के लिए पवित्रता का होना भी अनिवार्य है। अपवित्र विचारों व कार्यों से व्यक्ति घृणा का पात्र बन सकता है। चाहे वह विद्वान व शूरवीर ही क्यों न हो। अतः पवित्रता आत्मिक बल मिलता है और आत्मिक बल सफलता का आधार बन जाती है।
अद्वैतवादी चिन्तक :-
स्वामी रामतीर्थ शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे किन्तु उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना। वे कहते हैं --हमें धर्म और दर्शनशास्त्र को भौतिक विज्ञानं की भांति पढना चाहिए। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित है। उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति में भी सत ,चित और आनन्द रूप से विद्यमान है। वही वास्तविक आत्मा है। वे विकासवाद के समर्थक थे। वे आनन्दवाद को ही जीवन का लक्ष्य मानते थे किन्तु जीवनपर्यन्त वे इसके श्रोत में परिवर्तन करते रहे। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते थे तो कभी किसी व्यक्ति में। वे आत्मा को ही आनंद का श्रोत मानते थे। उस आनंद के लिए वे प्राणों का भी उत्सर्ग करने को तत्पर दिखते थे।उनका कहना था कि जबसे भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारम्भ किया तभी से वे पतनोन्मुख हो गए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है और उसे देश एवं काल के अनुसार बदलना चाहिए। श्रम - विभाजन के आधार पर वर्ण व्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी पर आज हमने उसके नियमों को अटल बनाकर समाज के टुकड़े टुकड़े कर दिए हैं। आज देश के सामने एक ही धर्म है -राष्ट्रधर्म। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिए। उन्होंने भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी की थी -"चाहे एक शरीर द्वारा ,चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बींसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। "
स्वामी रामतीर्थ जी वेदांती के नाम से भी जाने जाते हैं।कुछ लोग कहते हैं कि वेदांत निराशावाद की शिक्षा देता है किन्तु स्वामी जी का उनसे यह कथन था कि अपना तर्क वे अपने पास ही रखें और दूसरों के हाथ अपनी बुद्धि न बेंचें। वे अपनी बुद्धि को स्थिर रखते हुए विचार करें कि वेदांत की शिक्षा जीवन-शक्ति,उद्योग,सफलता का कारण होती है या किसी और चीज का ?यह प्रश्न मत करो कि भारत के निवासी इसका व्यवहार करते हैं या नहीं ?उनका कहना था कि "वेदांत केवल भारतीयों की सम्पत्ति नहीं है बल्कि उस पर पूरे विश्व का अधिकार है। उनका मत था कि वेदांत और योग की प्राप्ति के लिए आपको जंगलों में जाने और असाधारण कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। जब तुम कर्म में डूबे हुए हों ,जब किसी कर्तव्यपालन में पूर्णतः लीन हों तब समझ लो कि तुम योगीजनक हो ,तुम स्वयं शिव हो। वेदांत के अनुसार शरीर तुम्हारा है आत्मा नहीं। क्या आप यह नहीं देखते कि आप तभी अत्युत्तम कार्य कर दिखाते हैं जब आप उसमें इतने अधिक तन्मय हो जाएँ कि शरीर और मन का ध्यान ही न रहे।" उन्होंने देश एवं विदेश के भ्रमण के दौरान लोगों को वेदांत के मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। स्वामी जी का वेदांत जगत को मिथ्या कहकर भिक्षा मांगने अथवा लोगों को ठगने से अलग हटकर था। उनका कथन था कि वेदांत के अनुसार तो अत्यंत कार्य करना ही विश्राम है। यद्यपि यह कथन विरोधाभाषी प्रतीत होता है किन्तु इसका आशय सच्चे कार्य करने से है। स्वामी जी ने सफलता के मार्ग पर चलने हेतु निम्नांकित सात महत्वपूर्ण साधन बताये हैं :-
१-कार्य :-वेदांत के अनुसार मनुष्य को समय उसमें इस प्रकार निमग्न हो जाना चाहिए कि अपने आप का भी ध्यान न रहे। सभी महान कार्य तभी पूरे होते हैं जब मनुष्य अहंभाव से ऊपर उठकर अपने को सर्वतोभावेन उसमें लगा दे। एक सैनिक जब युद्धक्षेत्र में लड़ता है तो वह अपने लक्ष्य के प्रति इतने तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने शरीर की सुधि नहीं रह जाती। इसी प्रकार कोई भी लेखक या कवि उस समय उच्च कोटि की रचना कर सकता है जब अन्य सभी बातों को छोड़कर वह तन्मयता का आश्रय ले लेता है। इसीलिए सफलता का पहला रहस्य यही है कि यदि तुम निश्चितरूप से सफल होना चाहते हो तो अन्य बातों को छोड़कर अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसी में लगा दो।
२-त्याग :-त्याग ही संसार को जीवित और सक्रिय रखने का मुख्य साधन है। जो लोग द्रव्य संग्रह करने में लगे रहते हैं उनको उसकी रक्षा में ही ज्यादा समय लगाना पड़ता है। लोकहितार्थ त्याग करने वाला सदा निर्भय होकर विचरता है और उसे विघ्न बाधाओं का भी सामना नहीं करना पड़ता है।
३- प्रेम :-सफलता का तीसरा सिद्धांत है प्रेम। इसका आशय है कि विश्व से एकता ,परिस्थिति के अनुकूल वातावरण। प्रेम का अर्थ है अपने निकटवर्ती अथवा अन्य संसर्ग में आने वाले से अपनी एकता और अभेदता का अनुभव करना। स्वामी जी के अनुसार दुनिया में कोई भी पराया नहीं है। यदि किसी में प्रेम भाव नहीं है तो अन्य गुण रहते हुए भी वह जीवन के मार्ग पर सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है।
४- प्रसन्नता :-वेदांत यह शिक्षा देता है कि तुम अपने शरीर को ही सबकुछ मत समझो। यह तो अन्य बाह्य वस्तुओं की तरह ही एक वस्तु है। यदि बाह्य वस्तुओं से मोह का त्याग हो जाये तो उसे कभी भी कष्ट की अनुभूति नहीं हो सकती है। संसार के नाते रिश्तों का कोई भी महत्व नहीं है। अतः जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं का मोह त्यागकर समव्यवहार करता है ,वही सदा प्रसन्न रह सकेगा।
५-निर्भयता :-सांसारिक जीवन की सफलता के लिए निर्भयता बहुमूल्य गुण माना जाता है।सदा भयभीत रहने वाला मनुष्य प्रत्येक कार्य में हाथ डालते ही संशयग्रस्त हो जाता है जिससे उसकी सफलता भी संदिग्ध हो जाती है।जो मनुष्य अपनी आत्मा को जितना अधिक पहचान ले वह निर्भयता के उतने ही निकट जा सकेगा। एक बार स्वामी जी की भेंट हिमालय क्षेत्र में किसी रीछ से हो गयी किन्तु स्वामी जी उसे देखकर भयभीत नहीं हुए बल्कि उन्होंने अपने को ब्रह्म मानते हुए अपनी आँखें फाड़कर रीछ की ओर अपलक देखने लगे और रीक्ष यह देखकर तुरन्त भाग निकला। अतः मनुष्य को अपनी आत्मशक्ति के प्रति सचेष्ट रहते हुए निर्भयता का प्रदर्शन करना चाहिए।
६-आत्म विश्वास :-स्वयं पर पूर्ण विश्वास सफलता प्राप्त करने में सहायक होती है। उदाहरण के लिए आकार की दृष्टि से हाथी पहाड़ जैसा लगता है और उसके मुकाबले में सिंह का आकार बहुत ही छोटा होता है किन्तु सिंह को देखकर हाथियों का पूरा दल तुरन्त भाग निकलता है। अतः वेदांत का मन्तव्य है कि मनुष्य अपने को किसी से कम न समझे। वह अपने को शक्तिशाली और ब्रह्म का अंश समझे तो सफलता अवश्यम्भावी हो जाएगी।
७-पवित्रता :-सफलता के लिए पवित्रता का होना भी अनिवार्य है। अपवित्र विचारों व कार्यों से व्यक्ति घृणा का पात्र बन सकता है। चाहे वह विद्वान व शूरवीर ही क्यों न हो। अतः पवित्रता आत्मिक बल मिलता है और आत्मिक बल सफलता का आधार बन जाती है।
JAI SHRI HARI
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