Thursday, September 15, 2016

सन्त तुकाराम



            सन्त तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के पूना जिले के देह नामक ग्राम में सन १५९८ ई० में हुआ था। वे जाति के कुनबी थे। अन्य सन्तों के समान तुकाराम भी व्रत ,उपवास ,अरण्यवास आदि क्रियाकर्मों का प्रबल विरोध करते थे और ईश्वर प्राप्ति में हरिकीर्तन को प्राथमिकता देते थे। इन्होने वेद एवं उपनिषद आदि गर्न्थों एवं संस्कृत भाषा का बहिष्कार किया था। नामदेव के समान तुकाराम भी विठोबा के उपासक थे और पंढरपुर इनका केंद्र था। इनके जीवनकाल में कितनी परेशानियां आयीं ,इनका आध्यात्मिक जीवन कब से प्रारम्भ हुआ आदि के सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी नहीं है फिरभी इतना तो ज्ञात ही है कि तुकाराम के ह्रदय में हेगेल की द्वन्दात्मक विधि का पूर्ण समावेश था। अपने आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ में इन्होने आत्मानुभूति का ही आश्रय लिया और इसी साधना से अपने साध्य तक पहुँचने का प्रयास किया था।तुकाराम को बाबा जी चैतन्य नामक साधु ने रामकृष्ण हरिमंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया था। इसके बाद वे १७ वर्ष तक उसी का उपदेश घूम घूमकर देते रहे और १६९४ ई में महासमाधि लेते हुए इस संसार को अलविदा कह दिया। 
 तुकाराम जी का अभंग वाङ्गमय अत्यन्त आत्मपरक होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का सम्पूर्ण दर्शन हो जाता है। पारिवारिक अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया। उनके आध्यात्मिक चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएं दृष्टिगत होती हैं :--
प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम अपने मन में किये गए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत्त होकर परमार्थ पथ की ओर प्रवृत्त दिखाई पड़ते हैं। 
दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस नैराश्य का विस्तृत वर्णन अभंगवाणी में मिलता है। 
तीसरी अवस्था किंकर्तव्यविमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत हो गया और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम परमानन्द में विलीन हो गए।  
यद्यपि इनके आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ महात्मा बुद्ध की भांति पाप से उत्पन्न घृणा की भावना से होता है किन्तु इनका जीवन नैराश्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। तुकाराम अपनी आत्मा की अनन्त शक्ति को पहचानते थे और इसी शक्ति में ही साक्षात्कार नित्य उपलब्ध भी मानते थे। इसके बावजूद भी वे ईश्वर की असीम शक्ति के आगे विनम्र होकर कह उठते थे कि मैं तेरे स्वरूप को कैसे जान पाऊँगा ?विद्वानों का दावा है कि तेरे स्वरूप की कोई सिमा नहीं हैं। तुकारामजी का विश्वास था कि ईश्वरीय अनुकम्पा से उनके अज्ञान रुपी बादल सदा के लिए दूर हट जायेंगे फिर तो परब्रह्म का दर्शन प्रत्यक्ष रूप में कर सकेंगे। तुकाराम की शिक्षा एवं जीवन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वे पूर्ण आप्तकामी थे। सांसारिक मायामोह का उन्होंने सर्वथा परित्याग कर दिया था और अपने जीवन की एक झांकी प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा -"मुझे बेघर ,अर्थहीन और पुत्रहीन ही रहने दीजिये ताकि मैं आपको याद कर सकूँ। मुझे कोई भी संतान मत दीजिये क्योंकि उसका स्नेह आपको मुझसे अलग कर देगा। मुझे धन देकर सौभाग्यशाली भी न बनाएं क्योंकि यह और बड़ा दुर्भाग्य होगा। मुझे एक घुमक्कड़ ही बना रहने दीजिये क्योंकि इस मार्ग द्वारा मैं आपकी रातदिन याद करने में पूर्णतयः सफल सिद्ध हो जाऊंगा। "
तुकाराम ने भक्त और भावना के एकाकार स्वरूप का वर्णन करते हुए बताया कि जैसे एक कछुवा अपने पैर भीतर ही छुपा लेता है उसी तरह मैं भी अपने को ईश्वर में छुपाकर तदरूप हो जाऊँगा। उनका कथन है कि "अपनी भक्ति भावना से मैं तुम्हारे रहस्य को जानने में पूर्ण सफल हो गया हूँ। मैंने आपके स्वरूप को अपने अंदर प्रवृष्ट कर लिया है जैसेकि कछुवा अपना पैर छिपा लेता है। मैं तुम्हारे स्वरूप को कभी अपने अंदर से नष्ट नहीं होने दूंगा " !तुकाराम जी का विश्वास था कि ईश्वर की कृपा ही साधक को परमार्थ की ओर खींचती है। तुकाराम जब ईश्वर का दर्शन कर चुके तब उनके चरणों में नतमस्तक होकर कह उठे ,"मैंने ईश्वर का दिव्य रूप देखा और उस प्रतिच्छाया से हमें अनन्त पूर्णानन्द की प्राप्ति हुई। मेरा मन इससे पवित्र हो गया। मेरे हाथ उनके चरण छूने के लिए व्याकुल हो गए और जैसे ही मैंने उनकी ओर देखा मेरी सम्पूर्ण बौद्धिक शक्ति नष्ट हो गई। आनंद ही अब हमें उच्चतर आनंद की ओर अग्रसित कर रहा है। "
ईश्वरानुभूति प्राप्त करने का सर्वसुलभ एवं पवित्र साधन है साधुजनों की संगति। तुकाराम ऐसे संत की प्रायः खोज किया करते थे जो वास्तव में ईश्वरनुरागी हो और पूर्ण साक्षात्कार का पूर्वानुभव भी हो। उनके ही शब्दों में -"मुझे अपने ही तरह के लोगों से मिलने दें ताकि मैं पूर्णरूपेण संतुष्ट रह सकूँ। " मेरा मन उन लोगों से मिलने की तीव्र इच्छा रखता है जो ईश्वर से प्रेम करते हैं। मेरी ऑंखें उन्हें देखने के लिए टकटकी लगाए रहतीं हैं। मेरा जीवन तभी सार्थक होगा जब मैं उन संतों को गले लगा लूँगा। उसी दिन मैं ईश्वर का मनोनुकूल गुणगान करूंगा। "  साधुजनों की कृतञता स्वीकार करते हुए तुकाराम ने कहा -"साधुओं के प्रति अपनी कृतञता का वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ ?उन्होंने हमें सदैव जाग्रत रखा है। मैं उनकी इस दयालुता का प्रतिफल उन्हें कैसे दे सकता हूँ ? यदि मैं अपने जीवन को उनके चरणों  में अर्पित कर दूँ तो यही पर्याप्त होगा। उन्होंने भूलबस भी जो कुछ बतला दिया वह आध्यात्मिक ज्ञानार्जन में लाभकारी रहा। अब यही इच्छा शेष है कि वे मेरे पास आएं और प्यार करें ठीक उसी प्रकार जैसे गाय अपने बछड़े को करती है। "ईश्वर प्राप्ति की साधना पूर्ण होने पर उनके मुख से जो उपदेश वाणी प्रस्फुटित हुई वही वाणी अम्र होकर अभंग के माध्यम से जन जन तक पहुंची। इनकी वाणी में जो कठोरता दिखाई पड़ती है उसका उद्देश्य समाज से दुष्टों का विनाश एवम धर्मराज्य की स्थापना ही था। तुकाराम लोगों को पापकर्म से दूर रहने को कहते थे। 
ईश्वरानुभूति में बाधक केवल पापकर्म ही हो सकते हैं। ऐसी मान्यता देते हुए महात्मा तुकाराम जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा ,"मैं तुम्हारे पास एक बच्चे की तरह आया हूँ। मैंने आवश्यकतानुसार आपका अनुसरण किया है लेकिन मेरे सभी प्रयास बीच में ही समाप्त हो गए। ऐसा मालूम पड़ता है कि हमारे पापकर्म शक्तिशाली हो चुके हैं और आपके चरणों में समर्पित करने में बाधक सिद्ध हो रहें हैं। "पुनः उन्होंने कहा कि :जब मैं अपने को तुम्हारे चरणों में अर्पित करने का प्रयास करता हूँ तो मेरे नए पाप मुझ पर आक्रमण के देते हैं। हे ,ईश्वर आप दयालु हों "तुकारामजी ने यह संकेत दिया कि अपने को ईश्वरतुल्य बताना मूर्खता है। वे ईश्वर से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करने के पक्ष में हैं किन्तु पूर्णतयः ईश्वर हो जाने की बात को हास्यास्पद बताते हैं। जब तुकारामजी अपने साक्षात्कार अथवा मोक्ष के कारण को जानने के लिए पीछे मुड़कर देखते हैं तब वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इसका सर्वप्रथम कारण तो साधुसंतों की महती कृपा ही है जिसके द्वारा उन्हें ईश्वर के नाम का स्मरण हुआ था !तुकाराम ने ईश्वर भक्ति को आध्यात्मिक अनुभूति के लिए बहुत ही आवश्यक बताया है। यदि हम तुकाराम के रहसयवादी जीवन तथा उनकी शिक्षा की ओर ध्यान दें तो हमें आत्मानुभूति का एक सफल प्रयास दृष्टिगत होता है। उन्होंने समस्त सन्देहों को दूरकर ईश्वरानुभूति का मार्ग प्रशस्त किया। उनका कथन है "जो व्यक्ति संसार की भौतिक वस्तुओं एवं परमार्थ दोनों को एक साथ प्राप्त करना चाहता है वह कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता। "संत रानडे का कथन है कि तुकाराम में आदि से अंत तक एक ही प्रक्रिया का सतत दर्शन होता है।    

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