जीवन -यात्रा :--
स्वामी विवेकान्द का जन्म १२ जनवरी दिन सोमवार सन १८६३ ई० में कलकत्ता के शिमला दत्त परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवम माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनकी माता नित्य रामायण का पथ करती थी। काफी दिनों तक उनकी गोद खाली रहने के कारण सन्तान की आकांक्षा में काशी विश्वनाथ का व्रत रखना आरम्भ किया तब काशी के वीरेश्वर शिव की अनुकम्पा से एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने वीरेश्वर रखा। बचपन में वीरेश्वर नटखट व शरारती स्वभाव के थे किन्तु साधु सन्यासियों को देखकर वे बहुत प्रसन्न होते थे। एक बार घर पर आये हुए साधु को उन्होंने भिक्षा में अपना न्य कपड़ा उतारकर दे दिया था। इस घटना के बाद जब कोई साधु उनके घर आता था तो वीरेश्वर को घर के किसी कमरे में बन्द कर दिया जाता था। कमरे में बन्द होने पर भी वे जो भी सामान कमरे में देखते उसे खिड़की से साधु की ओर फेंक देते थे। बचपन में वे शिव एवम सीताराम की मूर्ति बाजार से खरीदकर उससे खेलते व उसकी पूजा भी करते थे। कुछ दिनों बाद बालक का नाम नरेन्द्र रखते हुए ६ वर्ष की अल्पायु में उन्हें अध्ययन हेतु स्कूल भेज दिया गया और एक अध्यापक घर पर भी पढने हेतु लगा दिया गया। ७ वर्ष की आयु में संस्कृत व्याकरण मुग्धबोध उन्होंने कण्ठस्थ कर लिया और रामायण व गीता के कुछ श्लोक गुनगुनाने लगे थे। ८ वर्ष की आयु में वे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने हेतु प्रवेश लिए और वहां पर उनकी चंचलता एवम कुशाग्र बुद्धि से उनके अध्यापक भी हतप्रभ होने लगे। आगे चलकर जब उन्हें अंग्रेजी भाषा का ज्ञान दिया जाने लगा तो उन्होंने इंकार कर दिया। बहुत समझाने बुझाने पर वे राजी हुए। सन १८७९ ई में १६ वर्ष की आयु में एंट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे कालेज में प्रवेश लिए। नरेन्द्र के पिता बहुत ही विद्वान व प्रसिद्ध वकील थे अतः घर में हर प्रकार की पुस्तकें उपलब्ध रहती थी। नरेन्द्र उन पुस्तकों को पढ़ा करते थे।
केशव चन्द्र द्वारा संस्थापित ब्रह्मसमाज के प्रति उन दिनों लोगों की रूचि बढ़ने लगी थी। अतः नरेंद्र भी उसमें रूचि लेने लगे थे और दर्शन तथा अध्यात्म की पुस्तकें भी पढ़ना आरम्भ कर दिए थे जिसके कारण वे धीरे धीरे अध्यात्म की ओर उन्मुख होने लगे। जब पिता ने एक धनवान की कन्या से उनका विवाह करने का प्रस्ताव रखा तब उन्होंने उसे इंकार कर दिया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता देवेंद्र ठाकुर उन दिनों गंगा के तट पर आश्रम बनाकर रह रहे थे। जिज्ञासावश नरेंद्र उनके पास पहुँच गए और उनसे पूंछा कि महर्षि जी क्या आपने ईश्वर को देखा है ? महर्षि ने प्रश्न को टालते हुए कह कि बालक तुम्हारी आँखें योगियों की आँखों की तरह हैं।तब यह सुनकर अत्यधिक निराश होकर नरेंद्र यह मानते हुए कि महर्षि ने भी भगवान को नहीं देखा है ,वापस लौट आये।
कलकत्ता में सुरेन्द्रनाथ मित्तल के घर में उनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई, तो उन्होंने उनके समक्ष एक भजन गया जिससे प्रभावित होकर रामकृष्ण जी ने उन्हें दक्षिणेश्वर मन्दिर आने को कहा। एक दिन कालेज में पढ़ते समय उनके अध्यापक ने कहा कि एकाग्रता के लिए बालकों को दक्षिणेश्वर मन्दिर अवश्य जाना चाहिए तो नरेंद्र की जिज्ञासा और अधिक बढ़ गयी और वे रामकृष्ण जी से मिलकर अपनी समस्त जिज्ञासाओं को शांत करने का विचार कर लिए। एक दिन जब उनके भाई ने कालेज की पढाई में मन लगाने को कहा तब उन्होंने यह उत्तर दिया "-क्या यह शिक्षा पवित्र और ईश्वरभक्त बनाएगी और क्या इस शिक्षा से मैं संसार के मायावी चक्कर से निकलकर भगवान को प्राप्त कर सकूँगा ?भाईजी मैं इस शिक्षा से क्या करूँगा जो केवल रोटी कमाना सिखाती है ,मैं तो उस ज्ञान को प्राप्त करूँगा जो मेरे हृदय को प्रभु के प्रकाश से जगमगा दे और जिसके बाद मुझे संसार की कोई आवश्यकता न रहे।"नरेन्द्र की कालेज की परीक्षा जब समाप्त हो गयी तब वे अपने कुछ मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर मन्दिर गए। नरेंद्र के इस प्रथम आगमन पर रामकृष्ण जी ने कहा था --"नरेंद्र कमरे में पश्चिमी दरवाजे से आया। ऐसा लगा कि उसे अपने शरीर व कपड़ों की कोई परवाह नहीं है। बाहरी दुनिया के प्रति भी उसका विशेष ध्यान नहीं था। कलकत्ता के भौतिकवादी वातावरण से आते हुए इस आध्यात्मिक युवक को देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ।" जब नरेंद्र मन्दिर में प्रविष्ट हुए थे तब स्वामी जी समाधिस्थ थे। थोड़ी देर बाद उनके उठने पर नरेंद्र बोल पड़े --क्या आपने भगवान को देखा है ?स्वामी जी ने दृढ़ता से कहा, हाँ, मैंने भगवान को देखा है। मैं भगवान को उसी प्रकार स्पष्ट देखता हूँ जिस प्रकार आपको देख रहा हूँ। इस उत्तर के पश्चात नरेंद्र की सारी जिज्ञासाएं स्वतः शांत हो गयीं। थोड़ी देर बाद रामकृष्ण नरेंद्र का हाथ पकड़कर उन्हें मन्दिर के भीतर ले गए और उनसे कहा --नरेंद्र तुम इतनी देर से क्यों आये ? मां ने मुझसे कहा है कि तुम अवश्य आओगे ,मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। तुम उस नारायण के अवतार नर हो। तुम इस धरती पर मानवता के सन्ताप व दुःख दूर करने के लिए आये।" यह कहते हुए वे भावविभोर होकर रो पड़े। नरेंद्र शांत मन से उन्हें सुन रहे थे किन्तु वे यह नहीं समझ पा रहे थे स्वामी जी ऐसा क्यों कह रहे हैं ?मन ही मन उन्होंने सोचा कि यह कैसी अजीब बात कर रहें हैं। मैं तो विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूँ। मुझे नारायण नर क्यों कहा जा रहा है ?इन्हीं विचार मंथन के साथ वे वहां से वापस घर आ गए।
इसके बाद नरेंद्र की आस्था दृढ़तर होती गयी और वे कुछ दिन बाद फिर दक्षिणेश्वर मन्दिर आये और फिर लगातार आने के क्रम को जारी रखा। जिस पहली भेंट में उन्होंने स्वामीजी को पागल समझा था अब वे भी उसी पागलपन का शिकार होते हुए अपने को देख रहे थे।धीरे धीरे उन्हें यह अनुभव होने लगा कि स्वामीजी पागल नहीं हैं अपितु स्वार्थ ,तृष्णा व माया के जंजाल में फंसे दुनिया के इस पागलखाने में केवल वही बुद्धिमान व्यक्ति हैं। स्वामी जी के सम्पर्क से नरेंद्र का विचार बदलने लगा और उन्हें यह अनुभूति होने लगी कि स्वामीजी जैसा साधक किसी भटकते हुए मानव मन को उचित दिशा दे सकता है। रामकृष्ण जी को भी यह आभास हो गया कि सत्य को जानने की प्रबल इच्छा ने ही नरेंद्र को संदेहशील बना दिया है परन्तु उन्हें यह विश्वास भी था कि नरेंद्र सन्देह व जिज्ञासा की समस्त सीढियाँ स्वयम चढ़कर अपने लक्ष्य को एक दिन अवश्य प्राप्त कर लेगा। अब स्वामी जी ने अपने योग्य शिष्य को अपने पास सदैव देखने को व्यग्र होने लगे और नरेंद्र भी इसी व्यग्रता का शिकार हो चुके थे।
नरेंद्र स्वभावतः सन्यासी थे। स्वामी रामकृष्ण के सम्पर्क ने उनके भटकते मन को शांति की गहन अनुभूति करायी। उनके माता -पिता व अन्य सम्बन्धी उनके इस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति उत्सुकता तथा पढाई में अरुचि व विवाह से इंकार करने की स्थिति से चिंतित होने लगे। सन १८८४ ई में २१ वर्ष की आयु में नरेंद्र ने बी०ए०की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और इसी दौरान हृदयगति रुकने के कारण उनके पिता की मृत्यु हो गयी। अतः आर्थिक स्थिति धीरे धीरे कमजोर होने लगी थी। उन्होंने कानून की शिक्षा ग्रहण करने हेतु विचार अवश्य किया था किन्तु आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण अब उन्हें एक नौकरी की तलाश आवश्यक हो गयी थी किन्तु प्रयास के बावजूद नौकरी कहीं भी मिल नहीं पा रही थी। भयंकर आर्थिक स्थिति के बावजूद भी नरेंद्र का ईश्वर पर विश्वास अटल रहा किन्तु मां की स्थिति देखकर वह अशांत अवश्य हो जाते थे। इसी दौरान स्वामी जी के कुछ शिष्य नरेंद्र के पास आये और उनसे वार्तालाप के दौरान नरेंद्र ने यह कह दिया कि किसी नरक के भय से ईश्वर पर विश्वास करना एक कायरता है। भगवान का अस्तित्व संदिग्ध है। शिष्यों ने यह बात रामकृष्ण जी को बता दी किन्तु स्वामी जी को इस पर विश्वास नहीं हुआ कि नरेंद्र ऐसा कह सकता है।
नरेंद्र अपने पारिवारिक दायित्व से मुक्त होने के लिए एक दिन स्वामी जी के निकट जाकर कहा कि भगवान आपकी बात तो सुनते हैं। अतः आप मेरे भूखे परिवार के लिए उनसे सहायता क्यों नहीं मांगते ? यह सुनकर स्वामी जी ने उत्तर दिया -मैंने तो कई बार मां काली से यह प्रार्थना की है ,पर तुम्हें इस पर विश्वास ही नहीं ,इसलिए वह तुम्हारे लिए प्रार्थना भी स्वीकार नहीं करती। अच्छा ,आज मंगलवार है ,तुम स्वयम मां काली के पास जाकर अपनी इच्छा के अनुसार वरदान मांग लो। स्वामी जी के विश्वास दिलाने पर नरेंद्र मन्दिर के भीतर गए और ज्योंहि उन्होंने काली की मूर्ति की ओर देखा तो उन्हें यह लगा कि मां काली एक जीवित साक्षात् भगवान का रूप हैं। उनके इस दर्शन से वे रोमांचित हो उठे और उनसे करवद्ध प्रार्थना की कि मां मुझे सन्यास दो , ज्ञान व भक्ति दो। यह वरदान दो कि मुझे सदा तुम्हारे दर्शन होते रहें। उनके वापस आने पर स्वामी जी न कहा, नरेंद्र तुमने अपने परिवार के लिए मां से क्या माँगा ?तब नरेंद्र बोल पड़े -मैं तो उस सम्बन्ध में मांगना ही भूल गया। तब स्वामी जी ने पुनः कहा कि तुम फिर मन्दिर में जाओ और मां से अपने परिवार के कष्ट को दूर करने हेतु वरदान मांगो। नरेन्द्र पुनः मन्दिर के भीतर गए और मां के सामने से होते हुए वापस आ गए। स्वामी जी ने तीसरी बार उन्हें फिर भेजा तो नरेंद्र मन्दिर के अंदर जाकर सोचने लगे मां से मैं कितनी छोटी चीज मांगने आया हूँ। यह तो वैसे ही है जैसे किसी राजा से फल और सब्जी की मांग करना। अपनी मूर्खता का आभास करते हुए नरेंद्र बोल पड़े मां,मुझे ज्ञान व भक्ति के सिवा और कुछ नहीं चाहिए। मन्दिर से बाहर आने पर स्वामी जी ने कहा कि इसका तात्पर्य यह है कि तुम्हारे भाग्य में सांसारिक सुख नहीं लिखा है। अच्छा जाओ तुम्हारे परिवार को सादा भोजन व आवश्यक कपडा अवश्य मिलता रहेगा। नरेंद्र के जीवन की यह प्रथम अनुभूति थी कि मां की मूर्ति में उन्हें ईश्वर का साक्षात् दर्शन हुआ। नरेंद्र ने स्वामी जी से अपने सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए कहा -रामकृष्ण जी मुझ पर इतना अधिक विश्वास करते थे जितना मेरे भाई व मां भी मुझपर नहीं करते थे। यह उनका अथाह प्रेम व अटल विश्वास ही था जिसके कारण मैने उनके समक्ष समर्पण कर दिया। दुनिया वाले तो स्वार्थ के लिए प्रेम का नाटक करते हैं।
ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्ध में अनेकों प्रश्नों के साथ नरेंद्र स्वामी जी के पास आये थे और स्वामी जी ने सर्वप्रथम तो सभी सन्देहों को बुद्धि से दूर करने का प्रयास किया तथा बाद में उसे अद्वैत वेदांत की शिक्षा प्रदान करके ताकि उनके तर्कपूर्ण बुद्धि को ईश्वर ज्ञान प्राप्त हो जाये। नरेंद्र ने निर्विकल्प समाधि लेकर मोक्ष प्राप्त करने की अपनी इच्छा जब प्रकट की तो स्वामी जी ने उसे इससे भी ऊपर की उस अनुभूति का दर्शन कराना चाहा जिसके अनुसार ब्रह्म इसके बाहर नहीं होता बल्कि प्रत्येक प्राणी में उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। नरेंद्र ने अन्ततः स्वामी जी की इच्छा का समादर किया और सदैव के लिए मानवता की सेवा एवम राष्ट्र सेवा का व्रत ले लिया। इसी दौरान स्वामी जी अस्वस्थ रहने लगे थे क्योंकि उनके गले की बीमारी धीरे धीरे उन्हें अशक्त बनाने लगी थी। प्रायःस्वामी जी नरेंद्र को अपने पास बुलाते और अपना सम्पूर्ण समय आध्यात्मिक विषयों पर ही वार्तालाप करने में बिताया करते थे। स्वामी जी ने अपनी मृत्यु के पूर्व नरेन्द्र को अपने पास बुलाया और एकटक उनकी ओर देखने लगे। नरेंद्र को ऐसा महशूस हुआ कि कोई दिव्य ऊर्जा उनके शरीर में प्रविष्ट हो रही है और वे कुछ देर के लिए अचेत हो गए। चेतना वापस आने पर उन्होंने देखा कि रामकृष्ण जी रो रहे हैं। रोने का कारण पूछने पर स्वामी जी ने कहा --"ओह ,नरेंद्र ,आज मैंने तुम्हे अपना सबकुछ दे दिया है। मैं अब फकीर हो गया हूँ। जो महान शक्ति मेरे द्वारा तुझमें आज प्रविष्ट हुई है ,तुम इसके द्वारा दुनिया में कोई बड़ा कार्य करोगे। यह कार्य समाप्त करने के बाद ही तुम उस स्थान को लौट सकोगे जहां से तुम आये हो। "
स्वामी रामकृष्ण दिन प्रतिदिन क्षीण हो रहे थे। अतः एक दिन अपने सभी शिष्यों के समक्ष उन्होंने नरेंद्र से कहा --नरेंद्र मैं इन सबको तुम्हारे सहारे छोड़कर जा रहा हूँ। ५० वर्ष की अवस्था में स्वामी जी ने १६ अगस्त १८८६ को अपना शरीर त्याग दिया। इस समय नरेंद्र की आयु मात्र २३ वर्ष थी। नरेंद्र अब स्वामी जी की अंतिम इच्छा के अनुसार समस्त अन्य शिष्यों के साथ उनके अधूरे कार्यों को पूर्ण करने में लग गए। एक विशेष कार्यक्रम में सभी शिष्यों ने जीवनभर ब्रह्मचारी रहकर सादा जीवन व्यतीत करने का निर्णय लिया और उसी समय नरेंद्र ने अपने को छोड़कर अन्य सभी शिष्यों को एक नया आध्यात्मिक नाम प्रदान किया और उन्हें भारत -भ्रमण कर स्वामी जी के सन्देशों को फ़ैलाने का उत्तरदायित्व सौंप दिया।केवल रामाकृष्णानंद ने स्वामी जी के पवित्र देह अवशेष के पास ठहर गए ,शेष सभी भारत भ्रमण पर निकल गए।
स्वामी विवेकानन्द ने भी सन १८८८ ई में एक लम्बी यात्रा का संकल्प लेकर मठ से बाहर निकल पड़े और सर्वप्रथम उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण किया।वाराणसी ,मथुरा ,वृन्दावन ,हाथरस ,इलाहाबाद होते हुए वे हिमालय स्थित तीर्थस्थलों के दर्शन किये और बाद में वे अलवर आकर कुछ दिन यहां पर ठहर गए। अलवर से जयपुर जाकर दो सप्ताह वहां ठहरने के बाद जूनागढ़ होते हुए सोमनाथ पहुँच गए। इसी प्रकार लगभग आधे भारत का भ्रमण करने के बाद नरेंद्र का मन भारत की दशा एवम स्थिति को सुधारने के लिए बेचैन हो उठा। अतः वे दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े। रामेश्वर होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँच गए। कन्याकुमारी स्थित एक शिला पर वे तीन दिन तक बिना कुछ खाये पिए बैठे रहे और समुद्र की शांत लहरों को निहारते रहे। .इसी दौरान उन्हें जो अनुभूति हुई वह उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है --"मैंने मातृभूमि के उद्धार का उपाय ढूंढ निकाला है। अब उसी में जीवन लगाऊंगा --नहीं --नहीं मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। जब तक भारत का प्रत्येक मनुष्य भरपेट भोजन नहीं कर पाता, जब तक यह मातृभूमि वेदांत के मधुरगान से गूंज नहीं जाती, तब तक हे प्रभू , मैं बार बार जन्म लूँ और इन करोड़ों भारतवासियों की सेवा करूँ ,यही मोक्ष है। "बाद में यह शिला विवेकानन्द शिला के नाम से जानी गयी क्योंकि इसी शिला पर उक्त दिव्य व महान अनुभूति ने उस तपस्वी व साधक को एक देशभक्त सन्यासी बनाया था। इसी चट्टान पर उन्होंने यह व्रत लिया था कि अब वे भूखे नंगे व पतित भारत की सेवा ही करेंगे। उन्होंने धर्म व मोक्ष की एक नई परिभाषा देते हुए कहा कि -"मोक्ष सन्यासी का लक्ष्य अवश्य है पर मुझे मेरे गुरुदेव से यही आदेश प्राप्त हुआ है कि भारत के करोड़ों लोगों की सेवा ही मोक्ष का साधन है। "
स्वामी विवेकानन्द ने भी सन १८८८ ई में एक लम्बी यात्रा का संकल्प लेकर मठ से बाहर निकल पड़े और सर्वप्रथम उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण किया।वाराणसी ,मथुरा ,वृन्दावन ,हाथरस ,इलाहाबाद होते हुए वे हिमालय स्थित तीर्थस्थलों के दर्शन किये और बाद में वे अलवर आकर कुछ दिन यहां पर ठहर गए। अलवर से जयपुर जाकर दो सप्ताह वहां ठहरने के बाद जूनागढ़ होते हुए सोमनाथ पहुँच गए। इसी प्रकार लगभग आधे भारत का भ्रमण करने के बाद नरेंद्र का मन भारत की दशा एवम स्थिति को सुधारने के लिए बेचैन हो उठा। अतः वे दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े। रामेश्वर होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँच गए। कन्याकुमारी स्थित एक शिला पर वे तीन दिन तक बिना कुछ खाये पिए बैठे रहे और समुद्र की शांत लहरों को निहारते रहे। .इसी दौरान उन्हें जो अनुभूति हुई वह उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है --"मैंने मातृभूमि के उद्धार का उपाय ढूंढ निकाला है। अब उसी में जीवन लगाऊंगा --नहीं --नहीं मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। जब तक भारत का प्रत्येक मनुष्य भरपेट भोजन नहीं कर पाता, जब तक यह मातृभूमि वेदांत के मधुरगान से गूंज नहीं जाती, तब तक हे प्रभू , मैं बार बार जन्म लूँ और इन करोड़ों भारतवासियों की सेवा करूँ ,यही मोक्ष है। "बाद में यह शिला विवेकानन्द शिला के नाम से जानी गयी क्योंकि इसी शिला पर उक्त दिव्य व महान अनुभूति ने उस तपस्वी व साधक को एक देशभक्त सन्यासी बनाया था। इसी चट्टान पर उन्होंने यह व्रत लिया था कि अब वे भूखे नंगे व पतित भारत की सेवा ही करेंगे। उन्होंने धर्म व मोक्ष की एक नई परिभाषा देते हुए कहा कि -"मोक्ष सन्यासी का लक्ष्य अवश्य है पर मुझे मेरे गुरुदेव से यही आदेश प्राप्त हुआ है कि भारत के करोड़ों लोगों की सेवा ही मोक्ष का साधन है। "
कन्याकुमारी के बाद वे मद्रास गए। उनके शिष्यों ने यहां पर उनके अमेरिका यात्रा हेतु कुछ धन एकत्रित किये और खेतड़ी के महाराजा ने अपने सचिव को यह आदेश दिया कि स्वामी जी की अमेरिका यात्रा का पूर्ण प्रबन्ध कराया जाये। अमेरिका प्रस्थान के पूर्व यहीं पर विदाई समारोह में उन्होंने अपना आध्यात्मिक नाम विवेकानन्द स्वीकार किया था। ३१ मई १८९३ ई को ३० वर्ष की अवस्था में वे वहीँ से अमेरिका के लिए प्रस्थान किये। सर्वप्रथम वे जहाज से बैंकोवर पहुंचे और यहां से केनेडा होते हुए रेलमार्ग से शिकागो पहुँच गए गए। यहां उन्हें यात्रा की थकान महशूस हुई एक होटल में वहीं पर ठहर गए। यहीं से वे दूसरे दिन विश्वमेला देखने गए जहां विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यहां पर कोई भी उनका परिचित नहीं था फिरभी उन्हें यहां ज्ञात हुआ कि विश्वधर्मसम्मेलन में प्रवेश हेतु परिचयपत्र के साथ आवेदन करना अनिवार्य है। सम्मेलन सितम्बर में जो अभी दो माह बाद पड़ना था, का समाचार मिलने पर वे अधीर हो उठे क्योंकि उनके पैसे खत्म हो रहे थे। अतः मित्रों से परामर्श करके वे एक सस्ते शहर बोस्टन चले गए जहां उनकी भेंट एक विद्वान महिला मिस सनबोर्न से हुई जो उनसे बात करके अत्यधिक प्रभावित हुई और उसके आमन्त्रण पर वे उसके घर जाकर ठहर गए। शरीर पर गेरुआ वस्त्र एवमहाथ में कमण्डल लिए एक सन्यासी को देखकर वहां के लोग विस्मित हो उठे थे। बोस्टन में ही उनका परिचय प्रोफेसर जे० एच० रिट से हुआ और इनसे चार घण्टे के वार्तालाप से प्रभावित होकर रिट ने इन्हें धर्म सम्मेलन में व्याख्यान देने का परामर्श दिया। स्वामी जी अपने परिचयपत्र न होने की कठिनाई बताया तो रिट ने कहा कि स्वामी जी आपसे परिचयपत्र मांगना सूर्य से यह पूंछने के बराबर है कि क्या उसे चमकने का अधिकार है।अंततः प्रो० रिट ने स्वयम ही धर्मसभा की प्रतिनिधि चयन समिति के प्रधान को एक पत्र लिखकर स्वामीजी के व्याख्यान देने का प्रबन्ध कर दिया। ११ सितम्बर १८९३ को डॉ ० बारो ने अपने उद्घाटन भाषण से सम्मेलन का शुभारम्भ किया। विश्व के सभी धर्मों के आचार्य मंच पर बैठे थे। लगभग दस हजार विद्वानों से हाल खचाखच भरा हुआ था। भारत से ब्रह्मसमाज के नागरकर ,लंका के बौद्ध धर्मपाला भी उसमें मौजूद थे। स्वामी जी के व्याख्यान देने का क्रमांक ३१० नियत था। उस सभा में अल्पायु के केवल स्वामी जी ही थे क्योंकि उस समय उनकी आयु ३० वर्ष थी। अपने व्याख्यान क्रम आने पर स्वामी जी मंच पर आये और बोलने लगे --"अमेरिका निवासी भाई एवम बहनों ,इन शब्दों पर ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। आगे उन्होंने कहा -विभिन्न नदियां विभिन्न स्थानों से निकलकर जिस प्रकार एक सिंधु में विलीन हो जाती हैं ,उसी प्रकार विश्व के सभी धर्म विभिन्न मार्ग रखते हुए भी एक ही सत्य प्रभु की ओर ले जाते हैं। कोई किसी भी मार्ग से क्यों न जाये ,यदि वह सच्चे दिल से प्रभु की कामना करता है तो ईश्वर उसको अवश्य प्राप्त होता है। "बाद में स्वामीजी हिंदुत्व पर भाषण देते हुए कहा -"मेरा वेदांत पाप की भाषा नहीं जानता। हिन्दू आप में से किसी को पापी नहीं समझता।आप तो उस परम् पवित्र आनंद स्वरूप के पुत्र हैं। मेरी मातृभूमि भारत को आज धर्म की आवश्यकता नहीं है। धर्म हमारे पास बहुत हैं। भारत के करोड़ों लोगों की भूख मिटने के लिए रोटी चाहिए। "धर्मसभा के श्रोताओं को स्वामीजी के उक्त शब्दों से यह ज्ञात हो गया था कि विवेकानंद एक सन्यासी ही नहीं अपितु एक देशभक्त भी है। १७ दिनों की धर्मसभा की कार्यवाही में स्वामी जी कई बार भाषण दिए और २७ सितम्बर को उनका अंतिम भाषण हुआ। अमेरिका के प्रसिद्ध समाचारपत्र न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा -स्वामी विवेकानंद धर्मसभा में निःसन्देह सबसे महान व्यक्तित्व हैं। उनका भाषण सुनकर हमें ऐसा लग रहा है कि इतने विद्वानों के देश को धर्मप्रचारक भेजना कितनी मूर्खता की बात है। अन्य समाचार पत्रों में भी उनकी फोटो के साथ विस्तृत भाषण छपे।
धर्म सम्मेलन के बाद वे अमेरिका में प्रचारक के रूप में यत्र तत्र भ्रमण किये। वे जहां भी जाते हजारों लोग उनको सुनने हेतु आतुर दिखने लगे। प्रत्येक भाषण में उनका देश-प्रेम से भरा हुआ हृदय उभरकर सामने आ जाता था। उन्होंने स्वयम कहा था कि मैं उस धर्म का प्रचार करने जा रहा हूँ बौध्दमत जिसका बिगड़ा हुआ बच्चा है और ईसाई धर्म दूर की गूंज मात्र। लगभग एक वर्ष तक स्वामी जी अमेरिका में रहे और वहां उन्होंने कई लोगों को दीक्षा देकर वेदांत का प्रचार प्रसार करने हेतु तैयार कर दिया। सन १८९५ ई ० में स्वामी जी की एक शिष्या कुमारी डच्चर ने थाउजेंड आईलैंड पार्क में एक मकान का प्रबन्ध कर दिया और स्वामी जी अपने १२ शिष्यों के साथ उसमें रहने लगे और उन शिष्यों को वेदांत की शिक्षा देने लगे। यहां से स्वामी जी इंग्लॅण्ड पहुँच गए और २२ अक्टूबर १८९५ ई को लन्दन के प्रसिद्ध प्रिंसेज हाल में अपना भाषण दिया। १३ दिसम्बर १८९६ ई को लंदनवासियों की ओर से एक विदाई कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें स्वामी जी ने कहा --"मेरा यह शरीर कभी भी नष्ट हो सकता है। मैं एक प्रयोग के तरह इसे फेंक भी सकता हूँ पर मैं मानवता की सेवा का महान कार्य तबतक करता रहूंगा जबतक सारा विश्व उस परमसत्य को नहीं समझ लेता। "
१६ दिसम्बर १८९६ ई को वे भारत लौट पड़े और १५ जनवरी १८९७ को श्रीलंका पहुंचकर अति उत्साह से वे उछल पड़े और कहा यह मेरा भारत है। स्वामी जी की वापसी का समाचार सुनकर भारत में प्रसन्नता व उत्साह की लहर सी दौड़ पड़ी थी। श्रीलंका में दो प्रभावशाली भाषण देने के बाद वे २६ जनवरी को भारत पहुंचकर उसकी मिटटी को माथे से लगा लिया। २८ फरवरी १८९७ ई ० को एक बड़े समारोह में उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। १ मई १८९७ ई ० को बलराम बाबू के घर पर अन्य शिष्यों ने एक संगठन बनाने पर विचार विमर्श किया और वहीं पर रामकृष्ण मिशन के स्थापना की घोषणा कर दी गयी। बंगाल में पड़े दुर्भिक्ष में रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों ने जनता की भरपूर सेवा की जिससे यह प्रमाणित हो गया कि मोक्ष पथ के पथिक अब बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय के अभिनव मार्ग पर चल पड़े हैं। बाद में कलकत्ता नगर के प्लेग महामारी के प्रकोप के अवसर पर भी मिशन ने ऐसा ही परिचय दिया।
स्वामी जी अपने कश्मीर यात्रा से वापस आकर भगिनी निवेदिता के कन्या स्कूल का उद्घाटन किया। अब स्वामी जी अपने मठ के शिष्यों को प्रचार प्रसार हेतु सम्पूर्ण भारत में भेजने योजना बनाने लगे। उन्होंने हिमालय क्षेत्र में भी एक मठ की स्थापना की। भगिनी निवेदिता के साथ २० जून १८९९ ई ० को दूसरी बार वे अमेरिका गए और पुनः अपने विद्वतापूर्ण भाषण से उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया। वहीं से २० जुलाई को वे पेरिस चले गए और ९ दिसम्बर १९०० ई ० को वहीं से बेलूर मठ जाकर अपना अधिकांश समय वहीं व्यतीत करने लगे। २९ जून १९०१ ई ० को वे मठ के आंगन में प्रेमानंद जी के साथ टहल रहे थे तभी उन्होंने कहा -"मैं जब शरीर छोडूंगा तो मेरा दाह संस्कार गंगा के किनारे इसी स्थान पर करना। "२ जुलाई १९०२ ई ० को सायंकाल सात बजे वे चुपचाप अपने पूजा गृह में चले गए और यह आदेश दिया कि बिना बुलाये कोई भी यहां न आये। एक घण्टे बाद एक शिष्य को बुलवाया तो शिष्य वहां जाकर देखता है कि स्वामी जी चुपचाप विस्तर पर पड़े हुए। उनके हाथ में हलचल हुई तो उन्होंने एक गहरी श्वास लेते हुए अपनी अंतिम श्वास ली और इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
धार्मिक एवं दार्शनिक पक्ष :--
स्वामी जी प्रायः कहा करते थे कि मनुष्य को केवल मनुष्य की आवश्यकता है और सब कुछ हो जायेगा किन्तु आवश्यकता है वीर्यवान ,तेजस्वी श्रीसम्पन्न और ईमानदार नवयुवकों की। मेरी आशाएं आधुनिक पीढ़ी में केंद्रित है। इसी में मेरे कार्यकर्ता निर्भय होकर सिंह के समान पूरी समस्या का हल कर देंगें। इसीलिए मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया है। यदि मैं सफलता प्राप्त न कर पाया तो इसे पूरा करने के लिए कोई और आगे आएगा और मुझे तो संघर्ष करते रहने में ही सन्तोष प्राप्त होगा। " उन्होंने यह भी कहा था कि मेरे वेदांत के अनुसार किसी ईसाई को हिन्दू बनने या किसी बौद्ध को ईसाई बनने की आवश्यकता नहीं है। अपने अपने मार्ग से सब प्रभु तक पहुंचे ,यही वेदांत का सन्देश है।
स्वामी विवेकानंद को सर्वप्रथम नास्तिकता की ओर झुकना पड़ा था किन्तु स्वामी रामकृष्ण जी की शिक्षाओं ने उनके भौतिकवादी नास्तिक विचारों को समूल उखाड़ फेंका और उसकी जगह भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के मूलतत्व वेदान्त के प्रचार प्रसार हेतु उन्हें जागरूक कर दिया। उन्होंने वेदान्त को एक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने का अनवरत प्रयास किया और भारतीय दर्शन की प्राण स्वरूपिणी इसकी आध्यात्मिकता को पुनः एक बार विश्वदर्शन के मंच पर प्रस्तुत कर दिया। उनका तत्व दार्शनिक दृष्टिकोण बौद्धिक ज्ञान तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि आत्मानुभूति की प्रबल शक्ति में उनका दृढ विश्वास भी था। यद्यपि परमसत्ता के विषय में स्वामीजी अद्वैतमत के समर्थक थे किन्तु सम्पूर्ण जगत को ब्रह्म की अभिव्यक्ति बताते हुए उन्होंने जगत को पूर्णतयः मिथ्या नहीं माना। वे विशुद्ध एकत्व को न मानकर बहुत्व में एकत्व के सिद्धांत को मानते हैं। यही वेदान्त का मूलस्तम्भ है। वे "एकमेवाद्वितीयम" के माध्यम से इस विरोध को समाप्त कर दिया कि परमसत्ता अनेक है। सत्ता की एकात्मकता के सन्दर्भ में उन्होंने" सर्व खलु इदं ब्रह्म"का कथन करते हुए जगत को पूर्णतयः सत्य बताया। जगत के सम्बन्ध में स्वामीजी का तर्क है कि जब जगत ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है तो यह मिथ्या कैसे हो सकती है ?
ईश्वर के सम्बन्ध में स्वामीजी ने ब्रह्मसूत्र के कथन "जन्माद्यस्यतः"अर्थात जिससे विश्व का जन्म ,स्थिति और प्रलय होता है, वही ईश्वर है,का समर्थन किया। उनके अनुसार जो अनंत ,शुद्ध ,नित्यमुक्त ,सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ, दयास्वरूप एवं प्रेमस्वरूप परमगुरु है वही ईश्वर है। ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों स्वरूपों को समान रूप से ग्रहण करते हुए इसे एकमेवाद्वितीयम द्वारा समन्वित कर दिया। स्वामीजी का कथन है -"ब्रह्म का निर्गुण स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण प्रेम तथा उपासना के योग्य नहीं है और इसीलिए भक्त ईश्वर के सगुण भाव को परमनियोक्ता ईश्वर मानकर उसकी उपासना करता है। "
स्वामीजी समस्त संसार को अपनी ज्ञानपरिधि में लेना चाहते हैं। उनका कथन है -"हम अस्वीकार नहीं करते --न तो ईश्वरवादी को और न ही नास्तिक को। हमारे धर्म में शिष्य बनने के लिए एक ही शर्त है कि चरित्र का गठन इस प्रकार किया जाये कि वह एक साथ ही अत्यन्त व्यापक हो और उसमें गहराई हो।" वे मानवतावादी विचार के पोषक थे। तत्व चिंतन को उतना महत्वपूर्ण नहीं मानते थे जितना कि मानव कल्याण की सम्भावनाओं की खोजबीन को। इसी सन्दर्भ कहा था -"आत्मा है या नहीं इसकी किसे परवाह है ?कोई अपरिवर्तनशील सत्ता है या नहीं ,इसके बारे में किसे व्यग्रता है ?हमारे सामने यह संसार है और यह दुःख एवं पीड़ाओं से भरा है। संसार में उतरो जैसे बुद्ध उतरे थे और इन दुःख पीड़ाओं को कम करने के लिए संघर्ष करो। विवेकानन्द आत्मा को बन्धनग्रस्त नहीं मानते क्योंकि उन्होंने स्वतन्त्रता को आत्मा की प्रमुख विशेषता माना है। मृत्यु आत्मा का अंत नहीं है बल्कि वह अजर एवं अमर है और उसे आत्मानुभूति द्वारा जरामरण से मुक्त किया जा सकता है। इस पूर्ण स्वातन्त्र्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने योग की आवश्यकता बतायी। जरामरण से मुक्ति हेतु उपयुक्त साधन के सन्दर्भ में उनका मत है कि बुद्धि की शक्ति उद्देश्य की पूर्ति हेतु पूर्णरूपेण सक्षम नहीं है। इसके लिए उन्होंने अंतर्दृष्टि की आवश्यकता बतायी। प्रायः मनुष्य अपने कर्म के द्वारा ईश्वरानुभूति करना चाहता है क्योंकि कर्म ही पूजा है ,ऐसा गीता में कहा गया है। स्वामीजी के अनुसार यह मार्ग कर्मप्रधान व्यक्ति का है। उनके अनुसार "कर्मयोग निःस्वार्थता एवं सद्कार्यों के माध्यम से मुक्ति की एक नैतिकतापूर्ण एवं धार्मिक प्रणाली है। कर्मयोगी किसी सिद्धांत विशेष में विश्वास की आवश्यकता नहीं समझता। वह यह नहीं पूंछता कि उसकी आत्मा क्या है ?उसे अपनी निःस्वार्थता की अनुभूति का विशिष्ट उद्देश्य प्राप्त करना है और उसे अपनी शक्ति से अधिक कार्यान्वित करना है। "
कर्मयोगी की कर्मफल में आसक्ति नहीं होती, अतः वह बन्धनग्रस्त भी नहीं होता है।स्वामी जी ने कहा है कि -"वह अच्छा कार्य जो बिना किसी प्रयोजन के अर्थात न तो धन के लिए और न ही ख्याति के लिए करता है और ऐसा करता है तब वह बुद्ध कहा जायेगा। उससे कर्मशक्ति का एक प्रवाह फूटेगा जो विश्व में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करेगा।" स्वामीजी ने बताया कि ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति सगुण ईश्वर के प्रति भक्ति या प्रेम के द्वारा होती है। उन्होंने भक्ति के तीन प्रकार बताये ,पहला बाह्य उपचार या कर्मकाण्ड जो भक्ति का स्थूल स्तर है। दूसरा भावना जिसमें प्रतीकों की अपेक्षा भावना का महत्व अधिक है क्योंकि इसके द्वारा आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता का ज्ञान होता है। तीसरा पराभक्ति या पराविद्या जिसमें समस्त प्रतीक तथा रूपाकार विलीन होकर रहस्यानुभूति की विविध प्रक्रियाएं प्रस्तुत करता है।भक्तियोग साधन के सम्बन्ध में वे रामानुज के मत से सहमत होते हुए कहते हैं कि भक्ति की उपलब्धि विवेक ,दमन ,अभ्यास ,यज्ञादिक क्रियायों की पवित्रता ,बल और उल्लास के निरोध से होती है। वे ईश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा को ही भक्ति मानते हैं। इसके सम्बन्ध में उन्होंने कि मनुष्य के हृदय में जो भावनायें तथा वासनाएं उत्पन्न होती हैं वे स्वयं दूषित नहीं हैं बल्कि उनका धीरे धीरे नियंत्रण करते हुए उसे उच्च ध्येय की ओर तब तक लगाते रहना चाहिए जब तक परमोच्च दशा की प्राप्ति न हो जाये।
उन्होंने प्रत्येक आत्मा को अव्यक्त ब्रह्म बताया और इस महामन्त्र के ज्ञान को ही ज्ञानयोग बताया। बाह्य तथा अंतःप्रवृत्ति को वशीभूत कर आत्मा के ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य बताया। यद्यपि विवेकानन्द ने सभी प्रकार के योगानुष्ठान को महत्व दिया था किन्तु ज्ञानयोग के प्रति उनकी विशेष निष्ठां थी। स्वामीजी की धर्म में पूर्ण आस्था थी। वे बुद्धि को धर्म का आवश्यक तथ्य बताते हुए कहते हैं -"बुद्धि का अनुसरण करते हुए मानवमात्र को नास्तिक होना अच्छा है ,पर किसी व्यक्ति के प्राधिकार के आधार पर अंधविश्वासों के रूप में करोड़ों देवताओं में विश्वास करना अच्छा। मनुष्य का महत्व इसी बात में है कि वह चिन्तनशील प्राणी है। स्वामी विवेकानंद जी ने समस्त ज्ञान को स्वानुभूतिजन्य बताया। उनके अनुसार -"प्रत्येक निश्चित विज्ञानं की एक साधारण चित्तभूमि है। उससे जो सिद्धांत उपलब्ध होते हैं ,कोई भी इच्छा करने पर उनका सत्यासत्य तत्काल समझ सकता है। "इन समस्त चिंतन और विचारों का प्रतिफल राजयोग विद्या है जिसमें यम ,नियम ,आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान एवं समाधि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उन्होंने अपनी राजयोग नामक पुस्तक में इसका विधिवत वर्णन किया है। आगे उन्होंने यह भी कहा है कि भक्तियोगी को ज्ञानमार्ग पर चलने की आवश्यकता है क्योंकि भक्ति ही उसे पूर्णता नहीं प्रदान कर सकती बल्कि ज्ञानमार्ग एवं कर्ममार्ग दोनों के सहयोग से भक्ति मार्ग सुदृढ़ होता है। विभिन्न मार्गों को स्वीकार करते हुए अंततः उन्होंने आत्मा की अनंत शक्ति के प्रति अटूट विश्वास प्रकट किया और यही उनकी आध्यात्मिक परिपूर्णता का स्वतः प्रमाणित एवं अनुभूतिजन्य मार्ग था जिसके सहयोग से उन्हें परमसत्ता के साक्षात्कार में सहायता मिली।
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
श्री अरविन्द
जीवन परिचय :- ----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
श्री अरविन्द
नव जागरण के देवदूत श्री महर्षि अरविन्द का पूरा नाम अरविन्द घोष था। महर्षि एवम योगी की उपाधि उन्हें बाद में उनके दार्शनिक चिन्तन एवम तत्व-निरूपण के सन्दर्भ में मिली थी। अरविन्द जी का जन्म पश्चिम बंगाल प्रान्त के कलकत्ता नगर में १५ अगस्त १८७२ ई० को हुआ था। इनके पिता का नाम डॉ० राधाकृष्णन घोष था जो उस समय के कुशल चिकित्सक थे। इनके पिता प्रारम्भ से ही इन्हें उच्च शिक्षा दिलवाकर किसी उच्च सरकारी पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे। अतः उसी के अनुरूप इनकी शिक्षा दीक्षा भी प्रारम्भ की गयी। ५ वर्ष की अल्पायु में इन्हें दार्जलिंग के एक योरोपियन स्कूल में दाखिल करा दिया गया जहां पर केवल योरोपियन भाषाओँ में ही पढ़ाई होती थी। अतः दो वर्ष बाद इन्हें शिक्षा ग्रहण करने हेतु इंग्लैंड भेज दिया गया। कम उम्र के कारण इन्हें किसी हास्टल में न रखकर मि ० डिवेटनामक एक गृहस्थ के घर में रखने की व्यवस्था की गयी। सन १८८५ ई ० में डिवेट के आस्ट्रेलिया चले जाने पर अरविन्द को सेन्टपाल स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया। वहां के हेडमास्टर को इतनी छोटी आयु में इनकी लैटिन भाषा की योग्यता को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था अतः उसने इन्हें ग्रीक पढना आरम्भ कर दिया। अपनी इस विकसित योग्यता के कारण सत्रह वर्ष की आयु में कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज के लिए ८० पौंड की सर्वोच्च छात्रवृत्ति प्राप्त की। वहाँ अध्ययन प्राप्त करके वे १८ वर्ष की आयु में आई ,सी ,यस की परीक्षा उत्तीर्ण किये और अध्ययन के दौरान ही इन्होंने अंग्रेजी,जर्मन,फ्रेंच,ग्रीक एवम इटैलियन भाषाओँ का भी सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया था। विद्यार्थी जीवन में ही इन्हें देशभक्ति ने इस प्रकार प्रेरित किया कि उन्होंने जानबूझकर आई ,सी, एस की घुड़सवारी की परीक्षा देने से इंकार कर दिया था और राष्ट्रसेवा करने का पूर्ण निश्चय कर लिया।इस प्रकार सन १८९३ ई ० तक इक्कीस वर्ष की आयु में अरविन्द ने इंग्लैंड के कालेजों की सभी पढ़ाई कर ली थी। अंग्रेजी पर तो इनका इतना अधिकार था कि वे उसी समय उसमें कविता लिखने लगे थे। इनके पिता इनको पक्का अंग्रेज बनाना चाहते थे और जन्म से अभी तक उन्हें अंग्रेजी वातावरण में ही रखा गया। भारत आकर इन्होंने दार्शनिक विषयों से सम्बन्धित दो एक प्लेटो की पुस्तकें पढ़ी और संस्कृत भाषा का ज्ञान भी प्राप्त किया। यहां आकर इनका सम्पर्क कुछ ऐसे भारतीय युवकों से हो गया जिन पर योरोप के क्रन्तिकारी विचारों का प्रभाव पड़ चूका था और इसीलिए उनको अपने देश की पराधीनता खटकने लगी थी। इन्होंने युवावस्था में ही स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेना आरम्भ कर दिया था। इनकी प्रतिभा से तत्कालीन बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित हुए थे और उन्होंने अपने रियासत के कालेज में इन्हें शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्ति प्रदान कर दी। बड़ौदा में क्रमशः प्राध्यापक,वाइस प्रिंसिपल व उनके निजी सचिव के गुरुतर भार का वहन करते हुए इन्होंने हजारों छात्रों को देश भक्ति की ओर प्रेरित किया। १८९६ से १९०५ तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा कालेज के फ्रेंच प्राध्यापक व वाइस प्रिंसिपल के पद पर रहते हुए क्रांतिकारियों को प्रशिक्षित किया। प्रायः वे अपने जीवन में कभी भी रूपये पैसे का हिसाब नहीं रखते थे किन्तु राजस्व अधिकारी के रूप में उन्होंने विश्व की प्रथम आर्थिक विकास योजना का प्रारूप तैयार किया और उसका कार्यान्वयन करके बड़ौदा राज्य को गौरवान्वित भी किया। इसके बाद वे विभिन्न आर्थिक विचार गोष्ठियों व समारोहों में सम्मनापूर्वक बुलाये जाने लगे थे।
क्रांतिकारी आंदोलन में सहयोग :-
क्रांतिकारी आंदोलन में सहयोग :-
लार्ड कर्जन की बंग भंग की योजना के विरोध में बंगाल में एक जबरदस्त आंदोलन हुआ तब अरविन्द घोष ने इस आंदोलन का सक्रिय रूप से प्रतिनिधित्व किया था। इसी बीच उन्होंने नेशनल ला कालेज की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और ७५ रूपये मासिक वेतन पर उन्होंने उसमें अध्यापन कार्य भी किया। अरविन्द घोष कलकत्ता आकर राजा सुबोध की अट्टालिका में रहने लगे किन्तु जन सामान्य से मिलने में हो रही असुविधा के दृष्टिगत वे बाद में छक्कू खानसाना की गली में रहने लगे। उन्होंने किशोरगंज जो अब बंगलादेश में है ,में स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व किया और इस नेतृत्व में उन्होंने भारतीय पोशाक धोती,कुरता और चादर का ही चयन किया। कुछ दिनों बाद वे "बन्दे मातरम" नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ कर दिया तो ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों व क्रियाकलापों से आतंकित होने लगी तथा २ मई १९०८ ई को उनके चालीस अन्य युवक साथियों के साथ इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इस घटना को अलीपुर षड्यन्त्र केस के नाम से जाना गया । इसी घटना के सम्बन्ध में उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर कारागार में निरुद्ध रखा गया और इन्होंने कारागार में ही हिन्दू धर्म एवम हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना की। इसी मामले में अरविन्द घोष को अभियुक्त के रूप में सजा दिलाये जाने हेतु ब्रिटिश सरकार ने जिस गवाह को तैयार कर रखा था ,उसकी आकस्मिक हत्या कर दिए जाने के फलस्वरूप उनका पक्ष कोर्ट में प्रस्तुत करने के लिए प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजनदास ने पूर्ण तन्मयता से पैरवी की और अपने अकाट्य तर्कों एवम प्रभावी बहस के आधार पर अरविन्द घोष को समस्त अभियोगों से मुक्त करवा दिया। ६ मई १९०९ ई ० को मुकदमे का फैसला आया और ३० मई १९०९ ई० को अरविन्द घोष ने उत्तरपाड़ा में आयोजित एक विशाल जनसभा में अपना प्रभावशाली भाषण दिया जिससे उनकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी। इन्होंने इस सभा में अपने कारावास के दौरान उत्पन्न अनुभूतियों का वृहत एवम प्रभावशाली विवेचना करते हुए कहा था :--"जब मुझे आप लोगों के द्वारा कुछ कहने के लिए कहा गया तो मैं आज एक विषय हिन्दू धर्म पर कहूंगा। मुझे नहीं पता कि मैं अपना आशय पूर्ण कर पाउँगा या नहीं। जब मैं यहां बैठा था तो मेरे मन में आया कि मुझे आपसे बात करनी चाहिए। एक शब्द पूरे भारत से कहना चाहिए और यही शब्द मुझसे सबसे पहले जेल में कहा गया था। अतः मैं यही आपको कहने के लिए जेल से बाहर आया हूँ। एक साल हो गया है मुझे यहां आये हुए। पिछली बार आया था तो यहां राष्ट्रीयता के बड़े बड़े प्रवर्तक मेरे साथ बैठे थे। यह तो वह सब था जो एकांत से बाहर आया, जिसे ईश्वर ने भेजा था ताकि जेल के एकांत में वह ईश्वर के शब्दों को सुन सकें। यह तो वह ईश्वर ही था जिसके कारण आप यहां हजारों की संख्या में आये। अब वह बहुत दूर है ,हजारों मील दूर।
राजनैतिक संघर्ष का युग :-
सन १९०५ ई ० में लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो टुकड़ों में विभक्त कर दिया तो देश में एक भयंकर राजनैतिक तूफान आ गया था। परिणामस्वरूप भारत के सभी प्रान्तों में एक जोरदार आंदोलन छिड़ गया जिसका केंद्र बंगाल था। लोगों ने विदेशी माल का बहिष्कार करके विलायती कपड़ों की होली जलाई। हजारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल कालेज छोड़कर स्वदेश प्रचार का कार्य आरम्भ कर दिया। उस समय देश की सबसे बड़ी राजनैतिक संस्था कांगेस थी किन्तु उसमे नरम दल वालों की प्रधानता थी जो सरकार से प्रार्थना करने के सिवाय किसी सीधी कार्यवाही के लिए तैयार नहीं थे। इधर लोकमान्य तिलक,लाला लाजपत राय,श्री विपिन चन्द्र पालआदि गरम दल के नेता सरकार के सामने स्वराज्य की मांग को बलपूर्वक रखने के पक्ष में उद्यत हो गए। श्री अरविन्द भी इसी दल में थे किन्तु बड़ौदा में सरकारी नौकरी करने के कारण अभी वे इस आंदोलन में अप्रत्यक्ष रूप से ही भाग ले पा रहे थे। जब आन्दोलन क्रमशः बढ़ने लगा और तिलक से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया तो उन्होंने एक वर्ष का अवकाश ले लिया और प्रत्यक्ष रूप से आंदोलन में सहभागिता करना आरम्भ कर दिया। राजनैतिक आंदोलन की सफलता और देशवासियों तक स्वाधीनता का सन्देश पहुँचाने के लिए वनडे मातरम नामक एक दैनिक पत्र निकाला गया जिसका आर्थिक और सम्पादकीय भार श्री अरविन्द के ऊपर डाला गया । इनके उत्तेजक एवं युवाओं को आकर्षित करने वाले लेखों से सरकार डर गयी और ऐसा अवसर ढूढने लगी जिससे इनको हटाया जा सके। शीघ्र ही इन पर दो मुकदमे चलाये गए जो युगान्तर एवं वन्दे मातरम में में प्रकाशित लेखों के सम्बन्ध में थे। इस मुकदमें के कारण वन्दे मातरम और श्री अरविन्द जी का नाम सम्पूर्ण भारत में फ़ैल गया और लोग उनको पूज्यभाव से देखने लगे। उधर सरकार को भी अपनी हार का अनुभव होने लगा क्योंकि श्री अरविन्द के लेख वास्तव में ऐसे उच्च भावों से युक्त होते थे कि उनको घृणा फ़ैलाने वाला अथवा हिंसा के लिए उत्तेजक नहीं सिद्ध किया जा सकता था।
इसी समय सूरत कांगेस की तयारी होने लगी। पिछले काशी और कलकत्ता के अधिवेशनों में देश के कुछ वयोवृद्ध नेताओं ने गरम और नरम दल वालों को समझा बुझाकर कांगेस में सम्मिलित कर रखा था फिरभी सरकारी दमन के कारण देश में बड़ी उत्तेजना फैलने लगी थी। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में संघर्ष छिड़ गया जिसके कारण अधिवेशन भंग करना पड़ा। श्री अरविन्द इस अवसर पर गरम दल के मुखिया तिलक के प्रधान सहयोगी बन गए और वे स्वतन्त्रता के सन्देश का नगर नगर में प्रचार करने लगे। कलकत्ता वापस आने पर उनका बहुत धूमधाम से स्वागत किया गया। इन दिनों श्री अरविन्द भाषण देते समय अपनी आँखों को बन्द कर लिया करते थे और मन में आयी हुई अन्तरात्मा की आवाज को प्रकट करने लगे थे। श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे और उन पर सनसनी भ प्रभाव पड़ने लगा था।
राजनीति का त्याग और अध्यात्म का प्रचार :-
उपरोक्त मुकदमों के समाप्त होने पर जब श्री अरविन्द जी जेल से बाहर आये तो उन्होंने देखा कि देश की दशा बिलकुल बदल गयी है सरकार ने भरी दमन से लोगों के लिखने ,बोलने एवं प्रचार करने पर रोक लगा दी है और सभी मुख्य नेताओं को जेल में बन्द कर रखा है तथा वन्दे मातरम का प्रकाशन भी बन्द करवा दिया है। इसलिए उन्होंने अपने विचारों के प्रकाशन के लिए अंग्रेजी भाषा में "कर्मयोगिन" और बंगला में "धर्म "नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया। इन पत्रों में वे राजनीति एवं अध्यात्म का समन्वय करके बहुत अच्छे ढंग से अपने उद्दात्त विचार प्रस्तुत। उन्होंने उसमें लिखा कि कर्मयोग और धर्म ही मानव जीवन का सार है और वही सच्ची राजनीति है क्योंकि यही गीता का उपदेश है। शिक्षा में भी वे अध्यात्म का प्रवेश अनिवार्य मानते थे। उन्होंने योरोप की ऊंची शिक्षा प्राप्त करके देख लिया था कि उसकी नींव भौतिकता पर रखी गयी है। इसलिए सांसारिक दृष्टि से वैभव और चमक दमक प्राप्त कर लेने पर भी उसमें शाश्वत कल्याण और शांति प्रदान करने की शक्ति नहीं है। श्री अरविन्द जी का विश्वास था कि अंतरात्मा का सत्ता सर्वव्यापी है और जड़जगत के पदार्थ भी उससे पृथक नहीं हैं। इसीलिए वे प्राचीनकाल की तरह कुश के आसन पर बैठकर पढ़ना ही धर्मानुकूल पये। उनके मतानुसार आत्म-शक्ति ही सर्वप्रधान है और वही प्रत्येक पदार्थ को भले या बुरे रूप में अनुप्राणित कर सकती है। उन्होंने कर्मयोगिन में लिखा था कि "केवल अंतरात्मा ही हमें बचा सकती है। हम अपने हृदय को महान और स्वतन्त्र बनाकर ही सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से बड़े और स्वाधीन बन सकते हैं। जब भारत अपनी खोयी हुई जातीयता प्राप्त कर लेगा तो वह संसार में मानव परिवार में अधिक पूर्ण और विशाल जीवन का अधिकारी बन सकेगा। "
पांडिचेरी में आध्यात्मिक जीवन :-
पांडिचेरी पहुँचने पर श्री अरविन्द पूर्णतः प्रकट रूप से वहां नहीं रहते थे केवल उनके कुछ घनिष्ठ परिचितों को ही इसकी जानकारी थी। वहां के राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने उनसे अनुरोध किया कि उनके कार्य में सहयोग करें परन्तु अब वे योगसाधना में तल्लीन हो चुके थे इसलिए इस विषय उन्होंने सभी मित्रों से क्षमा मांग ली। आरम्भ में उन्हें शंकर चट्टी पर ठहराया गया जहां पहले स्वामी विवेकानंद भी ठहर चुके थे। यहां पर अरविन्द का जीवन अत्यंत सादा था। वे और उनके तीन साथी फर्श पर ही सोते थे और गृहस्वामी के यहां से जो चावल और शक अथवा मद्रासी रसम बनता था उसी को वे खा लेते थे। इसी समय फ्रांस की विद्वान दार्शनिक पाल रिचर्ड पांडिचेरी आकर इनसे मिली। इस भेंट से उनको यह अनुभव हुआ कि श्री अरविन्द उनके बड़े भाई के समान हैं और उनका ज्ञान भंडार बहुत विशाल है। बाद में पाल रिचर्ड की पत्नी मीरा रिचर्ड भी पांडिचेरी आकर श्री अरविन्द से मिलीं और कुछ दिनों बाद वे श्री अरविन्द की प्रधान सहायिका हो गयीं तथा बाद में वे माता जी के नाम से अरविन्द आश्रम का संचालन करने लगीं।
श्री अरविन्द की साधना जैसे जैसे बढ़ती गयी बाह्य संसार से उनका सम्बन्ध कम होता गया। अंत में उनकी सिद्धि का दिन आ गया। दिनांक २४ नवम्बर १९२६ ई ० को उन्होंने संसार से पूर्णतयः सम्बन्ध विच्छेद करके एकांत जीवन बिताने का निश्चय कर लिया। इसके पश्चात अपने शिष्यों और साधकों से जो जो मार्ग दर्शन का सम्बन्ध रखा वह केवल माता जी के माध्यम से। इस प्रकार नवम्बर १९२६ से जीवन के अंतिम दिन ५ दिसम्बर १९५० तक वे एकांतवास करके एक ऐसी साधना में निमग्न रहे जिसका उद्देश्य आध्यात्मिक भाव सम्पन्न लोगों को साक्षात्कार के आगे बढ़ने में सहायता पहुँचाना था। भारत तथा अन्य देशों के उद्धार के लिए जो आंदोलन चल रहे थे ,उनमें भी वे संकल्प शक्ति द्वारा सहयोग देते रहे। अपने आरम्भिक जीवन में श्री अरविन्द एक बहुत ऊंचे दर्जे के विद्वान तथा साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने साहित्यिक विषयों पर बड़े बड़े ग्रन्थ लिख डेल थे। सावित्री नामक एक महाकाव्य अंग्रेजी भाषा में लिखा जिसकी तुलना महाकवि मिल्टन की रचनाओं से की जाने लगी थी। वैसे तो यह एक पौराणिक कथा ही है पर इसको पढ़ते समय पाठक इस दृश्य जगत से बहुत ऊपर एक अज्ञात लोक में पहुँच जाता है।
राजनैतिक संघर्ष का युग :-
सन १९०५ ई ० में लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो टुकड़ों में विभक्त कर दिया तो देश में एक भयंकर राजनैतिक तूफान आ गया था। परिणामस्वरूप भारत के सभी प्रान्तों में एक जोरदार आंदोलन छिड़ गया जिसका केंद्र बंगाल था। लोगों ने विदेशी माल का बहिष्कार करके विलायती कपड़ों की होली जलाई। हजारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल कालेज छोड़कर स्वदेश प्रचार का कार्य आरम्भ कर दिया। उस समय देश की सबसे बड़ी राजनैतिक संस्था कांगेस थी किन्तु उसमे नरम दल वालों की प्रधानता थी जो सरकार से प्रार्थना करने के सिवाय किसी सीधी कार्यवाही के लिए तैयार नहीं थे। इधर लोकमान्य तिलक,लाला लाजपत राय,श्री विपिन चन्द्र पालआदि गरम दल के नेता सरकार के सामने स्वराज्य की मांग को बलपूर्वक रखने के पक्ष में उद्यत हो गए। श्री अरविन्द भी इसी दल में थे किन्तु बड़ौदा में सरकारी नौकरी करने के कारण अभी वे इस आंदोलन में अप्रत्यक्ष रूप से ही भाग ले पा रहे थे। जब आन्दोलन क्रमशः बढ़ने लगा और तिलक से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया तो उन्होंने एक वर्ष का अवकाश ले लिया और प्रत्यक्ष रूप से आंदोलन में सहभागिता करना आरम्भ कर दिया। राजनैतिक आंदोलन की सफलता और देशवासियों तक स्वाधीनता का सन्देश पहुँचाने के लिए वनडे मातरम नामक एक दैनिक पत्र निकाला गया जिसका आर्थिक और सम्पादकीय भार श्री अरविन्द के ऊपर डाला गया । इनके उत्तेजक एवं युवाओं को आकर्षित करने वाले लेखों से सरकार डर गयी और ऐसा अवसर ढूढने लगी जिससे इनको हटाया जा सके। शीघ्र ही इन पर दो मुकदमे चलाये गए जो युगान्तर एवं वन्दे मातरम में में प्रकाशित लेखों के सम्बन्ध में थे। इस मुकदमें के कारण वन्दे मातरम और श्री अरविन्द जी का नाम सम्पूर्ण भारत में फ़ैल गया और लोग उनको पूज्यभाव से देखने लगे। उधर सरकार को भी अपनी हार का अनुभव होने लगा क्योंकि श्री अरविन्द के लेख वास्तव में ऐसे उच्च भावों से युक्त होते थे कि उनको घृणा फ़ैलाने वाला अथवा हिंसा के लिए उत्तेजक नहीं सिद्ध किया जा सकता था।
इसी समय सूरत कांगेस की तयारी होने लगी। पिछले काशी और कलकत्ता के अधिवेशनों में देश के कुछ वयोवृद्ध नेताओं ने गरम और नरम दल वालों को समझा बुझाकर कांगेस में सम्मिलित कर रखा था फिरभी सरकारी दमन के कारण देश में बड़ी उत्तेजना फैलने लगी थी। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में संघर्ष छिड़ गया जिसके कारण अधिवेशन भंग करना पड़ा। श्री अरविन्द इस अवसर पर गरम दल के मुखिया तिलक के प्रधान सहयोगी बन गए और वे स्वतन्त्रता के सन्देश का नगर नगर में प्रचार करने लगे। कलकत्ता वापस आने पर उनका बहुत धूमधाम से स्वागत किया गया। इन दिनों श्री अरविन्द भाषण देते समय अपनी आँखों को बन्द कर लिया करते थे और मन में आयी हुई अन्तरात्मा की आवाज को प्रकट करने लगे थे। श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे और उन पर सनसनी भ प्रभाव पड़ने लगा था।
राजनीति का त्याग और अध्यात्म का प्रचार :-
उपरोक्त मुकदमों के समाप्त होने पर जब श्री अरविन्द जी जेल से बाहर आये तो उन्होंने देखा कि देश की दशा बिलकुल बदल गयी है सरकार ने भरी दमन से लोगों के लिखने ,बोलने एवं प्रचार करने पर रोक लगा दी है और सभी मुख्य नेताओं को जेल में बन्द कर रखा है तथा वन्दे मातरम का प्रकाशन भी बन्द करवा दिया है। इसलिए उन्होंने अपने विचारों के प्रकाशन के लिए अंग्रेजी भाषा में "कर्मयोगिन" और बंगला में "धर्म "नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया। इन पत्रों में वे राजनीति एवं अध्यात्म का समन्वय करके बहुत अच्छे ढंग से अपने उद्दात्त विचार प्रस्तुत। उन्होंने उसमें लिखा कि कर्मयोग और धर्म ही मानव जीवन का सार है और वही सच्ची राजनीति है क्योंकि यही गीता का उपदेश है। शिक्षा में भी वे अध्यात्म का प्रवेश अनिवार्य मानते थे। उन्होंने योरोप की ऊंची शिक्षा प्राप्त करके देख लिया था कि उसकी नींव भौतिकता पर रखी गयी है। इसलिए सांसारिक दृष्टि से वैभव और चमक दमक प्राप्त कर लेने पर भी उसमें शाश्वत कल्याण और शांति प्रदान करने की शक्ति नहीं है। श्री अरविन्द जी का विश्वास था कि अंतरात्मा का सत्ता सर्वव्यापी है और जड़जगत के पदार्थ भी उससे पृथक नहीं हैं। इसीलिए वे प्राचीनकाल की तरह कुश के आसन पर बैठकर पढ़ना ही धर्मानुकूल पये। उनके मतानुसार आत्म-शक्ति ही सर्वप्रधान है और वही प्रत्येक पदार्थ को भले या बुरे रूप में अनुप्राणित कर सकती है। उन्होंने कर्मयोगिन में लिखा था कि "केवल अंतरात्मा ही हमें बचा सकती है। हम अपने हृदय को महान और स्वतन्त्र बनाकर ही सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से बड़े और स्वाधीन बन सकते हैं। जब भारत अपनी खोयी हुई जातीयता प्राप्त कर लेगा तो वह संसार में मानव परिवार में अधिक पूर्ण और विशाल जीवन का अधिकारी बन सकेगा। "
पांडिचेरी में आध्यात्मिक जीवन :-
पांडिचेरी पहुँचने पर श्री अरविन्द पूर्णतः प्रकट रूप से वहां नहीं रहते थे केवल उनके कुछ घनिष्ठ परिचितों को ही इसकी जानकारी थी। वहां के राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने उनसे अनुरोध किया कि उनके कार्य में सहयोग करें परन्तु अब वे योगसाधना में तल्लीन हो चुके थे इसलिए इस विषय उन्होंने सभी मित्रों से क्षमा मांग ली। आरम्भ में उन्हें शंकर चट्टी पर ठहराया गया जहां पहले स्वामी विवेकानंद भी ठहर चुके थे। यहां पर अरविन्द का जीवन अत्यंत सादा था। वे और उनके तीन साथी फर्श पर ही सोते थे और गृहस्वामी के यहां से जो चावल और शक अथवा मद्रासी रसम बनता था उसी को वे खा लेते थे। इसी समय फ्रांस की विद्वान दार्शनिक पाल रिचर्ड पांडिचेरी आकर इनसे मिली। इस भेंट से उनको यह अनुभव हुआ कि श्री अरविन्द उनके बड़े भाई के समान हैं और उनका ज्ञान भंडार बहुत विशाल है। बाद में पाल रिचर्ड की पत्नी मीरा रिचर्ड भी पांडिचेरी आकर श्री अरविन्द से मिलीं और कुछ दिनों बाद वे श्री अरविन्द की प्रधान सहायिका हो गयीं तथा बाद में वे माता जी के नाम से अरविन्द आश्रम का संचालन करने लगीं।
श्री अरविन्द की साधना जैसे जैसे बढ़ती गयी बाह्य संसार से उनका सम्बन्ध कम होता गया। अंत में उनकी सिद्धि का दिन आ गया। दिनांक २४ नवम्बर १९२६ ई ० को उन्होंने संसार से पूर्णतयः सम्बन्ध विच्छेद करके एकांत जीवन बिताने का निश्चय कर लिया। इसके पश्चात अपने शिष्यों और साधकों से जो जो मार्ग दर्शन का सम्बन्ध रखा वह केवल माता जी के माध्यम से। इस प्रकार नवम्बर १९२६ से जीवन के अंतिम दिन ५ दिसम्बर १९५० तक वे एकांतवास करके एक ऐसी साधना में निमग्न रहे जिसका उद्देश्य आध्यात्मिक भाव सम्पन्न लोगों को साक्षात्कार के आगे बढ़ने में सहायता पहुँचाना था। भारत तथा अन्य देशों के उद्धार के लिए जो आंदोलन चल रहे थे ,उनमें भी वे संकल्प शक्ति द्वारा सहयोग देते रहे। अपने आरम्भिक जीवन में श्री अरविन्द एक बहुत ऊंचे दर्जे के विद्वान तथा साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने साहित्यिक विषयों पर बड़े बड़े ग्रन्थ लिख डेल थे। सावित्री नामक एक महाकाव्य अंग्रेजी भाषा में लिखा जिसकी तुलना महाकवि मिल्टन की रचनाओं से की जाने लगी थी। वैसे तो यह एक पौराणिक कथा ही है पर इसको पढ़ते समय पाठक इस दृश्य जगत से बहुत ऊपर एक अज्ञात लोक में पहुँच जाता है।
इसी घटना के बाद उनकी योगी जीवन आरम्भ हुआ और पांडिचेरी में एक आश्रम की स्थापना उनके द्वारा की गयी। इसी आश्रम में वेद ,उपनिषद आदि ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी और योगसाधना पर मौलिक ग्रन्थों की रचना भी की। वे एक कवि ,दार्शनिक एवम साधक थे। इनकी कृतियों में द मदर ,लेटर्स आन योग,सावित्री,योगसमन्वय,दिव्यजीवन,फ्यूचर पोयट्री,योगिक साधना,आदि प्रमुख हैं। दिव्य जीवन के द्वारा इन्होंने अपना दार्शनिक व्यक्तित्व को पूरे विश्व के समक्ष रखा और वे इसी के कारण भारतीय समकालीन दर्शन के प्रमुख पुरोधा के रूप में भी जाने गए।
दार्शनिक पृष्ठभूमि :-
स्वामी विवेकानंद के पश्चात भारतीय समकालीन दर्शन का विकास महर्षि अरविन्द के संरक्षण में उत्तरोत्तर आगे बढ़ा। इनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है इनका गम्भीर चिंतन एवम स्पष्ट लेखन। इनकी रचनाएँ एक प्रकार से उनके मानसिक स्तर एवम अप्रतिम व्यक्तित्व की सर्वोत्तम प्रतिनिधि हैं। इनकी प्रतिभा का सर्वतोमुखी स्वरूप इनकी बुद्धि की भेदन शक्ति ,असाधारण अभिव्यक्ति क्षमता ,उत्कट निष्ठा एवं उद्देश्य की एकांतिकता आदि का सहज अनुभव इनकी कृतियों से आसानी से हो जाता है। डॉ. ए० सी० भट्टाचार्य का इनके बारे में कथन है ::-- "भारत के स्वतन्त्रता यज्ञ के ऋतिविक आचार्य यदि स्वामी विवेकानंद को कहा जाये तथा मन्त्र द्रष्टा ऋषि बंकिम को कहा जाये तो निःसन्देह रूप से श्री अरविन्द उस यज्ञानुष्ठान के प्रमुख पुरोधा कहे जायेंगे। "
श्री अरविन्द बीसवीं शती के एक महान योगी तथा दार्शनिक हैं। उनके अनुसार विश्व में नित्य एक दिव्य विकास जारी है। इसे वे भौतिक या प्रकृतिक विकास न कहकर ब्रह्म के द्वारा ब्रह्म के लिए ब्रह्म का विकास मानते हैं। एकमात्र ब्रह्म की सत्ता मानते हुए उन्होंने भी नव्यवेदान्त की परम्परा से अपने को जोड़ रखा था। यद्यपि उन्होंने मायावाद का खण्डन कर माया को ब्रह्म की शक्ति माना है फिरभी उनका ब्रह्म सचल है। वह जगत की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है क्योंकि ब्रह्म के दिव्य विकास के अंतर्गत उन्होंने आरोह और अवरोह इन दो गतियों की ओर संकेत किया है। ब्रह्म अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए इन्ही दोनों गतियों में चक्राकार घूमता रहता है। अवरोह के प्रमुख चार स्तर अर्थात जड़तत्व,जीवतत्व,मानस तत्व एवम अतिमानस। इसमें अतिमानस सर्वोच्च स्तर है।
जगत सृष्टि से उनका तात्पर्य था कि सबसे पहले ब्रह्म अतिमानस में अवतरित होता है फिर मानस में और अंत में जीव एवम जड़ तत्व में अवतरित हो जाता है। उनके अनुसार जड़तत्व में भी अतिमानस अंतर्व्याप्त है। अतिमानस और ब्रह्म का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए अरविन्द ने वेदांत के कारण ब्रह्म एवम कार्य ब्रह्म का अनुकरण किया। अवरोह के बाद ब्रह्म का आरोह प्रारम्भ होता है जिसे आरोह विकास कहा गया। यह जड़ का जीव में विकास प्रस्तुत करता है। अभी तक विश्व का विकास मानव स्तर तक ही पहुंचा है। अब इसे अतिमानस की ओर बढ़ना है। अरविन्द ने अपने दर्शन में अतिमानस के स्तर एवम उसके स्वरूप का विधिवत वर्णन किया है। अरविन्द आधुनिक वैज्ञानिकों की इस धारणा को स्वीकार करते हैं कि जड़ से प्राण तत्व उत्पन्न हुआ है और प्राण तत्व से मानस तत्व। वे इसके आगे यह भी मानते हैं कि ठीक इसी प्रकार मानस तत्व से अतिमानस तत्व प्रकट होता है। श्रीअरविन्द का विकासवाद अन्य वैज्ञानिकों की भांति भौतिक विकासवाद नहीं है बल्कि यह आध्यात्मिक विकासवाद है क्योंकि इसमें ब्रह्म अंतर्निहित है।
श्रीअरविन्द ने अपने पूर्णयोग के द्वारा प्रकृति को अतिमानस के स्तर तक उठाने का प्रयास किया। यह उनका सर्वमुक्ति का सिद्धांत है। उन्होंने अद्वैत सत्ता में अटूट विश्वास रखा जिसके कारण वे आत्मा में अनन्तशक्ति स्वीकार करते हैं। इसके लिए उन्होंने स्वानुभूति द्वारा अतिमानस के स्तर तक पहुँचने का प्रयास किया। स्वानुभूति प्रक्रिया द्वारा उन्होंने अपने दर्शन को आध्यात्मिक विकासवाद के स्तर तक ले जाने का भी प्रयास किया।
श्रीअरविन्द का दर्शन बौद्धिक तर्कों पर नहीं बल्कि योग की व्यावहारिक अनुभूति तथा यौगिक प्रकाश पर आधारित है। उन्होंने मानसिक ज्ञान से परे अतिमानसिक ज्ञान को स्वीकार किया तथा स्वानुभूति का तात्पर्य उन्होंने उस ज्ञान से लिया जो मानसिक या बौद्धिक ज्ञान से परे हो। चूँकि अरविन्द ने अतिमानसिक ज्ञान को स्वीकार किया है, अतः उनका दर्शन स्वानुभूतिमूलक माना गया। वैदिक परम्परा का समर्थन करते हुए उन्होंने उच्चतर मानसिक ज्ञान का मानसिक बौद्धिक ज्ञान से सम्बन्ध व्यक्त किया है। उनके शब्दों में -"वस्तुतः मनस अतिमानस का एक पतन है ,इसलिए इसका फिर उसमें उत्थान अवश्यम्भावी है जिससे यह पतित हुआ था। "अतिमानसिक स्तर पर चितशक्ति अविभाजित रहती है परन्तु मानसिक स्तर पर वह एकांतिक एकाग्रता से आत्मसंलग्न हो जाती है। श्रीअरविन्द ने बौद्धिक या मानसिक ज्ञान को परमसत्ता के साक्षात्कार के लिए उपयुक्त नहीं मानते। वे बौद्धिक ज्ञान से परे जाकर अतिमानसिक ज्ञान को प्राप्त करना ही सच्चा साक्षात्कार मानते हैं। वे कहते है --"यदि बुद्धि हमारे लिए सर्वोच्च सम्भव ज्ञान का साधन हो और अतिभौतिक सत्य तक पहुँचने का और दूसरा कोई साधन न हो तो हमारी अंतिम अभिवृत्ति एक व्यापक तथा बुद्धिसम्मत अज्ञेयवाद का होना अवश्यम्भावी है। सृष्टि की वस्तुएं कुछ अंशों तक जानी जा सकती हैं परन्तु परमतत्व और मनस के परे सभी कुछ हमेशा के लिए अवश्य अज्ञेय रह जायेगा। "श्रीअरविन्द के अनुसार ससीम बुद्धि असीम सत्ता को धारण नहीं कर सकती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बुद्धि विरोधी थे। परमसत्ता के साक्षात्कार के सन्दर्भ में उन्होंने बुद्धि को ससीम अवश्य कह दिया तथापि उसका विकल्प उन्होंने स्वानुभूति द्वारा प्रस्तुत किया।
श्रीअरविन्द के अनुसार स्वानुभूति उच्चतर ज्ञान का तीसरा सोपान है। स्वानुभूति से उपलब्ध अतिमानसिक सत्य की झलकों की तुलना उन्होंने कठोपनिषद के शब्दों में की है। उनका कथन है _-"स्वानुभूति हमेशा ही एक उच्चतर प्रकाश की धार ,झलक या बाहरी किनारा जैसा है। हमारे अन्दर यह एक प्रक्षेपित क्षुर या धार या दूरवर्ती अतिमानसिक प्रकाश का बिंदु है। "स्वानुभूति और अतिमानस के बीच अधिमानस का स्तर स्वीकार करते हुए अरविन्द जी ने इसे अज्ञान का जनक कहा।यह सर्वात्मक चैतन्य तक पहुँचने का एक मार्ग है। अधिमानस को उन्होंने वह चेतन सर्वगत मनस कहा जो अतिमानसिक सत्यचेतना के साथ साक्षात् सम्बन्ध रखता है। अधिमानस पूर्ण एकीकरण की क्षमता नहीं रखता।
श्रीअरविन्द के अनुसार अतिमानस में सत,चित,और आनन्द की जो अविभाज्य एकता है वह अधिमानस में नष्ट हो जाती है और यह अधिक से अधिक प्रतीयमान विभेदों को समन्वयात्मक दृष्टि से एकत्रित करके देख सकती है। इसलिए अतिमानसिक चेतना को ही अरविन्द जी ने सर्वोच्च ज्ञान माना। इसका आविर्भाव तभी सम्भव है जबकि वह ऊपर से और साथ ही अंदर से प्रकाशित होती हो। स्वानुभूति जिस सत्य को क्षणिक झलकों से प्राप्त करती है वही शक्ति प्रदीप्त मनस में दृश्य रूपों में और उच्चतर मनस में ज्योतिर्मय विचारों में प्रकट होती है। श्रीअरविन्द का मत है कि अतिमानस चैतन्य को प्राप्त करने के लिए हमारे ह्रदय के अंतस्तल में स्थित इस अवगूढ़ आंतरिक आधार को भी विकसित करना परम् आवश्यक है। इसे वे चैत्य पुरुष कहते हैं। अतिमानस ब्रह्म से आत्मविस्तार कैसे होता है ?इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने अतिमानस को ब्रह्म का विशाल आत्म-प्रसारण बताया। प्रसारण देश और काल का सूचक है। जब वह वस्तुनिष्ठ रहता है तब उसे देश कहते हैं किन्तु जब आत्मनिष्ठ हो जाता है तब काल कहलाता है।अतिमानस देश और काल को धारण करता है न कि उससे धृत है। इसलिए वह शाश्वत देश और शाश्वत काल को देख सकता है एवम दैशिक विभाजनों और कालिक क्रमिकताओं की एकीभूत कर सकता है।
अतिमानस की सर्जना शक्ति को अरविन्द जी दिव्य माया कहते हैं। इसी के द्वारा वे वैविध्य के आविर्भाव को सम्भव मानते हैं। दूसरे शब्दों में इस माया द्वारा ब्रह्म विश्व में प्रक्षेपित होता है। अतएव विश्व के अधिष्ठान के रूप में वे एक ऐसे सत को स्वीकार करते हैं जो निर्विशेष परमसत न होकर इस विशेष अर्थ में सविशेष है कि वह एक मूल आत्म-एकाग्रता है।श्रीअरविन्द के पूर्णयोग का तात्पर्य उनके आध्यात्म योग या अधिमानसिक योग से है। उनका मत है कि इस योग में व्यक्ति के सर्वांगीण विकास पर अर्थात सभी शक्तियों एवम पक्षों के एक साथ विकसित होने पर बल दिया जाता है। उनका सर्वांगीण योग प्रवृत्ति एवम निवृत्ति मार्गों में एक सामंजस्यपूर्ण समन्वय प्रस्तुत करता है जिसका लक्ष्य वे ब्रह्म में लीन हो जाना नहीं मानते बल्कि वह पृथ्वी पर ही रोग, शोक,जरामरण आदि से मुक्त अमृतमय दिव्य जीवन को विकसित करने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास में वे धर्मयोग,ज्ञानयोग,भक्तियोग एवम राजयोग सभी की अनिवार्यता पर बल देते हैं। इन सभी मार्गों को वे वैदिक कहते हैं। वे इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि ज्ञान,भक्ति अथवा कर्म में से किसी एक मार्ग पर योग अंतःकरण से चलने पर अंत में अन्य दो का लाभ भी प्राप्त हो जाता है।
श्रीअरविन्द परमसत्ता के दो स्वरूप मानते हैं ,पहला विशुद्ध सत अर्थात परात्पर ब्रह्म और दूसरा परात्पर पुरुष। ब्रह्म के इसी स्वरूप को उन्होंने अतिमानस भी कहा है क्योंकि इसी से वे सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। एकमात्र सत्य ब्रह्म से नानात्मक जगत की उत्पत्ति का उल्लेख करते हुए उनका कथन है -"ब्रह्म अपने आपको चेतना के अनेक क्रमागत रूपों में प्रकट करता है। ये रूप सत्ता में सहवर्ती या काल के अन्दर समकालीन रहते हुए भी अपने सम्बन्ध में क्रमागत रहते हैं और जीवन को भी आत्मोन्मीलन करते हुए अपने आपकी सत्ता के चिर नवीन प्रदेशों में ऊपर उठते जाना होगा। "
उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री अरविन्द प्रतीकात्मक तथ्यों की उपयोगिता का बहुत अधिक महत्व मानते हैं। यह मार्ग एक प्रकार से सगुण से निर्गुण की ओर जाने का है। वे परमसत्ता को " नेति, नेति" पद्धति से ज्ञेय बताते हैं न कि अज्ञेय। वे उसे अपने लिए स्वप्रकाश मानते हैं। उनका कथन है --"ये सत्य हमारे धारणात्मक संबोध के सामने ऐसे मूलभूत पहलुओं की तरह आते हैं जिनमें हम सर्वगत सद्वस्तु को देखते और अनुभव करते हैं। उनका स्वरूप बौद्धिक ज्ञान के द्वारा नहीं वरन एक आध्यात्मिक अनुभूति के द्वारा ही हमारी सीधी पकड़ में आता है। "
अरविन्द जी कथन है कि जिस प्रकार प्राचीनकाल में कर्म विकास के कार्यक्रम में पशु के बाद मनुष्य आया ,इसी प्रकार मनुष्य की असभ्य जाति के बाद दिव्यता वाली जाति पृथ्वी पर अवश्य आएगी अर्थात मानव की व्यर्थ चेष्टा, परिश्रम, रक्तपातऔर आंसुओं से भरी हुई परिस्थिति के अंत में दिव्य जाति प्रकट होगी। मर्त्य मन जिन बातों की अभी कल्पना ही नहीं कर सकता उन वस्तुओं का इन लोगों को ज्ञान होगा। उनका मन्तव्य है कि जीवन में प्रकाश फ़ैलाने का कार्य निरन्तर चालू रहना चाहये। जब तक विरोधी शक्तियां उनके घर में ही न दी जाएँ। तभी प्रकाश संसार के अवचेतन आधार पर आक्रमण के सकता है। अभी भी मनुष्य जाति के लिए आशा है कि कोई अज्ञेय शक्ति अवतरित हो सकती है। कई लोगों ने उसके पदचाप का अनुभव भी किया है। एक प्रकाश नीचे उतरकर अज्ञान को नष्ट कर देता है ,पाप पूण्य समाप्त होते हैं तब हमारे सभी शब्द सत्य की वाणी में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार देवताओं के निवास योग्य एक मन्दिर का निर्माण हो जाता है। यही पूर्णता की प्राप्ति मनुष्य जाति के लिए एक लक्ष्य है। एक मनुष्य की परिपूर्णता से मानवीय क्षेत्र में ईश्वरीय शिविर स्थापित हो जाता है। आगे उन्होंने कहा कि हमें संसार की क्रियाओं से अलग हटकर अपने आप में आना होगा। अंतर्मुखी ठकर बाह्य विषयों से दूर रहना होगा। इन्द्रियाँ जिस चीज के लिए तरसा करती हैं उनके बिना सुख पूर्वक रहने में समर्थ होना ,सच्चे आध्यात्मिक जीवन की पहली शर्त है। परमलक्ष्य तो है आत्मा का स्वातन्त्र्य जिसमें जीव सब धर्मों का परित्यागकर कर्म के अपने एक मात्र विधान के लिए परमेश्वर की ओर मुड़ता है और सीधे संकल्प द्वारा कर्म करता है और दिव्य प्रकृति के स्वातन्त्र्य में निवास करता है।
अरविन्द जी का मानना है कि सर्वात्मा परमप्रभु के सम्मुख पूर्ण आत्मसमर्पण आवश्यक है। अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं एवं योजनाओं को छोड़कर सर्वथा प्रभु पर निर्भर हो जाना ,जिसमें वह दिव्य चेतनसत्ता व्यक्ति में उतर सके और अपना कार्य विधिपूर्वक हो सके।
श्री अरविन्द की योगप्रणाली :-
श्री अरविन्द ने जिस योगप्रणाली का प्रचार किया वह पहले से प्रचलित योगप्रणालियों से कितनी ही बातों में बिलकुल नवीन थी। उनका कथन है -"वैदिक काल में योग का आशय यह था कि उसकी सहायता से मनुष्य अपने स्वाभाविक जीवन का अधिक विकास कर सके ,पर मध्यकाल में उसे केवल गृहत्यागी साधु -सन्यासियों के काम की चीज बना दिया गया। " उनके मतानुसार हमारा समस्त जीवन योग ही है चाहे हम उसे समझकर करें और चाहे बिना समझे क्योंकि इस शब्द से हमारा तात्पर्य यही होता है कि मनुष्य अपनी सोई हुई शक्तियों को जग सके और उसकी सहायता से आत्म-परिपूर्णता की ओर अग्रसर हो सके। उन्होंने अपने पूर्णयोग का विस्तृत विवेचन आर्य मासिक पत्रिका में किया था जिसमे योग का लक्ष्य मानव-चेतना के स्वरूप को बदलना बताया गया था। मानव-चेतना को देवचेतना के रूप में परिवर्तित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी सम्पूर्ण शक्तियों का प्रयोग किया जाये अर्थात ज्ञान,कर्म और भक्ति इन तीनों को समन्वय की स्थिति में लाया जाये। इस प्रकार के सर्वांगीण विकास के लिए उद्योग करना ही जीवन का उद्देश्य है। साथ ही यह मनोवैज्ञानिक सत्य भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हर व्यक्ति की ज्ञान,कर्म और भक्ति में से किसी एक में विशेष रूचि होती है। इस रूचि या प्रवृत्ति का पूरा उपयोग करना चाहिए। इसको लेकर वह अपनी साधना आरम्भ करे और उसे आगे बढाये परन्तु सम्पूर्ण चेतना के रूपान्तर के लिए उसे दूसरे अंगों को भी विकसित करना होगा। ऐसा न करने से उसकी विशेष प्रवृत्ति में भी अपूर्णता रह जाएगी। उदाहरणार्थ किसी भक्त का भक्तिभाव तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता जब तक वह शुद्धज्ञान के क्षेत्र में भी प्रगति न कर लेगा।
श्री अरविन्द जी का योग विशेष रूप से मनोवैज्ञानिक है। साधना के सिद्धांत तो सबके लिए एक से ही है किन्तु किसके लिए -किस समय अथवा किस अवस्था में ,कैसी साधना उपयोगी है ,यह प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक विकास और स्थिति पर निर्भर है। श्री अरविन्द जी यहीं पर गुरु की आवश्यकता को अनिवार्य मानते हैं। साधना और योग में पुस्तकें पढ़कर इसीलिए सफलता नहीं मिलती कि इनके क्रमभेद बड़े सूक्ष्म हैं। अवस्था और व्यक्ति के भेद से इनके क्रम में भेद करना आवश्यक होता है। श्री अरविन्द जी कहा है -"वास्तव में योगी का गुरु परमात्मा है ,पर विशेष व्यक्तियों को छोड़कर सामान्यतया साधक के लिए शरीरधारी गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु अपने आत्मबल से सूक्ष्म रूप में साधक को आत्म -जिज्ञासा को जाग्रत करता है और अपने उसी सूक्ष्म प्रभाव से उसे भिन्न भिन्न परिस्थितियों में से गुजरते हुए चेतना के मार्ग पर अग्रसर करता है। साधारणतया योग का उद्देश्य समाधि अवस्था और उसका आनन्द माना जाता है। भारतवासियों की वर्तमान धारणा के अनुसार इसके लिए संसार का त्याग आवश्यक समझ जाता है। केवल गीता ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसने इस मत को स्वीकार न करके संसार को ही आध्यात्मिकता का वास्तविक क्षेत्र माना है। अरविन्द जी भी प्रत्येक व्यक्ति को योग का अधिकारी मानते हैं और कहते हैं कि "एक समय आएगा जब समग्र मानवजाति की चेतना विकसित होकर वर्तमान की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च स्तर को प्राप्त कर लेगी। श्री अरविन्द की योगप्रणाली के तीन मौलिक अभ्यास हैं -पहली अभीप्सा,दूसरी परित्याग,और तीसरी आत्मोद्घाटन। श्री अरविन्द के अनुसार योग का उद्देश्य वास्तव में शरीर,मन और आत्मा को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है जिससे वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपना सन्तुलन स्थिर रख सकें।
अरविन्द जी कथन है कि जिस प्रकार प्राचीनकाल में कर्म विकास के कार्यक्रम में पशु के बाद मनुष्य आया ,इसी प्रकार मनुष्य की असभ्य जाति के बाद दिव्यता वाली जाति पृथ्वी पर अवश्य आएगी अर्थात मानव की व्यर्थ चेष्टा, परिश्रम, रक्तपातऔर आंसुओं से भरी हुई परिस्थिति के अंत में दिव्य जाति प्रकट होगी। मर्त्य मन जिन बातों की अभी कल्पना ही नहीं कर सकता उन वस्तुओं का इन लोगों को ज्ञान होगा। उनका मन्तव्य है कि जीवन में प्रकाश फ़ैलाने का कार्य निरन्तर चालू रहना चाहये। जब तक विरोधी शक्तियां उनके घर में ही न दी जाएँ। तभी प्रकाश संसार के अवचेतन आधार पर आक्रमण के सकता है। अभी भी मनुष्य जाति के लिए आशा है कि कोई अज्ञेय शक्ति अवतरित हो सकती है। कई लोगों ने उसके पदचाप का अनुभव भी किया है। एक प्रकाश नीचे उतरकर अज्ञान को नष्ट कर देता है ,पाप पूण्य समाप्त होते हैं तब हमारे सभी शब्द सत्य की वाणी में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार देवताओं के निवास योग्य एक मन्दिर का निर्माण हो जाता है। यही पूर्णता की प्राप्ति मनुष्य जाति के लिए एक लक्ष्य है। एक मनुष्य की परिपूर्णता से मानवीय क्षेत्र में ईश्वरीय शिविर स्थापित हो जाता है। आगे उन्होंने कहा कि हमें संसार की क्रियाओं से अलग हटकर अपने आप में आना होगा। अंतर्मुखी ठकर बाह्य विषयों से दूर रहना होगा। इन्द्रियाँ जिस चीज के लिए तरसा करती हैं उनके बिना सुख पूर्वक रहने में समर्थ होना ,सच्चे आध्यात्मिक जीवन की पहली शर्त है। परमलक्ष्य तो है आत्मा का स्वातन्त्र्य जिसमें जीव सब धर्मों का परित्यागकर कर्म के अपने एक मात्र विधान के लिए परमेश्वर की ओर मुड़ता है और सीधे संकल्प द्वारा कर्म करता है और दिव्य प्रकृति के स्वातन्त्र्य में निवास करता है।
अरविन्द जी का मानना है कि सर्वात्मा परमप्रभु के सम्मुख पूर्ण आत्मसमर्पण आवश्यक है। अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं एवं योजनाओं को छोड़कर सर्वथा प्रभु पर निर्भर हो जाना ,जिसमें वह दिव्य चेतनसत्ता व्यक्ति में उतर सके और अपना कार्य विधिपूर्वक हो सके।
श्री अरविन्द की योगप्रणाली :-
श्री अरविन्द ने जिस योगप्रणाली का प्रचार किया वह पहले से प्रचलित योगप्रणालियों से कितनी ही बातों में बिलकुल नवीन थी। उनका कथन है -"वैदिक काल में योग का आशय यह था कि उसकी सहायता से मनुष्य अपने स्वाभाविक जीवन का अधिक विकास कर सके ,पर मध्यकाल में उसे केवल गृहत्यागी साधु -सन्यासियों के काम की चीज बना दिया गया। " उनके मतानुसार हमारा समस्त जीवन योग ही है चाहे हम उसे समझकर करें और चाहे बिना समझे क्योंकि इस शब्द से हमारा तात्पर्य यही होता है कि मनुष्य अपनी सोई हुई शक्तियों को जग सके और उसकी सहायता से आत्म-परिपूर्णता की ओर अग्रसर हो सके। उन्होंने अपने पूर्णयोग का विस्तृत विवेचन आर्य मासिक पत्रिका में किया था जिसमे योग का लक्ष्य मानव-चेतना के स्वरूप को बदलना बताया गया था। मानव-चेतना को देवचेतना के रूप में परिवर्तित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी सम्पूर्ण शक्तियों का प्रयोग किया जाये अर्थात ज्ञान,कर्म और भक्ति इन तीनों को समन्वय की स्थिति में लाया जाये। इस प्रकार के सर्वांगीण विकास के लिए उद्योग करना ही जीवन का उद्देश्य है। साथ ही यह मनोवैज्ञानिक सत्य भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हर व्यक्ति की ज्ञान,कर्म और भक्ति में से किसी एक में विशेष रूचि होती है। इस रूचि या प्रवृत्ति का पूरा उपयोग करना चाहिए। इसको लेकर वह अपनी साधना आरम्भ करे और उसे आगे बढाये परन्तु सम्पूर्ण चेतना के रूपान्तर के लिए उसे दूसरे अंगों को भी विकसित करना होगा। ऐसा न करने से उसकी विशेष प्रवृत्ति में भी अपूर्णता रह जाएगी। उदाहरणार्थ किसी भक्त का भक्तिभाव तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता जब तक वह शुद्धज्ञान के क्षेत्र में भी प्रगति न कर लेगा।
श्री अरविन्द जी का योग विशेष रूप से मनोवैज्ञानिक है। साधना के सिद्धांत तो सबके लिए एक से ही है किन्तु किसके लिए -किस समय अथवा किस अवस्था में ,कैसी साधना उपयोगी है ,यह प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक विकास और स्थिति पर निर्भर है। श्री अरविन्द जी यहीं पर गुरु की आवश्यकता को अनिवार्य मानते हैं। साधना और योग में पुस्तकें पढ़कर इसीलिए सफलता नहीं मिलती कि इनके क्रमभेद बड़े सूक्ष्म हैं। अवस्था और व्यक्ति के भेद से इनके क्रम में भेद करना आवश्यक होता है। श्री अरविन्द जी कहा है -"वास्तव में योगी का गुरु परमात्मा है ,पर विशेष व्यक्तियों को छोड़कर सामान्यतया साधक के लिए शरीरधारी गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु अपने आत्मबल से सूक्ष्म रूप में साधक को आत्म -जिज्ञासा को जाग्रत करता है और अपने उसी सूक्ष्म प्रभाव से उसे भिन्न भिन्न परिस्थितियों में से गुजरते हुए चेतना के मार्ग पर अग्रसर करता है। साधारणतया योग का उद्देश्य समाधि अवस्था और उसका आनन्द माना जाता है। भारतवासियों की वर्तमान धारणा के अनुसार इसके लिए संसार का त्याग आवश्यक समझ जाता है। केवल गीता ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसने इस मत को स्वीकार न करके संसार को ही आध्यात्मिकता का वास्तविक क्षेत्र माना है। अरविन्द जी भी प्रत्येक व्यक्ति को योग का अधिकारी मानते हैं और कहते हैं कि "एक समय आएगा जब समग्र मानवजाति की चेतना विकसित होकर वर्तमान की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च स्तर को प्राप्त कर लेगी। श्री अरविन्द की योगप्रणाली के तीन मौलिक अभ्यास हैं -पहली अभीप्सा,दूसरी परित्याग,और तीसरी आत्मोद्घाटन। श्री अरविन्द के अनुसार योग का उद्देश्य वास्तव में शरीर,मन और आत्मा को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है जिससे वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपना सन्तुलन स्थिर रख सकें।
स्थावरं जगंव्यापतं यदकिञ्चित सचराचरम।
तत्पदं दर्शनं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः।
No comments:
Post a Comment