Friday, September 2, 2016

समर्थ गुरु रामदास/ करुणासिन्धु महराज

सन्त रामदास जी का जन्म चैत्रमास नवमी तिथि सन् १६०८ ई०को महाराष्ट्र के अम्बा गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।समर्थ गुरु रामदास का बचपन का नाम नारायण था। बचपन  उनके हृदय में स्वधर्म और स्वजाति की सेवा का भाव अंकुरित होने लगा था तभी उनकी माता राणुबाई उनका विवाह करने के लिए उद्यत हो गयीं थीं । विवाह की चर्चा सुनकर एकबार तो वे घर से भागकर जंगल की ओर चले गए थे तब उनके बड़े भाई गंगाधर उन्हें समझाबुझाकर वापस लाया था। उनकी माता कुछ दिनों बाद किसी तरह रामदास से विवाह की स्वीकृति प्राप्त कर ली और बारात जब कन्या के द्वार पर पहुंची और भाँवर का समय आया तब किसी ब्राह्मण ने सावधान शब्द कहकर रामदास की ओर इशारा किया तब रामदास जी स्थिति को समझकर मण्डप से भाग निकले थे। वे विवाह मण्डप से भागकर कई सौ मील की पैदल यात्रा करके पंचवटी नासिक पहुँच गए और टाकली नामक स्थान पर जप-तप और भजन करना आरम्भ कर दिए। वे नित्य प्रातःकाल से दोपहर तक गोदावरी के जल में खड़े होकर गायत्री मन्त्र का जप करते और दूसरी वेला में निकटवर्ती गांव में भिक्षा मांगकर उदरपूर्ति करने लगे। इस प्रकार बढ़ वर्ष तक वहां तपस्या करके गायत्री के कितने ही पुरश्चरण कर डाले थे ।इसका परिणाम यह हुआ कि एक दिन टाकली के पास स्थित एक गांव में किसी पटवारी की क्षयरोग से मृत्यु हो गयी थी और गांव के लोग उसका अंतिम संस्कार करने हेतु गोदावरी के तट पर आये ही थे कि मृतक की पत्नी ने सती होने की घोषणा करते हुए वहीं कुटिया  रहे रामदास जी से आशीर्वाद लेना चाहा। रामदास जी को उसकी परिस्थितियों का आभास नहीं था अतः उन्होंने उसे सौभाग्यवती एवम पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। यह सुनकर पत्नी ने अपने पति के देहांत का समाचार सुनाया तो रामदास जी कुछ क्षण तक उसे देखते रहे और फिर कहा कि तुम विधवा नहीं हो सकती। यह कहकर उन्होंने मृतक के साँस की पुनः जाँच करने के लिए कहा। लोगों ने पटवारी के शव का फिर से ध्यानपूर्वक निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि उसकी सांसें चल रहीं थीं। पानी का छींटा मरते ही उसे होश आ गया और वह उठ बैठा। इस घटना के कुछ दिन बाद ही उसके एक पुत्र पैदा होने का समाचारलेकर पटवारी की पत्नी रामदास जी के पास आयी और अपने पुत्र को रामदास जी के चरणों में रखकर उसे अपना शिष्य बना लेने का आग्रह उनसे किया।यही शिष्य आगे चलकर उद्धव गोस्वामी के नाम से जाना गया। 
धर्मयात्रा :-
 लगभग बारह वर्ष तक टाकली में रहने के बाद रामदास लोककल्याण एवं धर्म-प्रचार के लिए धर्मयात्रा पर निकल पड़े। सर्वप्रथम वे हिन्दूधर्म के केंद्र काशी पहुंचे तो बाबा विश्वनाथ मन्दिर के पुजारियों ने उनकी वेशभूषा देखकर उन्हें ब्राह्मण से भिन्न जाति का कोई वैरागी मान लिया और शिवजी की प्रतिमा के सम्मुख जाने से मना कर दिया। यह देखकर रामदास जी ने कहा कि शिवजी की जो इच्छा हो ,यह कहते हुए वे दूर से ही शिवजी को प्रणाम करके लौट पड़े। कहते हैं कि उनके बाहर निकलते ही पुजारियों को शिवजी की प्रतिमा दिखलाई नहीं पड़ी तो वे दौड़कर रामदास जी से क्षमा याचना की और उन्हें आदरपूर्वक मन्दिर में वापस लाया। रामदास जी के आते ही वह प्रतिमा पुनः पुजारियों को दिखलाई पड़ने लगी। इस चमत्कारिक घटना से काशी में उनकी काफी चर्चा हुई और पुजारियों ने वहीं गंगाघाट पर हनुमानजी की एक प्रतिमा की स्थापना रामदास जी से करवायी। रामदास जी यहां से मथुरा,वृन्दावन तीर्थों का दर्शन करते हुए द्वारिका पहुंचे और यहां उन्होंने एक राम मन्दिर का निर्माण करवाया। इसके बाद वे पंजाब भ्रमण करते हुए श्रीनगर पहुंचे जहां नानक पन्थियों ने उनका बहुत सत्कार व सम्मान किया। इसके पश्चात वे उत्तराखण्ड की यात्रा करते हुए श्री जगन्नाथ जी पहुंचे। पद्मनाभ नामक एक ब्राह्मण को सुयोग्य मानते हुए वहीं पर श्री राम मन्दिर की स्थापना की और उस ब्राह्मण को उसमें महन्त नियुक्त कर दिया। यहां से वे रामेश्वर होते हुए श्रीलंका पहुँच गए और लंका से वापस होकर भारत के पश्चिमी तट पर स्थित केरल,मैसूर,कर्नाटक होते हुए महाराष्ट्र आ गए। यहां उन्होंने गोकर्ण,व्यंकटेश,मल्लिकार्जुन,बल नरसिंह आदि के दर्शन करते हगे पम्पासर ऋष्यमूक,पंढरपुर होते हुए पंचवटी वापस आ गए। अपनी इस तीर्थयात्रा के दौरान उन्होंने भारत की तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया और हिंदुओं की अवनति के प्रति सम्वेदनशील हो उठे। इसके लिए उन्होंने सर्वप्रथम महाराष्ट्र के धर्मसेवकों का एक विशाल और सुदृढ़ संगठन बनाने की योजना बनाई। यद्यपि वे एक कौपीन,खड़ाऊं और एक माला के अतिरिक्त अपने पास कोई भी सामग्री नहीं रखते थे ,पर हिन्दू जाति की रक्षा के लिए उन्होंने महाराज शिवाजी के राज्य संस्थापन कार्य में हर सम्भव सहयोग उन्हें प्रदान किया। 
तीर्थयात्रा के पश्चात समर्थ गुरु रामदास पैठण जाते समय अपने गांव आम्ब पहुँच गए और अपने घर के सामने जाकर जय जय रघुवीर का उद्घोष किया तो उनकी माता ने अपनी बड़ी बहू से कहा कि कोई वैरागी आया है ,उसे भिक्षा दे दो। यह सुनकर रामदास जी ने पुनः आवाज लगायी कि अन्य वैरागियों की भांति केवल भिक्षा लेकर लौट जाने वाला यह वैरागी नहीं है। इस बार माता ने इनकी आवाज पहचान ली और कह पड़ी -क्या नारायण आया है ?यह कहते हुए माता दौड़कर बाहर आयी और रामदास जी उनके चरणों में लेट गए। माता ने प्रेमपूर्वक उन्हें उठाकर अपने गले से लगाया और उनके शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा नारायण तू कितना बड़ा हो गया है ?मैं तो तुझे देख भी पा रहीं हूँ। यह सुनकर रामदास जी ने अपनी माता के सिर पर अपना हाथ फेरा जिससे उनकी आँखों की ज्योति पुनः वापस आ गयी। यह देखके माता ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा -बीटा ,यह तो तूने किसी अच्छे भूत को सिद्ध कर।  तब रामदास जी ने कहा मां ,मैंने वही भूत सिद्ध किया है जो अयोध्या में आनंद मंगल करता था और जिसने गोकुल में लीलाएं की थीं। इसके बाद रामदास जी कुछ दिनों तक माता के पास रहे और एक दिन चलते समय उनके शोकग्रस्त होने पर भागवद की वही कथा उन्हें सुनाई जो कपिल मुनि ने अपनी माता को सुनाया था। 
समर्थ रामदास जी का जीवन का उद्देश्य विदेशी आक्रमणों और विधर्मी शासकों के दमन तथा अत्याचारों से जर्जर हिन्दूजाति में फिर से नवजीवन का संचार करना था। अतः उन्होंने सर्वप्रथम हिदुओं में व्याप्त आत्महीनता के भाव को दूर करने का प्रयास किया और एक विशाल संगठन बनाने के उददेश्य से साधु,कार्यकर्ताओं,मन्दिर एवं मठों की स्थापना का कार्य तो वे भ्रमणकाल में ही आरम्भ कर चुके थे अतः अब वे समाज को संगठित करने का कार्य आरम्भ कर दिया। उन्होंने लोगों से कहा कि "अनेक वर्णों और आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम ही है जिसमें तीनों लोकों के प्राणियों को विश्राम मिलता है। देव,ऋषि,मुनि,योगी,तापस ,वीतरागी,पितृ,अतिथि,आगत सभी इस गृहस्थाश्रम से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि ये लोग अपना आश्रम छोड़कर निकल जाते हैं फिरभी ये आश्रित के रूप में गृहस्थ के घरों में ही घूमा करते हैं। इसलिए गृहस्थाश्रम देव आश्रमों से बढ़कर है लेकिन इस आश्रम में रहकर अपने कर्तव्य का पालन तथा सब प्राणियों का उपकार करना चाहिए। "  यद्यपि वे जप,भजन,साधन,पुरश्चरण आदि को भी आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक समझते थे किन्तु इस पर अधिकार उसी का मानते थे जो अपना जीवन धर्म और समाज की सेवा के लिए उत्सर्ग करने की दृढ भावना और क्षमता रखतें हों। 
राष्ट्र-भक्ति के प्रेरक :-
समर्थ गुरु रामदास जी का मुख्य उद्देश्य अपने राष्ट्र को सशक्त और सुदृढ़ बनाना था। इसीलिए उन्होंने धर्म के साथ लोगों को राजनीति का भी उपदेश दिया। उनका कथन था कि  प्रकार की शंकाओं को मिटाते हुए प्रजा का पालन करना चाहिए और लोगों को सामान्य अपराधों के लिए क्षमा करते रहना चाहिए। न्याय और नीति का पालन करते हुए उसे अपने दल को फूट से बचाना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने अपने अनुयायियों को उस राजनीति की शिक्षा दी  जो असत्य और बेईमानी पर नहीं बल्कि विवेक,सूझबूझ और सावधानी पर आधारित हो। उनका कहना था कि जो व्यक्ति डरकर वृक्ष पर चढ़ जाये ,उसे डीएम ,दिलाशा देना चाहिए और जो लड़ने को तैयार हो ,उसे धक्का देकर गिरा देना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने लोगों के लिए व्यावहारिक मार्ग को प्रशस्त किया। रामदास जी ने त्याग और सेवाभाव पर विशेष बल दिया। वीर शिवाजी को शिष्यत्व की दीक्षा देने के बाद एकदिन वे स्नान,सन्ध्या वन्दन करके भिक्षार्जन करते हुए सतारा के राजमहल पहुँच गए थे और राजमहल के सामने जय जय रघुवीर समर्थ का जब उद्घोष किया तो गुरु की आवाज पहचानकर शिवाजी आनन्दमग्न होकर बाहर आये और गुरु को देखकर सोचने लगे कि ऐसे महान भिखारी को क्या दान दिया जाये। उन्होंने तुरन्त एक कागज पर अपना सम्पूर्ण राज्य का दान लिखकर गुरु की झोली में डाल दिया। रामदास जी ने जब उसे पढ़ा तो हंसते हुए बोले -शिवा तुमने समस्त राज्य तो मुझे दे डाला ,अब तुम क्या करोगे ?शिवाजी ने हाथ जोड़करकहा -महाराज ,मैं आपके चरणों की सेवा करूँगा। उनकी इस भक्ति भावना को देखकर गुरु रामदास जी ने कहा कि हम वैरागी राज्य लेकर क्या करेंगें ?अब हमारी अमानत समझकर राज्य का कारोबार तुम्ही चलाओ। शिवाजी ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने झंडे के स्थान पर भगवा रंग का झंडा राजमहल के ऊपर लगाकर त्याग और कर्तव्यभावना का परिचय  देते हुए एक नवीन परम्परा का सूत्रपात किया जिसके परिणामस्वरूप शासकीय कार्य में धर्म और न्याय का विशेष रूप से समावेश हुआ। 
गुरु रामदास राजा को भगवान का नौकर मानते थे। यही भावना उन्होंने शिवाजी के मन में भी भर दी थी। एक बार रामदास जी अपने शिष्यों के आग्रह पर किसी के खेत से भुट्टा तोड़कर खा रहे थे उसी समय खेत का मालिक आ गया और उनपर लाठियों से प्रहार करने लगा तब शिष्यों ने बीचबचाव करने से मामला शांत हुआ और सभी वहां से राजमहल पहुँच गए। सेवा करते हुए शिवाजी ने जब गुरु के पीठ पर लाठी की चोट देखी  तब उन्होंने गुरु से पूंछा तो गुरु जी मौन हो गए और एक शिष्य ने सारी  घटना बता दी। शिवाजी ने उस खेत के मालिक को बुलवाया और जब उसे उचित दण्ड देना चाहा तो गुरु ने हस्तक्षेप करते हुए उसे क्षमा कर देने की आज्ञा दे दी।समर्थ गुरु रामदास जी सदैव दान दक्षिणा लेने में अरुचि व्यक्त किया करते थे। इनके बड़े भाई श्री श्रेष्ठ  गांव में ही रहकर भक्तिमार्ग का प्रचार किया करते थे ,के निधन के पश्चात उनके दोनों पुत्रों को समर्थ ने अपने पास बुला लिया था। जब यह समाचार शिवाजी को मिला तो वे स्वयं समर्थ जी के आश्रम गए और अपनी यह इच्छा प्रकट की कि जांब तथा कुछ अन्य गांव को मिलाकर श्रेष्ठ के दोनों पुत्रों के नाम कर दिया जाये जिससे वे पारिवारिक श्रीराम मन्दिर की व्यवस्था यथावत करते रहें और अपना जीवनयापन भी उससे करते रहें। समर्थ गुरु रामदास जी के इंकार करने पर शिवाजी किंचित दुखी होकर कहा था --लगता है कि भगवान राम की सेवा करना मेरे भाग्य में नहीं लिखा है। यह सुनकर समर्थ ने  कि केवल इतना प्रबन्ध  जिससे राममंदिर की व्यवस्था भी चलती रहे और साधु सन्तों का सत्कार भी होता रहे। तब शिवाजी ने राज्य के तैंतीस गांव राममंदिर के नाम कर दिया था और प्रत्येक वर्ष वहां पर धर्मोत्सव मनाने की समुचित व्यवस्था कर दी थी। 
दासबोध का वर्ण्य-विषय :-    
रामदास जी ईश्वर के सगुण उपासक थे। भगवान राम के प्रति अपनी श्रद्धा एवं भक्ति प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि "रघुनाथ वास्तव में मेरे पारिवारिक उपास्य देव हैं। वे व्यक्ति महान हैं जो विषम परिस्थितियों में ईश्वरानुभूति द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं। "रामदास जी एक साधारण व्यक्ति और ईश्वरानुभूति प्राप्त व्यक्ति में अन्तर बताते हुए कहते हैं कि ईश्वरानुभूति प्राप्त व्यक्ति को समाज के लिए नैतिक मापदंड और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का निर्धारण करना चाहिए। रामदास के अनुसार जिस व्यक्ति का मन चंचल है उसे दासबोध का अध्ययन नहीं छोड़ना चाहिए। इसके स्थिर एवं नियमित अध्ययन से गुह्य अर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं और आध्यात्मिक जीवन की जड़ आत्मा में गहराई तक पहुँच जाती है। 
रामदास जी द्वारा प्रतिपादित तत्वशास्त्रपरक  विवेचन में सर्वप्रथम ज्ञान के पारिभाषिक कथन का दर्शन होता है। उनके अनुसार विज्ञान का सम्यक अध्ययन ही ज्ञान नहीं है। वास्तविक ज्ञान के संदर्भ में उनका कथन है कि "किसी दूसरे के मन में किस प्रकार की प्रतिक्रिया हो रही है ,को जानना ही ज्ञान है। "इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा की वास्तविक ज्ञान आत्मज्ञान है। यह आत्मा के द्वारा आत्मा को जानना है तथा वास्तविक ज्ञान ईश्वर का ज्ञान है। यह ज्ञान सत्य और असत्य के भेद को दूर कर देता है। ज्ञान मन के परे ,समझ के परे एवं समस्त विवादों के परे है। 
रामदास जी की भक्ति भावना बहुत ही प्रबल थी। इनकी भक्ति का स्वरूप सगुणात्मक था। वे ईश्वर के साक्षात्कार के लिए आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता बताते हुए कहतें हैं कि हमें ईश्वर के नाम की सतत साधना द्वारा तादात्म्य स्थापित कर लेना चाहिए। वास्तव में यह एक रहस्यपूर्ण प्रयास है और यह सुयोग्य आध्यात्मिक गुरु द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। एक आध्यात्मिक गुरु की महत्ता उन्होंने ईश्वर से भी अधिक समझी। जिस संदेहास्पद स्थिति में गुरु नानक ने 'गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पाँय 'कहा था उसी स्थिति में रामदास जी का कथन है कि "वह व्यक्ति जो ईश्वर को गुरु से बड़ा मानता है ,मूर्ख  है। उसका मन केवल शक्ति और वैभव तक ही सीमित है। गुरु की महानता के आगे ईश्वर की महानता नगण्य है। गुरु आध्यात्मिक निधि की कुंजी अपने भक्त को दे देता है।"रामदास जी के शब्दों में "जो मन के द्वारा नहीं प्राप्त हो पाता ,उसे गुरु की शक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अन्ततः उन्होंने गुरु को  ईश्वर से बड़ा कहकर उपर्युक्त सन्देह को सर्वथा दूर कर दिया।"
रहस्यानुभूति की व्याख्या करते हुए रामदास जी का कथन है कि "आध्यात्मिक जिज्ञासु की वास्तविक निधि छिपी हुई होती है। सेवक उस निधि का मूल्यांकन नहीं कर पाते। वे केवल बाह्य आभास ही पाते हैं। आध्यात्मिक अनुभूति इसी प्रकार की निधि है। इसी तरह ईश्वर जो साधारण लोगों की दृष्टि में विद्यमान है ,सत्संग द्वारा स्पष्ट देखा जा सकता है। "रामदास जी रहस्यवाद की स्थिति को विरोधपूर्ण भी मानते हैं क्योंकि जैसे ही हम इसके प्रति सजग होते हैं वैसे ही हम उसे भूल जाते हैं और जैसे ही हम उसे भूलने लगते हैं वैसे ही वह हमारी चेतना में अवतरित हो जाता है। अन्ततः रामदास जी यही कहते हैं कि इसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान वही कर पाता है जो आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त कर चुका होता है। संत रामदास के अनुसार ईश्वर साधक की साधना के अनुरूप ही उसे प्रतिफल देता है। भगवदगीता के संदर्भ में रहस्यवाद का अनुमोदन करते हुए रामदास जी ने कहा -"वह जिसे शास्त्रों से पराजित नहीं किया जा सकता ,जिसे अग्नि जला नहीं सकती ,जो जल के द्वारा आर्द्र नहीं किया जा सकता ,जो वायु के द्वारा उड़ाया नहीं जा सकता ,जो न तो नीचे गिराया जा सकता है और न ही धारण ही किया जा सकता है फिरभी वह सर्वत्र और हमेशा विद्यमान रहता है। यह सत्ता केवल उपासना से ही अनुभवगम्य है। "
ब्रह्म के स्वरूप वर्णन के सम्बन्ध में रामदास जी विचार है कि ब्रह्म आकाश से भी अधिक विस्तृत है। यह उतना ही छोटा है जितना बड़ा है। वह हमारे समीप है किन्तु छिपा हुआ है।केवल आध्यात्मिक पुरुष जो ईश्वरानुभूति प्राप्त कर चुके हैं वे इस ज्ञान को प्राप्त कर पाते हैं।  ब्रह्म के स्वरूपवर्णन एवं ज्ञान  के पश्चात प्रश्न उठता है कि रामदास ने ब्रह्म का साक्षात्कार कैसे प्राप्त किया ?इसके लिए रामदास जी ने बताया कि साधना का आश्रय ही पर्याप्त है। यदि साधक साक्षात्कार की साधना कर चुका है तब भी उसके लिए साधना उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना इसके पूर्व थी। ईश्वर के साक्षात्कार के बाद साधक की कोई भी आवश्यकता शेष नहीं रहती है। रामदास जी के शब्दों में -"यदि मनुष्य ने साधना के आदर्शस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति कर ली है तब साधना उसके लिए और क्या कर सकती है ?यदि संत एकबार ईश्वर से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित कर लिया है तब उसकी आवश्यकता कम हो जाती है। "
संत रामदास जी ने अपने को इन्हीं मार्गों द्वारा ईश्वर के सन्निकट लाने का प्रयास किया था। उन्हें स्वयं भी एहसास हुआ कि वे इस उद्देश्य तक पहुँच चुके थे। दासबोध में अनेक स्थलों पर रामदास ने रहस्यात्मक अनुभवों का जो उल्लेख किया है वह उनकी स्वयं की अनुभूतियों से निःसृत हैं। उन्होंने रहस्यात्मक मार्ग को एक प्रमाणिक मार्ग के रूप में अन्य मार्गों का गूढ़ एवं आतंरिक रहस्य बताया। अंततः रामदास जी ने रहस्यानुभूति का चरम लक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहा -"आध्यात्मिक अनुभव हमें केवल अपनी सामर्थ्य के अनुसार सम्पूर्ण जीवन की साधना से प्राप्त हो सकता है और तब परमात्मा स्वयं अपने स्वरूप को स्पष्ट कर देगा। "  
समर्थ गुरु रामदास जी जब बारह वर्ष के थे तभी घरबार छोड़कर नासिक के पास टकाली में रहने लगे थे। शिवाजी जैसे महाप्रतापी राजा इन्हें अपना गुरु मानते थे। शिवाजी इनकी आध्यात्मिकता साधना से इतने अधिक प्रभावित थे कि वे अपना समस्त राजपाट इनके चरणों में अर्पित करके स्वयं सेवक के रूप में कार्य करते थे। दासबोध इनकी प्रमुख रचना है। इसमें इनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं का संग्रह है। इन्होने आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने के पूर्व जगत के परिप्रेक्ष्य में अपने को पूर्णरूपेण पहचान लेना आवश्यक समझा। आत्मज्ञान द्वारा उन्होंने क्रमशः ईश्वर की उपासना को दृढ़तर बनाया और विविध अनुभव सोपानों पर चढ़कर ईश्वर का साक्षात्कार किया। उनका कथन है कि "मेरी उपासना ही है जो तर्क से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रभावपूर्ण है और इस भौतिक संसार से परे ईश्वर की प्राप्ति में सहायक है। "
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                            श्री करुणासिन्धु जी महराज

उत्तर प्रदेश के जनपद प्रतापगढ़ तहसील कुण्डा के अन्तर्गत हीरागंज बाजार के सनिनकट गाँव गोपालापुर के ब्राह्राण (धतुरा तिवारी) कुल में विधि-विधानपूर्वक मानस यज्ञ (अखण्ड रामायण पाठ) के सम्पन्न होने के फलस्वरूप विक्रम संवत-१७३०सन-१६७४ र्इ० के बैशाख मास के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को श्री जानकी तिवारी के घर पुत्र रत्न स्वरूप एक तेजस्वी एवं नखरूप चन्द्र के तेज से उत्पन्न बालक ने जन्म लिया था।
दिन चारि चतुर्दशी शुक्ल सुमाधव मास स्वपन्न सवे  अनया।
सब लोग सुखदद शशी कर हदद उजग्गर वंश सुपुत्र भयो।।
सत्रह सौ तीस सुविक्रम अब्द सुभाष  भयो तिहँ  लोक जसी।
शशि पूर्ण कला नखते जपला पद अंगुठवाम सुआनि वसी।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
परिवार के कुल पुरोहित पंडित देवानन्द जी ने नामकरण संस्कार कर प० रामप्रपन्न नाम देते हुए शुभाशीष स्वरूप बालक की जन्मपत्री की संरचना करके उनके भविष्य की एक झलक विलक्षण प्रतिभावान बालक की प्रस्तुत कर दी थी। बडे़ धूम-धाम से बालक की माता ने अपने आंगन में परिवार की नारियों को बुलाकर बालक की छठि-कर्म सम्पन्न किया तथा यथोचित दान-दक्षिणा देते हुए बालक के जन्म की खुशियाँ मनायी। एक दिन माता श्रीमती पदमा ने बालक के पालने में खेलते समय उसके आभा मंडल के प्रकाश को गौर से देखा तो वह अचेत होकर वहीं गिर पड़ी। परिवार के बुजुर्गों ने बालक की माता को सांत्वना देते हुए उसे संत-कृपा का फल बताया तो उसी समय बालक के हाथ पर श्री राम चरित मानस (गुटका) ग्रन्थ व तुलसी दल को रखते हुए परिजनों ने बालक की न्यौछावर की एवं पुन: गरीबों को दान-दक्षिणा बाँटी गयी। बालक के माता-पिता की उक्त प्रसन्नता को करूणामणिमाला के इस दोहे से भलीभाँति समझा जा सकता है:-
कहुँ पालना कहुँ गोद  में दूध  पियावति  मात।
चरण हाथ मुख चूमती तेल लगावति गात ।।1।।
मजिज  मंद  हँसि  झीगुंली  कंगही  केश  सुधारि।
भाल दिठोना अंजि दृग चूमति हृदय उघारि ।।2।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
बाल्यकाल में घुटने के बल चलते हुए बालक पं० रामप्रपन्न तिवारी को लोटा-थाली बजाकर मग्न होकर नाचते हुए देखकर माता अत्यन्त भाव-विभोर हो जाती। चैतमास में अयोध्या के रामघाट पर बालक का मुंडन कराकर ब्राह्मण भोजन का आयोजन कराते हुए मुंडन संस्कार सम्पन्न कराया गया और स्थानीय विभिन्न मनिदरों की परिक्रमा करते हुए अन्त में हनुमान मंदिर की डयोढी पर बालक को लिटाकर उनके आशीर्वाद एवं कृपा की याचना परिजनों द्वारा की गयी। मंदिर से घर वापस आकर नाच-गाने के साथ भण्डारा करके पुन: परिवार में खुशियाँ मनायी गयी। गाव के लोग बालक की तेजस्वी छवि एवं विलक्षण प्रतिभा को देखकर आपस में यही बात करते थे कि ब्राह्मण कुल में इस बालक ने किसी पुण्यात्मा के रूप में जन्म लिया है। कुल पुरोहित पंडित देवानंद ने इस विलक्षण प्रतिभा के बालक को अपने संरक्षण में वेदशास्त्र की विधिवत शिक्षा-दीक्षा आरम्भ की। शिक्षा के पश्चात पं० रामप्रपन्न तिवारी का श्री अजमोद कुमार की पुत्री विलासिनी से विवाह भी कर दिया गया। रियासत ढि़गवस बेंती तथा कालाकांकर द्वारा बार-बार उन्हें पुरोहित के रूप में स्वीकार करने का आमंत्रण भेजा गया किन्तु पं० रामप्रपन्न तिवारी अपनी आर्थिक सिथति अच्छी न होने के बावजूद भी उस आमंत्रण को अस्वीकार करते रहे। राजा कालाकांकर श्री वैरीशाल ने एक दिन स्वप्न देखा कि कोर्इ युवा ब्राह्मण हाथ में लाठी लेकर उनके सामने खड़ा है और पूरा राजमहल आग से जल रहा है। इस दृश्य से राजा की नींद खुली और उन्होंने तत्काल अपने परिजनों को बुलाकर स्वप्न की बात बतायी। राज दरबार के कुछ लोगों ने कुल देवता के रूष्ट होने की बात कही तो कुछ ने इसे केतु-ग्रह का प्रकोप बताया। इस घटना के बाद राजा कालाकांकर वैरीशाल स्वयं गोपालापुर आकर पं० राम प्रपन्न तिवारी से अपनी रियासत के लेखा प्रबन्धन कार्य के रिक्त पद को स्वीकार करने का इस शर्त के साथ यह हठ कर लियाकि जब तक आप कालाकांकर नही चलेंगे तब तक मैं भी आपके पास ही रहूँगा। पं० राम प्रपन्न तिवारी अन्तत: इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए कालाकांकर आकर रियासत के लेखा एवं प्रबन्धन कार्य संभाल लिए। पंडित राम प्रपन्न तिवारी के कालाकांकर आने पर राजा वैरीशाल द्वारा देखे गये स्वप्न अर्थात केतु के प्रकोप से जो अनर्थकारी कि्रयायें हो रही थी वे धीर-धीरे शान्त होने लगी। प्रतिदिन राजा वैरीशाल परिजनों के साथ पंडित जी द्वारा कराये गये पूजा पाठ में समिमलित होने लगे व रामकथा सुनने लगे। ऐसे पुण्यात्मा ब्राह्मण के सानिध्य में राजा वैरीशाल धीरे-धीरे परमार्थ अर्थात अध्यात्म की ओर उन्मुख होने लगे।
     पं० रामप्रपन्न तिवारी प्राय: अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी की आराधना में लीन रहते हुए हदय में भगवान राम व सीता की मनमोहक छवि को संजाये हुए श्री हनुमान की विशेष कृपा प्राप्त कर लिए थे। इसी मध्य एक दिन ऐसा भी आयाजब वे किसी विशेष पूजा में व्यस्त होने के कारण रियासत का कार्य उस दिन नही देख पाये थे। पूजा समापित के पश्चात अपने कर्तव्य का आभास होने पर वे सीधे रियासत के कार्यालय पहुँचकर सहयोगी कर्मचारियों से रियासत की लेखाबही प्रस्तुत करने का आग्रह कियाताकि रियासत के उस दिन का लेेखा-जोखा उसमें अंकित कर सके। पंडित जी के आग्रह पर उनके सहयोगी आश्चर्य प्रकट करते हुए बोल पडे़ कि पंडित जी आप तो प्रातकाल ९:०० बजे ही कार्यालय आ गये थे तथा रियासत के लेन-देन सम्बन्धी निर्देश देते हुए आपने लेखाबही में उनकी प्रविषिट भी कर दी है। सहयोगियों के इस उत्तर पर पंडित जी स्वयं हतप्रभ हो गये एवं उसकी पुषिट के लिए उन्होंने लेखाबही प्रस्तुत करने के निर्देश दिये। लेखाबही प्रस्तुत होने पर उन्होंने जो भी देखा वह किसी चमत्कार से कम न था। उस दिन का सम्पूर्ण लेखा-जोखा रजिस्टर में विधिवत अंकित था तथा प्रत्येक लेन-देन की प्रविषिट पर उनके स्वयं के हस्ताक्षर भी मौजूद थे। ऐसे चमत्कार को देखकर पंडित जी अपने सहयोगियों को अपने-अपने कार्य में लग जाने का निर्देश देते हुए कुछ समय के लिए एकान्त में ध्यान करने लगे। ध्यानावस्था में ही उन्हें यह बोध हुआ कि पूजा कार्य में व्यस्त होने की अवधि में उनके आराध्य देव पवन पुत्र श्री हनुमान स्वयं उनका भेष धारण कर कार्यालय में उपसिथत हुए थे और प्रतिदिन की भाँति कार्यालय का सम्पूर्ण कार्य उनके द्वारा ही संचालित किया गया। इस तथ्य का आभास होने के पश्चात पं० राम प्रपन्न तिवारी की अपने पूज्य एवं आराध्य के प्रति आस्था इतनी दृढ़ हो गयी कि वह कार्यालय से निकलकर सीधे अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गये।
     कालाकांकर से अयोध्या की लगभग २५० कि0मी0 की दूरी पैदल तय करते हुए दूसरे दिन सायंकाल वे सुल्तानपुर के निकट सिथत घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। अंधेरे के कारण उन्हें आगे का मार्ग स्पष्ट दिखायी नही पड़ रहा था। अत: वे किसी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर अपनी थकान मिटाने लगे थे। थोड़ी देर पश्चात उन्होंने श्वेत वस्त्रधारी लम्बे बाल व दाढ़ी से युक्त एक संत वेशधारी ब्राह्मण को देखाजो उनके पास आकर रूक गये एवं कुशल क्षेम पूँछकर उनका आगे का मार्ग प्रशस्त करते हुए कहा कि बेटा तुम इस पगड़ण्डी को पकड़कर सीधे रास्ते पर चलते रहनातीन दिन के पश्चात तुम्हें अयोध्या नगरी मिल जायेगी।
     पंडित जी ने एक लम्बी एवं गहरी श्वास ली तथा ब्राह्मण साधु की कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उनके द्वारा बतायी गयी पगडंडी पर आगे की ओर चलने लगे। रात-दिन जंगल की यात्रा करने के पश्चात प्रात: ६:०० बजे अयोध्या पहुँचने वाले ही थे कि पुन: उपयर्क्त संत वेशधारी ब्राह्मण उनके सामने प्रकट हो गये। हतप्रभ होकर पंडित जी के मुख से अकस्मात यह शब्द निकल पड़ा कि महाराज आप तो सायं काल जंगल के प्रारम्भ में ही मेरा मार्गदर्शन कर दिया था और अब यहाँ कैसे उपसिथत हो गये। साधु ने पंडित जी को आश्वस्त करते हुए कहा कि बेटा अब यहाँ से आगे का मार्ग भी तो तुम्हें बताना था इसीलिए दोबारा आना पड़ा।
     पंडित जी के सिर पर हाथ रखते हुए ब्राह्मण ने कहा कि बेटा तुम चौथे दिन अयोध्या सिथत सूर्यकुंड पहुँच जाओगे और उसी दिन वहाँ बड़ा रविवार का मेला लगा हुआ पाओगे। सूर्यकुंड पहुँचने पर सरजू नदी में स्नान करके कुछ देर वहीं पर विश्राम कर लेना। विश्राम के पश्चात अगले दिन सरजू नदी के श्री रामघाट पर स्नान करके श्री हनुमानगढ़ी मंदिर पर आ जाना और वहाँ संतों से मोदक बाबा का नाम पूँछकर मेरे पास आ जानामैं वहीं पर तुम्हें मिलूँगा। पंडित जी संत वेशधारी (श्री हनुमान) के उपरोक्त आदेश का पालन करते हुए निर्धारित समय पर श्री हनुमानगढ़ी मंदिर पहुँच गये किन्तु पहुँचने से ठीक पांच मिनट पूर्व दोपहर के पूजन के बाद मंदिर का पट बन्द हो चुका था। पंडित जी निराश होकर वहाँ उपसिथत संतो से मोदक बाबा की जानकारी प्राप्त करनी चाही किन्तु कोर्इ भी मोदक बाबा के पास पहुँचने का मार्ग नही बता पाया। निराश होकर के पंडित जी वहीं मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर अपने आराध्य देव का स्मरण करने लगे। इसी समय श्री हनुमान जी ने मंदिर के महाराज बिन्दुक गाधाचार्य स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य (बड़ी जगह) को स्वप्न में पंडित जी के आगमन की सूचना देते हुए उन्हें निर्देशित किया कि वे पंडित जी को तुरन्त अपने पास बुला लें तथा अपने परिकर में समिमलित कर लें। बिन्दुक महाराज अस्वस्थ थे अत: उन्होंने अपने उत्तराधिकारी श्री रघुनाथ प्रसादाचार्य दीनबन्धु महाराज को पंडित जी को सादर अपने पास ले आने की आज्ञा दी। दीनबन्धु जी तुरन्त सीढ़ी पर बैठे हुए पंडित जी को बिन्दुक महाराज के पास ले आये। पंडित जी के आगमन पर मंदिर में एक महोत्सव का आयोजन किया गया और उसी महोत्सव में उनका नामकरण श्री रामचरण दास महाराज कर दिया गया। पं० राम प्रपन्न तिवारी ने गुरूदेव को दंडवत करके श्री हनुमान जी के धाम की सात फेरी परिक्रमा की। गुरूदेव राम प्रसाद ने सभी शिष्यों को बुलाकर मंडप की संरचना करायी और विधि-विधानपूर्वक पंचगव्य के साथ चंदि्रका मुदि्रका रामनाम धनुषबाण आदि चारों संस्कार सम्पन्न कराये।
कहि समुझाय प्रमाण महिमा कंठी तिलक की।
युगल गुरूहिं सनमान पादोदक मुख शिरँधरयो।।
कुसुमन माल प्रसाद उठवत आपुहिं गिर परेऊ।
सदगुरू  राम  प्रसाद  लै उठाय  पहिरायेऊ।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत)
     कालाकांकर से पं० राम प्रपन्न तिवारी के अयोध्या प्रस्थान के पश्चात राजा वैरीशाल अत्यधिक व्यग्र एवं दु:खी रहने लगे थे। ज्योंही उन्हें यह समाचार प्राप्त हुआ कि पंडित जी अयोध्या सिथत बड़ी जगह पहुँच चुके हैं त्योही उन्होंने सपरिवार अयोध्या के लिए प्रस्थान कर दिया। अयोध्या पहुँच  कर गुरू राम प्रसाद जी से पंडित राम प्रपन्न तिवारी जी को वापस कालाकांकर लाने हेतु राजा ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया तथा इसके एवज में उन्होंने बारह सौ रूपये मासिक व साढे़ तीन सौ बीघा जमीन भी देने का प्रस्ताव रखा। इसी मध्य पंडित जी के माता-पिता व ग्राम गोपालापुर के अन्य कुटुम्ब जन भी अयोध्या पहुँच चुके थे। सभी ने पंडित जी को वापस लाने का अथक प्रयास किया। गुरू राम प्रसाद जी अन्तत: सहमत भी हो गये थे किन्तु इसी समय दोपहर के भोजन का समय  हो चुका था। अयोध्या के सभी साधु-संत उपसिथत होकर पंकितबद्ध भोजन कर रहे थे। इसी समय पंडित राम प्रपन्न तिवारी हाथ में एक पत्तल लेकर साधु-संतों की पतरी में बचे हुए जूठन को एकत्रित करके उसका प्रसाद ग्रहण करने लगे। यह दृश्य देखकर पंडित जी के परिवार के लोग विचलित हो गये। उन्होंने पंडित राम प्रपन्न को घर वापस लाने का अपना इरादा बदलकर चुपके से बिना किसी को बताये हुए अयोध्या से गोपालापुर चले आये। अन्त में राजा वैरीशाल भी निराश होकर कालाकांकर लौट आये।
     स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य के संरक्षण में श्रीराम चरणदास ने सदग्रन्थों में छिपे हुए रसभावअनुभाव एवं संचारी भाव को उदघाटित करने हेतु श्रीचारूशीला बाग पहुँच गये। कुछ समय तक वहीं रहते हुए रास विलास की गहराइयों से परिपूर्ण अनेक ग्रन्थों की रचना की और वहीं गुरू श्री हनुमान जी की प्रेरणा से श्रीचारूशीला जी की महती कृपा प्राप्त की। देशाटन के उददेश्य से कुछ समय वाराणसी में तीर्थवास किया तथा पुन: अयोध्या वापस आकर श्रृंगार रस का अवगाहन करते हुए कवित्त अग्रसागर, अग्ररस, मंजूष अग्रसुचंदिका, अग्ररास बिलास, कौमुदि, अग्रयूथ विनोदिका, अग्रसुषमा, अग्रमंजरि, अग्रसेवा, वो रात, अग्रचालीसा, बहार, पियूष, अग्र बड़ा खड़क, अग्ररस की कुंजिका, परिशालिनी, वो बिमासिका, अग्रगीत, तरंग, दर्शन, पदक, अग्रकलापिका, मारतंड, प्रदीप, तन्त्री, कुसुम, दर्पण, अंजना, अग्ररससारी, महोत्सव, परिणयन्न विवेकना आदि की रचना की। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन एक नये पद की रचना करते हुए साधु-संतो के मध्य उसे गा गाकर उन्हें भाव-विभोर करने लगे। बारह वर्ष तक सत्संग करने के पश्चात भक्तमाल कथा का पुराणों से अनुवाद किया। गुरू राम प्रसाद एवं अन्य कतिपय सन्तों के साथ चित्रकूट में कुछ समय तक वास करने के पश्चात पुन: जानकी घाट वापस आ गये तथा श्री हनुमान जी की प्रेरणा से तुलसीकृत रामायण के प्रत्येक काण्ड की संवत-१८६५ में आनंद लहरी नामक टीका की रचना कीजिससे संत समाज अत्यन्त कृतकृत्य हो उठा।
पांच  षष्ठ   वसु   एक   में,  विजयादशमी  भोर ।
आनंद   लहरी   नामकी,   टीका  चली  सुठोर ।।1।।
सकल कांड  एक   संग   में,   टीका   दर्इ   चलाय।
लखि-लखि, सुनि-सुनि मनहिं गुन, संत हृदय हर्षाय।।2।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
शिष्य जीवाराम के अनुरोध पर उन्हें मृदंग वादन करके राम कथा वाचन में प्रवीण किया तथा काशीविन्ध्याचल एवं चित्रकूट से पधारे हुए अनेकानेक शिष्यों को टीका की रसात्मक व्याख्या सुनाकर उन्हें भी पारंगत किया। अन्त में सरजू नदी के किनारे मचान बनाकर तीन दिन तक मानस पाठ, हवन, ब्रह्मभोज आदि का आयोजन करके अत्यधिक प्रसन्नता एवं आलौकिक सुख की प्रापित की। अन्तत: माघ शुक्ल नवमी तिथि संवत-१८८०, सन-१८३४ र्इमें १५० वर्ष की आयु पूर्ण करते हुए करूणामयी दृषिट से अपने चारों ओर बैठे हुए शिष्यों पर एक विहंगम दृषिट डाली और अपने प्रस्थान हेतु आकाश से उतरते हुए एक विमान की ओर इशारा किया और उसी समय अपने दोनों नेत्र सदा के लिए बन्द करके महानिर्वाण की प्रापित की। अत्यधिक संवेदना के साथ भाव-विभोर होते हुए शिष्यों ने उन्हें रसिक विभूति श्री करूणासिन्धु जी महाराज की महाउपाधि से विभूषित करते हुए अपने गुरू अनंत श्री स्वामी श्रीराम चरणदास से अनितम विदा ली।
             माघ शुक्ल नवमी तिथी, वसु वसु वसु शीश शाल।
             सुमन सेज विश्राम लियो, मघ्य दिवस रविमाल।।1।।
             संत रसिक करिहहिं दया, लिखि निज मति अनुसार।
             रास रसिक पढि़हहिं, सुनहिं करूणमाल सुधार।।2।।
                               (श्री करूणामणिमाला से उदघृत)
श्री करुणासिन्धु जी महराज ने नियम एवं संयमपूर्ण जीवन जीते हुए १५० वर्ष की आयु में समाधिस्थ होकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। गोस्वामी तुलसीदासजी कृत रामचरितमानस पर अपनी भावपूर्ण गम्भीर टीका लिखते हुए उन्होंने प्रथम टीकाकार होने का गौरव प्राप्त किया। श्री राम एवं जानकी की भक्ति को एक नया आयाम देते हुए एक रसिकपीठ की स्थापना करके उन्होंने भक्तों एवं साधु-सन्तों को एक नई दिशा व भावभूमि प्रदान की जो आज तक उसी दिशा में उत्तरोत्तर अग्रसर है। उनके पांडित्य एवं चमत्कारी शक्तियों की अनेकों कथाएं सुनने को मिलती हैं। कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल सम्राट औरंगजेब का काफिला एक दिन अयोध्या शहर से होकर गुजर रहा था। काफिले का नेतृत्व कर रहे मुगल सिपाहियों ने सम्राट के जाने का रास्ता बनाने हेतु सभी को रास्ते से दूर हो जाने का संकेत देते हुए आगे बढ़ रहे थे तभी रास्ते के बगल में स्थित एक खण्डहर की दीवार पर बैठकर दातुन करते हुए करुणासिन्धु पर उनकी नजर पड़ी तो उन्होंने करुणासिन्धु जी को भी रास्ते से हटने को कहा। यद्यपि करुणासिन्धु जी रास्ते के किनारे पर थे किन्तु मुगल सिपाहियों के इस धृष्टता पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि वे रास्ते से दूर हैं अतः आपलोग आसानी से जा सकते हैं। यह सुनकर मुगल सिपाही आग बबूला हो गया और उसने अपशब्दपूर्ण भाषा में पुनः उनसे हटने को कहा। करुणासिन्धु ने उसके अन्यायपूर्ण कृत्य का प्रतिकार करते हुए अपनी दातून को दो तीन बार उसी खण्डहर की दीवार पर पटका तो दीवार स्वतः आगे बढ़कर बीच रास्ते में आ गयी। यह देखकर मुगल सिपाही हतप्रभ हो गया और दौड़कर उसने सम्राट औरंगजेब को इस आश्चर्यपूर्ण घटना की जानकारी दी तो सम्राट स्वयं वहां पर आकर उसका निरीक्षण करना चाहा। कहते हैं कि जब सम्राट करुणासिन्धुजी के निकट पहुंचे तब उस खण्डहर को बीच रास्ते में स्थित देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो गए और नतमस्तक होते हुए करुणासिन्धु जी से दीवार हटाने का अनुरोध किया। सम्राट के इस अनुरोध पर करुणासिन्धु जी ने अपनी दातून से उस दीवार पर पुनः प्रहार किया तो दीवार अपने यथास्थान पर आ गयी। औरंगजेब यद्यपि हिन्दू धर्म का कट्टर विरोधी था किन्तु करुणासिन्धु जी की अलौकिक शक्तियों ने उसे नतमस्तक होने पर विवश कर दिया था। 
करुणासिन्धु जी की पावन सरयू के प्रति अटूट आस्था थी। इसीलिए वे प्रतिदिन सरयू नदी में स्नान करने के पश्चात ही अपनी दिनचर्या आरम्भ किया करते थे। जीवन के अंतिम दिनों में वे अशक्त व कमजोर हो गए थे जिसके कारण वे किसी के सहारे सरयू तक पहुँच पाते थे। एकदिन वे अस्वस्थतावश सरयू स्नान हेतु अपने निर्धारित समय पर नहीं जा पाए तो वे चिन्तित हो उठे। इसी समय उन्हें एक दिवास्वप्न के माध्यम से सरयू जी के दर्शन हुए तो उन्होंने अपनी असमर्थता पर उनसे क्षमा मांगी। सरयू जी ने उनसे कहा --वत्स ,अधीर न हो और न ही क्षमा मांगने की आवश्यकता है। कहते हैं कि उसी समय सरयू जी एक धारा जानकीघाट तक स्वयं आयी और करुणासिन्धु जी ने भावविह्वल होकर उस धारा में विधिवत स्नान किया और मां सरयू का कोटिशः आभार व्यक्त किया।
करुणासिन्धु महराज ने अपने जीवनकाल में अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी किन्तु उनकी पांडुलिपियां सम्प्रति सुरक्षित नहीं हैं ,केवल रामचरितमानस पर लिखी गयी उनकी टीका की पाण्डुलिपि ही उपलब्ध है जिसका प्रकाशन वर्तमान रसिकाचार्य जनमेजय शरण जी महराज द्वारा कराया जा रहा है। जानकीघाट बड़ा स्थान श्री अयोध्या स्थित जानकी मन्दिर का निर्माण उनके द्वारा ही करवाया गया था और उसमे तत्समय आरम्भ की गयी आरती,संकीर्तन और भण्डारा आज भी यथावत जारी है। माह अप्रैल २०१५ में करुणासिन्धुजी महराज की जन्मभूमि ग्राम गोपालापुर ,कुंडा प्रतापगढ़ में उनकी पूण्य स्मृति में एक नवकुंडीय श्रीराम महायज्ञ सम्पन कराकर उनके छठें उत्तराधिकारी जनमेजय शरण जी महराज ने अपने गुरु के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा एवं भक्ति का परिचय दिया।        

      

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