Thursday, September 22, 2016

सन्त कबीर/महाप्रभु चैतन्य

सन्त कबीर जी वैष्णव सन्त माने जाते हैं जैसाकि उन्होंने स्वयं कहा है :-
                      मेरे संगी द्वी जणा, एक वैष्णव एक राम। 
                       वो हैं दाता मुक्ति का ,वो सुमिरावै राम। 
यद्यपि कबीर के जन्म के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है तथापि उनके शिष्य धर्मदास का  उनके जन्म से सम्बन्धित निम्न दोहा अवलोकनीय है :-
                चौदह सौ पचपन साल गए चन्द्रवार एक ठाठ ठये। 
                  जेठ सुदी बरसायत को,पूरनमासी तिथि प्रगट भये। 
                   घन गरजे दामिनि दमकै ,बूँदें बरशैं झर लाग गए। 
                    लहर तालाब में कमल खिले ,तँह कबीर भानु प्रगट हुए।
उपर्युक्त पद के अनुसार कबीरदास जी का जन्म संवत १४५६ ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा दिन चन्द्रवार माना जाता है। किंवदन्तियों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे। कहा जाता है कि स्वामीजी ने भूलवश उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। उस ब्राह्मणी ने लोकापवाद से बचने हेतु बालक को लहरतारा ताल के सन्निकट फेंक  आयी थी। संयोगवश नीरू नामक एक जुलाहा अपनी पत्नी नीमा के साथ वहां से गुजर रहा था तो उसने  उस बच्चे को रोता  हुआ देखकर उठा लिया और अपने घर लाकर पुत्रवत उसका लालन पालन करने लगा। यद्यपि कबीर ने अपने को विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म लिया हुआ नहीं माना है बल्कि अपनी रचनाओं में उन्होंने अपने को जुलाहा व बनारस का रहने वाला ही बताया है :-
             जाति जुलाहा मति को धीर,हरषि हरषि गुण रमें कबीर। 
                मेरे राम  अभैपद नगरी,कहै कबीर जुलाहा। 
                तू ब्राह्मन, मैं काशी का जुलाहा। 
यद्यपि कबीर ब्राह्मण पुत्र होने की कामना अवश्य करते थे तभी तो उन्होंने कहा है :-
                  पूरब जन्म हम ब्राह्मन होते,बोये करम तप हीना। 
                     रामदेव की सेवा चूका,पकरि जुलाहा कीना। 
ग्रन्थ साहिब में कबीर के जीवन के सम्बन्ध में एक दोहा उदघृत है जिसमें वे कहते हैं :-
                                   " पहले दर्शन मगहर पायो,पुनि काशी बस आयी।"
कुछ लोग कबीर को नीरू और नीम का औरस पुत्र बताते हैं परन्तु यह कथन प्रामाणिक नहीं प्रतीत होता। अतः उनका जन्म ब्राह्मण कुल में और लालन पालन जुलाहे द्वारा किया जाना तर्कसंगत प्रतीत होता है क्योंकि कबीर ने स्वयं कहा है :-जाति जुलाहा नाम कबीरा ,बनि बनि फिरो उदासी। 
कबीरपंथियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में खिले हुए कमल के फूल के ऊपर एक बालक के रूप में हुई थी। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म का ज्ञान हुआ।  कबीर हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोगों को उनके अन्धविश्वासों के विरुद्ध अपना तर्कपूर्ण अभिमत देते हुए उसे भजन के माध्यम से गा  गाकर सुनाया करते थे। इसी बीच उन्हें यह आभास हुआ कि बिना गुरु से दीक्षा लिए हुए शायद उनके उपदेश सार्थक नहीं हो पाएंगे अतः वे काशी के प्रसिद्ध गुरु स्वामी रामानंद के पास गए और उनसे शिष्य बनाने का अनुरोध किया। रामानन्द जी को जब यह ज्ञात हुआ कि कबीर मुसलमान है तो वे दीक्षा देने को सहमत नहीं हुए। इसके बाद कबीर को एक युक्ति सूझी और रामानन्द जी जप ब्रह्ममुहूर्त में गंगा स्नान करके वापस आ रहे थे तो इसके पूर्व ही कबीर घाट की सीढ़ियों पर चुपचाप लेट गए और ज्योंहि स्वामी रामानन्द सीढ़ी पर अपना पैर रखे तो उनका पैर कबीर के सिर पर पड़ गया और स्वामी जी के मुख से अकस्मात राम राम शब्द निकल पड़ा। उसी राम शब्द को कबीर ने दीक्षामंत्र मान लिया और स्वामी जी को अपना गुरु मानते हुए वे उठकर स्वामीजी के पैर पकड़ लिए। कबीर ने स्वयं यह स्वीकार किया है तभी तो उन्होंने कहा है :-हम काशी में प्रगट भये हैं ,रामानंद चेताये। इसके बाद कबीर ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटाकर हिन्दू-भक्तों तथा मुस्लिम फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया। उन्होंने कहा है :-
              हम  भी  पाहन पूजते ,होते  बन के  रोझ। 
            सतगुरु की किरपा भई,डारया सिर थैं बोझ।
            सेवें सालिगराम हूँ, मन की भ्रांति न जाइ । 
           सीतलता सुपिनै नहीं,दिन दिन अधकी लाइ। 
कबीरपंथी इन्हें बाल-ब्रह्मचारी मानते हैं तथा कामात्य उनके शिष्य एवं कमाली और लोई इनकी शिष्या थी। बाद में सुरतगोपाल और धर्मदास दो शिष्य बने। कहते हैं कि धर्मदास पहले मूर्तिपूजक थे किन्तु बनारस में कबीर से मिलने एवं उनकी फटकार के बाद वे उनसे सहमत हो गए थे। लोई के सम्बन्ध में कुछ लोग इसे इनकी पत्नी बताते हैं तो कुछ लोग शिष्या। कबीर ने अपने दोहे में कहा है :-
                                       रे यामे क्या मेरा क्या तेरा,लाज न मरहिं कहत घर मेरा।   
                                          कहत कबीर सुनहुँ रे लोई,हम तुम बिनसि रहेगा सोई। 
उक्त दोहे में कबीर और लोई का एक घर होना स्वीकार किया गया है इससे स्पष्ट है कि लोई उनकी पत्नी ही थी। चूँकि कबीर ने कामिनी की निंदा भी अपने दोहों में की है ,सम्भवतः इसीलिए लोग उसे उनकी शिष्या बताते हैं। कहा जाता है कि लोई एक वनखण्डी वैरागी की परिपालिता कन्या थी जो उन्हें किसी नदी के किनारे स्नान करते समय मिली थी। लोई में लिपटी होने के कारण उन्होंने उसका नाम लोई रखा था और पुत्री समझकर उसका  पालन पोषण किया था। वैरागी की मृत्यु के बाद एक दिन कबीर कई अन्य सन्तों के साथ उनकी कुटिया पहुंचे तो लोई ने उन्हें दूध पिने को दिया था। अन्य सन्तों ने तो दूध पि लिया था किन्तु कबीर ने दूध यह कहते हुए नहीं पिया कि एक सन्त अभी आने वाले हैं, अतः यह दूध उन्हें  ही दे दूंगा। थोड़ी देर बाद वास्तव में एक सन्त आ गए तो लोई को आश्चर्य हुआ और उसने कबीर को सिद्धपुरुष मानते हुए तभी से उनके साथ हो ली थी। लोई से जन्मे पुत्र कमाल के सम्बन्ध में कबीर ने स्वयं कहा है :-
                     डूबा  वंश कबीर का , अरु उपजा  पूत कमाल। 
                     हरि का सुमिरन छाड़ि के ,घर ले आया माल।  
कबीर के सिद्धपुरुष होने के बारे में कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। कहते हैं कि सिकन्दर लोधी के दरबार में कबीर पर अपने को ईश्वर कहने का अभियोग लगाया गया था उर काजी ने उन्हें काफिर बताकर मृत्युदण्ड दिए जाने की अपील की थी। लोधी ने उन्हें बेड़ियों में जकड़कर नदी में फेंकवा दिया था तब कबीर उस नदी से किसी प्रकार बाहर निकल आये थे। तब काजी ने उन्हें अग्निकुंड में डलवाया किन्तु आग के स्वयं बुझ जाने से वे फिर बच निकले थे।इसके बाद उनको मस्त हाथी  के सामने छोड़ा गया तो हाथी भी अपनी सूंड उठाकर उनका अभिवादन करते हुए आगे निकल गया था। 
कबीर का सम्पूर्ण जीवन अंधविश्वासों का विरोध करते हुए बीता। उन्होंने अपनी मृत्यु से भी यही उम्मीद कर रखी थी। काशी जो मोक्षपुरी मानी जाती है ,की अपेक्षा वे मगहर में मरना पसन्द करते थे। कहते हैं कि  वे मृत्यु के पूर्व मगहर चले गए थे क्योंकि वे अपनी भक्ति के कारण ही मुक्ति की कामना करते थे। उन्होंने कहा भी है ;-
                   "  जौ काशी तन तजै कबीरा,तौ रामहिं कहा निहोरा। " 
कबीर का यह कथन उनकी मृत्यु के पूर्व का था। अपनी मुक्ति के सम्बन्ध में उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं था क्योंकि उन्हें परमात्मा की सर्वज्ञता में अटल विश्वास था। उनकी अंत्येष्टि क्रिया के सम्बन्ध में कहतें हैं कि हिन्दू उनका अग्नि संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान उन्हें कब्र में गाड़ना चाहते थे। इस पर दोनों में लड़ाई भी हुई थी किन्तु इसी बीच कबीर की आत्मा से एक आवाज आयी कि लड़ो मत ,कफ़न उठाकर देखो। लोगों ने कफ़न उठाया तो शव के स्थान पर पुष्पराशि दिखाई पड़ी जिसे हिन्दुओ एवं मुसलमानों ने आधा आधा बाँट लिया था और अपनी अपनी रीति के अनुसार उनकी अंत्येष्टि की थी। 
ब्रह्म -उपासना :-
कबीर के राम ब्रह्म थे क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा है :-निरगुन राम, निरगुन राम जपहुँ रे भाई। उनकी राम-भावना भारतीय ब्रह्म- भावना से मेल कहती है। उनके लिए निर्गुण भावना भी स्थूल भावना ही है जो मूर्तिपूजकों के सगुण भावना से सर्वथा पृथक थी। वे तो राम को निर्गुण और सगुण दोनों के परे मानते हैं। उनके ही शब्दों में :--
            ऊला एकै नूर उपनाया ,ताकी  कैसी  निन्दा। 
           ता नूर थै सब जग कीया ,कौन भला कौन मन्दा। 
उक्त कथन मुस्लिम भावना की समर्थक नहीं है क्योंकि उन्होंने ही आगे यह भी कहा है :--
                                       खालिक खलक ,खलक में खालिक ,सब घट रह्यो समाई। 
कबीर केवल शब्दों को लेकर विवाद नहीं उत्पन्न करते थे बल्कि उन्होंने अपने भाव व्यक्त करने के लिए उर्दू,फ़ारसी और संस्कृत सभी के शब्दों का यथास्थान उपयोग किया है। ब्रह्म के लिए वे राम ,रहीम,अल्ला,सत्यनाम,गोव्यंद,साहब आदि शब्दों का प्रयोग कई स्थानों पर किया है। कबीर का तत्वज्ञान दार्शनिक ग्रंथों के अध्ययन का परिणाम नहीं है बल्कि वह उनकी अनुभूति और सारग्राह्यता का प्रसाद है। वे अपढ़ अवश्य थे किन्तु अनुभव प्राप्त करके वे परमज्ञानी कहलाये थे।"मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही  नहिं हाथ " कहकर उन्होंने इसकी पुष्टि कर दी थी।  उन्होंने हिन्दू-सन्तों और मुस्लिम फकीरों सभी का समागम किया था इसीलिए उनकी अनुभूतियों में दोनों के भाव परिलक्षित होते हैं। उनकी अनुभूतियों में ब्रह्मवाद का पूरा तानाबाना देखने को मिलता है जो मुस्लिम एकेश्वरवाद से भी मेल कहती है। कबीर जीवात्मा,परमात्मा और जड़जगत तीनों की भिन्न सत्ता मानते हैं जबकि ब्रह्मवाद शुद्ध आत्मतत्व अर्थात चैतन्य के अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व नहीं मानता। उनके अनुसार आत्मा भी परमात्मा ही है और जड़जगत भी ब्रह्म ही है। अन्ततः उन्होंने कहा कि ब्रह्म ही जगत में एकमात्र सत्ता है। ब्रह्म से ही सभी की उत्पत्ति होती है और अंत में सभी उसी में विलीन हो जाते हैं। उनके ही शब्दों में :-
                                पाणी हि ते हिम भया ,हिम ह्वै गया विलाई। 
                                    जो कुछ था सोई भय ,अब कुछ कहा न जाइ। 
सर्वव्यापी ब्रह्म जब अपनी लीला आरम्भ करता है तब इस नामरूपात्मक जगत की सृष्टि होती है और इच्छा मात्र होने पर वह इसे अपने में ही विलीन भी कर लेते हैं। उन्होंने कहा है :-
               इन मैं आप आप सबहिन में ,आप आप सूं खेलै। 
                  नाना भांति खड़े सब भाड़े, रूप धरे धरि मेलै। 
वेदांत में नाम रूपात्मक जगत से ब्रह्म का सम्बन्ध कई प्रकार से प्रकट किया गया है जिसमें प्रतिबिम्बवाद भी एक है जिसका संकेत कबीर ने अपने इस दोहे में स्पष्ट रूप से किया है :-
                                           खण्डित मूल विनास कहौ, किम विगतह कीजै। 
                                           ज्यूँ जल में प्रतिबयम्ब ,तयूँ सकल रामहिं जाणी जै। 
अर्थात जो पिंड में है वही ब्रह्माण्ड में भी है। इसे व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है ;-
                                    व्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई ,वाकै आदि अरु अंत न होइ। 
                                     व्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जै कथिये,कहे कबीर हरि सोई। 
आगे चलकर उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा --
                                       जैसे जलहिं तरंग तरंगनी ऐसे हम दिखलावहिगे। 
                                         कहै कबीर स्वामी सुखसागर ,हँसहिं हँस मिलावहिंगे। 
इसी कथन को उन्होंने भारतीय दर्शन की पद्धति में इस प्रकार कहा है :=
                              जल में कुम्भ कुम्भ में जल है ,बाहरि भीतर पानी। 
                            फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना,यहु तत कथौ गियानी। 
अर्थात यह नाना रूपात्मक जगत जो चरम चक्षुओं से दिखलायी पड़ता है ,वह जल में स्थित एक घड़ा है जिसके बाहर भी ब्रह्म रूपी जल है और अंदर भी बाह्य रूप का नाश हो जाने पर घड़े के अंदर का जल जिस प्रकार बाहर वाले जल में मिल जाता है ,उसी प्रकार बाह्य रूप के आभ्यंतर का ब्रह्म भी अपने बाह्यस्थ ब्रह्म में समै जाता है। इस प्रकार कबीर ने यह कहने का प्रयास किया है कि जो कुछ भी हमें दिखाई पड़ता है वह मायात्मक भ्रांतिज्ञान है। कबीर के शब्दों में :-
                                         "संसार ऐसा सुपिन जैसा जीव न सुपिन समान।"
 अर्थात जो मनुष्य माया के इस प्रसार को सच्चा समझकर उसमें लिप्त रहता है उसे शुद्ध हंस स्वरूप जीव अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती है। वे संसार का समस्त दुःख मायाकृत मानते हैं। इसका ज्ञान उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने माया के आवरण को हटा दिया है। माया में पड़े हुए लोग इस दुःख को ही सुख समझ लेते हैं। कबीरदास जी ने कहा है :-
                               सुखिया सब संसार है ,खावै अरु सोवै। दुखिया दास कबीर हैं ,जागै अरु रोवै। 
कबीर का दुःख अपने लिए नहीं है ,वे अपने लिए रट भी नहीं बल्कि संसार के लिए रोते हैं। साईं को पाने के लिए ममता को छोड़ना वे आवश्यक बताते हैं ;-
"जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नाहिं"यह कहते हुए उन्होंने माया के परित्याग की आवश्यकता पर बल दिया। माया की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि :-
                               मीठी मीठी माया तजी न जाई। अग्यानी पुरिष को भोलि भोलि खाई। 
माया को और अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :-
                 माया दीपक नर पतंग,भ्रमि भ्रमि इवैं पड़ंत। कहै कबीर गुर ग्यान थैं,एक आध उबरंत। 
कर्मकांड की कबीर आलोचना करते थे क्योंकि परमात्मा की भक्ति का सम्बन्ध वे मन से मानते हैं। मन की भक्ति तन को स्वयं ही अपने अनुकूल बना लेती है। भक्ति की सच्ची भावना होने से कर्म भी अनुकूल होने लगेंगे परन्तु केवल बाहरी माला जपने अथवा पूजापाठ करने से कुछ नहीं होता है। यह तो माया के और अधिक निकट जाना है। उन्होंने कहा है :-
                                      जप तप पूजा अरचा जोतिग जग बौराना। 
                                    कागद लिखि जगत भुलाना ,मन ही मन न समाना। 
इसीलिए कबीर" कर का मनका छाड़ि कै,मन का मनका फेर "का उपदेश दिया है। माया का दूसरा नाम उन्होंने अज्ञानता बताया है। दर्पण पर जिस प्रकार काई लग जाती है ,ठीक उसी प्रकार आत्मा पर अज्ञानता का आवरण पड़ जाता है जिससे आत्मा में परमात्मा का दर्शन नहीं हो पता है। तभी तो उन्होंने कहा है :-
                               जौ दरसन देख्या चाहिए,तो दरपन मंजत रहिये। 
                                  जब दरपन लागै काई, तब दरसन दिया न जाई। 
दर्पण का यही मांजना हरिभक्ति करना है। भक्ति से ही मायाकृत अज्ञान दूर होता है और ज्ञान प्राप्ति के द्वारा अपने पराये का भेद मिटता है। कबीर का प्रेम मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि सृष्टि के सभी जीव जन्तु उसकी सीमा के अंदर आ जाते हैं। उन्होंने कहा भी है कि "सबै जीव साईं के प्यारे हैं "कबीर का यह प्रेम तत्व जिसका ऊपर निरूपण किया गया है ,सूफियों के संसर्ग का प्रतिफल है किन्तु उसमें भी उन्होंने भारतीयता का पुट दे दिया है। सूफी परमात्मा को प्रियतमा के रूप में देखते हैं परन्तु कबीरदास जी ने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है। इस प्रकार निर्गुणवाद और सगुणवाद की एकेश्वरवाद से बाहरी समता रखनेवाली बातों के सम्मिश्रण और उसके प्रेमतत्व के योग से कबीर की भक्ति का निर्माण हुआ है। कबीर का विश्वास है  कि भक्ति से मुक्ति हो जाती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि "कहै कबीर संसा नाहीँ भगति मुगति गति पाई रे। "आगे उन्होंने फिर कहा कि "जब लग हैं बैकुंठ की आसा। तब लग हरि चरन निवासा। "ब्रह्म को उन्होंने लौकिक वासनाओं से पर माना। व्यक्तिगत उच्चतम साधना से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है।मनुष्य की आत्मा ब्रह्म के साथ एकीकृत करते हुए उन्होंने आत्मा को भी अमर बताया। तभी तो उन्होंने कहा है :-
                                    हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं,हरि न मरै हम काहे कू मरिहैं।
उनके अनुसार मनुष्य आत्मोत्सर्ग की इस उत्कृष्टता को प्राप्त कर  तब उसके लिए प्रेम ही अमृत बन जाता है। "नीझर झरै अमीरस निकलै तिहि मदिरावलि छाका " अर्थात इस प्रेम रुपी मदिरा को मनुष्य यदि एक बार भी पी  लेता है तो आजीवन उसका नशा नहीं उतरता और अपने तन मन की सुध भी भूल जाता है :-
                    हरि रस पीया जानिए,कबहुँ न जाये सुखार। 
                        मैं मन्ता घूमत रहे,नाहीं तन की सार। 
जाति -पांत की प्रचलित व्यवस्था पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा है "कहै कबीर एक राम जपहुँ रे,हिन्दू तुरक न कोई "कबीर का यह प्रेम तत्व सूफियों के सत्संग का सुपरिणाम कहा जा सकता है। उन्होंने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है। कबीर अवतारवाद एवं मूर्तिपूजा के प्रबल विरोधी थे किन्तु हिन्दूधर्म के अन्य तथ्यों से वे सहमत भी थे। माता के रूप में परमात्मा को मान्यता देते हुए वे कहते हैं :-
                                    हरि जननी मैं बालिक तेरा,कस नहिं बकसहुँ अवगुन मेरा। 
कबीरदास ने धार्मिक तथ्यों की पुष्टि हेतु व्यवहारों का भी आश्रय लिया है। कबीर स्वतन्त्र प्रकृति के थे फिर भी जिस सत्य को वे धर्म मानते थे वह सभी धर्मों में विद्यमान है। मिथ्या विश्वास या पाखण्ड से आवृत होने  दिखलाई  है। कबीर ने समाज सुधर हेतु केवल अपनी वाणी का उपयोग किया है। वे आडम्बर के विरोधी थे। मूर्तिपूजा को लक्ष्य करती एक साखी इस प्रकार है :-
             पाहन पूजे हरि मिलै ,तो मैं पूजौं पहार। था ते तो चाकी भली,जासे पीसी खाय संसार।
कबीर ने गजल,कुंडलियां,और भजन भी गा गाकर लोगों को सुनाया था। उनका एक प्रसिद्ध भजन इस प्रकार है :-                            उमरिया धोखे में खोय दियो रे। 
                              पांच बरस का भोला भाला ,बीस में जवान भयो। 
                              तीस बरस में माया के कारण, देश विदेश गयो।
                               चालिस बरस अंत अब लागे,बाढ़े मोह गयो। 
                                धन धाम पुत्र के कारण,जिस दिन सोच भयो।   
कबीर का रहस्यवाद :-
कबीर रहस्यवादी कवि हैं। रहस्यवाद के मूल में अज्ञात शक्ति की जिज्ञासा काम करती है। उस अज्ञात शक्ति को जानने की इच्छा सदैव मनुष्य को रही है और आगे भी रहेगी परन्तु वह शक्ति स्पष्टता से नहीं दिखाई दे सकती जिस प्रकार जगत के अन्य दृश्य रूप। कबीर ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि परमात्मा का प्रेम और उसकी अनुभूति गूंगे को गुड़ खिलाने जैसा है :-
                                  अकथ कहानी प्रेम की,कछु कही न जाइ। 
                                  गूंगे केरी सरकरा,बैठि बैठि मुसकाइ। 
                            तजि बावैं दाँहिनैं बिकार,हरिपद दिढ करि गहिये। 
                            कहैं कबीर गूँगे गुड़ खाया,बूझै तो का कहिये।  
यही रहस्यवाद का मूल है। वेद एवं उपनिषदों में रहस्यवाद की झलक विद्यमान है। गीता में भी भगवान के मुंह से उनकी विभूति का जो वर्णन कराया गया है ,वह भी अत्यंत रहस्यपूर्ण है। सर्वात्मवादमूलक रहस्यवाद में माधुर्य भाव का उदय हुआ है जो कबीर और अन्य सूफी कवियों में भी देखा जाता है। वैष्णवों एवं सूफियों की उपासना माधुर्य भाव से युक्त होती है। दार्शनिकों ने भी परमात्मा को पुरुष और जगत को स्त्रीरूपा प्रकृति कहा है। मीराबाई ने तो केवल कृष्ण को ही पुरुष माना है। कबीर भी कहते हैं :-
कहैं कबीर व्याहि चले हैं पुरिष एक अविनासी। आगे उन्होंने फिर कहा है कि "सखी सुहाग राम मोहिं दीन्हा।" यह तो जीवात्मा का परमात्मा में लगन  लगाने का प्रारम्भिक रूप है। इसे व्याह के पहले का पूर्वानुराग समझना चाहिए। परमात्मा के वियोग से जनित सारी  सृष्टि का दुःख कितना गहन होकर कबीर के हृदय में समाया  है। "वै दिन कब आवेंगे भाई" तथा  "जा कारनि हम देह धरी है,मिलिबौ अंग लगाई। "यहां पर जीवात्मा के परमात्मा से मिलने की आकुलता की ओर संकेत किया गया है। इसी सन्दर्भ में कबीरदास जी ने कहा है :-
                                मो को कहाँ ढूँढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में। 
                                ना मैं देवल,ना मैं मसजिद,ना काबे कैलास में। 
निर्गुण और सगुण ब्रह्म में एकरूपता स्थापित करते हुए वे कहते हैं :-
                         निर्गुण मेरा बाप ,सगुण मेरी महतारी। काकौ निंदौ काकौ वंदौं दोनों पलड़े भारी। 
संसार की नश्वरता के सम्बन्ध में कितना प्रभावशाली आभास इस दोहे के माध्यम से कहा है :-
                          मालन आवत देखि करि,कलियाँ करी पुकार। 
                              फूले फूले चुन लिए,काल्हि हमारी बार। 
कबीर ने अपनी उक्तियों पर बाहर से अलंकारों का मुलम्मा नहीं चढ़ाया है बल्कि जो अलंकार उनमें मिलते हैं वे उन्होंने खोज खोजकर नहीं बैठाये हैं। कबीरदास जी छंदशास्त्र से अनभिज्ञ थे। यहां तक कि वे दोहों को पिंगल की खराद पर भी न चढ़ा सके। डफली बजाकर गाने में जो शब्द जिस रूप में निकला वही काव्य बनता गया।मात्राओं के घट बढ़ जाने की चिंता करना व्यर्थ था। चूँकि कबीर में प्रतिभा थी और मौलिकता भी इसीलिए उनके उपदेश स्वयं काव्य का रूप लेते गए। शब्दों को उन्होंने तोडा मरोड़ा भी खूब है। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में अक्खड़पन भी है और साहित्यिक कोमलता भी। कबीर का काव्य मुक्तक के अंतर्गत आता है। नानक,दादू,सुन्दरदास आदि ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्त कवियों में कबीर आगे दिखाई पड़ते हैं क्योंकि इन सभी ने कबीर की पुनरावृत्ति अपने काव्य में की है। नीतिकाव्य की सफलता की कसौटी उसकी सर्वप्रियता है और इनके नीतिकाव्य की सर्वप्रियता किसी अन्य को नहीं प्राप्त हुई प्रतीत होती है। कहीं कहीं तो दोहे को ज्यों का त्यों रहीम ने अपना  लिया है। उदाहरणार्थ 
                           कबीर यह घर प्रेम का,खाला का घर नाहिं। 
                          सीस उतारे हाथ करि सो पैसे घर माँहि।   ----कबीरदास 
                                         रहिमन घर है प्रेम का खला का घर नाहिं।
                                        सीस उतारे भुई धरे सो जावे घर माहिं।  --- --रहीम 
रहस्यवादी कवियों में कबीर का स्थान सबसे ऊँचा है। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है। प्रेमाख्यानक कवियों का रहस्यवाद तो उनके प्रबन्ध के बीच बीच में बहुत जगह उथला सा लगता है। कबीर ने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखे बल्कि उनके मुख से कहे गए और उनके शिष्यों द्वारा संकलित किये गए दोहे ही कबीर साहित्य के अंग बन गए। ।  वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है जिनके तीन भाग साखी ,शबद और रमैनी  हैं।  कबीर के समय में हिन्दू जनता पर मुस्लिम शासकों का कहर छाया हुआ था किन्तु कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनका अनुसरण करने लगी थी। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था औए वे अहिंसा,सत्य,सदाचार आदि के प्रशंसक भी थे।११९  अवस्था में  संवत १५७५ में मगहर में कबीर का देहांत हुआ था।कबीर का पूरा समय मगहर में ही गुजरा लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। "अब कहुँ राम कवन गति मोरी ,तजिले बनारस मति भई मोरी"द्वारा उन्होंने इसकी पुष्टि भी कर दी है।  कबीरदास जी का व्यक्तित्व सन्त कवियों में अद्वितीय है और हिंदी साहित्य के १२०० वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रभावशाली व्यक्तित्व किसी अन्य कवि का नहीं दृष्टिगत होता है। 
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                                                        महाप्रभु चैतन्य

महाप्रभु चैतन्य का भारत की पावन भूमि पर आविर्भाव ऐसे समय हुआ जब देश एक प्रकार के क्रांतियुग से गुजर रहा था। विदेशी शासन को भारतवर्ष में स्थापित हुए साढ़े तीन सौ वर्ष हो चुके थे। इसी समय पश्चिम बंगाल के नवद्वीप नादिया सम्प्रति मायापुर नामक गाँव में महाप्रभु चैतन्य का जन्म फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा सन १४८६ ई ० को हुआ। इनका जन्म सायंकाल सिंह लग्न में चन्द्र ग्रहण के समय हुआ था जब अधिकांश लोग हरिनाम जपते हुए गंगा स्नान करने जा रहे थे। महाप्रभु चैतन्य के जन्म के बाद ज्योतिषियों ने उनकी जन्मकुण्डली बनाते हुए यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक जीवनपर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा। इनका बचपन का नाम विश्वम्भर था और प्यार में सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे। इनका वर्ण गोरा था इसीलिए कुछ लोग इन्हें गौरांग,गौरहरि आदि भी कहते थे। महाप्रभु चैतन्य के पिता का नाम पण्डित जगन्नाथ व माता का नाम शचीदेवी था जो धार्मिक प्रवृत्ति के थे।  माता -पिता  के संस्कार बालक में भी अवतरित होने लगे। बचपन में महाप्रभु चैतन्य बहुत अधिक चंचल थे और अत्यधिक प्रतिभावान भी थे। अत्यंत अल्पायु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने किंचित समय तक नादिया में एक विद्यालय की स्थापना करके उसी में अध्यापन का कार्य भी किया। वे सदैव अपने छात्रों के साथ हास्य व विनोदपूर्ण व्यवहार किया करते थे। प्रकृति ने उनको रूपराशि भी अपूर्व प्रदान की थी। अत्यंत गौर वर्ण के कारण ही उन्हें गौरांग कहा जाने लगा। अत्यंत आकर्षक चेहरा,कण्ठ स्वर मधुर ,केशराशि भौरों की भांति काली एवं चमकीली और वेशभूषा मनोरम था जिसके कारण उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि देखने वाला देखते ही रह जाता था।इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया नामक सुशील कन्या से हुआ किन्तु सन १५०५ ई में सर्पदंश के कारण इनकी पत्नी का देहान्त हो गया था और वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह विष्णुप्रिया से हुआ था।  इनकी पत्नी विष्णुप्रिया भी अत्यंत  सुंदर व पतिपरायणा थीं। उन दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था जिसके कारण मित्रगण उन्हें रसिक शिरोमणि के नाम से भी सम्बोधित किया करते थे किन्तु इसके बावजूद चौबीस वर्ष की अल्पायु में जब उन्होंने सन्यास लेने की घोषणा कर दी तो सभी हतप्रभ हो गए थे।
 महाप्रभु चैतन्य का विद्या के प्रति अगाध प्रेम था इसीलिए उन्होंने अध्यापन का कार्य भी किया। इसी समय केशव कश्मीरी नामक एक पण्डित उनसे शास्त्रार्थ के लिए नादिया आया था क्योंकि उस समय नादिया संस्कृत पण्डितों का प्रधान केंद्र बन चुका था। केशव कश्मीरी  को अनेकों पण्डितों के साथ हाथी , घोडा,पालकी व अनुचरों के साथ आया देखकर कुछ लोग यह समाचार निमाई तक पहुंचाए तो निमाई ने मुस्कराते हुए उनका स्वागत किया। गंगा के किनारे दोनों की भेंट हुई। महाप्रभु चैतन्य  तथा अन्य  उपस्थित लोगों के अनुरोध पर केशव कश्मीरी ने अपने तत्काल रचित कुछ संस्कृत के पद्य सुनाये तो महाप्रभु चैतन्य ने उनसे कहा -पण्डितजी ,यदि आप इनमें से कुछ पद्यों की आलोचना करके उनके गुणदोष बतलायें तो यहां पर उपस्थित विद्यार्थियों का उपकार होगा। यह सुनकर केशव कश्मीरी इस अपना अपमान समझकर बात को टालना चाहा और अंत में कहा कि जिस पद्य विशेष की आलोचना अभीष्ट हो, केवल उसी पर चर्चा की जाये। उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वह जानता था कि उसके द्वारा तत्काल रचित पंक्तियाँ अब इनमें से किसी को भी याद  नहीं होंगी।  महाप्रभु चैतन्य की स्मृति बहुत ही तेज थी।  अतः उनके द्वारा सुनाई गयी पंक्तियाँ ज्यों का त्यों सुनाते हुए कहा कि अब आप इसकी आलोचना कीजिये। केशव कश्मीरी अपनी पंक्तियाँ यथावत सुनकर हतप्रभ हो उठा और उसका अहंकार भी चूर चूर हो गया। औपचारिकतावश उसने किंचित आलोचना अवश्य की किन्तु उसका उत्साह भंग हो चुका था। तब चैतन्य ने ही उसके पांच  गुण और पांच दोष बताते हुए समालोचना प्रस्तुत कर दी जिसे सुनकर केशव कश्मीरी ने स्वयं अपनी हार स्वीकार कर ली और वहां से चला गया। कहते हैं कि रात्रि में केशव कश्मीरी ने इस घटना पर बहुत विचार किया और अंत में चैतन्य की महत्ता उसकी समझ में आ गयी और सबेरा होते ही वह चैतन्य के पास आ पहुंचा तथा उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की और उनसे क्षमा  भी मांगी। बाद में वह इनका परम् शिष्य बन गया था।  
उन्ही दिनों एक और घटना और घटी जिससे चैतन्य की निरभिमानता और परोपकारी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। महाप्रभु चैतन्य के सहपाठी मित्रों में से एक रघुनाथ थे जो न्यायशास्त्र के विद्यार्थी थे और इस विषय में वर्षों तक परिश्रम करके उन्होंने अपनी विशिष्टता बना रखी थी। एक दिन उन्होंने सुना कि चैतन्य ने भी न्यायशास्त्र पर एक ग्रन्थ लिख रखा है तो उसके मन में ईर्ष्या के भाव जाग्रत हो गए और वह सोचने लगा  कि उसका ग्रन्थ कहीं प्रभावहीन न हो जाये। अतः उसने एक दिन महाप्रभु चैतन्य से पूंछ ही लिया कि तुमने न्यायशास्त्र की व्याख्या सम्बन्धी कोई ग्रन्थ लिखा है क्या ? चैतन्य ने हंसते हुए कहा ,अजी पण्डितराज ,आप कैसी बात करते हैं ?न्याय जैसे जटिल विषय पर मैं क्या लिख सकता हूँ ?मैंने तो मनोविनोद के लिए कुछ लिख रखा है। तब रघुनाथ ने आग्रहपूर्वक कहा -अगर आपको किसी प्रकार की बाधा न हो तो वह ग्रन्थ मुझे अवश्य सुनाना। उसी समय चैतन्य अपनी पुस्तक लेकर नदी की तरफ चल दिए और एक नाव में बैठकर रघुनाथ को सुनाने लगे। वह जैसे जैसे सुनता गया वैसे वैसे उसकी वेदना झलकने लगी और अंत में वह वहीं पर फूट फूटकर रोने लगा।निर्मल हृदय चैतन्य ने उससे रोने का कारण पूंछा तो रघुनाथ ने अपने ईर्ष्याभाव को प्रकट कर दिया और कहा --चैतन्य भाई ,तुम तो सरल स्वभाव के हो पर मेरे मन में तो ईर्ष्या भरी है। तुम्हारी इस रचना के आगे मेरे ग्रन्थ को कोई नहीं पूंछेगा। अब मेरी अभिलाषा मन की मन में ही रह जाएगी। महाप्रभु चैतन्य  उसकी निराशा  देखकर द्रवित हो गए और उसी समय अपने ग्रन्थ का एक एक पन्ना फाड़कर उसी नदी में फेंक दिया। 
महाप्रभु चैतन्य की गुणग्राहकता :-
इसी प्रकार एक घटना जगन्नाथपुरी के प्रसिद्ध सन्त माधवेंद्रपुरी के शिष्य ईश्वरपुरी की है। कहते हैं कि एक बार वे भ्रमण करते हुए नादिया आये और अद्वैताचार्य के यहां ठहरे। एक दिन संयोगवश चैतन्य भी आ गए तो सन्यासी को देखकर प्रणाम किया। ईश्वरपुरी भी इनको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और बातचीत के बाद चैतन्य ने उन्हें अपने घर भोजन कराने ले गए। इसके बाद वे दोनों मित्रवत हो गए। ईश्वरीपुरी उन्हीं दिनों श्रीकृष्णलीलामृत नामक ग्रन्थ लिखा था और उनकी भेंट जब कभी महाप्रभु चैतन्य से होती तो वे कोई प्रसंग उठाकर अपने ग्रन्थ के श्लोक उन्हें सुनाते और महाप्रभु चैतन्य बहुत प्रसन्न होते। एकदिन ईश्वरपुरी ने उनसे कहा कि मैं अपनी विद्वतावश आपको श्लोक नहीं सुनाता। आप सुप्रसिद्ध विद्वान हैं इसलिए जहाँ कहीं कोई अशुद्धि हो वहां मुझे बताते चलें। यह सुनकर चैतन्य ने विनम्रतापूर्वक कहा -श्रीकृष्ण कथा में शुद्धि अथवा अशुद्धि कैसी ?अपने भक्तिभाव में भक्तजन जो कुछ कहते हैं वह शुद्ध ही माना जाता है। जिस पद  में भगवद भक्ति है और  जिस छंद में परमात्मा की महिमा का वर्णन है ,वह यदि अशुद्ध भी है तब पर भी उसे शुद्ध समझना चाहिए। हाँ ,जिसमें भगवान की प्रेरणा न हो उसकी भाषा चाहे जैसी परिमार्जित क्यों न हो ,वह व्यर्थ ही है। आप तो सच्चे भक्त हैं, इसलिए अशुद्धियाँ हो ही नहीं सकती। कहा भी गया है - 
                                   मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे। 
                                    उभयोस्तु शुभं पुण्यं  भावग्राही  जनार्दनः। 
महाप्रभु चैतन्य के इस उत्तर से उनकी महत्ता ईष्वरपुरी के हृदय में अंकित हो गयी और वे सदा उनके शुभचिन्तक बन गए। यद्यपि चैतन्य की प्रतिभा और मेघाशक्ति उच्चकोटि की थी और उन्होंने लगन के साथ विद्याभ्यास करके अपने ज्ञानभंडार को बहुत अधिक बढा  लिया था फिर भी उनकी प्रशंसा विद्वान होने के नाते नहीं की जाती। यह उनकी सहृदयता का परिचायक है।  महाप्रभु चैतन्य अपने इसी गुण के कारण छोटी सी आयु में ही लोकप्रिय बन गए थे और वे जहां कहीं भी जाते थे लोग उनके साथ हो लेते थे। उनका यही मनोभाव कश्मीरी पण्डित से विवाद होने के समय भी देखने को मिला था। 
कृष्ण- भक्ति  :- 
सन १५०९ ई में जब वे अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए थे तभी इनकी भेंट ईश्वरपुरी से हुई थी और उनके ग्रन्थ को सुनते ही वे भी कृष्ण कृष्ण रटने लगे थे। तभी से इनका सारा जीवन  और प्रत्येक समय कृष्णभक्ति में ही लीन रहने लगे। उनकी इस भक्ति भावना के कारण ही असंख्य लोग इनके अनुयायी बनते गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने  महाप्रभु चैतन्य के भक्ति आंदोलन को तीव्रगति प्रदान की। इन्होंने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक,मृदंग,झांझ,मजीरे आदि वाद्ययंत्र बजाकर उच्च स्वर में नाच-गाकर हरिनाम संकीर्तन करना आरम्भ किया था। 
 महाप्रभु चैतन्य  सन्यास लेने के बाद नीलांचल चले गए थे और वहां से दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र व सेतुबन्ध आदि स्थानों पर भी कुछ दिनों तक रहे। इन्होंने देश के कोने कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। सन १५१५ ई में विजयदशमी  के दिन वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया। जंगल के रास्ते होते हुए जब वे वृन्दावन जा रहे थे तो इनके हरिनाम उच्चारण एवम संगीतमय नृत्य से जंगली जानवर भी इनके साथ नाचने लगते दिखे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन महाप्रभु चैतन्य वृन्दावन पहुंचे थे। इसी दिन आज भी यहां पर गौरांग का आगमनोत्सव मनाया जाता है।  यहां पर इन्होंने इमली तला और अक्रूर घाट पर निवास किया और यहीं रहकर प्राचीन श्रीधाम वृन्दावन की महत्ता प्रतिपादित करके लोगों की सुप्त भक्तिभावना को जागृत किया था। यहां से वे प्रयाग चले गए और प्रयाग से काशी ,हरिद्वार,श्रृंगेरी,कामकोटि पीठ ,द्वारिका,मथुरा आदि स्थानों पर भी अपने संकीर्तन के द्वारा जनजागरण किया अपने जीवन के अंतिम समय उन्होंने जगन्नाथपुरी में बिताये और यहीं पर सन १५३३ ई ० को ४७ वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन उन्होंने श्रीकृष्ण के परमधाम को प्रस्थान कर दिया था।
महाप्रभु  चैतन्य वैष्णव धर्म के भक्तियोग के प्रखर प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय सम्प्रदाय की आधारशिला रखी तथा भजन गायकी की एक नई शैली को जन्म दिया। इन्होंने अपने समय में व्याप्त राजनैतिक अस्थिरता को दूर करने हेतु हिन्दू-मुस्लिम एकता की सदभावना को प्रश्रय दिया तथा जाति -पांत ,उंच-नीच की भवन को दूर करने की शिक्षा दी। कहा जाता है कि यदि गौरांग न होते तो वृन्दावन आज तक एक मिथक बनकर रह जाता। वैष्णव इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के सहयोग का अवतार मानते हैं। इन्होंने केशव भारती से दीक्षा ली थी। कहते हैं कि केशव भारती ने जब चैतन्य के कान में नारायण का मन्त्र फूंका तो वे भावावेश में बेसुध हो गए थे। नित्यानंद ने हरिबोल मन्त्र का उच्चारण करके उनको जाग्रत था। इसके बाद कृष्ण कृष्ण कहते हुए चैतन्य ने भगवा वस्त्र धारण किया औए एक हाथ में कमण्डल और दूसरे में दंड धारण कर लिया। इस वेश में जब वे गुरु के समक्ष आकर खड़े हुए तो उन्होंने उनका भक्तिभाव देखकर उनका सन्यास का नाम "कृष्ण चैतन्य "रख दिया। बाद में लोग उन्हें "महाप्रभु चैतन्य "के  नाम से सम्बोधित करने लगे।  कहते हैं कि सन्यास के बाद एक बार वे नादिया में अपनी माता से मिलने गए। उन्हें भगवा वेश में देखकर पुत्र वियोग  की आशंका से माता के हृदय को बड़ा आघात लगा किन्तु वे महान पुत्र की माता थी ,इससे धैर्य धारण करके कहने लगीं --चैतन्य ,तेरा मार्ग मंगलमय हो। तू अब हमारा न रहकर सम्पूर्ण विश्व का बन गया है। तेरे द्वारा अनेकों का कल्याण होगा। हमारी रक्षा तो भगवान करेंगे ही ,इसलिए तू निश्चिन्त रहना।   

त्याग और तपस्या का जीवन :-
महाप्रभु चैतन्य का जीवन आरम्भ से ही परोपकारमय और उदारतापूर्ण रहा था। दूसरों की सहायता से उन्होंने कभी भी मुख नहीं मोड़ा था। हास्य विनोद और रसिकता की मात्रा उन्होंने कभी भी कम नहीं होने दी। बचपन में तो वे ऊधम मचाकर अपने पड़ोसियों को भी तंग करते रहते थे। बड़े होकर उनका यही स्वभाव हंसी मजाक और विनोदपूर्ण वार्ता में बदल गया। नादिया में कितने ही पण्डित इन्हें रसिक शिरोमणि कहकर पुकारा करते थे। यद्यपि इनमें कभी कोई दोष लोगों को नजर नहीं आया किन्तु अपनी वेशभूषा और रहन-सहन में ये बड़े सौंदर्यप्रिय थे।  महाप्रभु चैतन्य ने लोगों की असीम लोकप्रियता और स्नेह प्राप्त किया। उनके इसी स्वभाव के कारण जगन्नाथपुरी के तत्कालीन राजा तक इनके श्रीचरणों में नत हो गए थे। बंगाल के शासक के एक मंत्री ने तो मन्त्रीपद त्यागकर चैतन्य महाप्रभु की शरण में आ गया था।  महाप्रभु चैतन्य ने न जाने कितने  दलितों एवं कुष्ठ रोगियों को अपने गले लगाकर उनकी सेवा की थी। वे जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर समाज को मानवता के सूत्र में पिरोया और कृष्ण भक्ति के अमृत का पान कराया। इसीलिए वे गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य माने जाते हैं उन्होंने संस्कृत भाषा में भी कई रचनाएँ की। उनका मार्ग प्रेम एवं भक्ति का था अतः वे नारद जी की भक्तिभावना से विशेष रूप से प्रभावित हुए थे। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के मानव को एक सूत्र में पिरोते हुए कहा कि ईश्वर एक है। इसीलिए उन्होंने यह मूलमन्त्र लोगों को दिया -
                              कृष्ण केशव,कृष्ण केशव,कृष्ण केशव,पाहियाम। 

                               राम  राघव ,राम  राघव , राम  राघव, रक्षयाम 
आरम्भ में वैष्णव धर्म की भक्तिभावना का भी उनमें प्रत्यक्ष रूप में दर्शन नहीं होता था। यद्यपि इनके पिता एक प्रसिद्ध वैष्णव थे और इनके घर में सदा भक्ति भाव का बोलबाला रहा है किन्तु उस समय चैतन्य उस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए थे और अपना अधिकांश समय मनोविनोदपूर्ण बातों में ही निकल देते थे। इनके पिता के परममित्र पण्डित श्रीवास एक दिन जब चैतन्य गंगा स्नान करके आ रहे थे तो मार्ग में उनसे भेंट हो गयी। उनको देखते ही चैतन्य ने उन्हें प्रणाम किया ,तभी  उलाहना देते हुए उनसे कहा -निमाई अब तुम बालक नहीं हो ,अब कुछ गम्भीर बनो। तुम्हारे पिता तो परम् वैष्णव थे। चैतन्य ने सरल भाव से उत्तर दिया -महाराज ,थोड़े दिन ठहरिये ,मैं भी पूर्णरूप से वैष्णव बन जाऊंगा। तब श्रीवास ने कहा इसमें राह देखने की क्या बात है ?अभी से भक्तिभाव जाग्रत करना चाहिए। देखो ,युम्हारे समान विद्वान और लोकप्रिय पण्डित वैष्णव बन जायेगा तो समस्त दश में वैष्णव धर्म की ध्वजा फहराने लगेगी। वास्तव में चैतन्य का व्यक्तित्व और जीवन उस उच्च और गूढ़ श्रेणी का था जिसे साधारण व्यक्ति शीघ्र नहीं समझ सकता। २४ वर्ष की आयु में चैतन्य ने गृहस्थाश्रम का परित्याग करके सन्यास ग्रहण कर लिया था। सन्यास लेने के बाद वे सीधे जगन्नाथ मन्दिर पहुंचे और वहां भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को देखकर इतने भावविभोर हो गए कि वे उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे और वहीं पर मूर्छित भी हो गए। वहां उपस्थित सार्वभौम भटटाचार्य महाप्रभु की प्रेमभक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए और घर पर उनसे शास्त्र की विधिवत चर्चा की। चर्चा में सार्वभौम ने अपने पांडित्य का प्रदर्शन किया तो चैतन्य ने भक्ति का महत्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध किया और अपने षड्भुज रूप का दर्शन कराया। सार्वभौम तभी से गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और अंत समय तक उनके साथ रहे।  सार्वभौम ने शतश्लोकी स्तुति की रचना की जिसे आज चैतन्य शतक के नाम से जाना जाता है। 
पुरी में कुछ समय तक प्रचार करने के बाद चैतन्य वहां से चलकर कृष्णा,कावेरी,ताम्रपर्णी नदियों के तट पर अवस्थित अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए सेतुबन्ध रामेश्वर तक जा पहुंचे और फिर पश्चिमी घाट की तरफ जाकर उन्होंने त्रिवेंद्रम,मैसूर,कर्नाटक,नासिक,पंढरपुर आदि की यात्रा की। वहां से वे द्वारिकापुरी पहुंचे और फिर दक्षिण भारत के विजयनगर होकर जगन्नाथपुरी वापस आ गए इस यात्रा में उन्हें दो वर्ष लगे। दक्षिण भारत में जब वे सिद्धवट   तो  ब्राह्मण को पेड़ के नीचे गीतापाठ करते देखा जो किंचित अशुद्ध पाठ  कर रहा था। चैतन्य बड़ी श्रद्धा से से उसका पथ सुनने लगे और पाठ पूरा पर उन्होंने उसे अपने हृदय से लगा लिया। उस ब्राह्मण ने अपनी कमियों के विषय में बतलाया तो चैतन्य ने कहा -"भूदेव ,तुम धन्य हो। भगवान तो भावना को देखते हैं। अगर आपका मनोभाव सच्चा और शुद्ध होगा तो उसका फल आवश्य प्राप्त होगा। भावशुद्धि के साथ अगर पाठ भी शुद्ध हो तो वह सोने में सुगन्ध के समान है।तुम अगर प्रयत्न करोगे तो शुद्ध पथ करना भी आ जायेगा।" 
एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक बड़े तीर्थ में पहुंचकर चैतन्य किसी शिवालय में ठहरे थे। कुछ समय पश्चात वहां पर तीर्थराम नामक एक धनवान और विलासी युवा पुरुष आया.उसके साथ सत्याबाई और लक्ष्मीबाई नामकी दो वैश्याएं भी थीं। चैतन्य को वहां टिका देखकर उसे उनकी परीक्षा लेने की सूझी और उसने दोनों वैश्याओं को उनके पास इसी उद्देश्य से भेजा। वे उस समय हरिनाम कीर्तन में आनन्द मगन थे ,नेत्र बन्द करके अत्यंत मधुर स्वर में भगवान का नाम ले रहे थे। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने अपनी आँखें खोली तो दोनों स्त्रियों को सामने बैठा देखा। वे हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे -माताजी ,इस दीन सन्तान के पास आप कैसे पधारीं ?मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?वैश्याएं उनके इस भाव को देखकर अत्यंत लज्जित हो गईं और उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगीं। उसी समय तीर्थराम भी वहां आ गया और चैतन्य के उपदेशों से वे सब शुद्ध वैष्णव बन गए और परोपकारमय जीवन व्यतीत करने का निश्चय करके अपने घर चले गए। दक्षिण भारत की यात्रा के समय ही एक बार इनकी भेंट वासुदेव नामक व्यक्ति से हुई जो प्रारब्धवश कोढ़ी हो गया था किन्तु उस दशा में भी भगवान पर पूर्ण विश्वास रखने वाला था। जब उसे चैतन्य के आने की खबर मिली तो किसी प्रकार चलकर उनके ठहरने के स्थान पर पहुँच गया किन्तु चैतन्य जी इसके पूर्व ही वहां से निकल चुके थे। वहीं पर  बैठकर वह अपने भाग्य को कोस ही रहा था कि चैतन्य किसी कारणवश लौट आये और उसे देखकर अपने गले से लगा लिया जबकि वह कहता रहा की प्रभु ,आप मुझे स्पर्श न करें। चैतन्य ने कहा -कुछ भी हो ,मैं तुम्हारे समान सच्चे भगवदभक्त से कैसे पृथक रह सकता हूँ ? इसी प्रकार एक सनातन नामक कोढ़ी को भी वे अपना शिष्य बनाकर सदा अपने साथ रखते थे और इनके सानिध्य से उसका रोग ठीक भी हो गया था।
कुछ समय बाद चैतन्य वृन्दावन आये और यहां से प्रयाग जाने पर इनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई। भक्तिमार्ग के इन दो महान प्रचारकों में परस्पर अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विनिमय भी हुआ इस प्रकार बीस -पच्चीस वर्ष तक भक्तिमार्ग द्वारा हिन्दू संगठन और नवजागरण का कार्य सम्पन्न करके चैतन्य प्रभु ने अपने कार्यक्रम को सफल होते देख लिया। उस समय उनकी आयु ४८ वर्ष की ही थी किन्तु कोमल प्रकृति के होने के कारण अनेक प्रकार की असुविधाओं को सहन करने और लगातार श्रम करते रहने से वे दुर्बल हो गए और तब उन्होंने अपनी लीला का संवरण करना ही उचित समझा एक बार तो वे भावावेश में आकर समुद्र में कूद पड़े थे तभी कुछ मल्लाहों ने उन्हें बाहर निकल लिया था। इसी के बाद एक दिन कथा सुनते सुनते उठे और बड़ी शीघ्रता से जगन्नाथ जी की मूर्ति के सम्मुख प्रार्थना करते करते कुछ ही क्षणों में प्राण त्याग दिए थे। 
हिन्दू धर्म में नाम-जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गयी है। चैतन्य ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों को वृन्दावन भेजकर वहां पर सप्तदेवालय की आधारशिला रखवायीं। नादिया के काजी चाँदखाँ ने हरिकीर्तन को बन्द करने की आज्ञा निकाली तो भक्तों ने निमाई के पास जाकर कहा -ऐसा अत्याचार होगा तो हम हरिकीर्तन कैसे करेंगे ?इससे तो अच्छा है कि हम किसी ऐसे स्थान पर चले जाएँ जहां निर्विघ्न भगवान का नाम ले सकें। तब निमाई ने रोषपूर्वक कहा -तुम तनिक भी भयभीत न हो ,हरिकीर्तन पर कोई रोक नहीं लगा सकता। तुमको नगर छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी और न ही हरिकीर्तन रोकना पड़ेगा। दूसरे दिन उन्होंने अपने सहयोगी निताई अर्थात नित्यानंद तथा हरिदास से कहा की सम्पूर्ण नगर में यह घोषणा कर दो कि आज सन्ध्या को हम कीर्तन करते हुए समस्त नगर का भ्रमण करेंगे और काजी साहब के मकान पर भी कीर्तन करेंगे। सभी लोग नियत समय पर हमारे घर पर एकत्रित हों और प्रकाश के लिए एक एक मशाल भी लेते आयें। निताई यह सुनकर प्रसन्न हुए और हरिदास को साथ लेकर मुहल्ले मुहल्ले में यह समाचार फैला दिया और लोगों को प्रेरणा दी कि वे जुलूस का स्वागत करने के लिए सजावट और अन्य तैयारियां करें। नादिया के निवासी यह समाचार सुनकर प्रसन्न हो उठे क्योंकि उनमें से अधिकांश लोग निताई को संकीर्तन करते हुए नहीं देखे थे। सन्ध्या होने के कुछ पहले ही चैतन्य महाप्रभु कीर्तन मण्डली के साथ हरिबोल की ध्वनि करते हुए नगर -भ्रमण करने लगे। बहुत बड़ा जुलूस देखकर लोगों में अप्रत्याशित उत्साह आ गया और वे कहने लगे -काजी को मार दो ,उसका घर लूट लो। जब चैतन्य ने यह बात सुनी तो सभी को शांत रहने को कहा। इधर काजी इस भरी प्रदर्शन से घबरा गया और अपने घर में कहीं छिप गया। चैतन्य अपने साथियों के साथ उसके घर में घुस गए और हरिबोल की मधुर ध्वनि से कीर्तन करने लगे और काजी के सेवकों से कहा कि काजी साहब को बुलाओ ,उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। यह सुनकर काजी बाहर आया और चैतन्य ने उसे प्रेमपूर्वक अपने पास ही बिठाया और कहा -काजी साहब ,यह कहाँ की रीति है कि हम तो आपके घर आयें और आप घर के भीतर बैठे रहें। काजी ने डरते हुए कहा -भाइयों,आप मेरे घर पर आएं यह मेरा सौभाग्य है परन्तु मैंने समझ आप नाराज होंगे इससे मुझे डर लगने लगा। तभी चैतन्य ने कहा आप तो यहां के राज्यकर्ता हैं। आपसे हम कैसे नाराज हो सकते हैं ?मैं तो केवल यही मालूम करने आया था कि आपने कीर्तन को बन्द करने का हुक्म क्यों दिया था। काजी ने सहजभाव से उत्तर दिया कि नगर में कितने ही हिन्दू मुसलमान मेरे पास आकर फरियाद की है कि आपके कीर्तन से उनको तकलीफ होती है इसलिए कानून की दृष्टि से मुझे वैसी आज्ञा देनी पड़ी किन्तु अब आपका भक्तिभाव और शांतिपपूर्ण व्यवहार देखकर मुझे विश्वास हो गया है कि आपके कार्य में कोई हानिकारक बात नहीं है। अब आपके कीर्तन को कोई नहीं रोकेगा। 
आध्यात्म -पथ :-
कुछ लोग महाप्रभु चैतन्य को श्रीकृष्ण का अवतार भी मानते हैं जिसका प्रमाण प्राचीन हिदू-ग्रंथों में भी मिलता है। श्री गौरांग अवतार की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें श्रीचैतन्य चरितामृत ,श्री चैतन्य भागवद ,श्रीचैतन्य मंगल ,अमिय निमाई चरित और चैतन्य शतक प्रमुख हैं। गौरांग की स्तुति में कई महाकाव्यों की रचना भी हो चुकी है। इनके द्वारा लिखित कोई ग्रन्थ मूलरूप में उपलब्ध नहीं है। मात्र आठ श्लोक ही उपलब्ध है जिन्हें शिक्षाष्टक के नाम से जाना जाता है। गौरांग के विचारों को श्रीकृष्ण दस ने चैतन्य चरितामृत में संकलित अवश्य किया है  कालांतर में रूपजीव और सनातन गोस्वामियों ने अपने अपने ग्रंथों में चैतन्य चरित का विधिवत उल्लेख किया है। इनके विचारों का सार इस प्रकार है :-
श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौंदर्य हैं ,प्रेमपरक हैं। उनकी तीन शक्तियां -परब्रह्म शक्ति ,मायाशक्ति और विलास शक्ति हैं। विलास शक्तियां डॉ प्रकार की हैं -पहला प्राभव विलास जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण एक से अनेक होकर गोपिओं से क्रीड़ा करते हैं और दूसरा वैभव विलास जिसके द्वारा श्रीकृष्ण चतुर्व्यूह का रूप धारण करते हैं। चैतन्य मत के व्यूह सिद्धांत का आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूलशक्ति है और वही आनन्द का कारण है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा हैं। राधा ही श्रीकृष्ण के सर्वोच्च प्रेम का आलम्बन हैं। वही इनके प्रेम की आदर्श प्रतिमा हैं गोपी कृष्ण लीला का प्रतिफल है। 
चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांत के अनुसार हरिनाम में रूचि,जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था। वे मात्र  बीस वर्ष की अल्पायु में सब कुछ त्यागकर वृन्दावन में अखंडवास करने आ गए थे उनके षड्गोस्वामी का परिचय निम्नवत है :--
श्री गोपाल भट्ट स्वामी -ये बहुत कम आयु में ही गौरांग की कृपा से यहां आ गए थे। दक्षिण भारत का भ्रमण करते हुए गौरांग चार माह इनके घर पर ठहरे थे। बाद में इन्होंने गौरांग के नाम संकीर्तन में प्रवेश किया। 
श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी :- ये सदा हरिकृष्ण का अनवरत जाप करते रहते थे और श्रीमद्भागवद का पाठ नियमपूर्वक करते थे। राधाकुंड के तट पर निवास करते हुए प्रतिदिन भागवद का मीठा पाठ स्थानीय लोगों को सुनाया करते थे और स्वयं इतना भावविभोर हो जाते थे कि उनके प्रेमाश्रुओं से भागवत के पन्ने भीग जाते थे। 
श्री रूप गोस्वामी :-ये चैतन्य महाप्रभु के परम् शिष्य थे इनका जन्म १४९३ ई में हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्यागकर गौरांग में प्रवेश लिया था और बाद के ५१ वर्ष ब्रज में बिताये। 
श्री सनातन स्वामी :-चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रंथों की रचना की थी। अपने भाई रूपगोस्वामी सहित वृन्दावन के छः प्रभावशाली गोस्वामियों में सबसे ज्येष्ठ थे। 
श्री जीव गोस्वामी :-इनका जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां १५३३ ई को हुआ था। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी और आँखें कमल की तरह थीं। इनके प्रत्येक अंग से एक चमक निकलती रहती थी। वृन्दावन में इन्होंने एक मन्दिर का निर्माण भी करवाया था। 
श्री रघुनाथ गोस्वामी :-इन्होंने भी अल्पायु में ही गृहस्थी का त्याग कर दिया था और गौरांग के साथ हो लिए थे। ये चैतन्य के सचिव दामोदर के निजी सहायक भी रहे और उनके संग ही इन्होंने गौरांग के अंतिम दिनों में दर्शन किये थे।        

Monday, September 19, 2016

गोस्वामी तुलसीदास



                                                                                                          
 उत्तर प्रदेश राज्य में प्रयाग के निकट बाँदा जनपद के राजापुर ग्राम में सन १४९७ ई० में श्रावण शुक्ल सप्तमी तिथि को गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम श्री आत्माराम दूबे था जो सरयूपारीय ब्राह्मण थे। इनकी माता जी का नाम हुलसी था। इनका जन्म अभुक्तमूल नक्षत्र में हुआ था और जन्म के समय इनके मुख से राम नाम का उच्चारण सुनकर सभी हतप्रभ हो गए थे। जन्म के समय इनके मुख में बत्तीसों दाँत मौजूद थे। अतः मूलनक्षत्र एवम मुख में बत्तीस दांत देखकर इनके पिता किसी अमंगल की आशंका से उद्वेलित हो उठे थे और इनके माता को विशेष चिंता सताने लगी थी। कहते हैं कि ऐसे नक्षत्र में जन्मे बालक का मुख देखने वाले माता -पिता की तत्काल मृत्यु हो जाती है। अतः इनकी माता हुलसी ने किसी अनिष्ट की आशंका से दसमी की रात इस नवजात शिशु को अपनी दासी के साथ ससुराल भेज दिया था और स्वयं दूसरे दिन इस संसार को अलविदा कह दिया था।
           जायो कुल मंग न बधायो न बजायो सुनि ,भयो परिताप पाय जननी जनक को। 
अपनी रचना कवितावली में भी उन्होंने लिखा है -मातु पिता जग जाइ तज्यो, विधिहुँ न लिख्यौ कछु भाल भलाई ।  बालक का पालन- पोषण दासी चुनिया  ने किया और जब तुलसीदास लगभग पांच वर्ष के हो गए थे तो चुनिया  का भी देहान्त हो गया जिसके कारण बालक तुलसी को अनाथ का जीवन जीना पड़ा। तुलसीदास जी को इधर उधर भटकता देखकर जगतजननी पार्वती जी  एक ब्राह्मणी का भेष धारण कर प्रतिदिन बालक के पास जातीं और अपने हाथों से उसे भोजन कराती थी। 
कहा जाता है कि भगवान शंकर की प्रेरणा से रामशैल पर  निवास कर रहे श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्द जी ने इस बालक को ढूंढ कर अपने पास ले आये थे और इसका नाम रामबोला रखा।
 कुछ दिन बाद वे बालक को अयोध्या ले गए और वहाँ सन १५०४ ई माघ शुक्ल पंचमी दिन शुक्रवार को बालक का यग्योपवीत संस्कार कराया। बालक तुलसी को  बिना किसी के सिखाये हुए गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हुए देखकर सभी चकित हो गए थे। इसके पश्चात नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पञ्च संस्कार सम्पन्न करके रामबोला को राम मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बचपन से ही रामबोला की बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी क्योंकि एकबार जो शब्द वे गुरु के मुख से सुन लेते थे वह उन्हें यथावत याद  हो जाती थी। वहां से कुछ दिन बाद गुरु नरहरि उन्हें लेकर सूकर क्षेत्र सोरों चले गए और वहीं पर तुलसीदास को रामचरित सुनाया। तुलसीदास जी ने महर्षि बाल्मीकि प्रणीत रामायण का श्रवण अपने गुरु के मुखारविन्द से सोरों में गंगा जी के तट पर किया था जिसका प्रमाणक उनका निम्न दोहा है :--
                             मैं पुनि निज गुरु सन सुनी ,कथा सु-शूकर खेत। 
                            समुझी नहिं तसि बालपन ,तब अति रहेऊ अचेत। 
 कुछ दिन बाद वे दोनों काशी चले आये और यहीं पर सनातन जी के पास रहकर तुलसीदास जी ने पन्द्रह वर्ष तक वेद -वेदांग एवं  समस्त शास्त्रों  का सम्यक अध्ययन किया। इसी बीच  सनातन जी का स्वर्गवास हो गया जिसके कारण तुलसीदास जी को बहुत दुःख हुआ और इसी समय इनकी लोकवासना किंचित जाग्रत होने लगी थी  तब वे गुरु से आज्ञा लेकर अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। यहां आकर उन्होंने देखा कि उनके पिता का देहांत हो चुका था।  अतः उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता का श्राद्ध कर्म किया और कुछ दिनों तक वहीँ रहकर लोगों को रामकथा सुनाने लगे।
सन १५२६ ई के ज्येष्ठ शुक्ल तेरह दिन गुरुवार को भारद्वाज गोत्र की एक सुन्दर कन्या रत्नावली से इनका विवाह हो गया और वे सुखपूर्वक दाम्पत्य जीवन बिताने लगे। अपनी पत्नी के प्रति इनकी विशेष आसक्ति थी।  कहा जाता है कि एकबार इनकी पत्नी अपनी माता की बीमारी की खबर पाकर अपने भाई के साथ मायके चली आयी थी तब दूसरे दिन ही तुलसीदास जी भी वहां जा पहुंचे गए थे। उनके इस कृत्य पर पत्नी को अत्यधिक  क्रोध आया और उसने इन्हें बहुत धिक्कारा और सचेत करते हुए कहा कि मेरे इस हांड -मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आसक्ति है यदि इसकी आधी आशक्ति भी भगवान से होती तो तुम्हारा बेडा पार हो गया होता। ।इस सम्बन्ध में कहा गया है ;--
                                            लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ। 
                                            धिक् धिक् ऐसे प्रेम को ,कहा कहौ मैं नाथ। 
                                             अस्थि- चर्ममय देह  मम,तामें ऐसी प्रीति। 
                                              तैसी जो श्रीराम महँ ,होति न तो  भयभीति।   
  कहते हैं कि ये शब्द तुलसीदास जी को बाण की तरह आहत कर दिए और बिना कोई क्षण वहां बिताये सीधे काशी चले गए एवं अपने गृहस्थ वेष का परित्याग कर साधुवेश धारण कर लिया। वे वहाँ से अयोध्या,प्रयाग,चित्रकूट,मथुरा,कुरुक्षेत्र,जगन्नाथ आदि तीर्थों का भ्रमण पर निकल गए।  मानसरोवर के निकट उन्हें काकभुशुण्डि जी के दर्शन हुए। काशी आकर तुलसीदास पुनः राम कथा कहने लगे। इसी दौरान एकदिन  उनकी एक प्रेत से मुलाकात हुई तो उस प्रेत ने प्रसन्न होकर इन्हें वेदन मांगने को कहा तब तुलसीदास जी ने कहा कि मुझे श्रीराम के दर्शन करवा दो। प्रेत ने उत्तर दिया कि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह भगवान राम के दर्शन करवा सके किन्तु उसने इतना अवश्य बताया की सामने स्थित मन्दिर में प्रतिदिन रामकथा होती है और उस कथा के प्रारम्भ में एक व्यक्ति मैला कुचैला कपडा पहने हुए आता है और वह व्यक्ति हनुमान जी है। तुम आज उनका पैर पकड़कर विनती करना तो वे अवश्य ही श्री राम का दर्शन करवा देंगें। इस प्रकार उन्हें श्री हनुमान जी का पता बताया और उनसे मिलने की प्रेरणा भी दी। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे श्री रघुनाथ जी के दर्शन करने की अपनी इच्छा प्रकट की तब हनुमान जी ने कहा कि तुम्हें रघुनाथ जी का दर्शन चित्रकूट में होगा। यह सुनकर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े। 
चित्रकूट पहुंचकर वहां मन्दाकिनी के रामघाट पर उन्होंने अपना आसन बिछाया और भगवान राम के दर्शन की प्रतीक्षा करने लगे। एकदिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे तो मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। तुलसीदास जी ने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर हाथ में धनुष -बाण लिए हुए चले जा रहें हैं। तुलसीदास जी उन्हें देख करके मुग्ध हो गए और एकटक उन्हें देखते ही रहे किन्तु वे उन्हें पहचान नहीं पाए। पीछे से श्रीहनुमान जी आकर उन्हें जब  भगवान श्रीराम की उपस्थिति के सम्बन्ध में बताया तो वे बहुत पश्चाताप करने लगे।  उसी समय हनुमान जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि कल प्रातःकाल उन्हें श्रीराम के दर्शन हो सकते हैं। सन १५५० ई की मौनी अमावस्या दिन बुधवार के दिन जब वे चन्दन घिस रहे थे तब उनके समक्ष श्रीराम पुनःबालकरूप में प्रकट हुए और  तुलसीदास जी से कहा --बाबा हमें भी चन्दन लगा दीजिये। हनुमान जी सोच रहे थे कि तुलसीदास इस बार भी कहीं धोखा न खा  जाएँ इसलिए उन्होंने एक तोते का रूप धारणकर यह दोहा पढ़ने लगे थे  :-
                           चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीर। 
                           तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर। 
कहा जाता है कि तुलसीदास उस अदभुत छवि को देखकर अपनी सुध-बुध भूल गए थे।  अतः भगवान श्रीराम ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने मस्तक पर लगाया और तुलसीदास के मस्तक पर  भी लगा दिया था  और तत्समय ही अंतर्ध्यान  हो गए। 
साधना- पथ :-
सन १५७१ ई में तुलसीदास जी श्रीहनुमान जी से आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में कुम्भ का मेला था।  अतः वे वहां जाकर कुछ दिन वहीं पर रहकर साधु -सन्तों के दर्शन और सेवा करते रहे ।  एक दिन वहीं पर उन्हें मुनि भरद्वाज एवम याज्ञवल्क्य जी के दर्शन हुए और उस समय वहां पर वही कथा चल रही थी जो सूकर क्षेत्र में अपने गुरु के मुख से उन्होंने सुनी थी। इसके बाद वे काशी चले आये और यहीं पर प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर रहने लगे। यहां रहकर उनके अन्दर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत में श्लोक लिखना आरम्भ कर दिया किन्तु दिन में वे जितने श्लोक लिखते थे, वह रात्रि में न जाने कहाँ लुप्त हो जाता जिसे देखकर वे चिंतित रहने लगे। प्रतिदिन यही घटना घटती रही तब आठवें दिन तुलसीदास जी को एक स्वप्न हुआ कि तुम अपनी भाषा में रचना आरम्भ करो। तुलसीदास जी की नींद खुली और वे उठकर बैठ गए तभी भगवान शंकर एवम पार्वती जी उनके सामने प्रगट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया तब शिव जी ने उनसे कहा --तुम अयोध्या में जाकर निवास करो और हिन्दी में अपनी काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। यह कहकर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। तुलसीदास जी ने भगवान शिव की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए काशी से पुनः अयोध्या चले आये। 
सन १५७४ ई में रामनवमी के दिन वैसा ही सहयोग था जैसा त्रेतायुग में राम- जन्म के दिन था। अतः उस दिन तुलसीदास जी ने प्रतःकाल श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ कर दी। दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिन में इस महाकाव्य की समाप्ति हुई और सन १५७६ ई के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में रामविवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए।
                          संवत सोरह सौ इकतीसा ,करौं कथा हरिपद धरि सीसा। 
                           नवमी भौमवार मधुमासा ,अवधपुरी यह चरित प्रकासा।  
इसके बाद भगवान शिव के आदेश से वे पुनःकाशी चले आये और अस्सीघाट,गोपालमंदिर,प्रह्लादघाट एवं संकटमोचन हनुमान स्थल को अपना प्रिय-स्थल बना लिया। उन्होंने यहां भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को रामचरितमानस सुनाया। रात्रि को वह पुस्तक उन्होंने श्रीविश्वनाथ जी के मन्दिर में रख दी और सबेरे जब उन्होंने मन्दिर का कपाट खोला तब उन्होंने देखा की उस पुस्तक के पृष्ठ भाग पर सत्यम शिवम सुन्दरम लिखा था और मन्दिर में उपस्थित सभी लोगों ने ये शब्द उच्चारित होते हुए भी वहां सुना। वहां के पण्डितों ने जब यह बात सुनी तब उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी और वे सब मिलकर तुलसीदास जी की निंदा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयास भी करने लगे। एक दिन उस पुस्तक को चुराने हेतु उन लोगों ने दो चोर भी भेजे किन्तु उन चोरों ने तुलसीदास जी की कुटिया के पास आकर देखा कि उसके पास दो वीर हाथ में धनुष-बाण लिए पहरा दे रहें हैं और वे दोनों वीर बहुत ही सुन्दर और श्याम वर्ण के हैं। उनके दर्शन कर चोरों का भी मन परिवर्तित हो गया और उसी समय से वे दोनों चोर चोरी करना छोड़कर भजन करने में लग गए। एक दिन तुलसीदास जी को यह आभास हुआ कि मेरे कारण भगवान राम को बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा है, अतः उन्होंने अपनी कुटी का सारा सामान लुटा दिया और अपनी उस पुस्तक को अपने मित्र टोडरमल को सौंप दी।इसके बाद उन्होंने उसकी एक दूसरी प्रति लिखी और उसी के आधार पर अन्य प्रतिलिपियाँ तैयार होने लगीं और पुस्तक का प्रचार -प्रसार दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। जब पण्डितों को कोई मार्ग नहीं सूझा तब श्री मधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने के लिए प्रेरित किया। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने जब उस पुस्तक को  देखा तब उन्होंने उसके सम्बन्ध में अपनी यह सम्मति दी :-
                           आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः। 
                           कवितामञ्जरी    भाति   रामभ्रमरभूषिता। 
उक्त सम्मति का तात्पर्य यह है कि इस काशी रुपी आनन्दवन में तुलसीदास चलता फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कविता रुपी मन्जरी बहुत ही सुन्दर है जिसपर श्रीराम रुपी भँवरा सदा मंडराया करता है। 
पण्डितों को इस पर भी सन्तोष नहीं हुआ तब उस पुस्तक की परीक्षा लेने का एक उपाय और सोचा गया।  विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद ,उसके नीचे शास्त्र और शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। मन्दिर को बन्द कर दिया गया और प्रातःकाल जब मन्दिर खोल गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस सबसे ऊपर रखा हुआ है। यह देखकर सभी पण्डित बहुत ही लज्जित हुए और तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और भक्तिपूर्वक उनका चरणोदक लिया। 
इसके बाद तुलसीदास जी असीघाट पर आकर रहने लगे। एक दिन रात्रि को कलियुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आया और उन्हें त्रास देने लगा। तुलसीदास जी ने तब श्री हनुमान जी का ध्यान किया और हनुमान जी ने उनसे विनयपत्रिका लिखने को कहा। तब उन्होंने विनयपत्रिका लिखी और भगवान के चरणों में उसे समर्पित कर दिया। श्रीराम ने उसपर अपने हस्ताक्षर किये और तुलसीदास को निर्भय होने का आशीर्वाद दिया। 
सं १६२३ ई को श्रवण कृष्ण तृतीय दिन शनिवार को असीघाट पर गोस्वामी ने राम राम कहते हुए अपने शरीर का परित्याग कर दिया  और हिन्दू धर्म को अपनी कालजयी रचना से अमर  बना दिया। 
 श्री रामचरितमानस :- 
गोस्वामी तुलसीदास जी परम् भागवत थे। उनकी अनुपम भक्ति उनके प्रत्येक रचना की प्रत्येक पंक्ति से परिलक्षित होती है। नवधाभक्ति का जहां भी वर्णन है वहां पर दैन्य एवं आत्मसमर्पण को भक्ति का अंग मान लिया गया है। भक्ति केवल भावना की अविरत धारा के प्रभाव से भगवान के आगे अपनी दीनता प्रकट करना और फिर दीनतावश अशरण आत्मा को दीनबन्धु भगवान के चरणों में समर्पित कर देना ही उन्होंने भक्ति की पराकाष्ठा माना है। दैन्य,दीनता अन्तःकरण की उस दशा का नाम है जो दुःख दारिद्र्य या अपराध आदि के वशीभूत निरुपाय प्राणी को होती है और जिसके कारण मनुष्य अपनी दीनता,पतितता व तुच्छता आदि का कथन करने लगता है। 
गोस्वामी जी अपने आराध्य श्रीराम के दर्शन के लिए अतिआतुर दिखाई पड़ते हैं और उन्होंने अपनी भावना के बल पर ही श्री हनुमान जी की असीम कृपा से भगवान राम का साक्षात्कार किया और उन्हें अपने सामने प्रत्यक्ष खड़ा हुआ देखा। उन्हें देखते ही तुलसीदास जी के गात  पुलकित हो उठे ,देह में रोमांच होने लगा ,कण्ठ गदगद हो गया और नेत्रों से आनन्दाश्रु की धारा बहने लगी। इस प्रेम की विह्वलता की दशा में उन्होंने भगवान से कहा था -भगवन कहाँ मुझ जैसा पतित,अपावन,नीच व्यक्ति और कहाँ आपके दिव्य दर्शन ?हे करुणामय ,यह आपकी करुणा की ही महिमा है जो इस अकिंचन दीन,पतित,अशरण को अपने शरण में लेकर अपने दर्शन से मुझे कृतार्थ किया। इसी सम्बन्ध में तुलसीदास जी ने कहा -"मो सम कौन कुटिल खलकामी "
तुलसीकृत रामचरितमानस हिन्दुओं का एक ऐसा पवित्र एवं सर्वग्राह्य ग्रन्थ बन गया है जो प्रत्येक हिन्दू के घर घर में विराजमान है और उसे वेद,पुराण एवम स्मृतियों के समकक्ष मान्यता प्राप्त हो चुकी है। किसी भी शुभकार्य के पूर्व रामचरितमानस का अखण्ड पाठ की प्रचलित परम्परा से यही ध्वनित होता है कि तुलसीदास जी ने भगवान के जिस आदर्श स्वरूप को रामचरितमानस के माध्यम से प्रस्तुत किया है वह धीरे धीरे अन्य धर्मों के लिए भी प्रेरणासूत्र बनता जा रहा है और सम्पूर्ण विश्व में इसकी उपादेयता निरन्तर बढ़ती जा रही है।
आध्यात्मिक तत्व-निरूपण :-
तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में कई जगह शंकराचार्य के अद्वैत मत का समर्थन किया है। मानस की अंतरंग और बहिरंग परीक्षा करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि तुलसीदास जी का दार्शनिक विचार शुद्ध अद्वैतवादी था। पण्डित रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार -"परमार्थ दृष्टि से ,शुद्ध ज्ञान की दृष्टि से तो अद्वैतमत गोस्वामी जी को स्वीकार्य है परन्तु भक्ति के व्यावहारिक सिद्धांत के अनुसार भेद करके चलना वे अच्छा  समझते हैं। "परमात्मा के स्वरूप के बारे में गोस्वामी जी का कथन है :-
                              मूक  होइ   वाचाल ,पंगु  चढ़ई  गिरिवर  गहन।
                             जासु कृपा सो दयाल,द्रवउ सकल कलिमल दहन। 
तुलसीदास जी के अनुसार जीव परतन्त्र है जबकि ईश्वर स्वतन्त्र । जीव माया के हाथ की  कठपुतली है और ब्रह्म माया का खेल करता है। जीव को ईश्वर का मित्र कहते हुए वे कहते हैं "ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती " . 
सुख,दुःख की अनुभूति जीव के कर्म के अनुसार  होती है। तभी तो कहा है-"जो जस करइ सो तस फल चाखा "
तुलसीदास जी के साधना मार्ग के मूल में सद्गुण और सदाचार विशेष रूप से आते हैं। वर्णाश्रम धर्म में इनकी प्रबल आस्था थी। वेदाध्ययन ,त्याग,इन्द्रियनिग्रह,भय का निराकरण,राम के प्रति आत्म समर्पण ,सरल व्यवहार,स्वतन्त्र विचार,गुरु तथा शास्त्रों में आस्था ये सभी साधना मार्ग पर अग्रसर होने के लिए उन्होंने आवश्यक  बताया। उन्होंने सभी  दर्शनों का अध्ययन करके उनका समन्वय करने का कार्य अपनी रचनाओं में किया है। ईश्वर के समस्त अवतारों में उन्होंने पूर्ण आस्था प्रकट की और परमात्मा के सर्वशक्तिमान स्वरूप का ही चित्रण अपने ग्रन्थों में किया और अंत में सभी को अपने आराध्यदेव  श्रीराम में लाकर अंतर्निहित कर दिया। 
तुलसीदास जी सनातन धर्म के समर्थक थे। उनके धर्म में ईश्वर,जीव,प्रकृति,माया और गुरु का ज्ञान आता है  पिता,पुत्र,स्त्री,भाई के सम्बन्ध प्रेम,कर्तव्य विचार और भावनाएं आती हैं। राजा ,प्रजा उनके पारस्परिक सम्बन्ध बाद में आते हैं। तुलसीदास जी ने रहस्यवाद और बाह्य आडम्बर के कारण फ़ैल रहे अविश्वास का जमकर खण्डन किया था किन्तु कर्मकाण्ड में उनकी पूर्ण आस्था थी। बाह्य साधन में तप,व्रत,उपासना,वेदज्ञान,धर्मग्रन्थ का स्वाध्याय,स्नान,तिलक,पूजा एवम यज्ञ सभी का वे समर्थन करते हैं। धर्म के क्षेत्र में वैष्णवों तथा शैवों के मध्य उत्पन्न कटुता को उन्होंने दूर करने का प्रयास किया। तुलसी साहित्य ने देश में फैली राम-भावना तथा शिव-भावना की आस्था में समन्वय स्थापित किया। मध्यकाल में भक्ति की जो धरा बही उसके अंतरंग और बहिरंग का परिक्षण करने से उसमें बुद्धि,भावना और सेवा सभी का समन्वय हो जाता है। प्रेमरूपा ,गुणाश्रिता और नवधा तीन प्रकार की भक्ति को उन्होंने  मान्यता प्रदान की किन्तु अपनी भक्ति को उन्होंने प्रेमाभक्ति के अन्तर्गत ही रखा क्योंकि इसके द्वारा उन्हें भगवान राम का सानिध्य लाभ प्राप्त हुआ था। तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में ग्यारह प्रकार की आसक्तियों का उदाहरण दिया है और प्रेमाभक्ति को ज्ञान से भी श्रेष्ठ बताया। उनका मत है कि भक्त अनन्य स्थिति को प्राप्त होता है तो ज्ञान को स्वयं उसका चरण चुम्बन करना पड़ता है। वे प्रेमाभक्ति को सर्वसुलभ मानते हुए कहते हैं कि मेरा  मन तो हमेशा भगवान की मूर्ति में ही रमा रहता है। वे साधारण भक्त नहीं थे बल्कि अपने युग के विचारक भी थे। उनका समस्त साहित्य चिंतन का विषय है और उनमें भक्ति की प्रधानता व सामाजिक सन्तुलन विद्यमान है। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक पक्ष का उन्होंने सर्वांगीण चिन्तन करके उसे व्यापक दिशा प्रदान की। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए वे कहते हैं _ 
                       " सोई सच्चिदानन्द घन रामा। अज विज्ञानं रूप बलधामा।"
तुलसीदास जी एक प्रकांड विद्धान,उदार हृदय व्यक्ति होने के नाते अपने विपरीत विचार रखने वालों से भी मित्रवत मिलते थे और सत्संग करते थे। नम्रता उनमें कूट कूट कर भरी थी उनका आत्मविश्वास अत्यधिक प्रबल था। तभी तो समाज से लड़ते हुए वे इतना आगे बढ़ पाए। उन्होंने स्वयं कहा है --
                     राखि हैं राम कृपालु तहाँ ,हनुमान से सेवक हैं जेहि केरे।        
रचनाएँ  :-
तुलसीदास जी ने राम गीतावली, कृष्ण गीतावली, श्रीरामचरितमानस, विनय पत्रिका, राम लला नहछू,पार्वती मंगल, जानकी मंगल, दोहावली, सतसई, वैराग्य संदीपनि , रामाज्ञा, बरबै आदि की रचना की। 
         

Friday, September 16, 2016

सन्त एकनाथ


    सन्त एकनाथ का जन्म संवत १५९० विक्रमी में महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद के पैठण  में हुआ था। मूलनक्षत्र में जन्म लेने के कारण इनके माता पिता की मृत्यु इनके जन्म के  बाद हो गई थी।  इनके पिता का नाम सूर्य नारायण व माता का नाम रुक्मिणी था। वे संस्कृत एवं मराठी भाषा के विद्वान थे। इनके प्रपितामह भानुदास अपने समय के एक सिद्ध वैष्णव संत थे। इन्होने विट्ठल जी की मूर्ति का पुनरुद्धार कर वारकरी भक्तों के साथ बहुत भारी  उपकार किया था। ये देवगढ़ के निवासी जनार्दन स्वामी को अपना गुरु बनाने के लिए संवत १६०२ में वहां पहुंचे थे। जनार्दन स्वामी उस समय गुरु दत्तात्रेय जो सिद्ध पुरुष मने जाते थे , के प्रबल उपासक थे। इन्हीं के सम्पर्क में आकर एकनाथ जी ने गुरु मंत्र की दीक्षा ली और भगवान की घोर तपस्या की। इनके प्रमुख ग्रन्थ नाथभागवत,रुक्मिणी स्वयंबर तथा भावार्थ रामायण हैं जिनमें अध्यात्म पक्ष में अद्वैत तथा भक्ति का मनोरम विवेचन बड़ी ही सुबोध भाषा तथा चित्ताकर्षक शैली में किया गया है। इस प्रकार भक्त के आदर्श का जीवन बिताकर संवत १६५६ विक्रमी में एकनाथ जी ने गोदावरी नदी के तट पर अपना भौतिक शरीर छोड़ दिया था। 
 संत ज्ञानेश्वर एवं एकनाथ एक दूसरे से तीन शताब्दी द्वारा पृथक किये जाते हैं फिरभी दोनों के विचारों में काफी समरूपता देखने को मिलती है। एकनाथ उन साधु कवियों में से एक हैं जिन्होंने अपने पारिवारिक परम्परागत कर्तव्य को पूरा करके भविष्य में आने वाले साधकों को कृतकृत्य कर दिया। उन्होंने स्वयं ही कहा है कि वे जिस परिवार में उत्पन्न हुए थे वह वैष्णव धर्म का उपासक था और अपनी व्यक्तिगत उपासना के द्वारा उन्होंने ईश्वरानुभूति प्राप्त की। संत रानडे के शब्दों में "एकनाथ ने  अभिमान पर विजय पाकर आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट विकास किया जिसमें उन्होंने एक अलौकिक दृश्य का दर्शन किया।  "
संत एकनाथ की भी आध्यात्मिक गुरु के प्रति श्रद्धा उतनी ही तीव्र थी जितनी ज्ञानेश्वर की निवृत्ति के प्रति थी। एकनाथ के गुरु जनार्दन स्वामी थे जिनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन में एकनाथ ने ईश्वर साक्षात्कार का आनन्दानुभव प्राप्त किया। एकनाथजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "सर्वप्रथम मनुष्य को अपने हृदय में गुरु का पवित्र स्थान वरण करना चाहिए फिर अपनी सम्पूर्ण अहंकार भावना को गुरु के चरणों में परित्यक्त कर देना चाहिए तभी उसमें सदभावनाओं का प्रकाश प्रकाशित हो सकता है। " महात्मा एकनाथ गुरु के  दर्शन से लौकिक जीवन में पारमार्थिक आनन्द का अनुभव करते थे। उनके मतानुसार गुरु ईश्वर का मार्ग दर्शक है और वह उस चरम उपलब्धि का आशीर्वाद देता है तथा साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने का संकेत व्यक्त करता है। गुरु माहात्म्य का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया है -"साधक अपने आध्यात्मिक गुरु को ईश्वर के  समझता है। "
एकनाथ जी ने अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की पवित्रता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि कुछ व्यक्ति जो अपने ज्ञान को अहंकार की भावना के रूप में प्रयोग करते हैं वे आध्यात्मिक जीवन से च्युत हो जाते हैं।  दूसरे व्यक्ति इसे सदा के लिए छोड़ देते हैं क्योंकि वे अपने उद्देश्य तक नहीं पहुँच सकते। एकनाथ इसे अज्ञान कहते हैं तथा इससे दूर रहने का संकेत देते हैं। एकनाथ जी वारकरी सम्प्रदाय के एक सिद्ध संत  एवं समाजसुधारक भी थे। 
परब्रह्म के साक्षात्कार के संदर्भ में एकनाथ जी ने बताया कि इसके लिए घर बार छोड़कर जंगल में आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं है। जो व्यक्ति जंगल में जाकर साधना करते हैं उनका जीवन किसी उलूक के जीवन से कम नहीं है जोकि अपने को सूर्य के प्रकाश से भी वंचित रखता है। पुनः उन्होंने बताया कि हमें एक तीर्थयात्री की तरह जीवन बिताना चाहिए जो प्रातःकाल यात्रा के लिए चलता है और सायंकाल पुनः वापस आ जाता है। जिस प्रकार बच्चे खेल खेल में घर बनाकर बिगाड़ देते हैं उसी तरह का जीवन हमें बिताना चाहिए। "
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हुआ कि एकनाथ का मार्गदर्शन वास्तव में आत्मानुभूतिवादी दार्शनिक के लिए परमोत्कृष्ट है। इसीलिए संत रानडे ने एकनाथ जैसे संतों के उपदेश को अपने रहस्यवाद का आधार माना तथा गृहस्थ जीवन में ही रहकर ईश्वर का परमलाभ प्राप्त करने का संकेत प्राप्त किया। 
एकनाथ जी की सहनशीलता के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक दिन वि नदी में स्नान करके लौट रहे थे तब मार्ग में एक पेड़ के ऊपर बैठे हुए किसी लड़के ने उनके ऊपर कुल्ला कर दिया तब एकनाथ जी बिना कुछ बोले हुए वापस नदी में जाकर पुनः स्नान करके जैसे ही उस पेड़ की नीचे आये उस लड़के ने फिर से कुल्ला कर दिया। एकनाथ फिर से नदी में स्नान करने वापस गए और बार बार उस लड़के ने उनके ऊपर कुल्ला करता रहा। कहते हैं १०८ बार यही क्रिया चलती रही तब अंत में वह लड़का लज्जित होकर नीचे उतरा और एकनाथ जी के चरणों में लेटकर क्षमा मांगने लगा। एकनाथ जी उसे क्षमा भी कर दिया। एकनाथ जी के सम्बन्ध में बताया जाता है कि एकबार वे प्रयागराज के संगम से गंगाजल लेकर रामेश्वरम में भगवान शिव के जलाभिषेक हेतु जा रहे थे तब मार्ग में उन्हें एक भूखा  प्यासा गधा दिखाई पड़ा। उसे देखकर इन्हें दया आ गयी और उन्हने पूरा गंगाजल उसे पिला दिया। अपने साथ चल रहे अन्य साथियों के यह पूंछने पर कि गंगाजल तो भगवान शिव को चढ़ाया जाना है तो एकनाथ जी ने कहा कि गधा भी तो शिवस्वरूप एक प्राणी है, सो उसे ही दे दिया क्योंकि उसे जल की अधिक आवश्यकता है। इसी समय रामेश्वरम के पुजारी ने माइक से यह उद्घोषणा की कि सन्त एकनाथ द्वारा दिया गया गंगाजल भगवान शिव को प्राप्त हो गया है। इस घटना से यही निष्कर्ष निकलता है कि एकनाथ जी कितने सहृदय सन्त थे।  

Thursday, September 15, 2016

सन्त तुकाराम



            सन्त तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के पूना जिले के देह नामक ग्राम में सन १५९८ ई० में हुआ था। वे जाति के कुनबी थे। अन्य सन्तों के समान तुकाराम भी व्रत ,उपवास ,अरण्यवास आदि क्रियाकर्मों का प्रबल विरोध करते थे और ईश्वर प्राप्ति में हरिकीर्तन को प्राथमिकता देते थे। इन्होने वेद एवं उपनिषद आदि गर्न्थों एवं संस्कृत भाषा का बहिष्कार किया था। नामदेव के समान तुकाराम भी विठोबा के उपासक थे और पंढरपुर इनका केंद्र था। इनके जीवनकाल में कितनी परेशानियां आयीं ,इनका आध्यात्मिक जीवन कब से प्रारम्भ हुआ आदि के सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी नहीं है फिरभी इतना तो ज्ञात ही है कि तुकाराम के ह्रदय में हेगेल की द्वन्दात्मक विधि का पूर्ण समावेश था। अपने आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ में इन्होने आत्मानुभूति का ही आश्रय लिया और इसी साधना से अपने साध्य तक पहुँचने का प्रयास किया था।तुकाराम को बाबा जी चैतन्य नामक साधु ने रामकृष्ण हरिमंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया था। इसके बाद वे १७ वर्ष तक उसी का उपदेश घूम घूमकर देते रहे और १६९४ ई में महासमाधि लेते हुए इस संसार को अलविदा कह दिया। 
 तुकाराम जी का अभंग वाङ्गमय अत्यन्त आत्मपरक होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का सम्पूर्ण दर्शन हो जाता है। पारिवारिक अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। उनके आध्यात्मिक चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएं दृष्टिगत होती हैं :--
प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम अपने मन में किये गए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत्त होकर परमार्थ पथ की ओर प्रवृत्त दिखाई पड़ते हैं। 
दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस नैराश्य का विस्तृत वर्णन अभंगवाणी में मिलता है। 
तीसरी अवस्था किंकर्तव्यविमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत हो गया और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम परमानन्द में विलीन हो गए।  
यद्यपि इनके आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ महात्मा बुद्ध की भांति पाप से उत्पन्न घृणा की भावना से होता है किन्तु इनका जीवन नैराश्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। तुकाराम अपनी आत्मा की अनन्त शक्ति को पहचानते थे और इसी शक्ति में ही साक्षात्कार नित्य उपलब्ध भी मानते थे। इसके बावजूद भी वे ईश्वर की असीम शक्ति के आगे विनम्र होकर कह उठते थे कि मैं तेरे स्वरूप को कैसे जान पाऊँगा ?विद्वानों का दावा है कि तेरे स्वरूप की कोई सिमा नहीं हैं। तुकारामजी का विश्वास था कि ईश्वरीय अनुकम्पा से उनके अज्ञान रुपी बादल सदा के लिए दूर हट जायेंगे फिर तो परब्रह्म का दर्शन प्रत्यक्ष रूप में कर सकेंगे। तुकाराम की शिक्षा एवं जीवन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वे पूर्ण आप्तकामी थे। सांसारिक मायामोह का उन्होंने सर्वथा परित्याग कर दिया था और अपने जीवन की एक झांकी प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा -"मुझे बेघर ,अर्थहीन और पुत्रहीन ही रहने दीजिये ताकि मैं आपको याद कर सकूँ। मुझे कोई भी संतान मत दीजिये क्योंकि उसका स्नेह आपको मुझसे अलग कर देगा। मुझे धन देकर सौभाग्यशाली भी न बनाएं क्योंकि यह और बड़ा दुर्भाग्य होगा। मुझे एक घुमक्कड़ ही बना रहने दीजिये क्योंकि इस मार्ग द्वारा मैं आपकी रातदिन याद करने में पूर्णतयः सफल सिद्ध हो जाऊंगा। "
तुकाराम ने भक्त और भावना के एकाकार स्वरूप का वर्णन करते हुए बताया कि जैसे एक कछुवा अपने पैर भीतर ही छुपा लेता है उसी तरह मैं भी अपने को ईश्वर में छुपाकर तदरूप हो जाऊँगा। उनका कथन है कि "अपनी भक्ति भावना से मैं तुम्हारे रहस्य को जानने में पूर्ण सफल हो गया हूँ। मैंने आपके स्वरूप को अपने अंदर प्रवृष्ट कर लिया है जैसेकि कछुवा अपना पैर छिपा लेता है। मैं तुम्हारे स्वरूप को कभी अपने अंदर से नष्ट नहीं होने दूंगा " !तुकाराम जी का विश्वास था कि ईश्वर की कृपा ही साधक को परमार्थ की ओर खींचती है। तुकाराम जब ईश्वर का दर्शन कर चुके तब उनके चरणों में नतमस्तक होकर कह उठे ,"मैंने ईश्वर का दिव्य रूप देखा और उस प्रतिच्छाया से हमें अनन्त पूर्णानन्द की प्राप्ति हुई। मेरा मन इससे पवित्र हो गया। मेरे हाथ उनके चरण छूने के लिए व्याकुल हो गए और जैसे ही मैंने उनकी ओर देखा मेरी सम्पूर्ण बौद्धिक शक्ति नष्ट हो गई। आनंद ही अब हमें उच्चतर आनंद की ओर अग्रसित कर रहा है। "
ईश्वरानुभूति प्राप्त करने का सर्वसुलभ एवं पवित्र साधन है साधुजनों की संगति। तुकाराम ऐसे संत की प्रायः खोज किया करते थे जो वास्तव में ईश्वरनुरागी हो और पूर्ण साक्षात्कार का पूर्वानुभव भी हो। उनके ही शब्दों में -"मुझे अपने ही तरह के लोगों से मिलने दें ताकि मैं पूर्णरूपेण संतुष्ट रह सकूँ। " मेरा मन उन लोगों से मिलने की तीव्र इच्छा रखता है जो ईश्वर से प्रेम करते हैं। मेरी ऑंखें उन्हें देखने के लिए टकटकी लगाए रहतीं हैं। मेरा जीवन तभी सार्थक होगा जब मैं उन संतों को गले लगा लूँगा। उसी दिन मैं ईश्वर का मनोनुकूल गुणगान करूंगा। "  साधुजनों की कृतञता स्वीकार करते हुए तुकाराम ने कहा -"साधुओं के प्रति अपनी कृतञता का वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ ?उन्होंने हमें सदैव जाग्रत रखा है। मैं उनकी इस दयालुता का प्रतिफल उन्हें कैसे दे सकता हूँ ? यदि मैं अपने जीवन को उनके चरणों  में अर्पित कर दूँ तो यही पर्याप्त होगा। उन्होंने भूलबस भी जो कुछ बतला दिया वह आध्यात्मिक ज्ञानार्जन में लाभकारी रहा। अब यही इच्छा शेष है कि वे मेरे पास आएं और प्यार करें ठीक उसी प्रकार जैसे गाय अपने बछड़े को करती है। "ईश्वर प्राप्ति की साधना पूर्ण होने पर उनके मुख से जो उपदेश वाणी प्रस्फुटित हुई वही वाणी अम्र होकर अभंग के माध्यम से जन जन तक पहुंची। इनकी वाणी में जो कठोरता दिखाई पड़ती है उसका उद्देश्य समाज से दुष्टों का विनाश एवम धर्मराज्य की स्थापना ही था। तुकाराम लोगों को पापकर्म से दूर रहने को कहते थे। 
ईश्वरानुभूति में बाधक केवल पापकर्म ही हो सकते हैं। ऐसी मान्यता देते हुए महात्मा तुकाराम जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा ,"मैं तुम्हारे पास एक बच्चे की तरह आया हूँ। मैंने आवश्यकतानुसार आपका अनुसरण किया है लेकिन मेरे सभी प्रयास बीच में ही समाप्त हो गए। ऐसा मालूम पड़ता है कि हमारे पापकर्म शक्तिशाली हो चुके हैं और आपके चरणों में समर्पित करने में बाधक सिद्ध हो रहें हैं। "पुनः उन्होंने कहा कि :जब मैं अपने को तुम्हारे चरणों में अर्पित करने का प्रयास करता हूँ तो मेरे नए पाप मुझ पर आक्रमण के देते हैं। हे ,ईश्वर आप दयालु हों "तुकारामजी ने यह संकेत दिया कि अपने को ईश्वरतुल्य बताना मूर्खता है। वे ईश्वर से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करने के पक्ष में हैं किन्तु पूर्णतयः ईश्वर हो जाने की बात को हास्यास्पद बताते हैं। जब तुकारामजी अपने साक्षात्कार अथवा मोक्ष के कारण को जानने के लिए पीछे मुड़कर देखते हैं तब वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इसका सर्वप्रथम कारण तो साधुसंतों की महती कृपा ही है जिसके द्वारा उन्हें ईश्वर के नाम का स्मरण हुआ था !तुकाराम ने ईश्वर भक्ति को आध्यात्मिक अनुभूति के लिए बहुत ही आवश्यक बताया है। यदि हम तुकाराम के रहसयवादी जीवन तथा उनकी शिक्षा की ओर ध्यान दें तो हमें आत्मानुभूति का एक सफल प्रयास दृष्टिगत होता है। उन्होंने समस्त सन्देहों को दूरकर ईश्वरानुभूति का मार्ग प्रशस्त किया। उनका कथन है "जो व्यक्ति संसार की भौतिक वस्तुओं एवं परमार्थ दोनों को एक साथ प्राप्त करना चाहता है वह कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता। "संत रानडे का कथन है कि तुकाराम में आदि से अंत तक एक ही प्रक्रिया का सतत दर्शन होता है।    

Friday, September 2, 2016

समर्थ गुरु रामदास/ करुणासिन्धु महराज

सन्त रामदास जी का जन्म चैत्रमास नवमी तिथि सन् १६०८ ई०को महाराष्ट्र के अम्बा गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।समर्थ गुरु रामदास का बचपन का नाम नारायण था। बचपन  उनके हृदय में स्वधर्म और स्वजाति की सेवा का भाव अंकुरित होने लगा था तभी उनकी माता राणुबाई उनका विवाह करने के लिए उद्यत हो गयीं थीं । विवाह की चर्चा सुनकर एकबार तो वे घर से भागकर जंगल की ओर चले गए थे तब उनके बड़े भाई गंगाधर उन्हें समझाबुझाकर वापस लाया था। उनकी माता कुछ दिनों बाद किसी तरह रामदास से विवाह की स्वीकृति प्राप्त कर ली और बारात जब कन्या के द्वार पर पहुंची और भाँवर का समय आया तब किसी ब्राह्मण ने सावधान शब्द कहकर रामदास की ओर इशारा किया तब रामदास जी स्थिति को समझकर मण्डप से भाग निकले थे। वे विवाह मण्डप से भागकर कई सौ मील की पैदल यात्रा करके पंचवटी नासिक पहुँच गए और टाकली नामक स्थान पर जप-तप और भजन करना आरम्भ कर दिए। वे नित्य प्रातःकाल से दोपहर तक गोदावरी के जल में खड़े होकर गायत्री मन्त्र का जप करते और दूसरी वेला में निकटवर्ती गांव में भिक्षा मांगकर उदरपूर्ति करने लगे। इस प्रकार बढ़ वर्ष तक वहां तपस्या करके गायत्री के कितने ही पुरश्चरण कर डाले थे ।इसका परिणाम यह हुआ कि एक दिन टाकली के पास स्थित एक गांव में किसी पटवारी की क्षयरोग से मृत्यु हो गयी थी और गांव के लोग उसका अंतिम संस्कार करने हेतु गोदावरी के तट पर आये ही थे कि मृतक की पत्नी ने सती होने की घोषणा करते हुए वहीं कुटिया  रहे रामदास जी से आशीर्वाद लेना चाहा। रामदास जी को उसकी परिस्थितियों का आभास नहीं था अतः उन्होंने उसे सौभाग्यवती एवम पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। यह सुनकर पत्नी ने अपने पति के देहांत का समाचार सुनाया तो रामदास जी कुछ क्षण तक उसे देखते रहे और फिर कहा कि तुम विधवा नहीं हो सकती। यह कहकर उन्होंने मृतक के साँस की पुनः जाँच करने के लिए कहा। लोगों ने पटवारी के शव का फिर से ध्यानपूर्वक निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि उसकी सांसें चल रहीं थीं। पानी का छींटा मरते ही उसे होश आ गया और वह उठ बैठा। इस घटना के कुछ दिन बाद ही उसके एक पुत्र पैदा होने का समाचारलेकर पटवारी की पत्नी रामदास जी के पास आयी और अपने पुत्र को रामदास जी के चरणों में रखकर उसे अपना शिष्य बना लेने का आग्रह उनसे किया।यही शिष्य आगे चलकर उद्धव गोस्वामी के नाम से जाना गया। 
धर्मयात्रा :-
 लगभग बारह वर्ष तक टाकली में रहने के बाद रामदास लोककल्याण एवं धर्म-प्रचार के लिए धर्मयात्रा पर निकल पड़े। सर्वप्रथम वे हिन्दूधर्म के केंद्र काशी पहुंचे तो बाबा विश्वनाथ मन्दिर के पुजारियों ने उनकी वेशभूषा देखकर उन्हें ब्राह्मण से भिन्न जाति का कोई वैरागी मान लिया और शिवजी की प्रतिमा के सम्मुख जाने से मना कर दिया। यह देखकर रामदास जी ने कहा कि शिवजी की जो इच्छा हो ,यह कहते हुए वे दूर से ही शिवजी को प्रणाम करके लौट पड़े। कहते हैं कि उनके बाहर निकलते ही पुजारियों को शिवजी की प्रतिमा दिखलाई नहीं पड़ी तो वे दौड़कर रामदास जी से क्षमा याचना की और उन्हें आदरपूर्वक मन्दिर में वापस लाया। रामदास जी के आते ही वह प्रतिमा पुनः पुजारियों को दिखलाई पड़ने लगी। इस चमत्कारिक घटना से काशी में उनकी काफी चर्चा हुई और पुजारियों ने वहीं गंगाघाट पर हनुमानजी की एक प्रतिमा की स्थापना रामदास जी से करवायी। रामदास जी यहां से मथुरा,वृन्दावन तीर्थों का दर्शन करते हुए द्वारिका पहुंचे और यहां उन्होंने एक राम मन्दिर का निर्माण करवाया। इसके बाद वे पंजाब भ्रमण करते हुए श्रीनगर पहुंचे जहां नानक पन्थियों ने उनका बहुत सत्कार व सम्मान किया। इसके पश्चात वे उत्तराखण्ड की यात्रा करते हुए श्री जगन्नाथ जी पहुंचे। पद्मनाभ नामक एक ब्राह्मण को सुयोग्य मानते हुए वहीं पर श्री राम मन्दिर की स्थापना की और उस ब्राह्मण को उसमें महन्त नियुक्त कर दिया। यहां से वे रामेश्वर होते हुए श्रीलंका पहुँच गए और लंका से वापस होकर भारत के पश्चिमी तट पर स्थित केरल,मैसूर,कर्नाटक होते हुए महाराष्ट्र आ गए। यहां उन्होंने गोकर्ण,व्यंकटेश,मल्लिकार्जुन,बल नरसिंह आदि के दर्शन करते हगे पम्पासर ऋष्यमूक,पंढरपुर होते हुए पंचवटी वापस आ गए। अपनी इस तीर्थयात्रा के दौरान उन्होंने भारत की तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया और हिंदुओं की अवनति के प्रति सम्वेदनशील हो उठे। इसके लिए उन्होंने सर्वप्रथम महाराष्ट्र के धर्मसेवकों का एक विशाल और सुदृढ़ संगठन बनाने की योजना बनाई। यद्यपि वे एक कौपीन,खड़ाऊं और एक माला के अतिरिक्त अपने पास कोई भी सामग्री नहीं रखते थे ,पर हिन्दू जाति की रक्षा के लिए उन्होंने महाराज शिवाजी के राज्य संस्थापन कार्य में हर सम्भव सहयोग उन्हें प्रदान किया। 
तीर्थयात्रा के पश्चात समर्थ गुरु रामदास पैठण जाते समय अपने गांव आम्ब पहुँच गए और अपने घर के सामने जाकर जय जय रघुवीर का उद्घोष किया तो उनकी माता ने अपनी बड़ी बहू से कहा कि कोई वैरागी आया है ,उसे भिक्षा दे दो। यह सुनकर रामदास जी ने पुनः आवाज लगायी कि अन्य वैरागियों की भांति केवल भिक्षा लेकर लौट जाने वाला यह वैरागी नहीं है। इस बार माता ने इनकी आवाज पहचान ली और कह पड़ी -क्या नारायण आया है ?यह कहते हुए माता दौड़कर बाहर आयी और रामदास जी उनके चरणों में लेट गए। माता ने प्रेमपूर्वक उन्हें उठाकर अपने गले से लगाया और उनके शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा नारायण तू कितना बड़ा हो गया है ?मैं तो तुझे देख भी पा रहीं हूँ। यह सुनकर रामदास जी ने अपनी माता के सिर पर अपना हाथ फेरा जिससे उनकी आँखों की ज्योति पुनः वापस आ गयी। यह देखके माता ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा -बीटा ,यह तो तूने किसी अच्छे भूत को सिद्ध कर।  तब रामदास जी ने कहा मां ,मैंने वही भूत सिद्ध किया है जो अयोध्या में आनंद मंगल करता था और जिसने गोकुल में लीलाएं की थीं। इसके बाद रामदास जी कुछ दिनों तक माता के पास रहे और एक दिन चलते समय उनके शोकग्रस्त होने पर भागवद की वही कथा उन्हें सुनाई जो कपिल मुनि ने अपनी माता को सुनाया था। 
समर्थ रामदास जी का जीवन का उद्देश्य विदेशी आक्रमणों और विधर्मी शासकों के दमन तथा अत्याचारों से जर्जर हिन्दूजाति में फिर से नवजीवन का संचार करना था। अतः उन्होंने सर्वप्रथम हिदुओं में व्याप्त आत्महीनता के भाव को दूर करने का प्रयास किया और एक विशाल संगठन बनाने के उददेश्य से साधु,कार्यकर्ताओं,मन्दिर एवं मठों की स्थापना का कार्य तो वे भ्रमणकाल में ही आरम्भ कर चुके थे अतः अब वे समाज को संगठित करने का कार्य आरम्भ कर दिया। उन्होंने लोगों से कहा कि "अनेक वर्णों और आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम ही है जिसमें तीनों लोकों के प्राणियों को विश्राम मिलता है। देव,ऋषि,मुनि,योगी,तापस ,वीतरागी,पितृ,अतिथि,आगत सभी इस गृहस्थाश्रम से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि ये लोग अपना आश्रम छोड़कर निकल जाते हैं फिरभी ये आश्रित के रूप में गृहस्थ के घरों में ही घूमा करते हैं। इसलिए गृहस्थाश्रम देव आश्रमों से बढ़कर है लेकिन इस आश्रम में रहकर अपने कर्तव्य का पालन तथा सब प्राणियों का उपकार करना चाहिए। "  यद्यपि वे जप,भजन,साधन,पुरश्चरण आदि को भी आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक समझते थे किन्तु इस पर अधिकार उसी का मानते थे जो अपना जीवन धर्म और समाज की सेवा के लिए उत्सर्ग करने की दृढ भावना और क्षमता रखतें हों। 
राष्ट्र-भक्ति के प्रेरक :-
समर्थ गुरु रामदास जी का मुख्य उद्देश्य अपने राष्ट्र को सशक्त और सुदृढ़ बनाना था। इसीलिए उन्होंने धर्म के साथ लोगों को राजनीति का भी उपदेश दिया। उनका कथन था कि  प्रकार की शंकाओं को मिटाते हुए प्रजा का पालन करना चाहिए और लोगों को सामान्य अपराधों के लिए क्षमा करते रहना चाहिए। न्याय और नीति का पालन करते हुए उसे अपने दल को फूट से बचाना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने अपने अनुयायियों को उस राजनीति की शिक्षा दी  जो असत्य और बेईमानी पर नहीं बल्कि विवेक,सूझबूझ और सावधानी पर आधारित हो। उनका कहना था कि जो व्यक्ति डरकर वृक्ष पर चढ़ जाये ,उसे डीएम ,दिलाशा देना चाहिए और जो लड़ने को तैयार हो ,उसे धक्का देकर गिरा देना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने लोगों के लिए व्यावहारिक मार्ग को प्रशस्त किया। रामदास जी ने त्याग और सेवाभाव पर विशेष बल दिया। वीर शिवाजी को शिष्यत्व की दीक्षा देने के बाद एकदिन वे स्नान,सन्ध्या वन्दन करके भिक्षार्जन करते हुए सतारा के राजमहल पहुँच गए थे और राजमहल के सामने जय जय रघुवीर समर्थ का जब उद्घोष किया तो गुरु की आवाज पहचानकर शिवाजी आनन्दमग्न होकर बाहर आये और गुरु को देखकर सोचने लगे कि ऐसे महान भिखारी को क्या दान दिया जाये। उन्होंने तुरन्त एक कागज पर अपना सम्पूर्ण राज्य का दान लिखकर गुरु की झोली में डाल दिया। रामदास जी ने जब उसे पढ़ा तो हंसते हुए बोले -शिवा तुमने समस्त राज्य तो मुझे दे डाला ,अब तुम क्या करोगे ?शिवाजी ने हाथ जोड़करकहा -महाराज ,मैं आपके चरणों की सेवा करूँगा। उनकी इस भक्ति भावना को देखकर गुरु रामदास जी ने कहा कि हम वैरागी राज्य लेकर क्या करेंगें ?अब हमारी अमानत समझकर राज्य का कारोबार तुम्ही चलाओ। शिवाजी ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने झंडे के स्थान पर भगवा रंग का झंडा राजमहल के ऊपर लगाकर त्याग और कर्तव्यभावना का परिचय  देते हुए एक नवीन परम्परा का सूत्रपात किया जिसके परिणामस्वरूप शासकीय कार्य में धर्म और न्याय का विशेष रूप से समावेश हुआ। 
गुरु रामदास राजा को भगवान का नौकर मानते थे। यही भावना उन्होंने शिवाजी के मन में भी भर दी थी। एक बार रामदास जी अपने शिष्यों के आग्रह पर किसी के खेत से भुट्टा तोड़कर खा रहे थे उसी समय खेत का मालिक आ गया और उनपर लाठियों से प्रहार करने लगा तब शिष्यों ने बीचबचाव करने से मामला शांत हुआ और सभी वहां से राजमहल पहुँच गए। सेवा करते हुए शिवाजी ने जब गुरु के पीठ पर लाठी की चोट देखी  तब उन्होंने गुरु से पूंछा तो गुरु जी मौन हो गए और एक शिष्य ने सारी  घटना बता दी। शिवाजी ने उस खेत के मालिक को बुलवाया और जब उसे उचित दण्ड देना चाहा तो गुरु ने हस्तक्षेप करते हुए उसे क्षमा कर देने की आज्ञा दे दी।समर्थ गुरु रामदास जी सदैव दान दक्षिणा लेने में अरुचि व्यक्त किया करते थे। इनके बड़े भाई श्री श्रेष्ठ  गांव में ही रहकर भक्तिमार्ग का प्रचार किया करते थे ,के निधन के पश्चात उनके दोनों पुत्रों को समर्थ ने अपने पास बुला लिया था। जब यह समाचार शिवाजी को मिला तो वे स्वयं समर्थ जी के आश्रम गए और अपनी यह इच्छा प्रकट की कि जांब तथा कुछ अन्य गांव को मिलाकर श्रेष्ठ के दोनों पुत्रों के नाम कर दिया जाये जिससे वे पारिवारिक श्रीराम मन्दिर की व्यवस्था यथावत करते रहें और अपना जीवनयापन भी उससे करते रहें। समर्थ गुरु रामदास जी के इंकार करने पर शिवाजी किंचित दुखी होकर कहा था --लगता है कि भगवान राम की सेवा करना मेरे भाग्य में नहीं लिखा है। यह सुनकर समर्थ ने  कि केवल इतना प्रबन्ध  जिससे राममंदिर की व्यवस्था भी चलती रहे और साधु सन्तों का सत्कार भी होता रहे। तब शिवाजी ने राज्य के तैंतीस गांव राममंदिर के नाम कर दिया था और प्रत्येक वर्ष वहां पर धर्मोत्सव मनाने की समुचित व्यवस्था कर दी थी। 
दासबोध का वर्ण्य-विषय :-    
रामदास जी ईश्वर के सगुण उपासक थे। भगवान राम के प्रति अपनी श्रद्धा एवं भक्ति प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि "रघुनाथ वास्तव में मेरे पारिवारिक उपास्य देव हैं। वे व्यक्ति महान हैं जो विषम परिस्थितियों में ईश्वरानुभूति द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं। "रामदास जी एक साधारण व्यक्ति और ईश्वरानुभूति प्राप्त व्यक्ति में अन्तर बताते हुए कहते हैं कि ईश्वरानुभूति प्राप्त व्यक्ति को समाज के लिए नैतिक मापदंड और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का निर्धारण करना चाहिए। रामदास के अनुसार जिस व्यक्ति का मन चंचल है उसे दासबोध का अध्ययन नहीं छोड़ना चाहिए। इसके स्थिर एवं नियमित अध्ययन से गुह्य अर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं और आध्यात्मिक जीवन की जड़ आत्मा में गहराई तक पहुँच जाती है। 
रामदास जी द्वारा प्रतिपादित तत्वशास्त्रपरक  विवेचन में सर्वप्रथम ज्ञान के पारिभाषिक कथन का दर्शन होता है। उनके अनुसार विज्ञान का सम्यक अध्ययन ही ज्ञान नहीं है। वास्तविक ज्ञान के संदर्भ में उनका कथन है कि "किसी दूसरे के मन में किस प्रकार की प्रतिक्रिया हो रही है ,को जानना ही ज्ञान है। "इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा की वास्तविक ज्ञान आत्मज्ञान है। यह आत्मा के द्वारा आत्मा को जानना है तथा वास्तविक ज्ञान ईश्वर का ज्ञान है। यह ज्ञान सत्य और असत्य के भेद को दूर कर देता है। ज्ञान मन के परे ,समझ के परे एवं समस्त विवादों के परे है। 
रामदास जी की भक्ति भावना बहुत ही प्रबल थी। इनकी भक्ति का स्वरूप सगुणात्मक था। वे ईश्वर के साक्षात्कार के लिए आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता बताते हुए कहतें हैं कि हमें ईश्वर के नाम की सतत साधना द्वारा तादात्म्य स्थापित कर लेना चाहिए। वास्तव में यह एक रहस्यपूर्ण प्रयास है और यह सुयोग्य आध्यात्मिक गुरु द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। एक आध्यात्मिक गुरु की महत्ता उन्होंने ईश्वर से भी अधिक समझी। जिस संदेहास्पद स्थिति में गुरु नानक ने 'गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पाँय 'कहा था उसी स्थिति में रामदास जी का कथन है कि "वह व्यक्ति जो ईश्वर को गुरु से बड़ा मानता है ,मूर्ख  है। उसका मन केवल शक्ति और वैभव तक ही सीमित है। गुरु की महानता के आगे ईश्वर की महानता नगण्य है। गुरु आध्यात्मिक निधि की कुंजी अपने भक्त को दे देता है।"रामदास जी के शब्दों में "जो मन के द्वारा नहीं प्राप्त हो पाता ,उसे गुरु की शक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अन्ततः उन्होंने गुरु को  ईश्वर से बड़ा कहकर उपर्युक्त सन्देह को सर्वथा दूर कर दिया।"
रहस्यानुभूति की व्याख्या करते हुए रामदास जी का कथन है कि "आध्यात्मिक जिज्ञासु की वास्तविक निधि छिपी हुई होती है। सेवक उस निधि का मूल्यांकन नहीं कर पाते। वे केवल बाह्य आभास ही पाते हैं। आध्यात्मिक अनुभूति इसी प्रकार की निधि है। इसी तरह ईश्वर जो साधारण लोगों की दृष्टि में विद्यमान है ,सत्संग द्वारा स्पष्ट देखा जा सकता है। "रामदास जी रहस्यवाद की स्थिति को विरोधपूर्ण भी मानते हैं क्योंकि जैसे ही हम इसके प्रति सजग होते हैं वैसे ही हम उसे भूल जाते हैं और जैसे ही हम उसे भूलने लगते हैं वैसे ही वह हमारी चेतना में अवतरित हो जाता है। अन्ततः रामदास जी यही कहते हैं कि इसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान वही कर पाता है जो आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त कर चुका होता है। संत रामदास के अनुसार ईश्वर साधक की साधना के अनुरूप ही उसे प्रतिफल देता है। भगवदगीता के संदर्भ में रहस्यवाद का अनुमोदन करते हुए रामदास जी ने कहा -"वह जिसे शास्त्रों से पराजित नहीं किया जा सकता ,जिसे अग्नि जला नहीं सकती ,जो जल के द्वारा आर्द्र नहीं किया जा सकता ,जो वायु के द्वारा उड़ाया नहीं जा सकता ,जो न तो नीचे गिराया जा सकता है और न ही धारण ही किया जा सकता है फिरभी वह सर्वत्र और हमेशा विद्यमान रहता है। यह सत्ता केवल उपासना से ही अनुभवगम्य है। "
ब्रह्म के स्वरूप वर्णन के सम्बन्ध में रामदास जी विचार है कि ब्रह्म आकाश से भी अधिक विस्तृत है। यह उतना ही छोटा है जितना बड़ा है। वह हमारे समीप है किन्तु छिपा हुआ है।केवल आध्यात्मिक पुरुष जो ईश्वरानुभूति प्राप्त कर चुके हैं वे इस ज्ञान को प्राप्त कर पाते हैं।  ब्रह्म के स्वरूपवर्णन एवं ज्ञान  के पश्चात प्रश्न उठता है कि रामदास ने ब्रह्म का साक्षात्कार कैसे प्राप्त किया ?इसके लिए रामदास जी ने बताया कि साधना का आश्रय ही पर्याप्त है। यदि साधक साक्षात्कार की साधना कर चुका है तब भी उसके लिए साधना उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना इसके पूर्व थी। ईश्वर के साक्षात्कार के बाद साधक की कोई भी आवश्यकता शेष नहीं रहती है। रामदास जी के शब्दों में -"यदि मनुष्य ने साधना के आदर्शस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति कर ली है तब साधना उसके लिए और क्या कर सकती है ?यदि संत एकबार ईश्वर से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित कर लिया है तब उसकी आवश्यकता कम हो जाती है। "
संत रामदास जी ने अपने को इन्हीं मार्गों द्वारा ईश्वर के सन्निकट लाने का प्रयास किया था। उन्हें स्वयं भी एहसास हुआ कि वे इस उद्देश्य तक पहुँच चुके थे। दासबोध में अनेक स्थलों पर रामदास ने रहस्यात्मक अनुभवों का जो उल्लेख किया है वह उनकी स्वयं की अनुभूतियों से निःसृत हैं। उन्होंने रहस्यात्मक मार्ग को एक प्रमाणिक मार्ग के रूप में अन्य मार्गों का गूढ़ एवं आतंरिक रहस्य बताया। अंततः रामदास जी ने रहस्यानुभूति का चरम लक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहा -"आध्यात्मिक अनुभव हमें केवल अपनी सामर्थ्य के अनुसार सम्पूर्ण जीवन की साधना से प्राप्त हो सकता है और तब परमात्मा स्वयं अपने स्वरूप को स्पष्ट कर देगा। "  
समर्थ गुरु रामदास जी जब बारह वर्ष के थे तभी घरबार छोड़कर नासिक के पास टकाली में रहने लगे थे। शिवाजी जैसे महाप्रतापी राजा इन्हें अपना गुरु मानते थे। शिवाजी इनकी आध्यात्मिकता साधना से इतने अधिक प्रभावित थे कि वे अपना समस्त राजपाट इनके चरणों में अर्पित करके स्वयं सेवक के रूप में कार्य करते थे। दासबोध इनकी प्रमुख रचना है। इसमें इनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं का संग्रह है। इन्होने आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने के पूर्व जगत के परिप्रेक्ष्य में अपने को पूर्णरूपेण पहचान लेना आवश्यक समझा। आत्मज्ञान द्वारा उन्होंने क्रमशः ईश्वर की उपासना को दृढ़तर बनाया और विविध अनुभव सोपानों पर चढ़कर ईश्वर का साक्षात्कार किया। उनका कथन है कि "मेरी उपासना ही है जो तर्क से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रभावपूर्ण है और इस भौतिक संसार से परे ईश्वर की प्राप्ति में सहायक है। "
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                            श्री करुणासिन्धु जी महराज

उत्तर प्रदेश के जनपद प्रतापगढ़ तहसील कुण्डा के अन्तर्गत हीरागंज बाजार के सनिनकट गाँव गोपालापुर के ब्राह्राण (धतुरा तिवारी) कुल में विधि-विधानपूर्वक मानस यज्ञ (अखण्ड रामायण पाठ) के सम्पन्न होने के फलस्वरूप विक्रम संवत-१७३०सन-१६७४ र्इ० के बैशाख मास के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को श्री जानकी तिवारी के घर पुत्र रत्न स्वरूप एक तेजस्वी एवं नखरूप चन्द्र के तेज से उत्पन्न बालक ने जन्म लिया था।
दिन चारि चतुर्दशी शुक्ल सुमाधव मास स्वपन्न सवे  अनया।
सब लोग सुखदद शशी कर हदद उजग्गर वंश सुपुत्र भयो।।
सत्रह सौ तीस सुविक्रम अब्द सुभाष  भयो तिहँ  लोक जसी।
शशि पूर्ण कला नखते जपला पद अंगुठवाम सुआनि वसी।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
परिवार के कुल पुरोहित पंडित देवानन्द जी ने नामकरण संस्कार कर प० रामप्रपन्न नाम देते हुए शुभाशीष स्वरूप बालक की जन्मपत्री की संरचना करके उनके भविष्य की एक झलक विलक्षण प्रतिभावान बालक की प्रस्तुत कर दी थी। बडे़ धूम-धाम से बालक की माता ने अपने आंगन में परिवार की नारियों को बुलाकर बालक की छठि-कर्म सम्पन्न किया तथा यथोचित दान-दक्षिणा देते हुए बालक के जन्म की खुशियाँ मनायी। एक दिन माता श्रीमती पदमा ने बालक के पालने में खेलते समय उसके आभा मंडल के प्रकाश को गौर से देखा तो वह अचेत होकर वहीं गिर पड़ी। परिवार के बुजुर्गों ने बालक की माता को सांत्वना देते हुए उसे संत-कृपा का फल बताया तो उसी समय बालक के हाथ पर श्री राम चरित मानस (गुटका) ग्रन्थ व तुलसी दल को रखते हुए परिजनों ने बालक की न्यौछावर की एवं पुन: गरीबों को दान-दक्षिणा बाँटी गयी। बालक के माता-पिता की उक्त प्रसन्नता को करूणामणिमाला के इस दोहे से भलीभाँति समझा जा सकता है:-
कहुँ पालना कहुँ गोद  में दूध  पियावति  मात।
चरण हाथ मुख चूमती तेल लगावति गात ।।1।।
मजिज  मंद  हँसि  झीगुंली  कंगही  केश  सुधारि।
भाल दिठोना अंजि दृग चूमति हृदय उघारि ।।2।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
बाल्यकाल में घुटने के बल चलते हुए बालक पं० रामप्रपन्न तिवारी को लोटा-थाली बजाकर मग्न होकर नाचते हुए देखकर माता अत्यन्त भाव-विभोर हो जाती। चैतमास में अयोध्या के रामघाट पर बालक का मुंडन कराकर ब्राह्मण भोजन का आयोजन कराते हुए मुंडन संस्कार सम्पन्न कराया गया और स्थानीय विभिन्न मनिदरों की परिक्रमा करते हुए अन्त में हनुमान मंदिर की डयोढी पर बालक को लिटाकर उनके आशीर्वाद एवं कृपा की याचना परिजनों द्वारा की गयी। मंदिर से घर वापस आकर नाच-गाने के साथ भण्डारा करके पुन: परिवार में खुशियाँ मनायी गयी। गाव के लोग बालक की तेजस्वी छवि एवं विलक्षण प्रतिभा को देखकर आपस में यही बात करते थे कि ब्राह्मण कुल में इस बालक ने किसी पुण्यात्मा के रूप में जन्म लिया है। कुल पुरोहित पंडित देवानंद ने इस विलक्षण प्रतिभा के बालक को अपने संरक्षण में वेदशास्त्र की विधिवत शिक्षा-दीक्षा आरम्भ की। शिक्षा के पश्चात पं० रामप्रपन्न तिवारी का श्री अजमोद कुमार की पुत्री विलासिनी से विवाह भी कर दिया गया। रियासत ढि़गवस बेंती तथा कालाकांकर द्वारा बार-बार उन्हें पुरोहित के रूप में स्वीकार करने का आमंत्रण भेजा गया किन्तु पं० रामप्रपन्न तिवारी अपनी आर्थिक सिथति अच्छी न होने के बावजूद भी उस आमंत्रण को अस्वीकार करते रहे। राजा कालाकांकर श्री वैरीशाल ने एक दिन स्वप्न देखा कि कोर्इ युवा ब्राह्मण हाथ में लाठी लेकर उनके सामने खड़ा है और पूरा राजमहल आग से जल रहा है। इस दृश्य से राजा की नींद खुली और उन्होंने तत्काल अपने परिजनों को बुलाकर स्वप्न की बात बतायी। राज दरबार के कुछ लोगों ने कुल देवता के रूष्ट होने की बात कही तो कुछ ने इसे केतु-ग्रह का प्रकोप बताया। इस घटना के बाद राजा कालाकांकर वैरीशाल स्वयं गोपालापुर आकर पं० राम प्रपन्न तिवारी से अपनी रियासत के लेखा प्रबन्धन कार्य के रिक्त पद को स्वीकार करने का इस शर्त के साथ यह हठ कर लियाकि जब तक आप कालाकांकर नही चलेंगे तब तक मैं भी आपके पास ही रहूँगा। पं० राम प्रपन्न तिवारी अन्तत: इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए कालाकांकर आकर रियासत के लेखा एवं प्रबन्धन कार्य संभाल लिए। पंडित राम प्रपन्न तिवारी के कालाकांकर आने पर राजा वैरीशाल द्वारा देखे गये स्वप्न अर्थात केतु के प्रकोप से जो अनर्थकारी कि्रयायें हो रही थी वे धीर-धीरे शान्त होने लगी। प्रतिदिन राजा वैरीशाल परिजनों के साथ पंडित जी द्वारा कराये गये पूजा पाठ में समिमलित होने लगे व रामकथा सुनने लगे। ऐसे पुण्यात्मा ब्राह्मण के सानिध्य में राजा वैरीशाल धीरे-धीरे परमार्थ अर्थात अध्यात्म की ओर उन्मुख होने लगे।
     पं० रामप्रपन्न तिवारी प्राय: अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी की आराधना में लीन रहते हुए हदय में भगवान राम व सीता की मनमोहक छवि को संजाये हुए श्री हनुमान की विशेष कृपा प्राप्त कर लिए थे। इसी मध्य एक दिन ऐसा भी आयाजब वे किसी विशेष पूजा में व्यस्त होने के कारण रियासत का कार्य उस दिन नही देख पाये थे। पूजा समापित के पश्चात अपने कर्तव्य का आभास होने पर वे सीधे रियासत के कार्यालय पहुँचकर सहयोगी कर्मचारियों से रियासत की लेखाबही प्रस्तुत करने का आग्रह कियाताकि रियासत के उस दिन का लेेखा-जोखा उसमें अंकित कर सके। पंडित जी के आग्रह पर उनके सहयोगी आश्चर्य प्रकट करते हुए बोल पडे़ कि पंडित जी आप तो प्रातकाल ९:०० बजे ही कार्यालय आ गये थे तथा रियासत के लेन-देन सम्बन्धी निर्देश देते हुए आपने लेखाबही में उनकी प्रविषिट भी कर दी है। सहयोगियों के इस उत्तर पर पंडित जी स्वयं हतप्रभ हो गये एवं उसकी पुषिट के लिए उन्होंने लेखाबही प्रस्तुत करने के निर्देश दिये। लेखाबही प्रस्तुत होने पर उन्होंने जो भी देखा वह किसी चमत्कार से कम न था। उस दिन का सम्पूर्ण लेखा-जोखा रजिस्टर में विधिवत अंकित था तथा प्रत्येक लेन-देन की प्रविषिट पर उनके स्वयं के हस्ताक्षर भी मौजूद थे। ऐसे चमत्कार को देखकर पंडित जी अपने सहयोगियों को अपने-अपने कार्य में लग जाने का निर्देश देते हुए कुछ समय के लिए एकान्त में ध्यान करने लगे। ध्यानावस्था में ही उन्हें यह बोध हुआ कि पूजा कार्य में व्यस्त होने की अवधि में उनके आराध्य देव पवन पुत्र श्री हनुमान स्वयं उनका भेष धारण कर कार्यालय में उपसिथत हुए थे और प्रतिदिन की भाँति कार्यालय का सम्पूर्ण कार्य उनके द्वारा ही संचालित किया गया। इस तथ्य का आभास होने के पश्चात पं० राम प्रपन्न तिवारी की अपने पूज्य एवं आराध्य के प्रति आस्था इतनी दृढ़ हो गयी कि वह कार्यालय से निकलकर सीधे अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गये।
     कालाकांकर से अयोध्या की लगभग २५० कि0मी0 की दूरी पैदल तय करते हुए दूसरे दिन सायंकाल वे सुल्तानपुर के निकट सिथत घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। अंधेरे के कारण उन्हें आगे का मार्ग स्पष्ट दिखायी नही पड़ रहा था। अत: वे किसी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर अपनी थकान मिटाने लगे थे। थोड़ी देर पश्चात उन्होंने श्वेत वस्त्रधारी लम्बे बाल व दाढ़ी से युक्त एक संत वेशधारी ब्राह्मण को देखाजो उनके पास आकर रूक गये एवं कुशल क्षेम पूँछकर उनका आगे का मार्ग प्रशस्त करते हुए कहा कि बेटा तुम इस पगड़ण्डी को पकड़कर सीधे रास्ते पर चलते रहनातीन दिन के पश्चात तुम्हें अयोध्या नगरी मिल जायेगी।
     पंडित जी ने एक लम्बी एवं गहरी श्वास ली तथा ब्राह्मण साधु की कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उनके द्वारा बतायी गयी पगडंडी पर आगे की ओर चलने लगे। रात-दिन जंगल की यात्रा करने के पश्चात प्रात: ६:०० बजे अयोध्या पहुँचने वाले ही थे कि पुन: उपयर्क्त संत वेशधारी ब्राह्मण उनके सामने प्रकट हो गये। हतप्रभ होकर पंडित जी के मुख से अकस्मात यह शब्द निकल पड़ा कि महाराज आप तो सायं काल जंगल के प्रारम्भ में ही मेरा मार्गदर्शन कर दिया था और अब यहाँ कैसे उपसिथत हो गये। साधु ने पंडित जी को आश्वस्त करते हुए कहा कि बेटा अब यहाँ से आगे का मार्ग भी तो तुम्हें बताना था इसीलिए दोबारा आना पड़ा।
     पंडित जी के सिर पर हाथ रखते हुए ब्राह्मण ने कहा कि बेटा तुम चौथे दिन अयोध्या सिथत सूर्यकुंड पहुँच जाओगे और उसी दिन वहाँ बड़ा रविवार का मेला लगा हुआ पाओगे। सूर्यकुंड पहुँचने पर सरजू नदी में स्नान करके कुछ देर वहीं पर विश्राम कर लेना। विश्राम के पश्चात अगले दिन सरजू नदी के श्री रामघाट पर स्नान करके श्री हनुमानगढ़ी मंदिर पर आ जाना और वहाँ संतों से मोदक बाबा का नाम पूँछकर मेरे पास आ जानामैं वहीं पर तुम्हें मिलूँगा। पंडित जी संत वेशधारी (श्री हनुमान) के उपरोक्त आदेश का पालन करते हुए निर्धारित समय पर श्री हनुमानगढ़ी मंदिर पहुँच गये किन्तु पहुँचने से ठीक पांच मिनट पूर्व दोपहर के पूजन के बाद मंदिर का पट बन्द हो चुका था। पंडित जी निराश होकर वहाँ उपसिथत संतो से मोदक बाबा की जानकारी प्राप्त करनी चाही किन्तु कोर्इ भी मोदक बाबा के पास पहुँचने का मार्ग नही बता पाया। निराश होकर के पंडित जी वहीं मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर अपने आराध्य देव का स्मरण करने लगे। इसी समय श्री हनुमान जी ने मंदिर के महाराज बिन्दुक गाधाचार्य स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य (बड़ी जगह) को स्वप्न में पंडित जी के आगमन की सूचना देते हुए उन्हें निर्देशित किया कि वे पंडित जी को तुरन्त अपने पास बुला लें तथा अपने परिकर में समिमलित कर लें। बिन्दुक महाराज अस्वस्थ थे अत: उन्होंने अपने उत्तराधिकारी श्री रघुनाथ प्रसादाचार्य दीनबन्धु महाराज को पंडित जी को सादर अपने पास ले आने की आज्ञा दी। दीनबन्धु जी तुरन्त सीढ़ी पर बैठे हुए पंडित जी को बिन्दुक महाराज के पास ले आये। पंडित जी के आगमन पर मंदिर में एक महोत्सव का आयोजन किया गया और उसी महोत्सव में उनका नामकरण श्री रामचरण दास महाराज कर दिया गया। पं० राम प्रपन्न तिवारी ने गुरूदेव को दंडवत करके श्री हनुमान जी के धाम की सात फेरी परिक्रमा की। गुरूदेव राम प्रसाद ने सभी शिष्यों को बुलाकर मंडप की संरचना करायी और विधि-विधानपूर्वक पंचगव्य के साथ चंदि्रका मुदि्रका रामनाम धनुषबाण आदि चारों संस्कार सम्पन्न कराये।
कहि समुझाय प्रमाण महिमा कंठी तिलक की।
युगल गुरूहिं सनमान पादोदक मुख शिरँधरयो।।
कुसुमन माल प्रसाद उठवत आपुहिं गिर परेऊ।
सदगुरू  राम  प्रसाद  लै उठाय  पहिरायेऊ।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत)
     कालाकांकर से पं० राम प्रपन्न तिवारी के अयोध्या प्रस्थान के पश्चात राजा वैरीशाल अत्यधिक व्यग्र एवं दु:खी रहने लगे थे। ज्योंही उन्हें यह समाचार प्राप्त हुआ कि पंडित जी अयोध्या सिथत बड़ी जगह पहुँच चुके हैं त्योही उन्होंने सपरिवार अयोध्या के लिए प्रस्थान कर दिया। अयोध्या पहुँच  कर गुरू राम प्रसाद जी से पंडित राम प्रपन्न तिवारी जी को वापस कालाकांकर लाने हेतु राजा ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया तथा इसके एवज में उन्होंने बारह सौ रूपये मासिक व साढे़ तीन सौ बीघा जमीन भी देने का प्रस्ताव रखा। इसी मध्य पंडित जी के माता-पिता व ग्राम गोपालापुर के अन्य कुटुम्ब जन भी अयोध्या पहुँच चुके थे। सभी ने पंडित जी को वापस लाने का अथक प्रयास किया। गुरू राम प्रसाद जी अन्तत: सहमत भी हो गये थे किन्तु इसी समय दोपहर के भोजन का समय  हो चुका था। अयोध्या के सभी साधु-संत उपसिथत होकर पंकितबद्ध भोजन कर रहे थे। इसी समय पंडित राम प्रपन्न तिवारी हाथ में एक पत्तल लेकर साधु-संतों की पतरी में बचे हुए जूठन को एकत्रित करके उसका प्रसाद ग्रहण करने लगे। यह दृश्य देखकर पंडित जी के परिवार के लोग विचलित हो गये। उन्होंने पंडित राम प्रपन्न को घर वापस लाने का अपना इरादा बदलकर चुपके से बिना किसी को बताये हुए अयोध्या से गोपालापुर चले आये। अन्त में राजा वैरीशाल भी निराश होकर कालाकांकर लौट आये।
     स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य के संरक्षण में श्रीराम चरणदास ने सदग्रन्थों में छिपे हुए रसभावअनुभाव एवं संचारी भाव को उदघाटित करने हेतु श्रीचारूशीला बाग पहुँच गये। कुछ समय तक वहीं रहते हुए रास विलास की गहराइयों से परिपूर्ण अनेक ग्रन्थों की रचना की और वहीं गुरू श्री हनुमान जी की प्रेरणा से श्रीचारूशीला जी की महती कृपा प्राप्त की। देशाटन के उददेश्य से कुछ समय वाराणसी में तीर्थवास किया तथा पुन: अयोध्या वापस आकर श्रृंगार रस का अवगाहन करते हुए कवित्त अग्रसागर, अग्ररस, मंजूष अग्रसुचंदिका, अग्ररास बिलास, कौमुदि, अग्रयूथ विनोदिका, अग्रसुषमा, अग्रमंजरि, अग्रसेवा, वो रात, अग्रचालीसा, बहार, पियूष, अग्र बड़ा खड़क, अग्ररस की कुंजिका, परिशालिनी, वो बिमासिका, अग्रगीत, तरंग, दर्शन, पदक, अग्रकलापिका, मारतंड, प्रदीप, तन्त्री, कुसुम, दर्पण, अंजना, अग्ररससारी, महोत्सव, परिणयन्न विवेकना आदि की रचना की। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन एक नये पद की रचना करते हुए साधु-संतो के मध्य उसे गा गाकर उन्हें भाव-विभोर करने लगे। बारह वर्ष तक सत्संग करने के पश्चात भक्तमाल कथा का पुराणों से अनुवाद किया। गुरू राम प्रसाद एवं अन्य कतिपय सन्तों के साथ चित्रकूट में कुछ समय तक वास करने के पश्चात पुन: जानकी घाट वापस आ गये तथा श्री हनुमान जी की प्रेरणा से तुलसीकृत रामायण के प्रत्येक काण्ड की संवत-१८६५ में आनंद लहरी नामक टीका की रचना कीजिससे संत समाज अत्यन्त कृतकृत्य हो उठा।
पांच  षष्ठ   वसु   एक   में,  विजयादशमी  भोर ।
आनंद   लहरी   नामकी,   टीका  चली  सुठोर ।।1।।
सकल कांड  एक   संग   में,   टीका   दर्इ   चलाय।
लखि-लखि, सुनि-सुनि मनहिं गुन, संत हृदय हर्षाय।।2।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
शिष्य जीवाराम के अनुरोध पर उन्हें मृदंग वादन करके राम कथा वाचन में प्रवीण किया तथा काशीविन्ध्याचल एवं चित्रकूट से पधारे हुए अनेकानेक शिष्यों को टीका की रसात्मक व्याख्या सुनाकर उन्हें भी पारंगत किया। अन्त में सरजू नदी के किनारे मचान बनाकर तीन दिन तक मानस पाठ, हवन, ब्रह्मभोज आदि का आयोजन करके अत्यधिक प्रसन्नता एवं आलौकिक सुख की प्रापित की। अन्तत: माघ शुक्ल नवमी तिथि संवत-१८८०, सन-१८३४ र्इमें १५० वर्ष की आयु पूर्ण करते हुए करूणामयी दृषिट से अपने चारों ओर बैठे हुए शिष्यों पर एक विहंगम दृषिट डाली और अपने प्रस्थान हेतु आकाश से उतरते हुए एक विमान की ओर इशारा किया और उसी समय अपने दोनों नेत्र सदा के लिए बन्द करके महानिर्वाण की प्रापित की। अत्यधिक संवेदना के साथ भाव-विभोर होते हुए शिष्यों ने उन्हें रसिक विभूति श्री करूणासिन्धु जी महाराज की महाउपाधि से विभूषित करते हुए अपने गुरू अनंत श्री स्वामी श्रीराम चरणदास से अनितम विदा ली।
             माघ शुक्ल नवमी तिथी, वसु वसु वसु शीश शाल।
             सुमन सेज विश्राम लियो, मघ्य दिवस रविमाल।।1।।
             संत रसिक करिहहिं दया, लिखि निज मति अनुसार।
             रास रसिक पढि़हहिं, सुनहिं करूणमाल सुधार।।2।।
                               (श्री करूणामणिमाला से उदघृत)
श्री करुणासिन्धु जी महराज ने नियम एवं संयमपूर्ण जीवन जीते हुए १५० वर्ष की आयु में समाधिस्थ होकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। गोस्वामी तुलसीदासजी कृत रामचरितमानस पर अपनी भावपूर्ण गम्भीर टीका लिखते हुए उन्होंने प्रथम टीकाकार होने का गौरव प्राप्त किया। श्री राम एवं जानकी की भक्ति को एक नया आयाम देते हुए एक रसिकपीठ की स्थापना करके उन्होंने भक्तों एवं साधु-सन्तों को एक नई दिशा व भावभूमि प्रदान की जो आज तक उसी दिशा में उत्तरोत्तर अग्रसर है। उनके पांडित्य एवं चमत्कारी शक्तियों की अनेकों कथाएं सुनने को मिलती हैं। कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल सम्राट औरंगजेब का काफिला एक दिन अयोध्या शहर से होकर गुजर रहा था। काफिले का नेतृत्व कर रहे मुगल सिपाहियों ने सम्राट के जाने का रास्ता बनाने हेतु सभी को रास्ते से दूर हो जाने का संकेत देते हुए आगे बढ़ रहे थे तभी रास्ते के बगल में स्थित एक खण्डहर की दीवार पर बैठकर दातुन करते हुए करुणासिन्धु पर उनकी नजर पड़ी तो उन्होंने करुणासिन्धु जी को भी रास्ते से हटने को कहा। यद्यपि करुणासिन्धु जी रास्ते के किनारे पर थे किन्तु मुगल सिपाहियों के इस धृष्टता पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि वे रास्ते से दूर हैं अतः आपलोग आसानी से जा सकते हैं। यह सुनकर मुगल सिपाही आग बबूला हो गया और उसने अपशब्दपूर्ण भाषा में पुनः उनसे हटने को कहा। करुणासिन्धु ने उसके अन्यायपूर्ण कृत्य का प्रतिकार करते हुए अपनी दातून को दो तीन बार उसी खण्डहर की दीवार पर पटका तो दीवार स्वतः आगे बढ़कर बीच रास्ते में आ गयी। यह देखकर मुगल सिपाही हतप्रभ हो गया और दौड़कर उसने सम्राट औरंगजेब को इस आश्चर्यपूर्ण घटना की जानकारी दी तो सम्राट स्वयं वहां पर आकर उसका निरीक्षण करना चाहा। कहते हैं कि जब सम्राट करुणासिन्धुजी के निकट पहुंचे तब उस खण्डहर को बीच रास्ते में स्थित देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो गए और नतमस्तक होते हुए करुणासिन्धु जी से दीवार हटाने का अनुरोध किया। सम्राट के इस अनुरोध पर करुणासिन्धु जी ने अपनी दातून से उस दीवार पर पुनः प्रहार किया तो दीवार अपने यथास्थान पर आ गयी। औरंगजेब यद्यपि हिन्दू धर्म का कट्टर विरोधी था किन्तु करुणासिन्धु जी की अलौकिक शक्तियों ने उसे नतमस्तक होने पर विवश कर दिया था। 
करुणासिन्धु जी की पावन सरयू के प्रति अटूट आस्था थी। इसीलिए वे प्रतिदिन सरयू नदी में स्नान करने के पश्चात ही अपनी दिनचर्या आरम्भ किया करते थे। जीवन के अंतिम दिनों में वे अशक्त व कमजोर हो गए थे जिसके कारण वे किसी के सहारे सरयू तक पहुँच पाते थे। एकदिन वे अस्वस्थतावश सरयू स्नान हेतु अपने निर्धारित समय पर नहीं जा पाए तो वे चिन्तित हो उठे। इसी समय उन्हें एक दिवास्वप्न के माध्यम से सरयू जी के दर्शन हुए तो उन्होंने अपनी असमर्थता पर उनसे क्षमा मांगी। सरयू जी ने उनसे कहा --वत्स ,अधीर न हो और न ही क्षमा मांगने की आवश्यकता है। कहते हैं कि उसी समय सरयू जी एक धारा जानकीघाट तक स्वयं आयी और करुणासिन्धु जी ने भावविह्वल होकर उस धारा में विधिवत स्नान किया और मां सरयू का कोटिशः आभार व्यक्त किया।
करुणासिन्धु महराज ने अपने जीवनकाल में अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी किन्तु उनकी पांडुलिपियां सम्प्रति सुरक्षित नहीं हैं ,केवल रामचरितमानस पर लिखी गयी उनकी टीका की पाण्डुलिपि ही उपलब्ध है जिसका प्रकाशन वर्तमान रसिकाचार्य जनमेजय शरण जी महराज द्वारा कराया जा रहा है। जानकीघाट बड़ा स्थान श्री अयोध्या स्थित जानकी मन्दिर का निर्माण उनके द्वारा ही करवाया गया था और उसमे तत्समय आरम्भ की गयी आरती,संकीर्तन और भण्डारा आज भी यथावत जारी है। माह अप्रैल २०१५ में करुणासिन्धुजी महराज की जन्मभूमि ग्राम गोपालापुर ,कुंडा प्रतापगढ़ में उनकी पूण्य स्मृति में एक नवकुंडीय श्रीराम महायज्ञ सम्पन कराकर उनके छठें उत्तराधिकारी जनमेजय शरण जी महराज ने अपने गुरु के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा एवं भक्ति का परिचय दिया।