Monday, September 19, 2016

गोस्वामी तुलसीदास



                                                                                                          
 उत्तर प्रदेश राज्य में प्रयाग के निकट बाँदा जनपद के राजापुर ग्राम में सन १४९७ ई० में श्रावण शुक्ल सप्तमी तिथि को गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम श्री आत्माराम दूबे था जो सरयूपारीय ब्राह्मण थे। इनकी माता जी का नाम हुलसी था। इनका जन्म अभुक्तमूल नक्षत्र में हुआ था और जन्म के समय इनके मुख से राम नाम का उच्चारण सुनकर सभी हतप्रभ हो गए थे। जन्म के समय इनके मुख में बत्तीसों दाँत मौजूद थे। अतः मूलनक्षत्र एवम मुख में बत्तीस दांत देखकर इनके पिता किसी अमंगल की आशंका से उद्वेलित हो उठे थे और इनके माता को विशेष चिंता सताने लगी थी। कहते हैं कि ऐसे नक्षत्र में जन्मे बालक का मुख देखने वाले माता -पिता की तत्काल मृत्यु हो जाती है। अतः इनकी माता हुलसी ने किसी अनिष्ट की आशंका से दसमी की रात इस नवजात शिशु को अपनी दासी के साथ ससुराल भेज दिया था और स्वयं दूसरे दिन इस संसार को अलविदा कह दिया था।
           जायो कुल मंग न बधायो न बजायो सुनि ,भयो परिताप पाय जननी जनक को। 
अपनी रचना कवितावली में भी उन्होंने लिखा है -मातु पिता जग जाइ तज्यो, विधिहुँ न लिख्यौ कछु भाल भलाई ।  बालक का पालन- पोषण दासी चुनिया  ने किया और जब तुलसीदास लगभग पांच वर्ष के हो गए थे तो चुनिया  का भी देहान्त हो गया जिसके कारण बालक तुलसी को अनाथ का जीवन जीना पड़ा। तुलसीदास जी को इधर उधर भटकता देखकर जगतजननी पार्वती जी  एक ब्राह्मणी का भेष धारण कर प्रतिदिन बालक के पास जातीं और अपने हाथों से उसे भोजन कराती थी। 
कहा जाता है कि भगवान शंकर की प्रेरणा से रामशैल पर  निवास कर रहे श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्द जी ने इस बालक को ढूंढ कर अपने पास ले आये थे और इसका नाम रामबोला रखा।
 कुछ दिन बाद वे बालक को अयोध्या ले गए और वहाँ सन १५०४ ई माघ शुक्ल पंचमी दिन शुक्रवार को बालक का यग्योपवीत संस्कार कराया। बालक तुलसी को  बिना किसी के सिखाये हुए गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हुए देखकर सभी चकित हो गए थे। इसके पश्चात नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पञ्च संस्कार सम्पन्न करके रामबोला को राम मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बचपन से ही रामबोला की बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी क्योंकि एकबार जो शब्द वे गुरु के मुख से सुन लेते थे वह उन्हें यथावत याद  हो जाती थी। वहां से कुछ दिन बाद गुरु नरहरि उन्हें लेकर सूकर क्षेत्र सोरों चले गए और वहीं पर तुलसीदास को रामचरित सुनाया। तुलसीदास जी ने महर्षि बाल्मीकि प्रणीत रामायण का श्रवण अपने गुरु के मुखारविन्द से सोरों में गंगा जी के तट पर किया था जिसका प्रमाणक उनका निम्न दोहा है :--
                             मैं पुनि निज गुरु सन सुनी ,कथा सु-शूकर खेत। 
                            समुझी नहिं तसि बालपन ,तब अति रहेऊ अचेत। 
 कुछ दिन बाद वे दोनों काशी चले आये और यहीं पर सनातन जी के पास रहकर तुलसीदास जी ने पन्द्रह वर्ष तक वेद -वेदांग एवं  समस्त शास्त्रों  का सम्यक अध्ययन किया। इसी बीच  सनातन जी का स्वर्गवास हो गया जिसके कारण तुलसीदास जी को बहुत दुःख हुआ और इसी समय इनकी लोकवासना किंचित जाग्रत होने लगी थी  तब वे गुरु से आज्ञा लेकर अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। यहां आकर उन्होंने देखा कि उनके पिता का देहांत हो चुका था।  अतः उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता का श्राद्ध कर्म किया और कुछ दिनों तक वहीँ रहकर लोगों को रामकथा सुनाने लगे।
सन १५२६ ई के ज्येष्ठ शुक्ल तेरह दिन गुरुवार को भारद्वाज गोत्र की एक सुन्दर कन्या रत्नावली से इनका विवाह हो गया और वे सुखपूर्वक दाम्पत्य जीवन बिताने लगे। अपनी पत्नी के प्रति इनकी विशेष आसक्ति थी।  कहा जाता है कि एकबार इनकी पत्नी अपनी माता की बीमारी की खबर पाकर अपने भाई के साथ मायके चली आयी थी तब दूसरे दिन ही तुलसीदास जी भी वहां जा पहुंचे गए थे। उनके इस कृत्य पर पत्नी को अत्यधिक  क्रोध आया और उसने इन्हें बहुत धिक्कारा और सचेत करते हुए कहा कि मेरे इस हांड -मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आसक्ति है यदि इसकी आधी आशक्ति भी भगवान से होती तो तुम्हारा बेडा पार हो गया होता। ।इस सम्बन्ध में कहा गया है ;--
                                            लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ। 
                                            धिक् धिक् ऐसे प्रेम को ,कहा कहौ मैं नाथ। 
                                             अस्थि- चर्ममय देह  मम,तामें ऐसी प्रीति। 
                                              तैसी जो श्रीराम महँ ,होति न तो  भयभीति।   
  कहते हैं कि ये शब्द तुलसीदास जी को बाण की तरह आहत कर दिए और बिना कोई क्षण वहां बिताये सीधे काशी चले गए एवं अपने गृहस्थ वेष का परित्याग कर साधुवेश धारण कर लिया। वे वहाँ से अयोध्या,प्रयाग,चित्रकूट,मथुरा,कुरुक्षेत्र,जगन्नाथ आदि तीर्थों का भ्रमण पर निकल गए।  मानसरोवर के निकट उन्हें काकभुशुण्डि जी के दर्शन हुए। काशी आकर तुलसीदास पुनः राम कथा कहने लगे। इसी दौरान एकदिन  उनकी एक प्रेत से मुलाकात हुई तो उस प्रेत ने प्रसन्न होकर इन्हें वेदन मांगने को कहा तब तुलसीदास जी ने कहा कि मुझे श्रीराम के दर्शन करवा दो। प्रेत ने उत्तर दिया कि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह भगवान राम के दर्शन करवा सके किन्तु उसने इतना अवश्य बताया की सामने स्थित मन्दिर में प्रतिदिन रामकथा होती है और उस कथा के प्रारम्भ में एक व्यक्ति मैला कुचैला कपडा पहने हुए आता है और वह व्यक्ति हनुमान जी है। तुम आज उनका पैर पकड़कर विनती करना तो वे अवश्य ही श्री राम का दर्शन करवा देंगें। इस प्रकार उन्हें श्री हनुमान जी का पता बताया और उनसे मिलने की प्रेरणा भी दी। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे श्री रघुनाथ जी के दर्शन करने की अपनी इच्छा प्रकट की तब हनुमान जी ने कहा कि तुम्हें रघुनाथ जी का दर्शन चित्रकूट में होगा। यह सुनकर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े। 
चित्रकूट पहुंचकर वहां मन्दाकिनी के रामघाट पर उन्होंने अपना आसन बिछाया और भगवान राम के दर्शन की प्रतीक्षा करने लगे। एकदिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे तो मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। तुलसीदास जी ने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर हाथ में धनुष -बाण लिए हुए चले जा रहें हैं। तुलसीदास जी उन्हें देख करके मुग्ध हो गए और एकटक उन्हें देखते ही रहे किन्तु वे उन्हें पहचान नहीं पाए। पीछे से श्रीहनुमान जी आकर उन्हें जब  भगवान श्रीराम की उपस्थिति के सम्बन्ध में बताया तो वे बहुत पश्चाताप करने लगे।  उसी समय हनुमान जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि कल प्रातःकाल उन्हें श्रीराम के दर्शन हो सकते हैं। सन १५५० ई की मौनी अमावस्या दिन बुधवार के दिन जब वे चन्दन घिस रहे थे तब उनके समक्ष श्रीराम पुनःबालकरूप में प्रकट हुए और  तुलसीदास जी से कहा --बाबा हमें भी चन्दन लगा दीजिये। हनुमान जी सोच रहे थे कि तुलसीदास इस बार भी कहीं धोखा न खा  जाएँ इसलिए उन्होंने एक तोते का रूप धारणकर यह दोहा पढ़ने लगे थे  :-
                           चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीर। 
                           तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर। 
कहा जाता है कि तुलसीदास उस अदभुत छवि को देखकर अपनी सुध-बुध भूल गए थे।  अतः भगवान श्रीराम ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने मस्तक पर लगाया और तुलसीदास के मस्तक पर  भी लगा दिया था  और तत्समय ही अंतर्ध्यान  हो गए। 
साधना- पथ :-
सन १५७१ ई में तुलसीदास जी श्रीहनुमान जी से आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में कुम्भ का मेला था।  अतः वे वहां जाकर कुछ दिन वहीं पर रहकर साधु -सन्तों के दर्शन और सेवा करते रहे ।  एक दिन वहीं पर उन्हें मुनि भरद्वाज एवम याज्ञवल्क्य जी के दर्शन हुए और उस समय वहां पर वही कथा चल रही थी जो सूकर क्षेत्र में अपने गुरु के मुख से उन्होंने सुनी थी। इसके बाद वे काशी चले आये और यहीं पर प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर रहने लगे। यहां रहकर उनके अन्दर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत में श्लोक लिखना आरम्भ कर दिया किन्तु दिन में वे जितने श्लोक लिखते थे, वह रात्रि में न जाने कहाँ लुप्त हो जाता जिसे देखकर वे चिंतित रहने लगे। प्रतिदिन यही घटना घटती रही तब आठवें दिन तुलसीदास जी को एक स्वप्न हुआ कि तुम अपनी भाषा में रचना आरम्भ करो। तुलसीदास जी की नींद खुली और वे उठकर बैठ गए तभी भगवान शंकर एवम पार्वती जी उनके सामने प्रगट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया तब शिव जी ने उनसे कहा --तुम अयोध्या में जाकर निवास करो और हिन्दी में अपनी काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। यह कहकर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। तुलसीदास जी ने भगवान शिव की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए काशी से पुनः अयोध्या चले आये। 
सन १५७४ ई में रामनवमी के दिन वैसा ही सहयोग था जैसा त्रेतायुग में राम- जन्म के दिन था। अतः उस दिन तुलसीदास जी ने प्रतःकाल श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ कर दी। दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिन में इस महाकाव्य की समाप्ति हुई और सन १५७६ ई के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में रामविवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए।
                          संवत सोरह सौ इकतीसा ,करौं कथा हरिपद धरि सीसा। 
                           नवमी भौमवार मधुमासा ,अवधपुरी यह चरित प्रकासा।  
इसके बाद भगवान शिव के आदेश से वे पुनःकाशी चले आये और अस्सीघाट,गोपालमंदिर,प्रह्लादघाट एवं संकटमोचन हनुमान स्थल को अपना प्रिय-स्थल बना लिया। उन्होंने यहां भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को रामचरितमानस सुनाया। रात्रि को वह पुस्तक उन्होंने श्रीविश्वनाथ जी के मन्दिर में रख दी और सबेरे जब उन्होंने मन्दिर का कपाट खोला तब उन्होंने देखा की उस पुस्तक के पृष्ठ भाग पर सत्यम शिवम सुन्दरम लिखा था और मन्दिर में उपस्थित सभी लोगों ने ये शब्द उच्चारित होते हुए भी वहां सुना। वहां के पण्डितों ने जब यह बात सुनी तब उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी और वे सब मिलकर तुलसीदास जी की निंदा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयास भी करने लगे। एक दिन उस पुस्तक को चुराने हेतु उन लोगों ने दो चोर भी भेजे किन्तु उन चोरों ने तुलसीदास जी की कुटिया के पास आकर देखा कि उसके पास दो वीर हाथ में धनुष-बाण लिए पहरा दे रहें हैं और वे दोनों वीर बहुत ही सुन्दर और श्याम वर्ण के हैं। उनके दर्शन कर चोरों का भी मन परिवर्तित हो गया और उसी समय से वे दोनों चोर चोरी करना छोड़कर भजन करने में लग गए। एक दिन तुलसीदास जी को यह आभास हुआ कि मेरे कारण भगवान राम को बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा है, अतः उन्होंने अपनी कुटी का सारा सामान लुटा दिया और अपनी उस पुस्तक को अपने मित्र टोडरमल को सौंप दी।इसके बाद उन्होंने उसकी एक दूसरी प्रति लिखी और उसी के आधार पर अन्य प्रतिलिपियाँ तैयार होने लगीं और पुस्तक का प्रचार -प्रसार दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। जब पण्डितों को कोई मार्ग नहीं सूझा तब श्री मधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने के लिए प्रेरित किया। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने जब उस पुस्तक को  देखा तब उन्होंने उसके सम्बन्ध में अपनी यह सम्मति दी :-
                           आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः। 
                           कवितामञ्जरी    भाति   रामभ्रमरभूषिता। 
उक्त सम्मति का तात्पर्य यह है कि इस काशी रुपी आनन्दवन में तुलसीदास चलता फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कविता रुपी मन्जरी बहुत ही सुन्दर है जिसपर श्रीराम रुपी भँवरा सदा मंडराया करता है। 
पण्डितों को इस पर भी सन्तोष नहीं हुआ तब उस पुस्तक की परीक्षा लेने का एक उपाय और सोचा गया।  विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद ,उसके नीचे शास्त्र और शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। मन्दिर को बन्द कर दिया गया और प्रातःकाल जब मन्दिर खोल गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस सबसे ऊपर रखा हुआ है। यह देखकर सभी पण्डित बहुत ही लज्जित हुए और तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और भक्तिपूर्वक उनका चरणोदक लिया। 
इसके बाद तुलसीदास जी असीघाट पर आकर रहने लगे। एक दिन रात्रि को कलियुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आया और उन्हें त्रास देने लगा। तुलसीदास जी ने तब श्री हनुमान जी का ध्यान किया और हनुमान जी ने उनसे विनयपत्रिका लिखने को कहा। तब उन्होंने विनयपत्रिका लिखी और भगवान के चरणों में उसे समर्पित कर दिया। श्रीराम ने उसपर अपने हस्ताक्षर किये और तुलसीदास को निर्भय होने का आशीर्वाद दिया। 
सं १६२३ ई को श्रवण कृष्ण तृतीय दिन शनिवार को असीघाट पर गोस्वामी ने राम राम कहते हुए अपने शरीर का परित्याग कर दिया  और हिन्दू धर्म को अपनी कालजयी रचना से अमर  बना दिया। 
 श्री रामचरितमानस :- 
गोस्वामी तुलसीदास जी परम् भागवत थे। उनकी अनुपम भक्ति उनके प्रत्येक रचना की प्रत्येक पंक्ति से परिलक्षित होती है। नवधाभक्ति का जहां भी वर्णन है वहां पर दैन्य एवं आत्मसमर्पण को भक्ति का अंग मान लिया गया है। भक्ति केवल भावना की अविरत धारा के प्रभाव से भगवान के आगे अपनी दीनता प्रकट करना और फिर दीनतावश अशरण आत्मा को दीनबन्धु भगवान के चरणों में समर्पित कर देना ही उन्होंने भक्ति की पराकाष्ठा माना है। दैन्य,दीनता अन्तःकरण की उस दशा का नाम है जो दुःख दारिद्र्य या अपराध आदि के वशीभूत निरुपाय प्राणी को होती है और जिसके कारण मनुष्य अपनी दीनता,पतितता व तुच्छता आदि का कथन करने लगता है। 
गोस्वामी जी अपने आराध्य श्रीराम के दर्शन के लिए अतिआतुर दिखाई पड़ते हैं और उन्होंने अपनी भावना के बल पर ही श्री हनुमान जी की असीम कृपा से भगवान राम का साक्षात्कार किया और उन्हें अपने सामने प्रत्यक्ष खड़ा हुआ देखा। उन्हें देखते ही तुलसीदास जी के गात  पुलकित हो उठे ,देह में रोमांच होने लगा ,कण्ठ गदगद हो गया और नेत्रों से आनन्दाश्रु की धारा बहने लगी। इस प्रेम की विह्वलता की दशा में उन्होंने भगवान से कहा था -भगवन कहाँ मुझ जैसा पतित,अपावन,नीच व्यक्ति और कहाँ आपके दिव्य दर्शन ?हे करुणामय ,यह आपकी करुणा की ही महिमा है जो इस अकिंचन दीन,पतित,अशरण को अपने शरण में लेकर अपने दर्शन से मुझे कृतार्थ किया। इसी सम्बन्ध में तुलसीदास जी ने कहा -"मो सम कौन कुटिल खलकामी "
तुलसीकृत रामचरितमानस हिन्दुओं का एक ऐसा पवित्र एवं सर्वग्राह्य ग्रन्थ बन गया है जो प्रत्येक हिन्दू के घर घर में विराजमान है और उसे वेद,पुराण एवम स्मृतियों के समकक्ष मान्यता प्राप्त हो चुकी है। किसी भी शुभकार्य के पूर्व रामचरितमानस का अखण्ड पाठ की प्रचलित परम्परा से यही ध्वनित होता है कि तुलसीदास जी ने भगवान के जिस आदर्श स्वरूप को रामचरितमानस के माध्यम से प्रस्तुत किया है वह धीरे धीरे अन्य धर्मों के लिए भी प्रेरणासूत्र बनता जा रहा है और सम्पूर्ण विश्व में इसकी उपादेयता निरन्तर बढ़ती जा रही है।
आध्यात्मिक तत्व-निरूपण :-
तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में कई जगह शंकराचार्य के अद्वैत मत का समर्थन किया है। मानस की अंतरंग और बहिरंग परीक्षा करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि तुलसीदास जी का दार्शनिक विचार शुद्ध अद्वैतवादी था। पण्डित रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार -"परमार्थ दृष्टि से ,शुद्ध ज्ञान की दृष्टि से तो अद्वैतमत गोस्वामी जी को स्वीकार्य है परन्तु भक्ति के व्यावहारिक सिद्धांत के अनुसार भेद करके चलना वे अच्छा  समझते हैं। "परमात्मा के स्वरूप के बारे में गोस्वामी जी का कथन है :-
                              मूक  होइ   वाचाल ,पंगु  चढ़ई  गिरिवर  गहन।
                             जासु कृपा सो दयाल,द्रवउ सकल कलिमल दहन। 
तुलसीदास जी के अनुसार जीव परतन्त्र है जबकि ईश्वर स्वतन्त्र । जीव माया के हाथ की  कठपुतली है और ब्रह्म माया का खेल करता है। जीव को ईश्वर का मित्र कहते हुए वे कहते हैं "ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती " . 
सुख,दुःख की अनुभूति जीव के कर्म के अनुसार  होती है। तभी तो कहा है-"जो जस करइ सो तस फल चाखा "
तुलसीदास जी के साधना मार्ग के मूल में सद्गुण और सदाचार विशेष रूप से आते हैं। वर्णाश्रम धर्म में इनकी प्रबल आस्था थी। वेदाध्ययन ,त्याग,इन्द्रियनिग्रह,भय का निराकरण,राम के प्रति आत्म समर्पण ,सरल व्यवहार,स्वतन्त्र विचार,गुरु तथा शास्त्रों में आस्था ये सभी साधना मार्ग पर अग्रसर होने के लिए उन्होंने आवश्यक  बताया। उन्होंने सभी  दर्शनों का अध्ययन करके उनका समन्वय करने का कार्य अपनी रचनाओं में किया है। ईश्वर के समस्त अवतारों में उन्होंने पूर्ण आस्था प्रकट की और परमात्मा के सर्वशक्तिमान स्वरूप का ही चित्रण अपने ग्रन्थों में किया और अंत में सभी को अपने आराध्यदेव  श्रीराम में लाकर अंतर्निहित कर दिया। 
तुलसीदास जी सनातन धर्म के समर्थक थे। उनके धर्म में ईश्वर,जीव,प्रकृति,माया और गुरु का ज्ञान आता है  पिता,पुत्र,स्त्री,भाई के सम्बन्ध प्रेम,कर्तव्य विचार और भावनाएं आती हैं। राजा ,प्रजा उनके पारस्परिक सम्बन्ध बाद में आते हैं। तुलसीदास जी ने रहस्यवाद और बाह्य आडम्बर के कारण फ़ैल रहे अविश्वास का जमकर खण्डन किया था किन्तु कर्मकाण्ड में उनकी पूर्ण आस्था थी। बाह्य साधन में तप,व्रत,उपासना,वेदज्ञान,धर्मग्रन्थ का स्वाध्याय,स्नान,तिलक,पूजा एवम यज्ञ सभी का वे समर्थन करते हैं। धर्म के क्षेत्र में वैष्णवों तथा शैवों के मध्य उत्पन्न कटुता को उन्होंने दूर करने का प्रयास किया। तुलसी साहित्य ने देश में फैली राम-भावना तथा शिव-भावना की आस्था में समन्वय स्थापित किया। मध्यकाल में भक्ति की जो धरा बही उसके अंतरंग और बहिरंग का परिक्षण करने से उसमें बुद्धि,भावना और सेवा सभी का समन्वय हो जाता है। प्रेमरूपा ,गुणाश्रिता और नवधा तीन प्रकार की भक्ति को उन्होंने  मान्यता प्रदान की किन्तु अपनी भक्ति को उन्होंने प्रेमाभक्ति के अन्तर्गत ही रखा क्योंकि इसके द्वारा उन्हें भगवान राम का सानिध्य लाभ प्राप्त हुआ था। तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में ग्यारह प्रकार की आसक्तियों का उदाहरण दिया है और प्रेमाभक्ति को ज्ञान से भी श्रेष्ठ बताया। उनका मत है कि भक्त अनन्य स्थिति को प्राप्त होता है तो ज्ञान को स्वयं उसका चरण चुम्बन करना पड़ता है। वे प्रेमाभक्ति को सर्वसुलभ मानते हुए कहते हैं कि मेरा  मन तो हमेशा भगवान की मूर्ति में ही रमा रहता है। वे साधारण भक्त नहीं थे बल्कि अपने युग के विचारक भी थे। उनका समस्त साहित्य चिंतन का विषय है और उनमें भक्ति की प्रधानता व सामाजिक सन्तुलन विद्यमान है। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक पक्ष का उन्होंने सर्वांगीण चिन्तन करके उसे व्यापक दिशा प्रदान की। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए वे कहते हैं _ 
                       " सोई सच्चिदानन्द घन रामा। अज विज्ञानं रूप बलधामा।"
तुलसीदास जी एक प्रकांड विद्धान,उदार हृदय व्यक्ति होने के नाते अपने विपरीत विचार रखने वालों से भी मित्रवत मिलते थे और सत्संग करते थे। नम्रता उनमें कूट कूट कर भरी थी उनका आत्मविश्वास अत्यधिक प्रबल था। तभी तो समाज से लड़ते हुए वे इतना आगे बढ़ पाए। उन्होंने स्वयं कहा है --
                     राखि हैं राम कृपालु तहाँ ,हनुमान से सेवक हैं जेहि केरे।        
रचनाएँ  :-
तुलसीदास जी ने राम गीतावली, कृष्ण गीतावली, श्रीरामचरितमानस, विनय पत्रिका, राम लला नहछू,पार्वती मंगल, जानकी मंगल, दोहावली, सतसई, वैराग्य संदीपनि , रामाज्ञा, बरबै आदि की रचना की। 
         

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