सन्त कबीर जी वैष्णव सन्त माने जाते हैं जैसाकि उन्होंने स्वयं कहा है :-
मेरे संगी द्वी जणा, एक वैष्णव एक राम।
वो हैं दाता मुक्ति का ,वो सुमिरावै राम।
यद्यपि कबीर के जन्म के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है तथापि उनके शिष्य धर्मदास का उनके जन्म से सम्बन्धित निम्न दोहा अवलोकनीय है :-
चौदह सौ पचपन साल गए चन्द्रवार एक ठाठ ठये।
जेठ सुदी बरसायत को,पूरनमासी तिथि प्रगट भये।
घन गरजे दामिनि दमकै ,बूँदें बरशैं झर लाग गए।
लहर तालाब में कमल खिले ,तँह कबीर भानु प्रगट हुए।
उपर्युक्त पद के अनुसार कबीरदास जी का जन्म संवत १४५६ ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा दिन चन्द्रवार माना जाता है। किंवदन्तियों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे। कहा जाता है कि स्वामीजी ने भूलवश उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। उस ब्राह्मणी ने लोकापवाद से बचने हेतु बालक को लहरतारा ताल के सन्निकट फेंक आयी थी। संयोगवश नीरू नामक एक जुलाहा अपनी पत्नी नीमा के साथ वहां से गुजर रहा था तो उसने उस बच्चे को रोता हुआ देखकर उठा लिया और अपने घर लाकर पुत्रवत उसका लालन पालन करने लगा। यद्यपि कबीर ने अपने को विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म लिया हुआ नहीं माना है बल्कि अपनी रचनाओं में उन्होंने अपने को जुलाहा व बनारस का रहने वाला ही बताया है :-
जाति जुलाहा मति को धीर,हरषि हरषि गुण रमें कबीर।
मेरे राम अभैपद नगरी,कहै कबीर जुलाहा।
तू ब्राह्मन, मैं काशी का जुलाहा।
यद्यपि कबीर ब्राह्मण पुत्र होने की कामना अवश्य करते थे तभी तो उन्होंने कहा है :-
पूरब जन्म हम ब्राह्मन होते,बोये करम तप हीना।
रामदेव की सेवा चूका,पकरि जुलाहा कीना।
ग्रन्थ साहिब में कबीर के जीवन के सम्बन्ध में एक दोहा उदघृत है जिसमें वे कहते हैं :-
" पहले दर्शन मगहर पायो,पुनि काशी बस आयी।"
कुछ लोग कबीर को नीरू और नीम का औरस पुत्र बताते हैं परन्तु यह कथन प्रामाणिक नहीं प्रतीत होता। अतः उनका जन्म ब्राह्मण कुल में और लालन पालन जुलाहे द्वारा किया जाना तर्कसंगत प्रतीत होता है क्योंकि कबीर ने स्वयं कहा है :-जाति जुलाहा नाम कबीरा ,बनि बनि फिरो उदासी।
कबीरपंथियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में खिले हुए कमल के फूल के ऊपर एक बालक के रूप में हुई थी। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म का ज्ञान हुआ। कबीर हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोगों को उनके अन्धविश्वासों के विरुद्ध अपना तर्कपूर्ण अभिमत देते हुए उसे भजन के माध्यम से गा गाकर सुनाया करते थे। इसी बीच उन्हें यह आभास हुआ कि बिना गुरु से दीक्षा लिए हुए शायद उनके उपदेश सार्थक नहीं हो पाएंगे अतः वे काशी के प्रसिद्ध गुरु स्वामी रामानंद के पास गए और उनसे शिष्य बनाने का अनुरोध किया। रामानन्द जी को जब यह ज्ञात हुआ कि कबीर मुसलमान है तो वे दीक्षा देने को सहमत नहीं हुए। इसके बाद कबीर को एक युक्ति सूझी और रामानन्द जी जप ब्रह्ममुहूर्त में गंगा स्नान करके वापस आ रहे थे तो इसके पूर्व ही कबीर घाट की सीढ़ियों पर चुपचाप लेट गए और ज्योंहि स्वामी रामानन्द सीढ़ी पर अपना पैर रखे तो उनका पैर कबीर के सिर पर पड़ गया और स्वामी जी के मुख से अकस्मात राम राम शब्द निकल पड़ा। उसी राम शब्द को कबीर ने दीक्षामंत्र मान लिया और स्वामी जी को अपना गुरु मानते हुए वे उठकर स्वामीजी के पैर पकड़ लिए। कबीर ने स्वयं यह स्वीकार किया है तभी तो उन्होंने कहा है :-हम काशी में प्रगट भये हैं ,रामानंद चेताये। इसके बाद कबीर ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटाकर हिन्दू-भक्तों तथा मुस्लिम फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया। उन्होंने कहा है :-
हम भी पाहन पूजते ,होते बन के रोझ।
सतगुरु की किरपा भई,डारया सिर थैं बोझ।
सेवें सालिगराम हूँ, मन की भ्रांति न जाइ ।
सीतलता सुपिनै नहीं,दिन दिन अधकी लाइ।
सेवें सालिगराम हूँ, मन की भ्रांति न जाइ ।
सीतलता सुपिनै नहीं,दिन दिन अधकी लाइ।
कबीरपंथी इन्हें बाल-ब्रह्मचारी मानते हैं तथा कामात्य उनके शिष्य एवं कमाली और लोई इनकी शिष्या थी। बाद में सुरतगोपाल और धर्मदास दो शिष्य बने। कहते हैं कि धर्मदास पहले मूर्तिपूजक थे किन्तु बनारस में कबीर से मिलने एवं उनकी फटकार के बाद वे उनसे सहमत हो गए थे। लोई के सम्बन्ध में कुछ लोग इसे इनकी पत्नी बताते हैं तो कुछ लोग शिष्या। कबीर ने अपने दोहे में कहा है :-
रे यामे क्या मेरा क्या तेरा,लाज न मरहिं कहत घर मेरा।
कहत कबीर सुनहुँ रे लोई,हम तुम बिनसि रहेगा सोई।
उक्त दोहे में कबीर और लोई का एक घर होना स्वीकार किया गया है इससे स्पष्ट है कि लोई उनकी पत्नी ही थी। चूँकि कबीर ने कामिनी की निंदा भी अपने दोहों में की है ,सम्भवतः इसीलिए लोग उसे उनकी शिष्या बताते हैं। कहा जाता है कि लोई एक वनखण्डी वैरागी की परिपालिता कन्या थी जो उन्हें किसी नदी के किनारे स्नान करते समय मिली थी। लोई में लिपटी होने के कारण उन्होंने उसका नाम लोई रखा था और पुत्री समझकर उसका पालन पोषण किया था। वैरागी की मृत्यु के बाद एक दिन कबीर कई अन्य सन्तों के साथ उनकी कुटिया पहुंचे तो लोई ने उन्हें दूध पिने को दिया था। अन्य सन्तों ने तो दूध पि लिया था किन्तु कबीर ने दूध यह कहते हुए नहीं पिया कि एक सन्त अभी आने वाले हैं, अतः यह दूध उन्हें ही दे दूंगा। थोड़ी देर बाद वास्तव में एक सन्त आ गए तो लोई को आश्चर्य हुआ और उसने कबीर को सिद्धपुरुष मानते हुए तभी से उनके साथ हो ली थी। लोई से जन्मे पुत्र कमाल के सम्बन्ध में कबीर ने स्वयं कहा है :-
डूबा वंश कबीर का , अरु उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाड़ि के ,घर ले आया माल।
कबीर के सिद्धपुरुष होने के बारे में कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। कहते हैं कि सिकन्दर लोधी के दरबार में कबीर पर अपने को ईश्वर कहने का अभियोग लगाया गया था उर काजी ने उन्हें काफिर बताकर मृत्युदण्ड दिए जाने की अपील की थी। लोधी ने उन्हें बेड़ियों में जकड़कर नदी में फेंकवा दिया था तब कबीर उस नदी से किसी प्रकार बाहर निकल आये थे। तब काजी ने उन्हें अग्निकुंड में डलवाया किन्तु आग के स्वयं बुझ जाने से वे फिर बच निकले थे।इसके बाद उनको मस्त हाथी के सामने छोड़ा गया तो हाथी भी अपनी सूंड उठाकर उनका अभिवादन करते हुए आगे निकल गया था।
कबीर का सम्पूर्ण जीवन अंधविश्वासों का विरोध करते हुए बीता। उन्होंने अपनी मृत्यु से भी यही उम्मीद कर रखी थी। काशी जो मोक्षपुरी मानी जाती है ,की अपेक्षा वे मगहर में मरना पसन्द करते थे। कहते हैं कि वे मृत्यु के पूर्व मगहर चले गए थे क्योंकि वे अपनी भक्ति के कारण ही मुक्ति की कामना करते थे। उन्होंने कहा भी है ;-
" जौ काशी तन तजै कबीरा,तौ रामहिं कहा निहोरा। "
कबीर का यह कथन उनकी मृत्यु के पूर्व का था। अपनी मुक्ति के सम्बन्ध में उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं था क्योंकि उन्हें परमात्मा की सर्वज्ञता में अटल विश्वास था। उनकी अंत्येष्टि क्रिया के सम्बन्ध में कहतें हैं कि हिन्दू उनका अग्नि संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान उन्हें कब्र में गाड़ना चाहते थे। इस पर दोनों में लड़ाई भी हुई थी किन्तु इसी बीच कबीर की आत्मा से एक आवाज आयी कि लड़ो मत ,कफ़न उठाकर देखो। लोगों ने कफ़न उठाया तो शव के स्थान पर पुष्पराशि दिखाई पड़ी जिसे हिन्दुओ एवं मुसलमानों ने आधा आधा बाँट लिया था और अपनी अपनी रीति के अनुसार उनकी अंत्येष्टि की थी।
ब्रह्म -उपासना :-
कबीर के राम ब्रह्म थे क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा है :-निरगुन राम, निरगुन राम जपहुँ रे भाई। उनकी राम-भावना भारतीय ब्रह्म- भावना से मेल कहती है। उनके लिए निर्गुण भावना भी स्थूल भावना ही है जो मूर्तिपूजकों के सगुण भावना से सर्वथा पृथक थी। वे तो राम को निर्गुण और सगुण दोनों के परे मानते हैं। उनके ही शब्दों में :--
ऊला एकै नूर उपनाया ,ताकी कैसी निन्दा।
ता नूर थै सब जग कीया ,कौन भला कौन मन्दा।
उक्त कथन मुस्लिम भावना की समर्थक नहीं है क्योंकि उन्होंने ही आगे यह भी कहा है :--
खालिक खलक ,खलक में खालिक ,सब घट रह्यो समाई।
कबीर केवल शब्दों को लेकर विवाद नहीं उत्पन्न करते थे बल्कि उन्होंने अपने भाव व्यक्त करने के लिए उर्दू,फ़ारसी और संस्कृत सभी के शब्दों का यथास्थान उपयोग किया है। ब्रह्म के लिए वे राम ,रहीम,अल्ला,सत्यनाम,गोव्यंद,साहब आदि शब्दों का प्रयोग कई स्थानों पर किया है। कबीर का तत्वज्ञान दार्शनिक ग्रंथों के अध्ययन का परिणाम नहीं है बल्कि वह उनकी अनुभूति और सारग्राह्यता का प्रसाद है। वे अपढ़ अवश्य थे किन्तु अनुभव प्राप्त करके वे परमज्ञानी कहलाये थे।"मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ " कहकर उन्होंने इसकी पुष्टि कर दी थी। उन्होंने हिन्दू-सन्तों और मुस्लिम फकीरों सभी का समागम किया था इसीलिए उनकी अनुभूतियों में दोनों के भाव परिलक्षित होते हैं। उनकी अनुभूतियों में ब्रह्मवाद का पूरा तानाबाना देखने को मिलता है जो मुस्लिम एकेश्वरवाद से भी मेल कहती है। कबीर जीवात्मा,परमात्मा और जड़जगत तीनों की भिन्न सत्ता मानते हैं जबकि ब्रह्मवाद शुद्ध आत्मतत्व अर्थात चैतन्य के अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व नहीं मानता। उनके अनुसार आत्मा भी परमात्मा ही है और जड़जगत भी ब्रह्म ही है। अन्ततः उन्होंने कहा कि ब्रह्म ही जगत में एकमात्र सत्ता है। ब्रह्म से ही सभी की उत्पत्ति होती है और अंत में सभी उसी में विलीन हो जाते हैं। उनके ही शब्दों में :-
पाणी हि ते हिम भया ,हिम ह्वै गया विलाई।
जो कुछ था सोई भय ,अब कुछ कहा न जाइ।
सर्वव्यापी ब्रह्म जब अपनी लीला आरम्भ करता है तब इस नामरूपात्मक जगत की सृष्टि होती है और इच्छा मात्र होने पर वह इसे अपने में ही विलीन भी कर लेते हैं। उन्होंने कहा है :-
इन मैं आप आप सबहिन में ,आप आप सूं खेलै।
नाना भांति खड़े सब भाड़े, रूप धरे धरि मेलै।
वेदांत में नाम रूपात्मक जगत से ब्रह्म का सम्बन्ध कई प्रकार से प्रकट किया गया है जिसमें प्रतिबिम्बवाद भी एक है जिसका संकेत कबीर ने अपने इस दोहे में स्पष्ट रूप से किया है :-
खण्डित मूल विनास कहौ, किम विगतह कीजै।
ज्यूँ जल में प्रतिबयम्ब ,तयूँ सकल रामहिं जाणी जै।
अर्थात जो पिंड में है वही ब्रह्माण्ड में भी है। इसे व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है ;-
व्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई ,वाकै आदि अरु अंत न होइ।
व्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जै कथिये,कहे कबीर हरि सोई।
आगे चलकर उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा --
जैसे जलहिं तरंग तरंगनी ऐसे हम दिखलावहिगे।
कहै कबीर स्वामी सुखसागर ,हँसहिं हँस मिलावहिंगे।
इसी कथन को उन्होंने भारतीय दर्शन की पद्धति में इस प्रकार कहा है :=
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है ,बाहरि भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना,यहु तत कथौ गियानी।
अर्थात यह नाना रूपात्मक जगत जो चरम चक्षुओं से दिखलायी पड़ता है ,वह जल में स्थित एक घड़ा है जिसके बाहर भी ब्रह्म रूपी जल है और अंदर भी बाह्य रूप का नाश हो जाने पर घड़े के अंदर का जल जिस प्रकार बाहर वाले जल में मिल जाता है ,उसी प्रकार बाह्य रूप के आभ्यंतर का ब्रह्म भी अपने बाह्यस्थ ब्रह्म में समै जाता है। इस प्रकार कबीर ने यह कहने का प्रयास किया है कि जो कुछ भी हमें दिखाई पड़ता है वह मायात्मक भ्रांतिज्ञान है। कबीर के शब्दों में :-
"संसार ऐसा सुपिन जैसा जीव न सुपिन समान।"
अर्थात जो मनुष्य माया के इस प्रसार को सच्चा समझकर उसमें लिप्त रहता है उसे शुद्ध हंस स्वरूप जीव अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती है। वे संसार का समस्त दुःख मायाकृत मानते हैं। इसका ज्ञान उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने माया के आवरण को हटा दिया है। माया में पड़े हुए लोग इस दुःख को ही सुख समझ लेते हैं। कबीरदास जी ने कहा है :-
सुखिया सब संसार है ,खावै अरु सोवै। दुखिया दास कबीर हैं ,जागै अरु रोवै।
कबीर का दुःख अपने लिए नहीं है ,वे अपने लिए रट भी नहीं बल्कि संसार के लिए रोते हैं। साईं को पाने के लिए ममता को छोड़ना वे आवश्यक बताते हैं ;-
"जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नाहिं"यह कहते हुए उन्होंने माया के परित्याग की आवश्यकता पर बल दिया। माया की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि :-
मीठी मीठी माया तजी न जाई। अग्यानी पुरिष को भोलि भोलि खाई।
माया को और अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :-
माया दीपक नर पतंग,भ्रमि भ्रमि इवैं पड़ंत। कहै कबीर गुर ग्यान थैं,एक आध उबरंत।
कर्मकांड की कबीर आलोचना करते थे क्योंकि परमात्मा की भक्ति का सम्बन्ध वे मन से मानते हैं। मन की भक्ति तन को स्वयं ही अपने अनुकूल बना लेती है। भक्ति की सच्ची भावना होने से कर्म भी अनुकूल होने लगेंगे परन्तु केवल बाहरी माला जपने अथवा पूजापाठ करने से कुछ नहीं होता है। यह तो माया के और अधिक निकट जाना है। उन्होंने कहा है :-
जप तप पूजा अरचा जोतिग जग बौराना।
कागद लिखि जगत भुलाना ,मन ही मन न समाना।
इसीलिए कबीर" कर का मनका छाड़ि कै,मन का मनका फेर "का उपदेश दिया है। माया का दूसरा नाम उन्होंने अज्ञानता बताया है। दर्पण पर जिस प्रकार काई लग जाती है ,ठीक उसी प्रकार आत्मा पर अज्ञानता का आवरण पड़ जाता है जिससे आत्मा में परमात्मा का दर्शन नहीं हो पता है। तभी तो उन्होंने कहा है :-
जौ दरसन देख्या चाहिए,तो दरपन मंजत रहिये।
जब दरपन लागै काई, तब दरसन दिया न जाई।
दर्पण का यही मांजना हरिभक्ति करना है। भक्ति से ही मायाकृत अज्ञान दूर होता है और ज्ञान प्राप्ति के द्वारा अपने पराये का भेद मिटता है। कबीर का प्रेम मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि सृष्टि के सभी जीव जन्तु उसकी सीमा के अंदर आ जाते हैं। उन्होंने कहा भी है कि "सबै जीव साईं के प्यारे हैं "कबीर का यह प्रेम तत्व जिसका ऊपर निरूपण किया गया है ,सूफियों के संसर्ग का प्रतिफल है किन्तु उसमें भी उन्होंने भारतीयता का पुट दे दिया है। सूफी परमात्मा को प्रियतमा के रूप में देखते हैं परन्तु कबीरदास जी ने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है। इस प्रकार निर्गुणवाद और सगुणवाद की एकेश्वरवाद से बाहरी समता रखनेवाली बातों के सम्मिश्रण और उसके प्रेमतत्व के योग से कबीर की भक्ति का निर्माण हुआ है। कबीर का विश्वास है कि भक्ति से मुक्ति हो जाती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि "कहै कबीर संसा नाहीँ भगति मुगति गति पाई रे। "आगे उन्होंने फिर कहा कि "जब लग हैं बैकुंठ की आसा। तब लग हरि चरन निवासा। "ब्रह्म को उन्होंने लौकिक वासनाओं से पर माना। व्यक्तिगत उच्चतम साधना से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है।मनुष्य की आत्मा ब्रह्म के साथ एकीकृत करते हुए उन्होंने आत्मा को भी अमर बताया। तभी तो उन्होंने कहा है :-
हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं,हरि न मरै हम काहे कू मरिहैं।
उनके अनुसार मनुष्य आत्मोत्सर्ग की इस उत्कृष्टता को प्राप्त कर तब उसके लिए प्रेम ही अमृत बन जाता है। "नीझर झरै अमीरस निकलै तिहि मदिरावलि छाका " अर्थात इस प्रेम रुपी मदिरा को मनुष्य यदि एक बार भी पी लेता है तो आजीवन उसका नशा नहीं उतरता और अपने तन मन की सुध भी भूल जाता है :-
हरि रस पीया जानिए,कबहुँ न जाये सुखार।
मैं मन्ता घूमत रहे,नाहीं तन की सार।
जाति -पांत की प्रचलित व्यवस्था पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा है "कहै कबीर एक राम जपहुँ रे,हिन्दू तुरक न कोई "कबीर का यह प्रेम तत्व सूफियों के सत्संग का सुपरिणाम कहा जा सकता है। उन्होंने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है। कबीर अवतारवाद एवं मूर्तिपूजा के प्रबल विरोधी थे किन्तु हिन्दूधर्म के अन्य तथ्यों से वे सहमत भी थे। माता के रूप में परमात्मा को मान्यता देते हुए वे कहते हैं :-
हरि जननी मैं बालिक तेरा,कस नहिं बकसहुँ अवगुन मेरा।
कबीरदास ने धार्मिक तथ्यों की पुष्टि हेतु व्यवहारों का भी आश्रय लिया है। कबीर स्वतन्त्र प्रकृति के थे फिर भी जिस सत्य को वे धर्म मानते थे वह सभी धर्मों में विद्यमान है। मिथ्या विश्वास या पाखण्ड से आवृत होने दिखलाई है। कबीर ने समाज सुधर हेतु केवल अपनी वाणी का उपयोग किया है। वे आडम्बर के विरोधी थे। मूर्तिपूजा को लक्ष्य करती एक साखी इस प्रकार है :-
पाहन पूजे हरि मिलै ,तो मैं पूजौं पहार। था ते तो चाकी भली,जासे पीसी खाय संसार।
कबीर ने गजल,कुंडलियां,और भजन भी गा गाकर लोगों को सुनाया था। उनका एक प्रसिद्ध भजन इस प्रकार है :- उमरिया धोखे में खोय दियो रे।
पांच बरस का भोला भाला ,बीस में जवान भयो।
तीस बरस में माया के कारण, देश विदेश गयो।
चालिस बरस अंत अब लागे,बाढ़े मोह गयो।
धन धाम पुत्र के कारण,जिस दिन सोच भयो।
कबीर का रहस्यवाद :-
कबीर रहस्यवादी कवि हैं। रहस्यवाद के मूल में अज्ञात शक्ति की जिज्ञासा काम करती है। उस अज्ञात शक्ति को जानने की इच्छा सदैव मनुष्य को रही है और आगे भी रहेगी परन्तु वह शक्ति स्पष्टता से नहीं दिखाई दे सकती जिस प्रकार जगत के अन्य दृश्य रूप। कबीर ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि परमात्मा का प्रेम और उसकी अनुभूति गूंगे को गुड़ खिलाने जैसा है :-
अकथ कहानी प्रेम की,कछु कही न जाइ।
गूंगे केरी सरकरा,बैठि बैठि मुसकाइ।
तजि बावैं दाँहिनैं बिकार,हरिपद दिढ करि गहिये।
कहैं कबीर गूँगे गुड़ खाया,बूझै तो का कहिये।
यही रहस्यवाद का मूल है। वेद एवं उपनिषदों में रहस्यवाद की झलक विद्यमान है। गीता में भी भगवान के मुंह से उनकी विभूति का जो वर्णन कराया गया है ,वह भी अत्यंत रहस्यपूर्ण है। सर्वात्मवादमूलक रहस्यवाद में माधुर्य भाव का उदय हुआ है जो कबीर और अन्य सूफी कवियों में भी देखा जाता है। वैष्णवों एवं सूफियों की उपासना माधुर्य भाव से युक्त होती है। दार्शनिकों ने भी परमात्मा को पुरुष और जगत को स्त्रीरूपा प्रकृति कहा है। मीराबाई ने तो केवल कृष्ण को ही पुरुष माना है। कबीर भी कहते हैं :-
कहैं कबीर व्याहि चले हैं पुरिष एक अविनासी। आगे उन्होंने फिर कहा है कि "सखी सुहाग राम मोहिं दीन्हा।" यह तो जीवात्मा का परमात्मा में लगन लगाने का प्रारम्भिक रूप है। इसे व्याह के पहले का पूर्वानुराग समझना चाहिए। परमात्मा के वियोग से जनित सारी सृष्टि का दुःख कितना गहन होकर कबीर के हृदय में समाया है। "वै दिन कब आवेंगे भाई" तथा "जा कारनि हम देह धरी है,मिलिबौ अंग लगाई। "यहां पर जीवात्मा के परमात्मा से मिलने की आकुलता की ओर संकेत किया गया है। इसी सन्दर्भ में कबीरदास जी ने कहा है :-
मो को कहाँ ढूँढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल,ना मैं मसजिद,ना काबे कैलास में।
निर्गुण और सगुण ब्रह्म में एकरूपता स्थापित करते हुए वे कहते हैं :-
निर्गुण मेरा बाप ,सगुण मेरी महतारी। काकौ निंदौ काकौ वंदौं दोनों पलड़े भारी।
संसार की नश्वरता के सम्बन्ध में कितना प्रभावशाली आभास इस दोहे के माध्यम से कहा है :-
मालन आवत देखि करि,कलियाँ करी पुकार।
फूले फूले चुन लिए,काल्हि हमारी बार।
कबीर ने अपनी उक्तियों पर बाहर से अलंकारों का मुलम्मा नहीं चढ़ाया है बल्कि जो अलंकार उनमें मिलते हैं वे उन्होंने खोज खोजकर नहीं बैठाये हैं। कबीरदास जी छंदशास्त्र से अनभिज्ञ थे। यहां तक कि वे दोहों को पिंगल की खराद पर भी न चढ़ा सके। डफली बजाकर गाने में जो शब्द जिस रूप में निकला वही काव्य बनता गया।मात्राओं के घट बढ़ जाने की चिंता करना व्यर्थ था। चूँकि कबीर में प्रतिभा थी और मौलिकता भी इसीलिए उनके उपदेश स्वयं काव्य का रूप लेते गए। शब्दों को उन्होंने तोडा मरोड़ा भी खूब है। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में अक्खड़पन भी है और साहित्यिक कोमलता भी। कबीर का काव्य मुक्तक के अंतर्गत आता है। नानक,दादू,सुन्दरदास आदि ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्त कवियों में कबीर आगे दिखाई पड़ते हैं क्योंकि इन सभी ने कबीर की पुनरावृत्ति अपने काव्य में की है। नीतिकाव्य की सफलता की कसौटी उसकी सर्वप्रियता है और इनके नीतिकाव्य की सर्वप्रियता किसी अन्य को नहीं प्राप्त हुई प्रतीत होती है। कहीं कहीं तो दोहे को ज्यों का त्यों रहीम ने अपना लिया है। उदाहरणार्थ
कबीर यह घर प्रेम का,खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथ करि सो पैसे घर माँहि। ----कबीरदास
रहिमन घर है प्रेम का खला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुई धरे सो जावे घर माहिं। --- --रहीम
रहस्यवादी कवियों में कबीर का स्थान सबसे ऊँचा है। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है। प्रेमाख्यानक कवियों का रहस्यवाद तो उनके प्रबन्ध के बीच बीच में बहुत जगह उथला सा लगता है। कबीर ने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखे बल्कि उनके मुख से कहे गए और उनके शिष्यों द्वारा संकलित किये गए दोहे ही कबीर साहित्य के अंग बन गए। । वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है जिनके तीन भाग साखी ,शबद और रमैनी हैं। कबीर के समय में हिन्दू जनता पर मुस्लिम शासकों का कहर छाया हुआ था किन्तु कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनका अनुसरण करने लगी थी। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था औए वे अहिंसा,सत्य,सदाचार आदि के प्रशंसक भी थे।११९ अवस्था में संवत १५७५ में मगहर में कबीर का देहांत हुआ था।कबीर का पूरा समय मगहर में ही गुजरा लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। "अब कहुँ राम कवन गति मोरी ,तजिले बनारस मति भई मोरी"द्वारा उन्होंने इसकी पुष्टि भी कर दी है। कबीरदास जी का व्यक्तित्व सन्त कवियों में अद्वितीय है और हिंदी साहित्य के १२०० वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रभावशाली व्यक्तित्व किसी अन्य कवि का नहीं दृष्टिगत होता है।
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महाप्रभु चैतन्य
ब्रह्म -उपासना :-
कबीर के राम ब्रह्म थे क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा है :-निरगुन राम, निरगुन राम जपहुँ रे भाई। उनकी राम-भावना भारतीय ब्रह्म- भावना से मेल कहती है। उनके लिए निर्गुण भावना भी स्थूल भावना ही है जो मूर्तिपूजकों के सगुण भावना से सर्वथा पृथक थी। वे तो राम को निर्गुण और सगुण दोनों के परे मानते हैं। उनके ही शब्दों में :--
ऊला एकै नूर उपनाया ,ताकी कैसी निन्दा।
ता नूर थै सब जग कीया ,कौन भला कौन मन्दा।
उक्त कथन मुस्लिम भावना की समर्थक नहीं है क्योंकि उन्होंने ही आगे यह भी कहा है :--
खालिक खलक ,खलक में खालिक ,सब घट रह्यो समाई।
कबीर केवल शब्दों को लेकर विवाद नहीं उत्पन्न करते थे बल्कि उन्होंने अपने भाव व्यक्त करने के लिए उर्दू,फ़ारसी और संस्कृत सभी के शब्दों का यथास्थान उपयोग किया है। ब्रह्म के लिए वे राम ,रहीम,अल्ला,सत्यनाम,गोव्यंद,साहब आदि शब्दों का प्रयोग कई स्थानों पर किया है। कबीर का तत्वज्ञान दार्शनिक ग्रंथों के अध्ययन का परिणाम नहीं है बल्कि वह उनकी अनुभूति और सारग्राह्यता का प्रसाद है। वे अपढ़ अवश्य थे किन्तु अनुभव प्राप्त करके वे परमज्ञानी कहलाये थे।"मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ " कहकर उन्होंने इसकी पुष्टि कर दी थी। उन्होंने हिन्दू-सन्तों और मुस्लिम फकीरों सभी का समागम किया था इसीलिए उनकी अनुभूतियों में दोनों के भाव परिलक्षित होते हैं। उनकी अनुभूतियों में ब्रह्मवाद का पूरा तानाबाना देखने को मिलता है जो मुस्लिम एकेश्वरवाद से भी मेल कहती है। कबीर जीवात्मा,परमात्मा और जड़जगत तीनों की भिन्न सत्ता मानते हैं जबकि ब्रह्मवाद शुद्ध आत्मतत्व अर्थात चैतन्य के अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व नहीं मानता। उनके अनुसार आत्मा भी परमात्मा ही है और जड़जगत भी ब्रह्म ही है। अन्ततः उन्होंने कहा कि ब्रह्म ही जगत में एकमात्र सत्ता है। ब्रह्म से ही सभी की उत्पत्ति होती है और अंत में सभी उसी में विलीन हो जाते हैं। उनके ही शब्दों में :-
पाणी हि ते हिम भया ,हिम ह्वै गया विलाई।
जो कुछ था सोई भय ,अब कुछ कहा न जाइ।
सर्वव्यापी ब्रह्म जब अपनी लीला आरम्भ करता है तब इस नामरूपात्मक जगत की सृष्टि होती है और इच्छा मात्र होने पर वह इसे अपने में ही विलीन भी कर लेते हैं। उन्होंने कहा है :-
इन मैं आप आप सबहिन में ,आप आप सूं खेलै।
नाना भांति खड़े सब भाड़े, रूप धरे धरि मेलै।
वेदांत में नाम रूपात्मक जगत से ब्रह्म का सम्बन्ध कई प्रकार से प्रकट किया गया है जिसमें प्रतिबिम्बवाद भी एक है जिसका संकेत कबीर ने अपने इस दोहे में स्पष्ट रूप से किया है :-
खण्डित मूल विनास कहौ, किम विगतह कीजै।
ज्यूँ जल में प्रतिबयम्ब ,तयूँ सकल रामहिं जाणी जै।
अर्थात जो पिंड में है वही ब्रह्माण्ड में भी है। इसे व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है ;-
व्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई ,वाकै आदि अरु अंत न होइ।
व्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जै कथिये,कहे कबीर हरि सोई।
आगे चलकर उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा --
जैसे जलहिं तरंग तरंगनी ऐसे हम दिखलावहिगे।
कहै कबीर स्वामी सुखसागर ,हँसहिं हँस मिलावहिंगे।
इसी कथन को उन्होंने भारतीय दर्शन की पद्धति में इस प्रकार कहा है :=
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है ,बाहरि भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना,यहु तत कथौ गियानी।
अर्थात यह नाना रूपात्मक जगत जो चरम चक्षुओं से दिखलायी पड़ता है ,वह जल में स्थित एक घड़ा है जिसके बाहर भी ब्रह्म रूपी जल है और अंदर भी बाह्य रूप का नाश हो जाने पर घड़े के अंदर का जल जिस प्रकार बाहर वाले जल में मिल जाता है ,उसी प्रकार बाह्य रूप के आभ्यंतर का ब्रह्म भी अपने बाह्यस्थ ब्रह्म में समै जाता है। इस प्रकार कबीर ने यह कहने का प्रयास किया है कि जो कुछ भी हमें दिखाई पड़ता है वह मायात्मक भ्रांतिज्ञान है। कबीर के शब्दों में :-
"संसार ऐसा सुपिन जैसा जीव न सुपिन समान।"
अर्थात जो मनुष्य माया के इस प्रसार को सच्चा समझकर उसमें लिप्त रहता है उसे शुद्ध हंस स्वरूप जीव अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती है। वे संसार का समस्त दुःख मायाकृत मानते हैं। इसका ज्ञान उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने माया के आवरण को हटा दिया है। माया में पड़े हुए लोग इस दुःख को ही सुख समझ लेते हैं। कबीरदास जी ने कहा है :-
सुखिया सब संसार है ,खावै अरु सोवै। दुखिया दास कबीर हैं ,जागै अरु रोवै।
कबीर का दुःख अपने लिए नहीं है ,वे अपने लिए रट भी नहीं बल्कि संसार के लिए रोते हैं। साईं को पाने के लिए ममता को छोड़ना वे आवश्यक बताते हैं ;-
"जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नाहिं"यह कहते हुए उन्होंने माया के परित्याग की आवश्यकता पर बल दिया। माया की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि :-
मीठी मीठी माया तजी न जाई। अग्यानी पुरिष को भोलि भोलि खाई।
माया को और अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :-
माया दीपक नर पतंग,भ्रमि भ्रमि इवैं पड़ंत। कहै कबीर गुर ग्यान थैं,एक आध उबरंत।
कर्मकांड की कबीर आलोचना करते थे क्योंकि परमात्मा की भक्ति का सम्बन्ध वे मन से मानते हैं। मन की भक्ति तन को स्वयं ही अपने अनुकूल बना लेती है। भक्ति की सच्ची भावना होने से कर्म भी अनुकूल होने लगेंगे परन्तु केवल बाहरी माला जपने अथवा पूजापाठ करने से कुछ नहीं होता है। यह तो माया के और अधिक निकट जाना है। उन्होंने कहा है :-
जप तप पूजा अरचा जोतिग जग बौराना।
कागद लिखि जगत भुलाना ,मन ही मन न समाना।
इसीलिए कबीर" कर का मनका छाड़ि कै,मन का मनका फेर "का उपदेश दिया है। माया का दूसरा नाम उन्होंने अज्ञानता बताया है। दर्पण पर जिस प्रकार काई लग जाती है ,ठीक उसी प्रकार आत्मा पर अज्ञानता का आवरण पड़ जाता है जिससे आत्मा में परमात्मा का दर्शन नहीं हो पता है। तभी तो उन्होंने कहा है :-
जौ दरसन देख्या चाहिए,तो दरपन मंजत रहिये।
जब दरपन लागै काई, तब दरसन दिया न जाई।
दर्पण का यही मांजना हरिभक्ति करना है। भक्ति से ही मायाकृत अज्ञान दूर होता है और ज्ञान प्राप्ति के द्वारा अपने पराये का भेद मिटता है। कबीर का प्रेम मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि सृष्टि के सभी जीव जन्तु उसकी सीमा के अंदर आ जाते हैं। उन्होंने कहा भी है कि "सबै जीव साईं के प्यारे हैं "कबीर का यह प्रेम तत्व जिसका ऊपर निरूपण किया गया है ,सूफियों के संसर्ग का प्रतिफल है किन्तु उसमें भी उन्होंने भारतीयता का पुट दे दिया है। सूफी परमात्मा को प्रियतमा के रूप में देखते हैं परन्तु कबीरदास जी ने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है। इस प्रकार निर्गुणवाद और सगुणवाद की एकेश्वरवाद से बाहरी समता रखनेवाली बातों के सम्मिश्रण और उसके प्रेमतत्व के योग से कबीर की भक्ति का निर्माण हुआ है। कबीर का विश्वास है कि भक्ति से मुक्ति हो जाती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि "कहै कबीर संसा नाहीँ भगति मुगति गति पाई रे। "आगे उन्होंने फिर कहा कि "जब लग हैं बैकुंठ की आसा। तब लग हरि चरन निवासा। "ब्रह्म को उन्होंने लौकिक वासनाओं से पर माना। व्यक्तिगत उच्चतम साधना से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है।मनुष्य की आत्मा ब्रह्म के साथ एकीकृत करते हुए उन्होंने आत्मा को भी अमर बताया। तभी तो उन्होंने कहा है :-
हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं,हरि न मरै हम काहे कू मरिहैं।
उनके अनुसार मनुष्य आत्मोत्सर्ग की इस उत्कृष्टता को प्राप्त कर तब उसके लिए प्रेम ही अमृत बन जाता है। "नीझर झरै अमीरस निकलै तिहि मदिरावलि छाका " अर्थात इस प्रेम रुपी मदिरा को मनुष्य यदि एक बार भी पी लेता है तो आजीवन उसका नशा नहीं उतरता और अपने तन मन की सुध भी भूल जाता है :-
हरि रस पीया जानिए,कबहुँ न जाये सुखार।
मैं मन्ता घूमत रहे,नाहीं तन की सार।
जाति -पांत की प्रचलित व्यवस्था पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा है "कहै कबीर एक राम जपहुँ रे,हिन्दू तुरक न कोई "कबीर का यह प्रेम तत्व सूफियों के सत्संग का सुपरिणाम कहा जा सकता है। उन्होंने परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखा है। कबीर अवतारवाद एवं मूर्तिपूजा के प्रबल विरोधी थे किन्तु हिन्दूधर्म के अन्य तथ्यों से वे सहमत भी थे। माता के रूप में परमात्मा को मान्यता देते हुए वे कहते हैं :-
हरि जननी मैं बालिक तेरा,कस नहिं बकसहुँ अवगुन मेरा।
कबीरदास ने धार्मिक तथ्यों की पुष्टि हेतु व्यवहारों का भी आश्रय लिया है। कबीर स्वतन्त्र प्रकृति के थे फिर भी जिस सत्य को वे धर्म मानते थे वह सभी धर्मों में विद्यमान है। मिथ्या विश्वास या पाखण्ड से आवृत होने दिखलाई है। कबीर ने समाज सुधर हेतु केवल अपनी वाणी का उपयोग किया है। वे आडम्बर के विरोधी थे। मूर्तिपूजा को लक्ष्य करती एक साखी इस प्रकार है :-
पाहन पूजे हरि मिलै ,तो मैं पूजौं पहार। था ते तो चाकी भली,जासे पीसी खाय संसार।
कबीर ने गजल,कुंडलियां,और भजन भी गा गाकर लोगों को सुनाया था। उनका एक प्रसिद्ध भजन इस प्रकार है :- उमरिया धोखे में खोय दियो रे।
पांच बरस का भोला भाला ,बीस में जवान भयो।
तीस बरस में माया के कारण, देश विदेश गयो।
चालिस बरस अंत अब लागे,बाढ़े मोह गयो।
धन धाम पुत्र के कारण,जिस दिन सोच भयो।
कबीर का रहस्यवाद :-
कबीर रहस्यवादी कवि हैं। रहस्यवाद के मूल में अज्ञात शक्ति की जिज्ञासा काम करती है। उस अज्ञात शक्ति को जानने की इच्छा सदैव मनुष्य को रही है और आगे भी रहेगी परन्तु वह शक्ति स्पष्टता से नहीं दिखाई दे सकती जिस प्रकार जगत के अन्य दृश्य रूप। कबीर ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि परमात्मा का प्रेम और उसकी अनुभूति गूंगे को गुड़ खिलाने जैसा है :-
अकथ कहानी प्रेम की,कछु कही न जाइ।
गूंगे केरी सरकरा,बैठि बैठि मुसकाइ।
तजि बावैं दाँहिनैं बिकार,हरिपद दिढ करि गहिये।
कहैं कबीर गूँगे गुड़ खाया,बूझै तो का कहिये।
यही रहस्यवाद का मूल है। वेद एवं उपनिषदों में रहस्यवाद की झलक विद्यमान है। गीता में भी भगवान के मुंह से उनकी विभूति का जो वर्णन कराया गया है ,वह भी अत्यंत रहस्यपूर्ण है। सर्वात्मवादमूलक रहस्यवाद में माधुर्य भाव का उदय हुआ है जो कबीर और अन्य सूफी कवियों में भी देखा जाता है। वैष्णवों एवं सूफियों की उपासना माधुर्य भाव से युक्त होती है। दार्शनिकों ने भी परमात्मा को पुरुष और जगत को स्त्रीरूपा प्रकृति कहा है। मीराबाई ने तो केवल कृष्ण को ही पुरुष माना है। कबीर भी कहते हैं :-
कहैं कबीर व्याहि चले हैं पुरिष एक अविनासी। आगे उन्होंने फिर कहा है कि "सखी सुहाग राम मोहिं दीन्हा।" यह तो जीवात्मा का परमात्मा में लगन लगाने का प्रारम्भिक रूप है। इसे व्याह के पहले का पूर्वानुराग समझना चाहिए। परमात्मा के वियोग से जनित सारी सृष्टि का दुःख कितना गहन होकर कबीर के हृदय में समाया है। "वै दिन कब आवेंगे भाई" तथा "जा कारनि हम देह धरी है,मिलिबौ अंग लगाई। "यहां पर जीवात्मा के परमात्मा से मिलने की आकुलता की ओर संकेत किया गया है। इसी सन्दर्भ में कबीरदास जी ने कहा है :-
मो को कहाँ ढूँढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल,ना मैं मसजिद,ना काबे कैलास में।
निर्गुण और सगुण ब्रह्म में एकरूपता स्थापित करते हुए वे कहते हैं :-
निर्गुण मेरा बाप ,सगुण मेरी महतारी। काकौ निंदौ काकौ वंदौं दोनों पलड़े भारी।
संसार की नश्वरता के सम्बन्ध में कितना प्रभावशाली आभास इस दोहे के माध्यम से कहा है :-
मालन आवत देखि करि,कलियाँ करी पुकार।
फूले फूले चुन लिए,काल्हि हमारी बार।
कबीर ने अपनी उक्तियों पर बाहर से अलंकारों का मुलम्मा नहीं चढ़ाया है बल्कि जो अलंकार उनमें मिलते हैं वे उन्होंने खोज खोजकर नहीं बैठाये हैं। कबीरदास जी छंदशास्त्र से अनभिज्ञ थे। यहां तक कि वे दोहों को पिंगल की खराद पर भी न चढ़ा सके। डफली बजाकर गाने में जो शब्द जिस रूप में निकला वही काव्य बनता गया।मात्राओं के घट बढ़ जाने की चिंता करना व्यर्थ था। चूँकि कबीर में प्रतिभा थी और मौलिकता भी इसीलिए उनके उपदेश स्वयं काव्य का रूप लेते गए। शब्दों को उन्होंने तोडा मरोड़ा भी खूब है। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में अक्खड़पन भी है और साहित्यिक कोमलता भी। कबीर का काव्य मुक्तक के अंतर्गत आता है। नानक,दादू,सुन्दरदास आदि ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्त कवियों में कबीर आगे दिखाई पड़ते हैं क्योंकि इन सभी ने कबीर की पुनरावृत्ति अपने काव्य में की है। नीतिकाव्य की सफलता की कसौटी उसकी सर्वप्रियता है और इनके नीतिकाव्य की सर्वप्रियता किसी अन्य को नहीं प्राप्त हुई प्रतीत होती है। कहीं कहीं तो दोहे को ज्यों का त्यों रहीम ने अपना लिया है। उदाहरणार्थ
कबीर यह घर प्रेम का,खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथ करि सो पैसे घर माँहि। ----कबीरदास
रहिमन घर है प्रेम का खला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुई धरे सो जावे घर माहिं। --- --रहीम
रहस्यवादी कवियों में कबीर का स्थान सबसे ऊँचा है। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है। प्रेमाख्यानक कवियों का रहस्यवाद तो उनके प्रबन्ध के बीच बीच में बहुत जगह उथला सा लगता है। कबीर ने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखे बल्कि उनके मुख से कहे गए और उनके शिष्यों द्वारा संकलित किये गए दोहे ही कबीर साहित्य के अंग बन गए। । वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है जिनके तीन भाग साखी ,शबद और रमैनी हैं। कबीर के समय में हिन्दू जनता पर मुस्लिम शासकों का कहर छाया हुआ था किन्तु कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनका अनुसरण करने लगी थी। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था औए वे अहिंसा,सत्य,सदाचार आदि के प्रशंसक भी थे।११९ अवस्था में संवत १५७५ में मगहर में कबीर का देहांत हुआ था।कबीर का पूरा समय मगहर में ही गुजरा लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। "अब कहुँ राम कवन गति मोरी ,तजिले बनारस मति भई मोरी"द्वारा उन्होंने इसकी पुष्टि भी कर दी है। कबीरदास जी का व्यक्तित्व सन्त कवियों में अद्वितीय है और हिंदी साहित्य के १२०० वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रभावशाली व्यक्तित्व किसी अन्य कवि का नहीं दृष्टिगत होता है।
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महाप्रभु चैतन्य
महाप्रभु चैतन्य का भारत की पावन भूमि पर आविर्भाव ऐसे समय हुआ जब देश एक प्रकार के क्रांतियुग से गुजर रहा था। विदेशी शासन को भारतवर्ष में स्थापित हुए साढ़े तीन सौ वर्ष हो चुके थे। इसी समय पश्चिम बंगाल के नवद्वीप नादिया सम्प्रति मायापुर नामक गाँव में महाप्रभु चैतन्य का जन्म फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा सन १४८६ ई ० को हुआ। इनका जन्म सायंकाल सिंह लग्न में चन्द्र ग्रहण के समय हुआ था जब अधिकांश लोग हरिनाम जपते हुए गंगा स्नान करने जा रहे थे। महाप्रभु चैतन्य के जन्म के बाद ज्योतिषियों ने उनकी जन्मकुण्डली बनाते हुए यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक जीवनपर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा। इनका बचपन का नाम विश्वम्भर था और प्यार में सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे। इनका वर्ण गोरा था इसीलिए कुछ लोग इन्हें गौरांग,गौरहरि आदि भी कहते थे। महाप्रभु चैतन्य के पिता का नाम पण्डित जगन्नाथ व माता का नाम शचीदेवी था जो धार्मिक प्रवृत्ति के थे। माता -पिता के संस्कार बालक में भी अवतरित होने लगे। बचपन में महाप्रभु चैतन्य बहुत अधिक चंचल थे और अत्यधिक प्रतिभावान भी थे। अत्यंत अल्पायु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने किंचित समय तक नादिया में एक विद्यालय की स्थापना करके उसी में अध्यापन का कार्य भी किया। वे सदैव अपने छात्रों के साथ हास्य व विनोदपूर्ण व्यवहार किया करते थे। प्रकृति ने उनको रूपराशि भी अपूर्व प्रदान की थी। अत्यंत गौर वर्ण के कारण ही उन्हें गौरांग कहा जाने लगा। अत्यंत आकर्षक चेहरा,कण्ठ स्वर मधुर ,केशराशि भौरों की भांति काली एवं चमकीली और वेशभूषा मनोरम था जिसके कारण उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि देखने वाला देखते ही रह जाता था।इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया नामक सुशील कन्या से हुआ किन्तु सन १५०५ ई में सर्पदंश के कारण इनकी पत्नी का देहान्त हो गया था और वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह विष्णुप्रिया से हुआ था। इनकी पत्नी विष्णुप्रिया भी अत्यंत सुंदर व पतिपरायणा थीं। उन दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था जिसके कारण मित्रगण उन्हें रसिक शिरोमणि के नाम से भी सम्बोधित किया करते थे किन्तु इसके बावजूद चौबीस वर्ष की अल्पायु में जब उन्होंने सन्यास लेने की घोषणा कर दी तो सभी हतप्रभ हो गए थे।
महाप्रभु चैतन्य का विद्या के प्रति अगाध प्रेम था इसीलिए उन्होंने अध्यापन का कार्य भी किया। इसी समय केशव कश्मीरी नामक एक पण्डित उनसे शास्त्रार्थ के लिए नादिया आया था क्योंकि उस समय नादिया संस्कृत पण्डितों का प्रधान केंद्र बन चुका था। केशव कश्मीरी को अनेकों पण्डितों के साथ हाथी , घोडा,पालकी व अनुचरों के साथ आया देखकर कुछ लोग यह समाचार निमाई तक पहुंचाए तो निमाई ने मुस्कराते हुए उनका स्वागत किया। गंगा के किनारे दोनों की भेंट हुई। महाप्रभु चैतन्य तथा अन्य उपस्थित लोगों के अनुरोध पर केशव कश्मीरी ने अपने तत्काल रचित कुछ संस्कृत के पद्य सुनाये तो महाप्रभु चैतन्य ने उनसे कहा -पण्डितजी ,यदि आप इनमें से कुछ पद्यों की आलोचना करके उनके गुणदोष बतलायें तो यहां पर उपस्थित विद्यार्थियों का उपकार होगा। यह सुनकर केशव कश्मीरी इस अपना अपमान समझकर बात को टालना चाहा और अंत में कहा कि जिस पद्य विशेष की आलोचना अभीष्ट हो, केवल उसी पर चर्चा की जाये। उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वह जानता था कि उसके द्वारा तत्काल रचित पंक्तियाँ अब इनमें से किसी को भी याद नहीं होंगी। महाप्रभु चैतन्य की स्मृति बहुत ही तेज थी। अतः उनके द्वारा सुनाई गयी पंक्तियाँ ज्यों का त्यों सुनाते हुए कहा कि अब आप इसकी आलोचना कीजिये। केशव कश्मीरी अपनी पंक्तियाँ यथावत सुनकर हतप्रभ हो उठा और उसका अहंकार भी चूर चूर हो गया। औपचारिकतावश उसने किंचित आलोचना अवश्य की किन्तु उसका उत्साह भंग हो चुका था। तब चैतन्य ने ही उसके पांच गुण और पांच दोष बताते हुए समालोचना प्रस्तुत कर दी जिसे सुनकर केशव कश्मीरी ने स्वयं अपनी हार स्वीकार कर ली और वहां से चला गया। कहते हैं कि रात्रि में केशव कश्मीरी ने इस घटना पर बहुत विचार किया और अंत में चैतन्य की महत्ता उसकी समझ में आ गयी और सबेरा होते ही वह चैतन्य के पास आ पहुंचा तथा उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की और उनसे क्षमा भी मांगी। बाद में वह इनका परम् शिष्य बन गया था।
उन्ही दिनों एक और घटना और घटी जिससे चैतन्य की निरभिमानता और परोपकारी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। महाप्रभु चैतन्य के सहपाठी मित्रों में से एक रघुनाथ थे जो न्यायशास्त्र के विद्यार्थी थे और इस विषय में वर्षों तक परिश्रम करके उन्होंने अपनी विशिष्टता बना रखी थी। एक दिन उन्होंने सुना कि चैतन्य ने भी न्यायशास्त्र पर एक ग्रन्थ लिख रखा है तो उसके मन में ईर्ष्या के भाव जाग्रत हो गए और वह सोचने लगा कि उसका ग्रन्थ कहीं प्रभावहीन न हो जाये। अतः उसने एक दिन महाप्रभु चैतन्य से पूंछ ही लिया कि तुमने न्यायशास्त्र की व्याख्या सम्बन्धी कोई ग्रन्थ लिखा है क्या ? चैतन्य ने हंसते हुए कहा ,अजी पण्डितराज ,आप कैसी बात करते हैं ?न्याय जैसे जटिल विषय पर मैं क्या लिख सकता हूँ ?मैंने तो मनोविनोद के लिए कुछ लिख रखा है। तब रघुनाथ ने आग्रहपूर्वक कहा -अगर आपको किसी प्रकार की बाधा न हो तो वह ग्रन्थ मुझे अवश्य सुनाना। उसी समय चैतन्य अपनी पुस्तक लेकर नदी की तरफ चल दिए और एक नाव में बैठकर रघुनाथ को सुनाने लगे। वह जैसे जैसे सुनता गया वैसे वैसे उसकी वेदना झलकने लगी और अंत में वह वहीं पर फूट फूटकर रोने लगा।निर्मल हृदय चैतन्य ने उससे रोने का कारण पूंछा तो रघुनाथ ने अपने ईर्ष्याभाव को प्रकट कर दिया और कहा --चैतन्य भाई ,तुम तो सरल स्वभाव के हो पर मेरे मन में तो ईर्ष्या भरी है। तुम्हारी इस रचना के आगे मेरे ग्रन्थ को कोई नहीं पूंछेगा। अब मेरी अभिलाषा मन की मन में ही रह जाएगी। महाप्रभु चैतन्य उसकी निराशा देखकर द्रवित हो गए और उसी समय अपने ग्रन्थ का एक एक पन्ना फाड़कर उसी नदी में फेंक दिया।
महाप्रभु चैतन्य की गुणग्राहकता :-
इसी प्रकार एक घटना जगन्नाथपुरी के प्रसिद्ध सन्त माधवेंद्रपुरी के शिष्य ईश्वरपुरी की है। कहते हैं कि एक बार वे भ्रमण करते हुए नादिया आये और अद्वैताचार्य के यहां ठहरे। एक दिन संयोगवश चैतन्य भी आ गए तो सन्यासी को देखकर प्रणाम किया। ईश्वरपुरी भी इनको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और बातचीत के बाद चैतन्य ने उन्हें अपने घर भोजन कराने ले गए। इसके बाद वे दोनों मित्रवत हो गए। ईश्वरीपुरी उन्हीं दिनों श्रीकृष्णलीलामृत नामक ग्रन्थ लिखा था और उनकी भेंट जब कभी महाप्रभु चैतन्य से होती तो वे कोई प्रसंग उठाकर अपने ग्रन्थ के श्लोक उन्हें सुनाते और महाप्रभु चैतन्य बहुत प्रसन्न होते। एकदिन ईश्वरपुरी ने उनसे कहा कि मैं अपनी विद्वतावश आपको श्लोक नहीं सुनाता। आप सुप्रसिद्ध विद्वान हैं इसलिए जहाँ कहीं कोई अशुद्धि हो वहां मुझे बताते चलें। यह सुनकर चैतन्य ने विनम्रतापूर्वक कहा -श्रीकृष्ण कथा में शुद्धि अथवा अशुद्धि कैसी ?अपने भक्तिभाव में भक्तजन जो कुछ कहते हैं वह शुद्ध ही माना जाता है। जिस पद में भगवद भक्ति है और जिस छंद में परमात्मा की महिमा का वर्णन है ,वह यदि अशुद्ध भी है तब पर भी उसे शुद्ध समझना चाहिए। हाँ ,जिसमें भगवान की प्रेरणा न हो उसकी भाषा चाहे जैसी परिमार्जित क्यों न हो ,वह व्यर्थ ही है। आप तो सच्चे भक्त हैं, इसलिए अशुद्धियाँ हो ही नहीं सकती। कहा भी गया है -
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
उभयोस्तु शुभं पुण्यं भावग्राही जनार्दनः।
महाप्रभु चैतन्य के इस उत्तर से उनकी महत्ता ईष्वरपुरी के हृदय में अंकित हो गयी और वे सदा उनके शुभचिन्तक बन गए। यद्यपि चैतन्य की प्रतिभा और मेघाशक्ति उच्चकोटि की थी और उन्होंने लगन के साथ विद्याभ्यास करके अपने ज्ञानभंडार को बहुत अधिक बढा लिया था फिर भी उनकी प्रशंसा विद्वान होने के नाते नहीं की जाती। यह उनकी सहृदयता का परिचायक है। महाप्रभु चैतन्य अपने इसी गुण के कारण छोटी सी आयु में ही लोकप्रिय बन गए थे और वे जहां कहीं भी जाते थे लोग उनके साथ हो लेते थे। उनका यही मनोभाव कश्मीरी पण्डित से विवाद होने के समय भी देखने को मिला था।
कृष्ण- भक्ति :-
सन १५०९ ई में जब वे अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए थे तभी इनकी भेंट ईश्वरपुरी से हुई थी और उनके ग्रन्थ को सुनते ही वे भी कृष्ण कृष्ण रटने लगे थे। तभी से इनका सारा जीवन और प्रत्येक समय कृष्णभक्ति में ही लीन रहने लगे। उनकी इस भक्ति भावना के कारण ही असंख्य लोग इनके अनुयायी बनते गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने महाप्रभु चैतन्य के भक्ति आंदोलन को तीव्रगति प्रदान की। इन्होंने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक,मृदंग,झांझ,मजीरे आदि वाद्ययंत्र बजाकर उच्च स्वर में नाच-गाकर हरिनाम संकीर्तन करना आरम्भ किया था।
महाप्रभु चैतन्य सन्यास लेने के बाद नीलांचल चले गए थे और वहां से दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र व सेतुबन्ध आदि स्थानों पर भी कुछ दिनों तक रहे। इन्होंने देश के कोने कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। सन १५१५ ई में विजयदशमी के दिन वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया। जंगल के रास्ते होते हुए जब वे वृन्दावन जा रहे थे तो इनके हरिनाम उच्चारण एवम संगीतमय नृत्य से जंगली जानवर भी इनके साथ नाचने लगते दिखे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन महाप्रभु चैतन्य वृन्दावन पहुंचे थे। इसी दिन आज भी यहां पर गौरांग का आगमनोत्सव मनाया जाता है। यहां पर इन्होंने इमली तला और अक्रूर घाट पर निवास किया और यहीं रहकर प्राचीन श्रीधाम वृन्दावन की महत्ता प्रतिपादित करके लोगों की सुप्त भक्तिभावना को जागृत किया था। यहां से वे प्रयाग चले गए और प्रयाग से काशी ,हरिद्वार,श्रृंगेरी,कामकोटि पीठ ,द्वारिका,मथुरा आदि स्थानों पर भी अपने संकीर्तन के द्वारा जनजागरण किया अपने जीवन के अंतिम समय उन्होंने जगन्नाथपुरी में बिताये और यहीं पर सन १५३३ ई ० को ४७ वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन उन्होंने श्रीकृष्ण के परमधाम को प्रस्थान कर दिया था।
महाप्रभु चैतन्य वैष्णव धर्म के भक्तियोग के प्रखर प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय सम्प्रदाय की आधारशिला रखी तथा भजन गायकी की एक नई शैली को जन्म दिया। इन्होंने अपने समय में व्याप्त राजनैतिक अस्थिरता को दूर करने हेतु हिन्दू-मुस्लिम एकता की सदभावना को प्रश्रय दिया तथा जाति -पांत ,उंच-नीच की भवन को दूर करने की शिक्षा दी। कहा जाता है कि यदि गौरांग न होते तो वृन्दावन आज तक एक मिथक बनकर रह जाता। वैष्णव इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के सहयोग का अवतार मानते हैं। इन्होंने केशव भारती से दीक्षा ली थी। कहते हैं कि केशव भारती ने जब चैतन्य के कान में नारायण का मन्त्र फूंका तो वे भावावेश में बेसुध हो गए थे। नित्यानंद ने हरिबोल मन्त्र का उच्चारण करके उनको जाग्रत था। इसके बाद कृष्ण कृष्ण कहते हुए चैतन्य ने भगवा वस्त्र धारण किया औए एक हाथ में कमण्डल और दूसरे में दंड धारण कर लिया। इस वेश में जब वे गुरु के समक्ष आकर खड़े हुए तो उन्होंने उनका भक्तिभाव देखकर उनका सन्यास का नाम "कृष्ण चैतन्य "रख दिया। बाद में लोग उन्हें "महाप्रभु चैतन्य "के नाम से सम्बोधित करने लगे। कहते हैं कि सन्यास के बाद एक बार वे नादिया में अपनी माता से मिलने गए। उन्हें भगवा वेश में देखकर पुत्र वियोग की आशंका से माता के हृदय को बड़ा आघात लगा किन्तु वे महान पुत्र की माता थी ,इससे धैर्य धारण करके कहने लगीं --चैतन्य ,तेरा मार्ग मंगलमय हो। तू अब हमारा न रहकर सम्पूर्ण विश्व का बन गया है। तेरे द्वारा अनेकों का कल्याण होगा। हमारी रक्षा तो भगवान करेंगे ही ,इसलिए तू निश्चिन्त रहना।
महाप्रभु चैतन्य वैष्णव धर्म के भक्तियोग के प्रखर प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय सम्प्रदाय की आधारशिला रखी तथा भजन गायकी की एक नई शैली को जन्म दिया। इन्होंने अपने समय में व्याप्त राजनैतिक अस्थिरता को दूर करने हेतु हिन्दू-मुस्लिम एकता की सदभावना को प्रश्रय दिया तथा जाति -पांत ,उंच-नीच की भवन को दूर करने की शिक्षा दी। कहा जाता है कि यदि गौरांग न होते तो वृन्दावन आज तक एक मिथक बनकर रह जाता। वैष्णव इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के सहयोग का अवतार मानते हैं। इन्होंने केशव भारती से दीक्षा ली थी। कहते हैं कि केशव भारती ने जब चैतन्य के कान में नारायण का मन्त्र फूंका तो वे भावावेश में बेसुध हो गए थे। नित्यानंद ने हरिबोल मन्त्र का उच्चारण करके उनको जाग्रत था। इसके बाद कृष्ण कृष्ण कहते हुए चैतन्य ने भगवा वस्त्र धारण किया औए एक हाथ में कमण्डल और दूसरे में दंड धारण कर लिया। इस वेश में जब वे गुरु के समक्ष आकर खड़े हुए तो उन्होंने उनका भक्तिभाव देखकर उनका सन्यास का नाम "कृष्ण चैतन्य "रख दिया। बाद में लोग उन्हें "महाप्रभु चैतन्य "के नाम से सम्बोधित करने लगे। कहते हैं कि सन्यास के बाद एक बार वे नादिया में अपनी माता से मिलने गए। उन्हें भगवा वेश में देखकर पुत्र वियोग की आशंका से माता के हृदय को बड़ा आघात लगा किन्तु वे महान पुत्र की माता थी ,इससे धैर्य धारण करके कहने लगीं --चैतन्य ,तेरा मार्ग मंगलमय हो। तू अब हमारा न रहकर सम्पूर्ण विश्व का बन गया है। तेरे द्वारा अनेकों का कल्याण होगा। हमारी रक्षा तो भगवान करेंगे ही ,इसलिए तू निश्चिन्त रहना।
त्याग और तपस्या का जीवन :-
महाप्रभु चैतन्य का जीवन आरम्भ से ही परोपकारमय और उदारतापूर्ण रहा था। दूसरों की सहायता से उन्होंने कभी भी मुख नहीं मोड़ा था। हास्य विनोद और रसिकता की मात्रा उन्होंने कभी भी कम नहीं होने दी। बचपन में तो वे ऊधम मचाकर अपने पड़ोसियों को भी तंग करते रहते थे। बड़े होकर उनका यही स्वभाव हंसी मजाक और विनोदपूर्ण वार्ता में बदल गया। नादिया में कितने ही पण्डित इन्हें रसिक शिरोमणि कहकर पुकारा करते थे। यद्यपि इनमें कभी कोई दोष लोगों को नजर नहीं आया किन्तु अपनी वेशभूषा और रहन-सहन में ये बड़े सौंदर्यप्रिय थे। महाप्रभु चैतन्य ने लोगों की असीम लोकप्रियता और स्नेह प्राप्त किया। उनके इसी स्वभाव के कारण जगन्नाथपुरी के तत्कालीन राजा तक इनके श्रीचरणों में नत हो गए थे। बंगाल के शासक के एक मंत्री ने तो मन्त्रीपद त्यागकर चैतन्य महाप्रभु की शरण में आ गया था। महाप्रभु चैतन्य ने न जाने कितने दलितों एवं कुष्ठ रोगियों को अपने गले लगाकर उनकी सेवा की थी। वे जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर समाज को मानवता के सूत्र में पिरोया और कृष्ण भक्ति के अमृत का पान कराया। इसीलिए वे गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य माने जाते हैं उन्होंने संस्कृत भाषा में भी कई रचनाएँ की। उनका मार्ग प्रेम एवं भक्ति का था अतः वे नारद जी की भक्तिभावना से विशेष रूप से प्रभावित हुए थे। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के मानव को एक सूत्र में पिरोते हुए कहा कि ईश्वर एक है। इसीलिए उन्होंने यह मूलमन्त्र लोगों को दिया -
कृष्ण केशव,कृष्ण केशव,कृष्ण केशव,पाहियाम।
राम राघव ,राम राघव , राम राघव, रक्षयाम
आरम्भ में वैष्णव धर्म की भक्तिभावना का भी उनमें प्रत्यक्ष रूप में दर्शन नहीं होता था। यद्यपि इनके पिता एक प्रसिद्ध वैष्णव थे और इनके घर में सदा भक्ति भाव का बोलबाला रहा है किन्तु उस समय चैतन्य उस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए थे और अपना अधिकांश समय मनोविनोदपूर्ण बातों में ही निकल देते थे। इनके पिता के परममित्र पण्डित श्रीवास एक दिन जब चैतन्य गंगा स्नान करके आ रहे थे तो मार्ग में उनसे भेंट हो गयी। उनको देखते ही चैतन्य ने उन्हें प्रणाम किया ,तभी उलाहना देते हुए उनसे कहा -निमाई अब तुम बालक नहीं हो ,अब कुछ गम्भीर बनो। तुम्हारे पिता तो परम् वैष्णव थे। चैतन्य ने सरल भाव से उत्तर दिया -महाराज ,थोड़े दिन ठहरिये ,मैं भी पूर्णरूप से वैष्णव बन जाऊंगा। तब श्रीवास ने कहा इसमें राह देखने की क्या बात है ?अभी से भक्तिभाव जाग्रत करना चाहिए। देखो ,युम्हारे समान विद्वान और लोकप्रिय पण्डित वैष्णव बन जायेगा तो समस्त दश में वैष्णव धर्म की ध्वजा फहराने लगेगी। वास्तव में चैतन्य का व्यक्तित्व और जीवन उस उच्च और गूढ़ श्रेणी का था जिसे साधारण व्यक्ति शीघ्र नहीं समझ सकता। २४ वर्ष की आयु में चैतन्य ने गृहस्थाश्रम का परित्याग करके सन्यास ग्रहण कर लिया था। सन्यास लेने के बाद वे सीधे जगन्नाथ मन्दिर पहुंचे और वहां भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को देखकर इतने भावविभोर हो गए कि वे उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे और वहीं पर मूर्छित भी हो गए। वहां उपस्थित सार्वभौम भटटाचार्य महाप्रभु की प्रेमभक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए और घर पर उनसे शास्त्र की विधिवत चर्चा की। चर्चा में सार्वभौम ने अपने पांडित्य का प्रदर्शन किया तो चैतन्य ने भक्ति का महत्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध किया और अपने षड्भुज रूप का दर्शन कराया। सार्वभौम तभी से गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और अंत समय तक उनके साथ रहे। सार्वभौम ने शतश्लोकी स्तुति की रचना की जिसे आज चैतन्य शतक के नाम से जाना जाता है।
पुरी में कुछ समय तक प्रचार करने के बाद चैतन्य वहां से चलकर कृष्णा,कावेरी,ताम्रपर्णी नदियों के तट पर अवस्थित अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए सेतुबन्ध रामेश्वर तक जा पहुंचे और फिर पश्चिमी घाट की तरफ जाकर उन्होंने त्रिवेंद्रम,मैसूर,कर्नाटक,नासिक,पंढरपुर आदि की यात्रा की। वहां से वे द्वारिकापुरी पहुंचे और फिर दक्षिण भारत के विजयनगर होकर जगन्नाथपुरी वापस आ गए इस यात्रा में उन्हें दो वर्ष लगे। दक्षिण भारत में जब वे सिद्धवट तो ब्राह्मण को पेड़ के नीचे गीतापाठ करते देखा जो किंचित अशुद्ध पाठ कर रहा था। चैतन्य बड़ी श्रद्धा से से उसका पथ सुनने लगे और पाठ पूरा पर उन्होंने उसे अपने हृदय से लगा लिया। उस ब्राह्मण ने अपनी कमियों के विषय में बतलाया तो चैतन्य ने कहा -"भूदेव ,तुम धन्य हो। भगवान तो भावना को देखते हैं। अगर आपका मनोभाव सच्चा और शुद्ध होगा तो उसका फल आवश्य प्राप्त होगा। भावशुद्धि के साथ अगर पाठ भी शुद्ध हो तो वह सोने में सुगन्ध के समान है।तुम अगर प्रयत्न करोगे तो शुद्ध पथ करना भी आ जायेगा।"
एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक बड़े तीर्थ में पहुंचकर चैतन्य किसी शिवालय में ठहरे थे। कुछ समय पश्चात वहां पर तीर्थराम नामक एक धनवान और विलासी युवा पुरुष आया.उसके साथ सत्याबाई और लक्ष्मीबाई नामकी दो वैश्याएं भी थीं। चैतन्य को वहां टिका देखकर उसे उनकी परीक्षा लेने की सूझी और उसने दोनों वैश्याओं को उनके पास इसी उद्देश्य से भेजा। वे उस समय हरिनाम कीर्तन में आनन्द मगन थे ,नेत्र बन्द करके अत्यंत मधुर स्वर में भगवान का नाम ले रहे थे। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने अपनी आँखें खोली तो दोनों स्त्रियों को सामने बैठा देखा। वे हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे -माताजी ,इस दीन सन्तान के पास आप कैसे पधारीं ?मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?वैश्याएं उनके इस भाव को देखकर अत्यंत लज्जित हो गईं और उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगीं। उसी समय तीर्थराम भी वहां आ गया और चैतन्य के उपदेशों से वे सब शुद्ध वैष्णव बन गए और परोपकारमय जीवन व्यतीत करने का निश्चय करके अपने घर चले गए। दक्षिण भारत की यात्रा के समय ही एक बार इनकी भेंट वासुदेव नामक व्यक्ति से हुई जो प्रारब्धवश कोढ़ी हो गया था किन्तु उस दशा में भी भगवान पर पूर्ण विश्वास रखने वाला था। जब उसे चैतन्य के आने की खबर मिली तो किसी प्रकार चलकर उनके ठहरने के स्थान पर पहुँच गया किन्तु चैतन्य जी इसके पूर्व ही वहां से निकल चुके थे। वहीं पर बैठकर वह अपने भाग्य को कोस ही रहा था कि चैतन्य किसी कारणवश लौट आये और उसे देखकर अपने गले से लगा लिया जबकि वह कहता रहा की प्रभु ,आप मुझे स्पर्श न करें। चैतन्य ने कहा -कुछ भी हो ,मैं तुम्हारे समान सच्चे भगवदभक्त से कैसे पृथक रह सकता हूँ ? इसी प्रकार एक सनातन नामक कोढ़ी को भी वे अपना शिष्य बनाकर सदा अपने साथ रखते थे और इनके सानिध्य से उसका रोग ठीक भी हो गया था।
कुछ समय बाद चैतन्य वृन्दावन आये और यहां से प्रयाग जाने पर इनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई। भक्तिमार्ग के इन दो महान प्रचारकों में परस्पर अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विनिमय भी हुआ इस प्रकार बीस -पच्चीस वर्ष तक भक्तिमार्ग द्वारा हिन्दू संगठन और नवजागरण का कार्य सम्पन्न करके चैतन्य प्रभु ने अपने कार्यक्रम को सफल होते देख लिया। उस समय उनकी आयु ४८ वर्ष की ही थी किन्तु कोमल प्रकृति के होने के कारण अनेक प्रकार की असुविधाओं को सहन करने और लगातार श्रम करते रहने से वे दुर्बल हो गए और तब उन्होंने अपनी लीला का संवरण करना ही उचित समझा एक बार तो वे भावावेश में आकर समुद्र में कूद पड़े थे तभी कुछ मल्लाहों ने उन्हें बाहर निकल लिया था। इसी के बाद एक दिन कथा सुनते सुनते उठे और बड़ी शीघ्रता से जगन्नाथ जी की मूर्ति के सम्मुख प्रार्थना करते करते कुछ ही क्षणों में प्राण त्याग दिए थे।
हिन्दू धर्म में नाम-जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गयी है। चैतन्य ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों को वृन्दावन भेजकर वहां पर सप्तदेवालय की आधारशिला रखवायीं। नादिया के काजी चाँदखाँ ने हरिकीर्तन को बन्द करने की आज्ञा निकाली तो भक्तों ने निमाई के पास जाकर कहा -ऐसा अत्याचार होगा तो हम हरिकीर्तन कैसे करेंगे ?इससे तो अच्छा है कि हम किसी ऐसे स्थान पर चले जाएँ जहां निर्विघ्न भगवान का नाम ले सकें। तब निमाई ने रोषपूर्वक कहा -तुम तनिक भी भयभीत न हो ,हरिकीर्तन पर कोई रोक नहीं लगा सकता। तुमको नगर छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी और न ही हरिकीर्तन रोकना पड़ेगा। दूसरे दिन उन्होंने अपने सहयोगी निताई अर्थात नित्यानंद तथा हरिदास से कहा की सम्पूर्ण नगर में यह घोषणा कर दो कि आज सन्ध्या को हम कीर्तन करते हुए समस्त नगर का भ्रमण करेंगे और काजी साहब के मकान पर भी कीर्तन करेंगे। सभी लोग नियत समय पर हमारे घर पर एकत्रित हों और प्रकाश के लिए एक एक मशाल भी लेते आयें। निताई यह सुनकर प्रसन्न हुए और हरिदास को साथ लेकर मुहल्ले मुहल्ले में यह समाचार फैला दिया और लोगों को प्रेरणा दी कि वे जुलूस का स्वागत करने के लिए सजावट और अन्य तैयारियां करें। नादिया के निवासी यह समाचार सुनकर प्रसन्न हो उठे क्योंकि उनमें से अधिकांश लोग निताई को संकीर्तन करते हुए नहीं देखे थे। सन्ध्या होने के कुछ पहले ही चैतन्य महाप्रभु कीर्तन मण्डली के साथ हरिबोल की ध्वनि करते हुए नगर -भ्रमण करने लगे। बहुत बड़ा जुलूस देखकर लोगों में अप्रत्याशित उत्साह आ गया और वे कहने लगे -काजी को मार दो ,उसका घर लूट लो। जब चैतन्य ने यह बात सुनी तो सभी को शांत रहने को कहा। इधर काजी इस भरी प्रदर्शन से घबरा गया और अपने घर में कहीं छिप गया। चैतन्य अपने साथियों के साथ उसके घर में घुस गए और हरिबोल की मधुर ध्वनि से कीर्तन करने लगे और काजी के सेवकों से कहा कि काजी साहब को बुलाओ ,उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। यह सुनकर काजी बाहर आया और चैतन्य ने उसे प्रेमपूर्वक अपने पास ही बिठाया और कहा -काजी साहब ,यह कहाँ की रीति है कि हम तो आपके घर आयें और आप घर के भीतर बैठे रहें। काजी ने डरते हुए कहा -भाइयों,आप मेरे घर पर आएं यह मेरा सौभाग्य है परन्तु मैंने समझ आप नाराज होंगे इससे मुझे डर लगने लगा। तभी चैतन्य ने कहा आप तो यहां के राज्यकर्ता हैं। आपसे हम कैसे नाराज हो सकते हैं ?मैं तो केवल यही मालूम करने आया था कि आपने कीर्तन को बन्द करने का हुक्म क्यों दिया था। काजी ने सहजभाव से उत्तर दिया कि नगर में कितने ही हिन्दू मुसलमान मेरे पास आकर फरियाद की है कि आपके कीर्तन से उनको तकलीफ होती है इसलिए कानून की दृष्टि से मुझे वैसी आज्ञा देनी पड़ी किन्तु अब आपका भक्तिभाव और शांतिपपूर्ण व्यवहार देखकर मुझे विश्वास हो गया है कि आपके कार्य में कोई हानिकारक बात नहीं है। अब आपके कीर्तन को कोई नहीं रोकेगा।
आध्यात्म -पथ :-
कुछ लोग महाप्रभु चैतन्य को श्रीकृष्ण का अवतार भी मानते हैं जिसका प्रमाण प्राचीन हिदू-ग्रंथों में भी मिलता है। श्री गौरांग अवतार की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें श्रीचैतन्य चरितामृत ,श्री चैतन्य भागवद ,श्रीचैतन्य मंगल ,अमिय निमाई चरित और चैतन्य शतक प्रमुख हैं। गौरांग की स्तुति में कई महाकाव्यों की रचना भी हो चुकी है। इनके द्वारा लिखित कोई ग्रन्थ मूलरूप में उपलब्ध नहीं है। मात्र आठ श्लोक ही उपलब्ध है जिन्हें शिक्षाष्टक के नाम से जाना जाता है। गौरांग के विचारों को श्रीकृष्ण दस ने चैतन्य चरितामृत में संकलित अवश्य किया है कालांतर में रूपजीव और सनातन गोस्वामियों ने अपने अपने ग्रंथों में चैतन्य चरित का विधिवत उल्लेख किया है। इनके विचारों का सार इस प्रकार है :-
श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौंदर्य हैं ,प्रेमपरक हैं। उनकी तीन शक्तियां -परब्रह्म शक्ति ,मायाशक्ति और विलास शक्ति हैं। विलास शक्तियां डॉ प्रकार की हैं -पहला प्राभव विलास जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण एक से अनेक होकर गोपिओं से क्रीड़ा करते हैं और दूसरा वैभव विलास जिसके द्वारा श्रीकृष्ण चतुर्व्यूह का रूप धारण करते हैं। चैतन्य मत के व्यूह सिद्धांत का आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूलशक्ति है और वही आनन्द का कारण है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा हैं। राधा ही श्रीकृष्ण के सर्वोच्च प्रेम का आलम्बन हैं। वही इनके प्रेम की आदर्श प्रतिमा हैं गोपी कृष्ण लीला का प्रतिफल है।
चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांत के अनुसार हरिनाम में रूचि,जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था। वे मात्र बीस वर्ष की अल्पायु में सब कुछ त्यागकर वृन्दावन में अखंडवास करने आ गए थे उनके षड्गोस्वामी का परिचय निम्नवत है :--
श्री गोपाल भट्ट स्वामी -ये बहुत कम आयु में ही गौरांग की कृपा से यहां आ गए थे। दक्षिण भारत का भ्रमण करते हुए गौरांग चार माह इनके घर पर ठहरे थे। बाद में इन्होंने गौरांग के नाम संकीर्तन में प्रवेश किया।
श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी :- ये सदा हरिकृष्ण का अनवरत जाप करते रहते थे और श्रीमद्भागवद का पाठ नियमपूर्वक करते थे। राधाकुंड के तट पर निवास करते हुए प्रतिदिन भागवद का मीठा पाठ स्थानीय लोगों को सुनाया करते थे और स्वयं इतना भावविभोर हो जाते थे कि उनके प्रेमाश्रुओं से भागवत के पन्ने भीग जाते थे।
श्री रूप गोस्वामी :-ये चैतन्य महाप्रभु के परम् शिष्य थे इनका जन्म १४९३ ई में हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्यागकर गौरांग में प्रवेश लिया था और बाद के ५१ वर्ष ब्रज में बिताये।
श्री सनातन स्वामी :-चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रंथों की रचना की थी। अपने भाई रूपगोस्वामी सहित वृन्दावन के छः प्रभावशाली गोस्वामियों में सबसे ज्येष्ठ थे।
श्री जीव गोस्वामी :-इनका जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां १५३३ ई को हुआ था। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी और आँखें कमल की तरह थीं। इनके प्रत्येक अंग से एक चमक निकलती रहती थी। वृन्दावन में इन्होंने एक मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।
श्री रघुनाथ गोस्वामी :-इन्होंने भी अल्पायु में ही गृहस्थी का त्याग कर दिया था और गौरांग के साथ हो लिए थे। ये चैतन्य के सचिव दामोदर के निजी सहायक भी रहे और उनके संग ही इन्होंने गौरांग के अंतिम दिनों में दर्शन किये थे।
आरम्भ में वैष्णव धर्म की भक्तिभावना का भी उनमें प्रत्यक्ष रूप में दर्शन नहीं होता था। यद्यपि इनके पिता एक प्रसिद्ध वैष्णव थे और इनके घर में सदा भक्ति भाव का बोलबाला रहा है किन्तु उस समय चैतन्य उस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए थे और अपना अधिकांश समय मनोविनोदपूर्ण बातों में ही निकल देते थे। इनके पिता के परममित्र पण्डित श्रीवास एक दिन जब चैतन्य गंगा स्नान करके आ रहे थे तो मार्ग में उनसे भेंट हो गयी। उनको देखते ही चैतन्य ने उन्हें प्रणाम किया ,तभी उलाहना देते हुए उनसे कहा -निमाई अब तुम बालक नहीं हो ,अब कुछ गम्भीर बनो। तुम्हारे पिता तो परम् वैष्णव थे। चैतन्य ने सरल भाव से उत्तर दिया -महाराज ,थोड़े दिन ठहरिये ,मैं भी पूर्णरूप से वैष्णव बन जाऊंगा। तब श्रीवास ने कहा इसमें राह देखने की क्या बात है ?अभी से भक्तिभाव जाग्रत करना चाहिए। देखो ,युम्हारे समान विद्वान और लोकप्रिय पण्डित वैष्णव बन जायेगा तो समस्त दश में वैष्णव धर्म की ध्वजा फहराने लगेगी। वास्तव में चैतन्य का व्यक्तित्व और जीवन उस उच्च और गूढ़ श्रेणी का था जिसे साधारण व्यक्ति शीघ्र नहीं समझ सकता। २४ वर्ष की आयु में चैतन्य ने गृहस्थाश्रम का परित्याग करके सन्यास ग्रहण कर लिया था। सन्यास लेने के बाद वे सीधे जगन्नाथ मन्दिर पहुंचे और वहां भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को देखकर इतने भावविभोर हो गए कि वे उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे और वहीं पर मूर्छित भी हो गए। वहां उपस्थित सार्वभौम भटटाचार्य महाप्रभु की प्रेमभक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए और घर पर उनसे शास्त्र की विधिवत चर्चा की। चर्चा में सार्वभौम ने अपने पांडित्य का प्रदर्शन किया तो चैतन्य ने भक्ति का महत्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध किया और अपने षड्भुज रूप का दर्शन कराया। सार्वभौम तभी से गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और अंत समय तक उनके साथ रहे। सार्वभौम ने शतश्लोकी स्तुति की रचना की जिसे आज चैतन्य शतक के नाम से जाना जाता है।
पुरी में कुछ समय तक प्रचार करने के बाद चैतन्य वहां से चलकर कृष्णा,कावेरी,ताम्रपर्णी नदियों के तट पर अवस्थित अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए सेतुबन्ध रामेश्वर तक जा पहुंचे और फिर पश्चिमी घाट की तरफ जाकर उन्होंने त्रिवेंद्रम,मैसूर,कर्नाटक,नासिक,पंढरपुर आदि की यात्रा की। वहां से वे द्वारिकापुरी पहुंचे और फिर दक्षिण भारत के विजयनगर होकर जगन्नाथपुरी वापस आ गए इस यात्रा में उन्हें दो वर्ष लगे। दक्षिण भारत में जब वे सिद्धवट तो ब्राह्मण को पेड़ के नीचे गीतापाठ करते देखा जो किंचित अशुद्ध पाठ कर रहा था। चैतन्य बड़ी श्रद्धा से से उसका पथ सुनने लगे और पाठ पूरा पर उन्होंने उसे अपने हृदय से लगा लिया। उस ब्राह्मण ने अपनी कमियों के विषय में बतलाया तो चैतन्य ने कहा -"भूदेव ,तुम धन्य हो। भगवान तो भावना को देखते हैं। अगर आपका मनोभाव सच्चा और शुद्ध होगा तो उसका फल आवश्य प्राप्त होगा। भावशुद्धि के साथ अगर पाठ भी शुद्ध हो तो वह सोने में सुगन्ध के समान है।तुम अगर प्रयत्न करोगे तो शुद्ध पथ करना भी आ जायेगा।"
एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक बड़े तीर्थ में पहुंचकर चैतन्य किसी शिवालय में ठहरे थे। कुछ समय पश्चात वहां पर तीर्थराम नामक एक धनवान और विलासी युवा पुरुष आया.उसके साथ सत्याबाई और लक्ष्मीबाई नामकी दो वैश्याएं भी थीं। चैतन्य को वहां टिका देखकर उसे उनकी परीक्षा लेने की सूझी और उसने दोनों वैश्याओं को उनके पास इसी उद्देश्य से भेजा। वे उस समय हरिनाम कीर्तन में आनन्द मगन थे ,नेत्र बन्द करके अत्यंत मधुर स्वर में भगवान का नाम ले रहे थे। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने अपनी आँखें खोली तो दोनों स्त्रियों को सामने बैठा देखा। वे हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे -माताजी ,इस दीन सन्तान के पास आप कैसे पधारीं ?मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?वैश्याएं उनके इस भाव को देखकर अत्यंत लज्जित हो गईं और उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगीं। उसी समय तीर्थराम भी वहां आ गया और चैतन्य के उपदेशों से वे सब शुद्ध वैष्णव बन गए और परोपकारमय जीवन व्यतीत करने का निश्चय करके अपने घर चले गए। दक्षिण भारत की यात्रा के समय ही एक बार इनकी भेंट वासुदेव नामक व्यक्ति से हुई जो प्रारब्धवश कोढ़ी हो गया था किन्तु उस दशा में भी भगवान पर पूर्ण विश्वास रखने वाला था। जब उसे चैतन्य के आने की खबर मिली तो किसी प्रकार चलकर उनके ठहरने के स्थान पर पहुँच गया किन्तु चैतन्य जी इसके पूर्व ही वहां से निकल चुके थे। वहीं पर बैठकर वह अपने भाग्य को कोस ही रहा था कि चैतन्य किसी कारणवश लौट आये और उसे देखकर अपने गले से लगा लिया जबकि वह कहता रहा की प्रभु ,आप मुझे स्पर्श न करें। चैतन्य ने कहा -कुछ भी हो ,मैं तुम्हारे समान सच्चे भगवदभक्त से कैसे पृथक रह सकता हूँ ? इसी प्रकार एक सनातन नामक कोढ़ी को भी वे अपना शिष्य बनाकर सदा अपने साथ रखते थे और इनके सानिध्य से उसका रोग ठीक भी हो गया था।
कुछ समय बाद चैतन्य वृन्दावन आये और यहां से प्रयाग जाने पर इनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई। भक्तिमार्ग के इन दो महान प्रचारकों में परस्पर अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विनिमय भी हुआ इस प्रकार बीस -पच्चीस वर्ष तक भक्तिमार्ग द्वारा हिन्दू संगठन और नवजागरण का कार्य सम्पन्न करके चैतन्य प्रभु ने अपने कार्यक्रम को सफल होते देख लिया। उस समय उनकी आयु ४८ वर्ष की ही थी किन्तु कोमल प्रकृति के होने के कारण अनेक प्रकार की असुविधाओं को सहन करने और लगातार श्रम करते रहने से वे दुर्बल हो गए और तब उन्होंने अपनी लीला का संवरण करना ही उचित समझा एक बार तो वे भावावेश में आकर समुद्र में कूद पड़े थे तभी कुछ मल्लाहों ने उन्हें बाहर निकल लिया था। इसी के बाद एक दिन कथा सुनते सुनते उठे और बड़ी शीघ्रता से जगन्नाथ जी की मूर्ति के सम्मुख प्रार्थना करते करते कुछ ही क्षणों में प्राण त्याग दिए थे।
हिन्दू धर्म में नाम-जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गयी है। चैतन्य ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों को वृन्दावन भेजकर वहां पर सप्तदेवालय की आधारशिला रखवायीं। नादिया के काजी चाँदखाँ ने हरिकीर्तन को बन्द करने की आज्ञा निकाली तो भक्तों ने निमाई के पास जाकर कहा -ऐसा अत्याचार होगा तो हम हरिकीर्तन कैसे करेंगे ?इससे तो अच्छा है कि हम किसी ऐसे स्थान पर चले जाएँ जहां निर्विघ्न भगवान का नाम ले सकें। तब निमाई ने रोषपूर्वक कहा -तुम तनिक भी भयभीत न हो ,हरिकीर्तन पर कोई रोक नहीं लगा सकता। तुमको नगर छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी और न ही हरिकीर्तन रोकना पड़ेगा। दूसरे दिन उन्होंने अपने सहयोगी निताई अर्थात नित्यानंद तथा हरिदास से कहा की सम्पूर्ण नगर में यह घोषणा कर दो कि आज सन्ध्या को हम कीर्तन करते हुए समस्त नगर का भ्रमण करेंगे और काजी साहब के मकान पर भी कीर्तन करेंगे। सभी लोग नियत समय पर हमारे घर पर एकत्रित हों और प्रकाश के लिए एक एक मशाल भी लेते आयें। निताई यह सुनकर प्रसन्न हुए और हरिदास को साथ लेकर मुहल्ले मुहल्ले में यह समाचार फैला दिया और लोगों को प्रेरणा दी कि वे जुलूस का स्वागत करने के लिए सजावट और अन्य तैयारियां करें। नादिया के निवासी यह समाचार सुनकर प्रसन्न हो उठे क्योंकि उनमें से अधिकांश लोग निताई को संकीर्तन करते हुए नहीं देखे थे। सन्ध्या होने के कुछ पहले ही चैतन्य महाप्रभु कीर्तन मण्डली के साथ हरिबोल की ध्वनि करते हुए नगर -भ्रमण करने लगे। बहुत बड़ा जुलूस देखकर लोगों में अप्रत्याशित उत्साह आ गया और वे कहने लगे -काजी को मार दो ,उसका घर लूट लो। जब चैतन्य ने यह बात सुनी तो सभी को शांत रहने को कहा। इधर काजी इस भरी प्रदर्शन से घबरा गया और अपने घर में कहीं छिप गया। चैतन्य अपने साथियों के साथ उसके घर में घुस गए और हरिबोल की मधुर ध्वनि से कीर्तन करने लगे और काजी के सेवकों से कहा कि काजी साहब को बुलाओ ,उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। यह सुनकर काजी बाहर आया और चैतन्य ने उसे प्रेमपूर्वक अपने पास ही बिठाया और कहा -काजी साहब ,यह कहाँ की रीति है कि हम तो आपके घर आयें और आप घर के भीतर बैठे रहें। काजी ने डरते हुए कहा -भाइयों,आप मेरे घर पर आएं यह मेरा सौभाग्य है परन्तु मैंने समझ आप नाराज होंगे इससे मुझे डर लगने लगा। तभी चैतन्य ने कहा आप तो यहां के राज्यकर्ता हैं। आपसे हम कैसे नाराज हो सकते हैं ?मैं तो केवल यही मालूम करने आया था कि आपने कीर्तन को बन्द करने का हुक्म क्यों दिया था। काजी ने सहजभाव से उत्तर दिया कि नगर में कितने ही हिन्दू मुसलमान मेरे पास आकर फरियाद की है कि आपके कीर्तन से उनको तकलीफ होती है इसलिए कानून की दृष्टि से मुझे वैसी आज्ञा देनी पड़ी किन्तु अब आपका भक्तिभाव और शांतिपपूर्ण व्यवहार देखकर मुझे विश्वास हो गया है कि आपके कार्य में कोई हानिकारक बात नहीं है। अब आपके कीर्तन को कोई नहीं रोकेगा।
आध्यात्म -पथ :-
कुछ लोग महाप्रभु चैतन्य को श्रीकृष्ण का अवतार भी मानते हैं जिसका प्रमाण प्राचीन हिदू-ग्रंथों में भी मिलता है। श्री गौरांग अवतार की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें श्रीचैतन्य चरितामृत ,श्री चैतन्य भागवद ,श्रीचैतन्य मंगल ,अमिय निमाई चरित और चैतन्य शतक प्रमुख हैं। गौरांग की स्तुति में कई महाकाव्यों की रचना भी हो चुकी है। इनके द्वारा लिखित कोई ग्रन्थ मूलरूप में उपलब्ध नहीं है। मात्र आठ श्लोक ही उपलब्ध है जिन्हें शिक्षाष्टक के नाम से जाना जाता है। गौरांग के विचारों को श्रीकृष्ण दस ने चैतन्य चरितामृत में संकलित अवश्य किया है कालांतर में रूपजीव और सनातन गोस्वामियों ने अपने अपने ग्रंथों में चैतन्य चरित का विधिवत उल्लेख किया है। इनके विचारों का सार इस प्रकार है :-
श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौंदर्य हैं ,प्रेमपरक हैं। उनकी तीन शक्तियां -परब्रह्म शक्ति ,मायाशक्ति और विलास शक्ति हैं। विलास शक्तियां डॉ प्रकार की हैं -पहला प्राभव विलास जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण एक से अनेक होकर गोपिओं से क्रीड़ा करते हैं और दूसरा वैभव विलास जिसके द्वारा श्रीकृष्ण चतुर्व्यूह का रूप धारण करते हैं। चैतन्य मत के व्यूह सिद्धांत का आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूलशक्ति है और वही आनन्द का कारण है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा हैं। राधा ही श्रीकृष्ण के सर्वोच्च प्रेम का आलम्बन हैं। वही इनके प्रेम की आदर्श प्रतिमा हैं गोपी कृष्ण लीला का प्रतिफल है।
चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांत के अनुसार हरिनाम में रूचि,जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था। वे मात्र बीस वर्ष की अल्पायु में सब कुछ त्यागकर वृन्दावन में अखंडवास करने आ गए थे उनके षड्गोस्वामी का परिचय निम्नवत है :--
श्री गोपाल भट्ट स्वामी -ये बहुत कम आयु में ही गौरांग की कृपा से यहां आ गए थे। दक्षिण भारत का भ्रमण करते हुए गौरांग चार माह इनके घर पर ठहरे थे। बाद में इन्होंने गौरांग के नाम संकीर्तन में प्रवेश किया।
श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी :- ये सदा हरिकृष्ण का अनवरत जाप करते रहते थे और श्रीमद्भागवद का पाठ नियमपूर्वक करते थे। राधाकुंड के तट पर निवास करते हुए प्रतिदिन भागवद का मीठा पाठ स्थानीय लोगों को सुनाया करते थे और स्वयं इतना भावविभोर हो जाते थे कि उनके प्रेमाश्रुओं से भागवत के पन्ने भीग जाते थे।
श्री रूप गोस्वामी :-ये चैतन्य महाप्रभु के परम् शिष्य थे इनका जन्म १४९३ ई में हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्यागकर गौरांग में प्रवेश लिया था और बाद के ५१ वर्ष ब्रज में बिताये।
श्री सनातन स्वामी :-चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रंथों की रचना की थी। अपने भाई रूपगोस्वामी सहित वृन्दावन के छः प्रभावशाली गोस्वामियों में सबसे ज्येष्ठ थे।
श्री जीव गोस्वामी :-इनका जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां १५३३ ई को हुआ था। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी और आँखें कमल की तरह थीं। इनके प्रत्येक अंग से एक चमक निकलती रहती थी। वृन्दावन में इन्होंने एक मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।
श्री रघुनाथ गोस्वामी :-इन्होंने भी अल्पायु में ही गृहस्थी का त्याग कर दिया था और गौरांग के साथ हो लिए थे। ये चैतन्य के सचिव दामोदर के निजी सहायक भी रहे और उनके संग ही इन्होंने गौरांग के अंतिम दिनों में दर्शन किये थे।