Friday, September 16, 2016

सन्त एकनाथ


    सन्त एकनाथ का जन्म संवत १५९० विक्रमी में महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद के पैठण  में हुआ था। मूलनक्षत्र में जन्म लेने के कारण इनके माता पिता की मृत्यु इनके जन्म के  बाद हो गई थी।  इनके पिता का नाम सूर्य नारायण व माता का नाम रुक्मिणी था। वे संस्कृत एवं मराठी भाषा के विद्वान थे। इनके प्रपितामह भानुदास अपने समय के एक सिद्ध वैष्णव संत थे। इन्होने विट्ठल जी की मूर्ति का पुनरुद्धार कर वारकरी भक्तों के साथ बहुत भारी  उपकार किया था। ये देवगढ़ के निवासी जनार्दन स्वामी को अपना गुरु बनाने के लिए संवत १६०२ में वहां पहुंचे थे। जनार्दन स्वामी उस समय गुरु दत्तात्रेय जो सिद्ध पुरुष मने जाते थे , के प्रबल उपासक थे। इन्हीं के सम्पर्क में आकर एकनाथ जी ने गुरु मंत्र की दीक्षा ली और भगवान की घोर तपस्या की। इनके प्रमुख ग्रन्थ नाथभागवत,रुक्मिणी स्वयंबर तथा भावार्थ रामायण हैं जिनमें अध्यात्म पक्ष में अद्वैत तथा भक्ति का मनोरम विवेचन बड़ी ही सुबोध भाषा तथा चित्ताकर्षक शैली में किया गया है। इस प्रकार भक्त के आदर्श का जीवन बिताकर संवत १६५६ विक्रमी में एकनाथ जी ने गोदावरी नदी के तट पर अपना भौतिक शरीर छोड़ दिया था। 
 संत ज्ञानेश्वर एवं एकनाथ एक दूसरे से तीन शताब्दी द्वारा पृथक किये जाते हैं फिरभी दोनों के विचारों में काफी समरूपता देखने को मिलती है। एकनाथ उन साधु कवियों में से एक हैं जिन्होंने अपने पारिवारिक परम्परागत कर्तव्य को पूरा करके भविष्य में आने वाले साधकों को कृतकृत्य कर दिया। उन्होंने स्वयं ही कहा है कि वे जिस परिवार में उत्पन्न हुए थे वह वैष्णव धर्म का उपासक था और अपनी व्यक्तिगत उपासना के द्वारा उन्होंने ईश्वरानुभूति प्राप्त की। संत रानडे के शब्दों में "एकनाथ ने  अभिमान पर विजय पाकर आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट विकास किया जिसमें उन्होंने एक अलौकिक दृश्य का दर्शन किया।  "
संत एकनाथ की भी आध्यात्मिक गुरु के प्रति श्रद्धा उतनी ही तीव्र थी जितनी ज्ञानेश्वर की निवृत्ति के प्रति थी। एकनाथ के गुरु जनार्दन स्वामी थे जिनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन में एकनाथ ने ईश्वर साक्षात्कार का आनन्दानुभव प्राप्त किया। एकनाथजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "सर्वप्रथम मनुष्य को अपने हृदय में गुरु का पवित्र स्थान वरण करना चाहिए फिर अपनी सम्पूर्ण अहंकार भावना को गुरु के चरणों में परित्यक्त कर देना चाहिए तभी उसमें सदभावनाओं का प्रकाश प्रकाशित हो सकता है। " महात्मा एकनाथ गुरु के  दर्शन से लौकिक जीवन में पारमार्थिक आनन्द का अनुभव करते थे। उनके मतानुसार गुरु ईश्वर का मार्ग दर्शक है और वह उस चरम उपलब्धि का आशीर्वाद देता है तथा साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने का संकेत व्यक्त करता है। गुरु माहात्म्य का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया है -"साधक अपने आध्यात्मिक गुरु को ईश्वर के  समझता है। "
एकनाथ जी ने अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की पवित्रता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि कुछ व्यक्ति जो अपने ज्ञान को अहंकार की भावना के रूप में प्रयोग करते हैं वे आध्यात्मिक जीवन से च्युत हो जाते हैं।  दूसरे व्यक्ति इसे सदा के लिए छोड़ देते हैं क्योंकि वे अपने उद्देश्य तक नहीं पहुँच सकते। एकनाथ इसे अज्ञान कहते हैं तथा इससे दूर रहने का संकेत देते हैं। एकनाथ जी वारकरी सम्प्रदाय के एक सिद्ध संत  एवं समाजसुधारक भी थे। 
परब्रह्म के साक्षात्कार के संदर्भ में एकनाथ जी ने बताया कि इसके लिए घर बार छोड़कर जंगल में आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं है। जो व्यक्ति जंगल में जाकर साधना करते हैं उनका जीवन किसी उलूक के जीवन से कम नहीं है जोकि अपने को सूर्य के प्रकाश से भी वंचित रखता है। पुनः उन्होंने बताया कि हमें एक तीर्थयात्री की तरह जीवन बिताना चाहिए जो प्रातःकाल यात्रा के लिए चलता है और सायंकाल पुनः वापस आ जाता है। जिस प्रकार बच्चे खेल खेल में घर बनाकर बिगाड़ देते हैं उसी तरह का जीवन हमें बिताना चाहिए। "
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हुआ कि एकनाथ का मार्गदर्शन वास्तव में आत्मानुभूतिवादी दार्शनिक के लिए परमोत्कृष्ट है। इसीलिए संत रानडे ने एकनाथ जैसे संतों के उपदेश को अपने रहस्यवाद का आधार माना तथा गृहस्थ जीवन में ही रहकर ईश्वर का परमलाभ प्राप्त करने का संकेत प्राप्त किया। 
एकनाथ जी की सहनशीलता के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक दिन वि नदी में स्नान करके लौट रहे थे तब मार्ग में एक पेड़ के ऊपर बैठे हुए किसी लड़के ने उनके ऊपर कुल्ला कर दिया तब एकनाथ जी बिना कुछ बोले हुए वापस नदी में जाकर पुनः स्नान करके जैसे ही उस पेड़ की नीचे आये उस लड़के ने फिर से कुल्ला कर दिया। एकनाथ फिर से नदी में स्नान करने वापस गए और बार बार उस लड़के ने उनके ऊपर कुल्ला करता रहा। कहते हैं १०८ बार यही क्रिया चलती रही तब अंत में वह लड़का लज्जित होकर नीचे उतरा और एकनाथ जी के चरणों में लेटकर क्षमा मांगने लगा। एकनाथ जी उसे क्षमा भी कर दिया। एकनाथ जी के सम्बन्ध में बताया जाता है कि एकबार वे प्रयागराज के संगम से गंगाजल लेकर रामेश्वरम में भगवान शिव के जलाभिषेक हेतु जा रहे थे तब मार्ग में उन्हें एक भूखा  प्यासा गधा दिखाई पड़ा। उसे देखकर इन्हें दया आ गयी और उन्हने पूरा गंगाजल उसे पिला दिया। अपने साथ चल रहे अन्य साथियों के यह पूंछने पर कि गंगाजल तो भगवान शिव को चढ़ाया जाना है तो एकनाथ जी ने कहा कि गधा भी तो शिवस्वरूप एक प्राणी है, सो उसे ही दे दिया क्योंकि उसे जल की अधिक आवश्यकता है। इसी समय रामेश्वरम के पुजारी ने माइक से यह उद्घोषणा की कि सन्त एकनाथ द्वारा दिया गया गंगाजल भगवान शिव को प्राप्त हो गया है। इस घटना से यही निष्कर्ष निकलता है कि एकनाथ जी कितने सहृदय सन्त थे।  

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