Monday, August 8, 2016

स्वामी श्रीरामप्रसादाचार्य

जीवन- परिचय :-
 अयोध्या की सन्त परम्परा में स्वामी श्रीरामप्रसादाचार्य जी एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिनके योग एवम सिद्धियों के दिव्य प्रकाश से अयोध्या सदियों तक प्रकाशित रही है। स्वामी रामप्रसादाचार्य जी का जन्म श्री हनुमान जी महराज की असीम अनुकम्पा से एवम श्री रघुनाथ जी की आराधना के फलस्वरूप विक्रम सम्वत १७६० [सन १७०३ ई० } श्रावण तिथि  सप्तमी को ब्राह्ममुहूर्त वेला  में लक्ष्मणपुर सम्प्रति लखनऊ नगर से पश्चिम छः कोश  की दूरी पर स्थित मित्रपुर सम्प्रति मलीहाबाद के समीप वक्तयारपुर नामक  ग्राम में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हीरामणि एवम माता का नाम सुशीला देवी था।इनके दो बड़े भाई थे जो पिता की इच्छा के अनुरूप पठन -पाठन में प्रवीण नहीं थे।  इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई थी  एवं आठवें वर्ष में इनका उपनयन संस्कार भी सम्पन्न करा दिया गया था और तभी से वे ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट हो गए थे।  बाद में एक ब्राह्मण कन्या के साथ इनका विवाह करवा दिया गया और इसके बाद वे गृहस्थ जीवन बिताने लगे।इनके दोनों भाई इनसे अलग रहते थे।  इनकी दो सन्तानें भी थीं किन्तु पत्नी के आकस्मिक देहान्त हो जाने के कारण माता-पिता एवम दोनों सन्तानों की देखभाल एवम लालन-पालन का गुरुतर दायित्व इनके ऊपर आ गया था। इन्ही परिस्थितयों में अपनी सहधर्मिणी की मृत्यु के कुछ दिन पश्चात ही इन्होंने वैराग्य ग्रहण करने का निश्चय कर लिया था।श्री वसावन नामक विद्वान से शास्त्र एवं पुराण का विधिवत अध्ययन कर उनसे ज्ञानार्जन प्राप्त किया। बचपन से ही वे धर्मपरायण थे और साधु सन्तों की सेवा एवम लोकसेवा के प्रति तत्पर रहते थे। उनके इस स्वभाव को देखकर उनके दोनों बड़े भाई चिंतित रहा करते थे कि इस प्रकार इनकी गृहस्थी कैसे चलेगी ?अतः भाइयों ने इनको घर से निकल दिया तब रामप्रसाद जी पत्नी सहित वहीं पर पर्णकुटी बनाकर रहने लगे और रामनाम कीर्तन व साधु-सेवा में रत हो गए। रामप्रसाद जी का एक कायस्थ मित्र था जिसका नाम भी रामप्रसाद ही था।  वह इन दोनों की उस समय सहायता व सेवा भी करता था।   
श्रीरामप्रसादाचार्य जी ने वैष्णवों से श्रीहरिदास जी के गुणों के सम्बन्ध में काफी सुन रखा था अतः वे दीक्षा लेने हेतु रहस्य पत्रादि प्राप्ति विषयक प्रश्नों के समाधान हेतु श्री हरिदास महराज जी के पास गए और जब इन्होंने वैष्णव दीक्षा प्राप्त करने हेतु उनसे सविनयपूर्वक आग्रह किया तब श्रीहरिदास जी ने अपनी सहर्ष स्वीकृति देते हुए विधि-विधानपूर्वक उन्हें पञ्च संस्कारों से संस्कारित करके रहस्यमन्त्र {षड़क्षर मन्त्र },राम शरणागति मन्त्र, चरम मन्त्र और अर्थादि उनको प्रदान करते हुए गुरु दीक्षा प्रदान कर दी थी ।  गुरुदीक्षा प्राप्त करने के बाद रामप्रसाद जी गुरु की आज्ञा लेकर तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। सर्वप्रथम नैमिषारण्य आकर वैष्णवों के मध्य श्रीराम कथा सुनाने लगे और यहां एक मास निवास करने के पश्चात वे श्रीराम जन्मोत्सव देखने हेतु अयोध्या आ गए और अयोध्या आगमन के पश्चात वे सर्वप्रथम  श्री सरयू जी के दर्शन कर उनकी स्तुति की और फिर स्वर्णखनिकुण्ड पर आकर विश्राम-वास किया। यहां से वे नित्य रामघाट जाकर प्रतिदिन सरयू में स्नान करने लगे और प्रतिदिन रामपंचायतन का विधिवत पूजन- यजन और षड़क्षर श्री मन्त्रराज का अनुष्ठान आदि को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित कर लिया। पूजन के बाद वे नित्य श्रीरामकोट और कनक भवन का दिव्यदर्शन करना एवम उनकी परिक्रमा को भी अनिवार्य नियम में समाहित कर लिये थे। 
साधना- पथ :- 
वैशाख सुदी नवमी को श्रीकनक भवन  में श्रीसीता जन्मोत्सव को देखकर वे भावसमाधिस्थ से हो गए थे और उनका सम्पूर्ण शरीर एवम रोम उत्फुल्ल व प्रफुल्लित हो उठा।  तन-मन की सुधि- बुधि खोकर वे सीतामय हो गए थे और जब परमानन्द सागर में आपादमस्तक निमज्जित होने लगे तो वे काफी देर तक वहीं बैठकर मां सीता की अनुपम छवि को आत्मसात करते रहे। अगले दिन के नित्य नियम के सम्पादन में उन्हें किंचित विलम्ब हो गया क्योंकि उस दिन वे देर रात्रि तक जागते रहे थे तथा जनकजा के दिव्य- दर्शन में विकल हो उठे थे जिसके कारण उन्हें काफी देर बाद नींद आयी थी। नियम में विलम्ब हो जाने की हीनतावश और तीव्रता में तिलकमध्य श्रीधारण करने को वे इसी विकलता के कारण भूल गए थे किन्तु अपनी इस भूल का संज्ञान आने पर उन्हें अपराधबोध हुआ और श्रीजनकलली से प्रार्थनापूर्वक क्षमा याचना करने लगे। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री जनकनन्दिनी उनके सम्मुख स्वयं प्रकट होकर उन्हें दिव्य दर्शन दिए और निजदास पर करुणापूर्ण दृष्टि की वृष्टि करती हुई बोलीं -- "हे वत्स ,शोकार्त मत हो ,तुम शीघ्रता में तिलकमध्य श्रीधारण न कर मेरी ही तो सेवा व पूजा में तत्पर हुए हो ,इसलिए मैं अपने करकमलों से तुम्हारे भाल पर बिन्दु {टीका }लगा देती हूँ। इससे तुम जगत में प्रसिद्ध हो जाओगे। अब तुम जाकर मेरी आज्ञा को स्वीकार करके रत्नसिंहासन के पूर्व द्वार पर निवास करो। वहां मेरी सेवा में अनुरत रहने से तुम्हारा सर्वाभीष्ट पूर्ण होगा " जगद्जननी मां सीता के करकमलों से अपने भाल पर टीका लगाने के पश्चात  अंतर्ध्यान हो गयीं। श्री रामप्रसादाचार्य जी का ऊर्ध्वपुण्ड तिलक से भूषित भाल देखकर सभी वैष्णव विस्मित हो उठे किन्तु स्वामी जी तो अपने जीवन को धन्य मानते हुए इसे  अपना सौभाग्य समझ लिया । इसके बाद स्वामीजी माता सीता के आदेशानुसार मन्दिर के बाहरी दरवाजे पर स्थित एक कक्ष में रहने लगे।  यह स्थान "बड़ा स्थान"श्री चक्रवर्ती महाराज दशरथ के राजमहल  ,बड़ी जगह के नाम से प्रसिद्ध है और यहां पर स्थित मन्दिर आज भी यथावत विद्यमान है। इसी घटना के बाद वैष्णव जन इसे अपना भी सौभाग्य मानने लगे किन्तु कुछ लोग तिलक देखकर तरह तरह की बातें करते हुए इसे अपशकुन भी  बताने लगे थे । कुछ वैष्णव सन्तो ने उनके भाल पर लगे हुए तिलक को ईर्ष्यावश बार बार धुलने का प्रयास भी किया लेकिन जगद्जननी जगदम्बा के करकमलों के संस्पर्श से भूषित वह दैवीय तिलक भला कैसे छूटता। परिणामस्वरूप सभी वैष्णव  अंत में नतमस्तक हो गए और तभी से  श्रीमदरामप्रसादाचार्य जी महराज   "आदयविन्दुगद्याचार्य" के नाम से विश्व प्रसिद्ध हो गए। इसके बाद स्वामीजी प्रत्येक वर्ष मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को नियम से श्रीसीताराम जी का विवाहोत्सव मनाने लगे।दूर देश से  एवं विदेशों से अयोध्या आये हुए श्रद्धालुगण स्वामी रामप्रसाद जी से रामकथामृत का श्रद्धापूर्वक श्रवण करते और अपने को धन्य मानते। परमकृपालु महराज रामप्रसाद जी के परम् शिष्य श्रीरघुनाथप्रसादाचार्य उनकी सेवा सुश्रुखा में लग गए और बाद में रामप्रसाद जी से उन्होंने दीक्षा भी ली। आचार्य लक्षणयुक्त उन महात्मा के बहुत से विरक्त शिष्य हुए और कालान्तर में अनेकों सद्गृहस्थ और विरक्त शिष्यों की अविच्छिन्न परम्परा प्रवाहित होती  गयी। इसी परम्परा के अन्तर्गत श्री रामप्रपन्न तिवारी जी को भी श्रीरामप्रसादाचार्य जी ने विधि विधानपूर्वक पञ्च गव्य के साथ चन्द्रिका,मुद्रिका ,रामनाम व धनुषबाण इन चारों संस्कारों द्वारा दीक्षित करके उन्हें "रामचरणदास "के नाम से विभूषित करते हुए अपना प्रिय शिष्य बना लिया । 
 स्वामी रामप्रसादाचार्य जी नवमुण्डी आसन एवम पँचमुण्डी आसन में सिद्धस्थ थे जिसके कारण वे अपनी साधना द्वारा महासिद्धि प्राप्त कर ली थी। कई बार लोग उनके अलौकिक चमत्कार से हतप्रभ  भी हो चुके थे। उस समय पञ्चमुंडी आसन की चर्चा भारतीय तन्त्रशास्त्र में थोड़ी बहुत दृष्टिगोचर होने लगी थी। इसी समय स्वामी रामकृष्ण परमहंस और साधक कमलाकांत आदि ने पँचमुण्डी आसन पर बैठकर अपनी साधना द्वारा विलक्षण सिद्धि प्राप्त कर ली थी। स्वामी रामप्रसादाचार्य जी  अपनी इस सिद्धि का सदुपयोग सर्वमुक्ति व लोकहित के कार्यों में करते थे और आडम्बर से वे सदैव दूर रहते थे। सिद्धि द्वारा अप्रत्यक्ष का ज्ञान होने की एक घटना उस समय देखने को मिली जब श्री राम प्रपन्न तिवारी श्रीहनुमत्प्रेरणा से वैराग्य हेतु कालाकांकर से अयोध्या के लिए प्रस्थान किये थे और अयोध्या स्थित इसी  बड़ा स्थान या बड़ी जगह  पर आकर मन्दिर के कपाट तत्समय  बन्द हो जाने के कारण मन्दिर की सीढ़ियों पर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बैठ गए थे तब स्वामी रामप्रसादाचार्य जी को इसकी अनुभूति हो चुकी थी। चूँकि वे उस समय अस्वस्थ थे, अतः उन्होंने अपने उत्तराधिकारी एवम परमप्रिय शिष्य श्री रघुनाथप्रसादाचार्य {दीनबन्धु }को मन्दिर के बाहर बैठे हुए श्री राम प्रपन्न तिवारी को सादर अपने पास ले आने का आदेश दिया था। श्री राम प्रपन्न तिवारी के आगमन से वे अत्यन्त गदगद हो उठे और उसी समय एक महोत्सव आयोजित कर उनका नामकरण "रामचरन दास "करते हुए अपने पर्रिकर में उन्हें सम्मिलित कर लिया था । ऐसा उन्होंने अपनी साधना से प्राप्त सिद्धि द्वारा प्राप्त पूर्वाभास के कारण ही किया था। इस घटना का वर्णन श्रीकरुणामणिमाला में इस प्रकार किया गया है --
                             कहि समुझाय प्रमाण,महिमा कण्ठी तिलक की। 
                             युगल गुरुहिं सनमान,पादोदक मुख श्री धरयो। 
                             कुसुमन माल प्रसाद,उठवत आपुहिं गिर परेऊ। 
                             सद्गुरु  रामप्रसाद  तब, लै उठाय  पहिरायऊ।
स्वामी रामप्रसादाचार्य जी अपने जीवन के अंतिम काल में अयोध्या का समस्त कार्यभार अपने शिष्य श्रीरघुनाथप्रसादाचार्य जी को देकर चित्रकूट आ गये थे और यहाँ चित्रकूट की प्रदक्षिणा करके उसके ही निकट ईशान दिशा में पर्णकुटी बनाकर वे कुछ दिन तक प्रवास भी किये थे। चित्रकूट में  ही एक स्रवतकुष्ठी  महायोगी पूर्णनामधारी ब्राह्मण को कुष्ठ रोग से रोता एवम  विलखता हुआ देखकर वे दयार्द्र हो गए थे  और उसके अनुनय विनय को देखते हुए तत्क्षण उन्होंने उसे श्री सीता राम जी का चरणोदक दे दिया जिसके पान करते ही वह ब्राह्मण पूर्ण स्वस्थ हो गया था।यह घटना उनके करुणामय हृदय व सिद्ध महायोगी होने का प्रमाण है।यह ब्राह्मण बाद में पूर्णदास के नाम से उनका शिष्य बन गया था।  इसके बाद वे अयोध्या वापस आ गए और श्रावण, शुक्ल पक्ष,तिथि  तृतीया  सम्वत १८६१ सन १८०४ ई० को महासमाधि ले ली।      
स्वामी रामप्रसादाचार्य जी को आदयविंदुगद्याचार्य  की जो महाउपाधि प्राप्त हुई थी, वह परम्परा आज भी बड़ा स्थान अयोध्या में सतत प्रवाहित है और इस परम्परागत पीठ पर सम्प्रति बिन्दुगाद्याचार्य महंत श्री देवेन्द्रप्रसादाचार्य जी विराजमान हैं। स्वामी जी ने अपने १०१ वर्ष के जीवनकाल में अयोध्या की सन्त परम्परा को  बहुत अधिक ऊँचाइयों तक पहुंचाया था तथा अपने संरक्षण में रसिकपीठ की स्थापना करवायी और उस पीठ पर श्री रामचरणदास "करुणासिन्धु जी महराज" को प्रतिष्ठित किया था। यह परम्परा भी यथावत चल रही है और इस पीठ पर सम्प्रति रसिक पीठाधीश्वर जनमेजय शरण जी महराज विद्यमान हैं। यही नहीं उनके द्वारा संस्थापित अन्य परम्पराएं व पीठ अभी भी यथावत संचालित हैं। 
श्री रामप्रसाद पदपद्म पवित्र रेणून मूघ्नारवहामि संततं शुभलब्धयेहम। 
येनावतीर्य भुवि वैष्णव सम्प्रदायः सञ्चारितस्सकल लोकसुखाय शुद्ध:।          

Saturday, August 6, 2016

दयानन्द सरस्वती


  जीवन- वृतान्त :--
स्वामी दयानन्द सरस्वती के वास्तविक जन्मस्थान व जन्मतिथि आदि के सम्बन्ध में विद्वानों में काफी मतभेद है। पण्डित लेखराज के अनुसार इनका जन्म गुजरात प्रान्त के टनकारा गाँव के एक जमींदार औदीच्य ब्राह्मण श्री करसन तिवारी के यहां सन १८२४ ई में हुआ था। इनका बचपन का नाम मूलशंकर था। पांच वर्ष की अल्पायु में इन्हें देवनागरी लिपि का ज्ञान प्रारम्भ कर दिया गया था तथा आठवें वर्ष में यज्ञीपवीत संस्कार सम्पन्न कराया गया था। दसवें वर्ष में वे पार्थिव शिव की पूजा करने लगे थे। पिता ने इन्हें संस्कृत व्याकरण व वेदपाठ सीखना आरम्भ किया जिसके फलस्वरूप वे १४ वर्ष की आयु में यजुर्वेद संहिता कण्ठस्थ कर लिया। महाशिवरात्रि के पर्व पर इन्हें यह आभास हुआ की एक दिन व्रत रखकर तथा पाषाण प्रतिमा पर वेलपत्र व फूल आदि चढ़ा देना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि दूसरो के उपकार के लिए स्वयम तथा अपने सर्वस्व को अर्पित कर शिवभक्त बनना उद्देश्य होना चाहिए। इसका असर बालक मूलशंकर के मन पर इस प्रकार पड़ा कि उन्होंने अपने पिता से मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में अनेकों प्रश्न कर डाले। सन १८३८ ई में उनकी बहन विशूचिका की १४ वर्ष की अल्पायु में हैजा से मृत्यु हो गयी थी। इस घटना का गहरा प्रभाव उनके मन पर पड़ा और वे शिव की पाषाण मूर्ति की पूजा के सम्बन्ध में अपने पूर्व के विचारों पर मंथन करने को विवश हो गए। इसी घटना ने उन्हें वैराग्य की ओर उन्मुख कर दिया। १८ वर्ष की अवस्था में अपने चाचा की आकस्मिक मृत्यु ने उन्हें और अधिक झकझोर दिया जिसके कारण मृत्यु के रहस्य के प्रति उनकी जिज्ञासा दृढ हो गयी। इसके बाद वे गुपचुप ढंग से लोगों से अमरत्व के उपायों को जानने का प्रयास करने लगे। किसी ने उन्हें बताया कि योगाभ्यास से ऐसा सम्भव हो सकता है। इन्हीं अन्तर्द्वन्दों के मध्य उन्होंने घर परिवार छोड़ने का निश्चय कर लिया किन्तु यह बात जब उनके पिता को ज्ञात हुई तब उन्होंने उन्हें ऐसा  रोकने का भरपूर प्रयास किया और उनका विवाह करने का भी निर्णय ले लिया।  विवाह की बात पर उन्होंने अपने मित्रो के माध्यम से इसे कुछ दिन स्थगित रखने का सन्देश पिता को भिजवा दिया।
कुछ दिन पश्चात गांव से तीन कोस की दूरी पर रह रहे एक वृद्ध पण्डित के घर वे अध्ययन के लिए चले गए और वहीं से उन्होंने अपने विवाह न करने के संकल्प से पुनः पिता को अवगत कराया किन्तु जब पिता इनका विवाह कराने की तैयारी करने लगे तो मूलशंकर ने विक्रम सम्वत १९०३ की सायंकाल गृहत्याग कर दिया। घर त्यागकर वे ८ मील की दूरी पर स्थित एक गांव में रात्रि व्यतीत की और दूसरे दिनअन्य गांव के एक हनुमान मन्दिर में रात्रि बितायी। इसी दौरान उन्हें कुछ ठग साधु मिले जिन्होंने उन्हें यह परामर्श दिया कि वैराग्य के लिए शरीर पर धारण किये गए वस्त्र एवम आभूषण का त्याग करना पड़ेगा तब मूलशंकर ने तत्काल अपने वस्त्र और आभूषण उन साधुओं को अर्पित कर दिया और आगे चलकर वे सायला नामक ग्राम के लाल भक्त नामक वैष्णव साधु के यहां पहुँच गए और उन्हीं से नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ले ली। यहां उन्हें ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य की संज्ञा प्राप्त हुई और वे कमण्डल धारणकर योगसाधना में तत्पर हो गए। अन्य साधुओं के साथ वे यहां से अहमदाबाद के निकट कांगड़ा पहुँच गए। तीन माह बाद सरस्वती के तट पर स्थित सिद्धपुर के कार्तिक मेले में पहुंचकर किसी उच्चकोटि के की तलाश करने लगे। सिद्धपुर के नीलकण्ठ महादेव मन्दिर में जहां अन्य साधु भी ठहरे थे ,वहीं पर वे भी रहने लगे। मेले में जिस भी योगी की चर्चा सुनते वे तुरन्त जाकर उसके उपदेश सुनते। किसी वैरागी ने उनके सिद्धपुर में होने की सूचना उनके पिता तक पहुंच दी। मूलशंकर के पिता चार सिपाहियों के साथ सिद्धपुर आ गए और उन्हें साधुवेश में देखकर अत्यधिक क्रोधित हुए तथा उन्हें कठोर वचन भी कहते हुए माता के मरणासन्न होने की बात बताई। भयवश मूलशंकर पिता के चरणों में गिर गए और उनसे क्षमायाचना करने लगे। क्रोध में आकर पिता ने उनके साधुवेश के कपडे भी फाड़ डेल और नए वस्त्र देकर उन्हें अपने साथ घर ले आये।
वहाँ से घर वापस आने पर पिता ने उन्हें रातदिन निगरानी में रखने लगे और सिपाहियों का कड़ा पहरा लगा दिया। मूलशंकर के मन में वैराग्य की भावना उन्हें विह्वल कर रही थी अतः एक दिन रात्रि के तीसरे पहर में जब सभी सिपाही गहरी निद्रा में थे ,तब वे चुपके से निकले और एक पेड़ पर चढ़कर उसी के निकट स्थित मन्दिर की छत पर पहुँच गए। सारा दिन उसी मन्दिर की छत पर बैठे रहे क्योंकि सिपाही उनकी तलाश कर रहे थे। रात्रि में वे मन्दिर की छत से नीचे उतरे और दो कोस दूर स्थित एक गांव जा पहुंचे। वहां से वे अहमदाबाद होते हुए बड़ोदरा पहुँच गए जहां उन्हें कुछ शांकर मत के वेदांती सन्यासियों का सानिध्य प्राप्त हो गया और वहीँ उन्होंने नववेदांत स्वीकार कर लिया।
धर्म तत्व की विवेचना :-
 एक दिन उन्हें यह ज्ञात हुआ कि नर्मदा के तट पर साधुओं की एक वृहत गोष्ठी आयोजित होने वाली है अतः वे उसमें भाग लेने हेतु चाणोद करनाली चले गए और यहां पर उनकी भेंट स्वामी सच्चिदानंद नामक एक सन्यासी से हुई और उनसे विस्तारपूर्वक चर्चा का अवसर उन्हें मिल गया। चर्चा के बाद वे स्वामी परमानंद परमहंस के निकट आकर वेदांतसार तथा वेदांत परिभाषा आदि शांकरमत के ग्रन्थों का सम्यक अध्ययन किया। यहीं पर उन्होंने चिदाश्रम स्वामी से सन्यास लेने की अपनी इच्छा प्रकट की किन्तु स्वामी जी के इंकार कर देने पर वे स्वामी पूर्णानन्द के पास आकर सन्यास लेने की इच्छा प्रकट की। पहले तो पूर्णानंद ने भी इंकार कर दिया क्योंकि वे महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे अतः एक गुजराती ब्राह्मण को सन्यास की दीक्षा नहीं दे सकते थे। जब उन्होंने अपने कुलीन औदीच्य ब्राह्मण होने का परिचय दिया तब स्वामी जी ने स्वीकृति प्रदान कर दी और दयानंद सरस्वती का नाम प्रदान किया। पूर्णानंद से सन्यास की दीक्षा लेने के बाद कुछ दिनों तक वे उनके साथ बिताया और फिर यहीं से वे स्वामी योगानंद नामक एक प्रसिद्ध योगी की प्रशंसा सुनकर विद्याध्ययन हेतु उनके पास आ गए और अध्ययन के बाद यहीं से सिनोर नामक स्थान पर कृष्णा शास्त्री के पास अध्ययन करने चले गए। कुछ समय बाद ज्वालानंद पुरी व शिवानंद गिरि नामक दो योगियों से भेंट हुई तो उनसे योगविद्या का अध्ययन किया। इस प्रकट यत्र तत्र विचरण करते हुए १९१२ विक्रमी सम्वत में वे प्रथम बार हरिद्वार पहुंचे और यहां के कुंभमेले में सहभागिता की। मेले के दौरान वे चन्डी पर्वत पर योगाभ्यास करते रहे और मेले की समाप्ति पर  वहां से वे ऋषिकेश चले गए। ऋषकेश में दो साधुओं से उनकी भेंट हुई और उन्हीं साधुओं के साथ वे टेहरी चले गए जो उनदिनों विद्या अध्ययन का प्रमुख केंद्र था। टेहरी में पण्डितों ने उन्हें भोजन हेतु जब आमन्त्रित किया तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि वे पण्डित मांसाहारी हैं। तब उन्होंने उनसे यह निवेदन किया कि वे व्रत रखे हैं अतः फल  उनके निवास स्थल पर पहुंचा दें तो अच्छा होगा। कुछ दिन यहां पर रहकर उन्होंने तन्त्र ग्रन्थ का अध्ययन किया तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस ग्रन्थ में तो मद्य ,मांस भक्षण ,अमर्यादित मैथुन को ही मोक्ष का साधन बताया गया। यह देखकर उन्हें वितृष्णा पैदा उइ और अवसर पाकर उन्होंने इसका प्रबल खण्डन करना आरम्भ कर दिया। इसी स्थान पर गंगागिरि नामक एक सच्चरित्र सन्यासी से उनकी भेंट हो गयी तो वे उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए। दो मास तक टेहरी में रहकर स्वामी जी अपने कुछ साथियों को लेकर केदारघाट होते के अगस्त्य मुनि की समाधिस्थल पर जा पहुंचे। यहां से वे शिवपुरी पर्वत पर जाकर चार माह तक यहीं पर निवास किया और फिर यहां से अकेले ही वापस केदारघाट आ गए। केदारघाट से गुप्तकाशी ,गौरीकुंड तथा भीमगंगा होते के त्रियुगी नारायण पहुँच गए। कुछ दिन बाद वे यहां से तुंगनाथ की छोटी पर चढ़े और वहां सर्दी अधिक होने तथा पानी की अनुपलब्धता देखकर वे पुनः वापस लेत पड़े और ऊखीमठ होते हुए बद्रीनाथ पहुँच गए जान रावल पदवीधारी महंत से कई दिनों तक वेद एवम दर्शन पर चर्चा करते रहे। स्वामी जी का धैर्य टूट रहा था क्योंकि उन्हें कोई विद्वान सर्वज्ञ सन्यासी के रूप में नहीं मिल पा रहा था। फिर भी वे कुछ दिन वहां रहकर अपनी तलाश जारी रखे ।एक दिन वे अलकनंदा के तट पर आकर उसे पार करके कुछ खाने पिने की वस्तु तलाशने लगे क्योंकि कई दिनों से वे मुंह में केवल बर्फ के टुकड़े रखकर अपनी प्यास बुझा रहे थे।वहां से दूसरे दिन जंगल पर करके वे रामपुर पहुँच गए और यहीं पर रामगिरि नामक साधु के पास ठहर गए। कुछ दिन बाद वे काशीपुर आकर अपने लक्ष्य को दृढ करते हुए यह संकल्प लिया कि जबतक अमरत्व विद्या का सम्यक ज्ञान वे नहीं प्राप्त कर लेते तब तक शरीर नीं छोड़ेंगे। अतः वे द्रोणसागर ,मुरादाबाद ,सम्भल और गढ़मुक्तेश्वर होते हुए गंगा के किनारे आकर प्रवास करने लगे।
कुछ दिन यत्र तत्र भृमण करते हुए वे मथुरा आकर स्वामी विरजानन्द के सानिध्य में कुछ दिन बिताये। स्वामी विरजानन्द के क्रोधी स्वभाव के कारण वे खिन्न अवश्य थे किन्तु विद्या अध्ययन हेतु वे कुछ दिन यहां भी रुक गए। मथुरा से वे १९२० विक्रमी में आगरा आ गए और यहां उन्होंने सन्ध्याविधि नामक एक पुस्तक लिखी जिसे लाल रूपलाल ने ३०००० पार्टियों में छपवाकर मुफ्त में बंटवा दी। यहां से स्वामी जी ग्वालियर ,जयपुर ,पुष्कर होते हुए अजमेर पहुंचे और यहां पर उन्होंने शैव मत का खण्डन करना आरम्भ कर दिया। सन १८६७ ई में हरिद्वार कुम्भ मेले में स्वामी जी आकर हजारों साधु सन्तों के साथ पधारे के स्वामी विशुद्धानन्द से मुलाकात की। स्वामी विशुद्धानंद ने पुरुष सूक्त के मन्त्र "ब्राह्मणोस्य मुखमासीद "की व्यख्या करते हुए ब्राह्मण की उत्पत्ति परमात्मा के मुख से बताया तब स्वामी  दयानन्द जी नेइसका वास्तविक अर्थ बताते हुए कहा कि ब्राह्मण परमात्मा के मुख से नहीं बल्कि वह ब्राह्मण समाज के मुख के तुल्य महत्व रखता है। हरिद्वार के धर्म मेले में स्वामी जी ने निर्भय होकर मतमतांतरों का खण्डन करते हुए उपनिषदों का प्रमाण देते हुए एकेश्वर उपासना का प्रचार प्रसार किया और मूर्तिपूजा ,अवतार ,तीर्थ आदि मिथ्या विश्वासों का भी खण्डन किया। इसके प्रशंसा में आर्य समाज के प्रथम कवि अमीचन्द ने लिखा  :-
                उपज्यो  दण्डी ,छिपे  पाखण्डी ,डरे  घमण्डी धूर्त अन्यायी।
                 विद्या पाकर निकला दिनकर,तिमिर हटाकर ज्योति दिखायी।
                  आये हैं स्वामी दयानन्द नामी ,गर्ज सभा में सिंह की न्यायी।
                  सत का मण्डन,दम्भ का खण्डन,पांव तलक की धूल उड़ाई।
                    डरे हैं प्रमादी अनीश्वरवादी ,पौराणिक के दिन राम दुहाई।
                   बड़े बड़े नास्तिक होकर आस्तिक,हाथ जोड़ आये शरणाई।
                    वेदों के बल से युक्ति प्रबल से ,कलियुग की काया पलटाई।
                        योगीश्वर महर्षि आत्मदर्शन ,जिनके हिस्से में  ही आई।
स्वामी दयानंद गृहस्थों से उपहार स्वरूप जो कुछ भी पाते थे उसे  दीनजनों में बाँट देते थे और स्वयं मात्र एक कौपीन पहनकर अवधूतावस्था में गंगा के किनारे चल पड़ते थे। स्वामी जी ढाई वर्षों तक गंगा का तट पर रहकर अपने उपदेशों से लोगों को कृतार्थ करते रहे और इस अवधि में अनेकों बार उन्हें विद्वतजनों से शास्त्रार्थ करने का भी अवसर प्राप्त हुआ। वे जहां भी जाते थे वहां मूर्तिपूजा आदि पौराणिक कृत्यों का खण्डन करते और ब्राह्मणों का कोपभाजन भी बनते। एकबार उन्हें पान में विष मिलाकर एक ब्राह्मण ने खिलने का प्रयास किया तो स्वामी जी को सन्देह हो गया और प्रशासन ने उसे कारागार में डाल दिया तब वे स्वयं जाकर उसे छुड़वाया भी था। एक घटना कानपुर में घटी जब कुछ शरारती तत्वों ने स्वामी जी को गंगा में डुबाने का प्रयास किया था किन्तु पहचानने में भूल हो जाने के कारण विरजानंद स्वामी को गंगा में फेंक दिए जिन्हें समय पर गंगा से निकाल लिया गया था। ऐसी एक घटना सोरों में भी हुई थी। फरुक्खाबाद में उन्हें जब मारने की चेष्टा हुई थी तब भी लोगों को  सफलता नहीं मिली थी। ऐसी घटनाओं से परेशान होकर लाला जगन्नाथ ने स्वामी जी को गंगा तट छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाने को कहा तब स्वामी जी ने उनसे कहा कि यहां तो तुम सब मुझे बचा लोगे ,अन्यत्र कौन बचाएगा। सर्व व्यापक परमात्मा ही मेरा रक्षक है। स्वामी जी ने फरुखाबाद में एक संस्कृत पाठशाला खोली थी जिसके माध्यम से वे संस्कृत भाषा का विकास करना चाह रहे थे।
१६ नवम्बर १८६८ को गुरु से आज्ञा लेकर स्वामी जी पुष्कर और हरिद्वार में भी अपनी विद्या का प्रकाश फैलाया और अंत में काशी जो पण्डितों का गढ़ था ,वहां जाकर मूर्तिपूजा का प्रबल खण्डन करना आरम्भ कर दिया। काशी के प्रमुख विद्वान पँ० राजाराम ने घोषणा की थी कि यदि वे स्वामी जी के प्रश्नों का उत्तर दे देंगे छुरी से स्वामी जी को  अपनी नाक  कटवानी पड़ेगी।इसपर स्वामी जी ने कहा था कि दो छुरी रखवाएं ताकि मेरे द्वारा जबाब दे देने पर राजाराम जी के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जा सके। ऐसा जबाब पाने पर राजाराम ने अपना एक शिष्य भेजकर स्वामी जी की विद्वता का आकलन करवाया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि स्वामी जी प्रकांड पण्डित हैं किन्तु वे नास्तिक भी हैं। यह समाचार काशी नरेश को भी मिला तो उन्होंने सभी पण्डितों को स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने हेतु अपने निवास पर बुलवाया। उस शास्त्रार्थ का विषय था कि क्या मूर्तिपूजा वेदसम्मत है ?सभा में जब पण्डितों ने वेदों में देवताओं के आवाहन तथा मूर्तिपूजा उल्लेख का कोई प्रमाण नहीं दे पाए तब स्वामी विशुद्धानंद ने कहा कि जब उपनिषदों में मनोब्रह्मेत्युपासीत जैसे वाक्यों द्वारा मन और सूर्य आदि की उपासना का विधान है तो शालिग्राम की पूजा भी स्वीकार कर लेनी चाहिए। इस पर स्वामी जी ने उत्तर दिया कि मन और आदित्य की उपासना का विधान ब्राह्मण ग्रन्थों में है जिन्हें आप लोग वेद कह रहे हैं किन्तु यह कहीं नहीं कहा गया है कि पाषाण ब्रह्मेत्युपासीत। इसके बाद पुराण शब्द के अर्थ पर चर्चा हुई और एक वाक्य को उपनिषद का वाक्य न होने पर पण्डितों ने जब शर्त लगाई तब स्वामी जी उसे उपनिषद का वाक्य होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया। शास्त्रार्थ के अंत में जब रात्रि होने लगी तो पण्डितों ने दो पन्ने हाथ में लहराते हुए कहा कि ये वेद के अंश हैं और इसमें लिखा है कि यज्ञ के समाप्त होने पर दसवें दिन पुराण सुनना चाहिए। स्वामी जी ने वे दोनों पन्ने हाथ में लेकर ज्योंहि उसे पढ़ने के लिए दीपक मंगवाया तभी सभी पण्डितों ने कोलाहल मच दिया। काशी नरेश भी समझ नहीं पाए फिर भी उन्होंने  पण्डितों के साथ तालियां बजा  दिया और सभी पण्डित अपनी विजयघोष के नारे के साथ वहां से प्रस्थान कर दिए। इसी बीच किसी शरारती व्यक्ति ने स्वामी जी पर ईंट पत्थर फेंकना आरम्भ कर दिया तब कोतवाल पण्डित रघुनाथ प्रसाद ने स्वामी जी को एक कोठरी में बन्द करवा दिया और उनकी रक्षा की।इस शास्त्रार्थ के बाद भी स्वामी जी कुछ दिनों तक काशी में रहे किन्तु किसी भी पण्डित ने उनका विरोध नहीं किया। अंत में पण्डित समुदाय ने यह घोषणा करवा दी कि जो स्वामी जी का दर्शन करेगा वह पतित हो जायेगा किन्तु बड़ी संख्या में लोग स्वामी जी के उपदेश सुनते रहे। समाचार पत्रो मेंउक्त शास्त्रार्थ का निष्कर्ष छपा कि उसमें स्वामी जी का पक्ष प्रबल रहा।
जनवरी १८७० से १८७२ ई तक स्वामी जी प्रयाग में वास किये और यहां रहकर उन्होंने लघुकौमुदी का खण्डन किया। यहां पर उनसे शास्त्रार्थ करने हेतु कोई भी नहीं आया। दिसम्बर १८७२ से अगस्त १८७३ तक वे कलकत्ता में रहकर अनेकों ब्रह्मसमाजियों से वार्तालाप किया। जातिभेद के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि जातिभेद केवल गुणकर्म के आधार पर है न कि जन्मजात। ईश्वर के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि ईश्वर निराकार व सच्चिदानंदस्वरूप है। सांख्यदर्शन की विधिवत व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि सांख्यकार स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म को मानते हैं। यदि वे नास्तिक होते तो ऐसा कदापि न मानते। सृष्टि की उत्पत्ति उन्होंने ६ कारणों से बताई। प्रथम परमाणु जैसा न्याय दर्शन ने बताया है ,दूसरा मीमांसा का कर्मसिद्धांत तीसरा सांख्य का तत्व ,चौथा ज्ञान -विचार व बुद्धि का विकास, पांचवा वैशेषिक काल का निरूपक है और छठ परमात्मा को सृष्टि का निमित्तकारण जैसा वेदांत ने कहा है।
२६ अक्टूबर १८७४ ई को स्वामी जी बम्बई आ गए और यहां भी उन्होंने अपने मत का प्रचार -प्रसार साहसपूर्वक किया। २० जून १८७५ ई को पूना जाकर दो मास तक वेदोपदेश देते रहे और दिसम्बर १८७६ ई में वे दिल्ली पहुँच गए और अजमेरी दरवाजे के बाहर कुतुबरोड पर अपना डेरा डाल दिया और यहीं पर उन्होंने एक गोष्ठी बुलाते हुए मुंशी कन्हैय्यालाल ,नवीनचन्द्र राय ,केशव चन्द्र सेन ,इंद्रमणि मुरादाबादी ,सैय्यद अहमद खान ,हरिश्चंद्र चिंतामणि के साथ वार्तालाप किया। यहां से वे पंजाब की ओर प्रस्थान किये और लुधियाना ,लाहौर ,अमृतसर में अपना व्याख्यान दिया। इसी दौरान रुड़की से पण्डित उमराव सिंह का पात्र उन्हें मिला और २५ जुलाई १८७८ ई को वे रुड़की पहुँच गए। ११ अगस्त तक यहां पर रहकर अपना व्याख्यान दिया और विभिन्न लोगों से वार्तालाप करते रहे। अलीगढ ,मेरठ ,व अजमेर नगरों में भी उन्होंने अपना व्याख्यान दिया और इसके बाद १४ अप्रैल १८७९ से मार्च १८८१ तक पश्चिमोत्तर भारत अवध ,बिहार में धर्म प्रचार किया। १० मार्च १८८१ ४ दिसम्बर १८८१ तक वे राजस्थान में धर्मोपदेश दिए ततपश्चात पुनः ३१ दिसम्बर १८८१ को बम्बई दूसरी बार चले गए तथा २२ जून १८८२ तक यहां पर निवास किया। २५ जुलाई १८८२ से १ मार्च १८८३ ई तक उदयपुर में धर्मोपदेश तथा महाराणा सज्जन सिंह को शास्त्राभ्यास करवाया। यहां से जोधपुर होते हुए २६ अक्टूबर १८८३ को अजमेर पहुंचे। अजमेर में स्वामी जी को भिनाव की कोठी में डॉ लक्ष्मण दास ने उनका उपचार आरम्भ किया। २९ सितम्बर की रात्रि को राजा की प्रेयसी नन्ही फैजउल्लाखां ने स्वामी जी को दूध में विष मिलाकर दे दिया था जिसके कारण उनके शरीर पर फफोले पद गए थे और लगातार हिचकियों के कारण वे अचेत भी हो गए थे। उपचार के बाद जब चेतना वापस नहीं लौटी तब उन्होंने अपने शिष्य आत्मानंद व स्वामी गोपालगिरी को बुलवाकर पूंछा कि तुम लोग अब क्या चाहते हो। दोनों ने उत्तर दिया कि हम आपके आरोग्य लाभ की कामना करते हैं। स्वामी जी ने सभी को पंक्तिबद्ध होकर खड़े होने तथा कमरे के सभी दरवाजे खुलवाकर स्वयम चारपाई पर लेट गए और पूंछा कि आज कौन सा दिन है ?लोगों ने बताया कि आज कार्तिक अमावस्या तिथि मंगलवार है। यह सुनकर स्वामी जी ने परमात्मा की स्तुति की ,वेदमन्त्रों से परमेश्वर का गुणानुवाद करते हुए अंत में गायत्री मन्त्र का उच्चारण किया और अपने दोनों नेत्र खोलकर कहा -हे सर्वशक्तिमान ईश्वर ,तेरी यही इच्छा है ,तेरी इच्छा पूर्ण हो। अहा ,तूने कैसी लीला की। इन्हीं वाक्यों के साथ उन्होंने करवट ली और श्वास को बाहर निकलते हुए अंतिम श्वास लेकर परलोक से अलविदा ले ली। 
स्वामी जी के व्यक्तित्व में एक अलौकिक शक्ति थी तभी तो लोग उनसे शास्त्रार्थ करने आया करते थे किन्तु वापस लौटते समय वे उनके अनुयायी भी बन जाते थे। अपनी दिनचर्या में स्वामी जी ईशरोपासना व योगासन को कभी भी नहीं भूलते थे। वे सच्चे मानवतावादी थे। एकबार बैलगाड़ी कीचड़ में फँस गयी थी और गाड़ीवाला बैलों को पीट पीट कर थक गया किन्तु बैलगाड़ी कीचड़ से बाहर नहीं निकल प् रही थी तब स्वामी ने स्वयम उस गाड़ी से बैलों को खुलवाकर उसे कीचड़ से बाहर निकाला था। स्वामी जी के चरित्र की यह सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे अप्रसिद्धि में जन्मे ,उसी में पले और  उसी वातावरण में प्राप्त की किन्तु जब वे कर्मक्षेत्र में आये तब परम्परागत रूढ़िवादिता के विरुद्ध जीवनभर गरजते रहे। कई बार विद्वान पण्डितों ने उन्हें मूर्ति पूजा -खण्डन के मार्ग छोड़कर उसका समर्थन करने तथा उन्हें विष्णु का अवतार घोषित करने प्रलोभन दिया किन्तु स्वामी जी अपने मार्ग पर अडिग रहे। उनका मन्तव्य था कि जबतक हिन्दू मूर्तिपूजा से विरत नहीं होंगे तबतक वे सत्पथ पर नहीं चल पाएंगे और उनकी सामाजिक एवम राजनैतिक प्रगति भी अवरुद्ध रहेगी। इसीलिए उन्होंने अपनी आत्मा का समस्त बल मूर्तिपूजा के खण्डन तथा उसे वेद के विरुद्ध सिद्ध करने में लगा दिया। मुस्लिम एवम ईसाइयों की वैदिक धर्म के प्रति जो दूषित धरना थी उसे स्वामी जी ने अपनी अवधारणा से छीन भिन्न कर दिया था। उन्होंने आर्यों की श्रेष्ठ बुद्धि को वरीयता प्रदान की और निखारने के लिए वेदमन्त्रों का ज्ञान उन्हें प्रदान किया। उन्होंने समस्त आर्य सन्तान को गायत्री की शिक्षा दी और बुद्धि की शुद्धता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना आवश्यक बताया। 
स्वामी जी परमात्मा को ही सर्वोत्कृष्ट गुरु मानते थे क्योंकि उसकी शिक्षा त्रुटिहीन एवम पक्षपात विहीन है। परमात्मा की शिक्षा वेदों में वर्णित है और वेदों के वास्तविक स्वरूप से जनसाधारण को उन्होंने परिचित करवाया। इन्ही उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्होंने सन १८७५ ई में आर्यसमाज की स्थापना की अनुमति प्रदान की और आर्य समाज के नियम १७ में स्पष्ट किया --"इस समाज में स्वदेश के हितार्थ दो प्रकार की शुद्धि के लिए प्रयत्न किया जायेगा। पहला परमार्थ और दूसरा लोकव्यवहार। इन दोनों का शोधन और शुद्धता की उन्नति तथा सम्पूर्ण संसार के हित की उन्नति की जाएगी। "आर्यसमाज की स्थापना के सन्दर्भ में अपनी सहमति देते हुए उन्होंने कहा था --"मेरा अभिप्राय है कि भारत में यदि नाना प्रकार के मतमतान्तर प्रचलित हैं ,तो वे सभी वेदों को मानते हैं। मेरा कोई स्वतन्त्र मत नहीं है और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूँ। यदि आगे चलकर मेरी कोई गलती पायी जाये तो युक्तिपूर्वक परीक्षा करके उसे सुधार लेना। " 
स्वामी जी ने मूर्तिपूजा खण्डन के साथ साथ श्राद्ध ,तीर्थ तथा अवतारवाद की भी आलोचना की। उनका मत था कि मृत पितरों के नाम पर दान देने से उनकी आत्मा को कोई लाभ नहीं मिलता है और किसी जलाशय या नदी में स्नान करने से पापों का विनाश नहीं होता है और न ही मुक्ति मिलती है। परमात्मा अजन्मा व अमर होने के कारण मनुष्य की देह में कभी भी प्रविष्ट नहीं होता। उन्होंने एक नवीन सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहा कि आत्मा और परमात्मा दो पृथक पदार्थ हैं तथा प्रकृति भी अनादि है तथा परमात्मा ही सर्वशक्तिमान और सृष्टि का आदि कारण है। मोक्ष के सन्दर्भ में वे मानते हैं कि जीव मुक्त होकर परमात्मा के सानिध्य में एक निश्चित अवधि तक दिव्यानन्द का भोग करता है ततपश्चात पुनः संसार में वापस आ जाता है। स्वामी जी सर्वशिक्षा के समर्थक थे तथा बालविवाह के विरोधी थे। उन्होंने जाति एवम वर्ण को जन्माधारित नहीं माना बल्कि प्रत्येक आर्य के लिए शिखा और यग्योपवीत आवश्यक बताया। गोरक्षा में स्वामी जी की प्रबल आस्था थी और इसके लिए उन्होंनेगौरक्षिणी सभा स्थापित करने का परामर्श दिया था। उन्होंने यह कार्य गौकल्याणनिधि नामक पुस्तक लिखकर की। स्वामी जी प्रथम पुरुष थे जिन्होंने गौरक्षा के प्रश्न को धर्म की परिधि से बाहर निकालकर उसे विस्तृत आधार देते हुए इसके आर्थिक पक्ष का समर्थन किया था। स्वामी जी ने आत्माभिव्यक्ति के सन्दर्भ में कहा ---भाई ,मेरा कोई स्वतन्त्र मत नहीं है। मैं तो वेदों के अधीन हूँ और हमारे भारत में २५ करोड़ आर्य हैं। कई कई बातों में किसी किसी में कुछ भेद हो जाता है जो विचार करने से आप ही आप हल हो जाता है। मैं सन्यासी हूँ और मेरा कर्तव्य यही है कि जो आप लोगों का अन्न खाता हूँ उसके बदले में जो सत्य समझता हूँ उसका निर्भयता से उपदेश करता हूँ। मैं कुछ कीर्ति का रागी नहीं हूँ।चाहे कोई मेरी स्तुति करे या निन्दा करे ,मैं मेरा कर्तव्य समझकर धर्मबोध करता हूँ। चाहे कोई माने या न माने इसमें मेरा कोई लाभ हानि नहीं है। 
स्वामी जी उच्चकोटि के विरक्त एवम वीतरागी महापुरुष थे क्योंकि उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति व मायामोह का परित्याग करके सन्यास जीवन स्वीकार किया था। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। अपनी योगशक्ति का उन्होंने कभी भी प्रदर्शन नहीं किया। वे न किसी राजा से भयभीत हुए और न ही किसी पण्डित से। उपनिषदकाल के पश्चात कोई भी महापुरुष ऐसा साहस नहीं किया था जैसा स्वामी जी ने किया था। मूर्तिपूजा का खण्डन छोड़ने हेतु कई प्रकार के प्रलोभन तत्कालीन राजाओं द्वारा  दिए गए थे किन्तु उन्होंने अपनी दृढ़ता पर आंच नहीं आने दी। 

स्वामी जी द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नवत हैं :--

१-पाखण्ड खण्डन या भागवत खण्डन जो उन्होंने संस्कृत भाषा में लिखी है और भागवत मत का खण्डन किया है।
२-अद्वैतमत खण्डन भी संस्कृत में लिखी पुस्तक है। 
३-सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक के प्रथम भाग में वैदिक धर्म तथा आर्य जीवन पद्धति का वर्णन है और उत्तरार्ध में मतमतान्तरों का खण्डन किया गया है। 
४-ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका तथा वेदभाष्य। 
५-पंच महायज्ञ विधि जिसमे गृहस्थों के लिए नित्य कर्तव्य ,ब्रह्म यज्ञ ,अग्निहोत्र ,पितृयज्ञ ,बलिवैश्वयज्ञ तथा अतिथियज्ञ की विवेचना की गयी है। 
६-वेदांग प्रकाश ,जो चौदह खण्डों में संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है। 
७-संस्कृत वाक्य प्रबोध। 
८-व्यवहारभानु जिसमें बालकों की सभ्यता ,शिष्टाचार तथा आर्योचित व्यवहारों का वर्णन है। 
९- वेदांतिध्वान्त  . 
१०-भ्रान्तिनिवारण 
११-भ्रमोच्छेदन 
१२- गौकल्याण  निधि 
 १३- संस्कारविधि जिसमें गर्भाधान से अंत्येष्टिपर्यन्त शास्त्रोक्त १६ संस्कारों के महत्व तथा विधि का निरूपण किया गया है।   
                                       चिन्मयं व्याप्तेन यत्किंचित सचराचरम। 
                                       तत्पदं  दर्शनं  येन तस्मै  श्रीगुरुवे  नमः।                                                              
     

रामकृष्ण परमहंस

सर्वधर्म समन्वयक एवं मानवीय मूल्यों के पोषक, भारतवर्ष के महान सन्त रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८ फरवरी १८३६ ई० को पश्चिम बंगाल राज्य के कामारपुकुर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम खुदीराम और माता का नाम चन्द्रमणी देवी था। माता  पिता लाड़ प्यार में इन्हें गदाधर के नाम से पुकारा करते थे। गदाधर पुकारने के संदर्भ में एक प्रसंग यह था कि इनके पिता ने एक दिन स्वप्न में यह देखा था कि भगवान विष्णु उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे और इनकी माता ने भी शिव मंदिर में पूजा के दौरान अपने गर्भ में एक अलौकिक प्रकाश को प्रवेश करते हुए देखा था। अतः बालक के जन्म के बाद उन्होंने उसका नाम गदाधर रख दिया। सात वर्ष की अल्पायु में ही इनके पिता का स्वर्गवास हो गया जिसके फलस्वरूप इनका बचपन कठिनाइयों में व्यतीत हुआ। इनके बड़े भ्राता श्री रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता के एक विद्यालय में सहायक अध्यापक थे अतः उन्होंने गदाधर को अपने पास ही ले आये। गदाधर बचपन से ही सहज ,विनयशील एवं प्रतिभावान थे किन्तु उनका मन पढाई लिखाई से विरक्त होने लगा था। सन् १८५५ ई०  में जब इनके भ्राता को दक्षिणेश्वर काली मन्दिर में मुख्य पुजारी का दायित्व मिल गया तब उन्होंने गदाधर को भी अपने साथ ले आये और उसी मंदिर में कालीमाता की प्रतिमा की साजसज्जा व सफाई आदि  कार्यों में लगा दिया। सन् १८६६ ई०भाई रामकुमार की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण ने उसी मंदिर के मुख्य पुजारी का कार्यभार संभाल लिया। एक दिन मंदिर में ही उन्होंने माता काली को अखिल ब्रह्माण्ड की माता के रूप में दर्शन किया। इस दर्शन का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया :--"घर, द्वार व मन्दिर सब कुछ अदृश्य हो गया ,जैसे कहीं कुछ भी नहीं था। मैंने एक अनन्त आलोक का सागर देखा। यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में मैंने दूर दूर तक देखा बस उज्जवल लहरें ही दिखाई पड़ीं जो क्रमशः मेरी ओर आ रहीं थीं। " इस घटना के बाद लोगों ने यह अनुमान लगाया कि सम्भवतः रामकृष्ण का मानसिक सन्तुलन ठीक नहीं है अतः उनकी माता व दुसरे बड़े भाई रामेश्वर ने इनका विवाह कराने का निर्णय ले लिया। रामकृष्ण को जब यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने अपने गाँव से ३ किलोमीटर की दूरी पर रह रहे श्री राम चन्द्र मुखर्जी की ५ वर्षीय कन्या से विवाह का सुझाव दिया। रामकृष्ण की २३ वर्ष की आयु में रामचन्द्र मुखर्जी की पुत्री शारदामणि से विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के बाद रामकृष्ण पुनः दक्षिणेश्वर मंदिर आ गये और १८ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर शारदामणि को भी अपने साथ ले आये। पत्नी को साथ ले आने पर भी वे एक सन्यासी का ही जीवनं जी रहे थे।उनका मानना था कि गृहस्थाश्रम एक तरह का किला है और किले में बैठकर शत्रु से युद्ध सुगमता से किया जा सकता है।  इसी बीच एक भैरवी ब्राह्मणी ने वहीं पर इन्हें तंत्र की विधिवत दीक्षा दी। धीरे धीरे स्वामी जी की ख्याति उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यास एवं सिद्धियों के कारण दूर दूर तक फैलने लगा। इसी बीच इनकी भेंट स्वामी दयानन्द जी से कलकत्ता में ही हुई और इस भेंट के पश्चात रामकृष्ण ने कहा :-"दयानन्द से भेंट करने गया तब मैंने ऐसा देखा कि उन्हें थोड़ी बहुत शक्ति प्राप्त हो चुकी है। उनका वक्षस्थल सदैव आरक्त दिखाई पड़ता था। रातदिन लगातार शास्त्रों पर ही चर्चा करते थे। अपने व्याकरण ज्ञान के आधार पर उन्होंने अनेक शस्त्र वाक्यों के अर्थ में उलटफेर कर दिया है। मैं ऐसा करूंगा ,मैं अपना मत स्थापित करूँगा। ऐसा कहने में उनका अहंकार दिखाई पड़ता है। "
उस समय आर्य समाज और ब्रह्म समाज दोनों बड़े ही प्रबल सांस्कृतिक आंदोलन बन गए थे किन्तु उनकी कमजोरियों ओर रामकृष्ण जी ने सर्वप्रथम  इंगित किया। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द बालब्रह्मचारी ,निरीह सन्यासी ,प्रचण्ड तार्किक और उदभट विद्वान थे किन्तु संतों की नम्रता और निरहंकार नहीं था। ब्रह्मसमाज में तार्किकता अधिक नहीं थी किन्तु ब्रह्मसमाजी अपने को जितना भक्तविह्वल दिखना चाहते थे वस्तुतः वैसा था नहीं। ब्रह्मसमाजियों  की भक्ति ज्ञान की नोक से उठायी हुई वस्तु जैसे थी। ब्रह्मसमाजियों का उद्देश्य समाज सुधार था किन्तु उन्होंने आश्रय धर्म का लिया था।
दयानन्द ,राममोहन एवं केशवचन्द्र सेन से रामकृष्ण अनेक बैटन में भिन्न थे। दयानन्द भारतीय परम्परा के प्रकांड पंडित और अंग्रेजी भाषा के भी ज्ञानी थे। चूंकि रामकृष्ण जी अधिक पढ़े लिखे नहीं थे.अंग्रेजी व संस्कृत का ज्ञान उन्हें बिलकुल नहीं था और वे अपनी बात कहने के लिए कभी भी आश्रम से बाहर नहीं जाते थे और न ही उन्होंने कभी हिन्दू धर्म को खतरे में बताया। पंडित और संत में यही भेद होता है जो ह्रदय और बुद्धि में। बुद्धि जहां परास्त हो जाती है ,ह्रदय वहां सहजता से प्रविष्ट हो जाता है। विद्या व ज्ञान समुद्र से उठती हुई तरंगों की तरह हैं किन्तु अनुभूति समुद्र के अंतराल में बस्ती है। अनुभूति का एक पल ज्ञान से बहुत अधिक मूल्यवान माना जाता है। रामकृष्ण जी अनुभूतियों के सिद्धस्थ संत थे। इसीलिए उनमें समस्त ज्ञान स्वयं प्रविष्ट हो गया था। उनके अनुसार धर्म अनुभूति का विषय है और भारतवासी धर्मात्मा उसी को मानते हैं जिसने धर्म के महासत्वों को केवल जाना ही नहीं बल्कि उनकी अनुभूति कर उनसे साक्षात्कार भी किया। स्वामी रामकृष्ण के आगमन से धर्म की यही अनुभूति प्रकट हुई और उन्होंने अपनी जीवन शैली से यह बता दिया कि धार्मिक सत्य केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं बल्कि वह प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है और उनके सामने संसार की समस्त धन सम्पदायें ,तृष्णायें ,सुखभोग आदि तृणवत व नगण्य हैं। जब हिन्दू ईसाई और मुस्लिम धर्म के आस्तिक व नास्तिक दोनों आपस में लड़ रहे थे कि किसका धर्म उत्तम है तब रामकृष्ण जी विश्व को यह संदेश रहे थे कि:"धर्म को शास्त्रार्थ का विषय मत बनाओ सम्भव हो तो उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए प्रयास करो। सभी धर्म एक ही ईश्वर की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं। "स्वामी जी ने कथनी और करनी में से करनी को सदैव प्राथमिकता प्रदान की और अपने उपदेश को उन्होंने अपने जीवन में उतारकर उसकी सत्यता को प्रमाणित किया। उन्होंने इस्लाम व ईसाइयत धर्म की साधना कर उसकी गहराइयों को भी जाना। साधन के मार्ग अनेक हैं उनमें से किसी एक को चुना  जा सकता है। प्रतिष्ठा मार्ग से नहीं बल्कि अनुभूति से होती है। जब अनुभूति की गहराईयां प्राप्त हो जाती हैं तो जातिगत व धर्मगत भेद स्वयं समाप्त हो जाता है ,ऐसा स्वामी जी मानना था। रामकृष्ण उस ऊँचाई के साधक जहां से सभी धर्म ,सत्य व मनुष्य उन्हें एक समान दिखाई पड़ते थे और जहां विवाद और शास्त्रार्थ की अनुगूँज नहीं होती ,जहां धर्म और राजनीति की गंध नहीं होती, ऐसे मार्ग के अनुयायी थे स्वामी रामकृष्ण जी। आजीवन वे बालकों की तरह सरल व निश्छल बने रहे और आजीवन उस मस्ती में डूबे रहे जिसके दो चार छीटों से जन्म जन्म की तृष्णा शांत हो जाती है। आनन्द उनका धर्म ,अतीन्द्रिय रूप का दर्शन उनकी पूजा ,और विरह उनका जीवन था। उनका व्यक्तित्व ऐसा था जो जीवन के अंतिम सत्य एवं अतीन्द्रिय वास्तविकता के उत्स के आमने सामने खड़ा होता था। उनके समकालीन अन्य सुधारक और सन्त पृथ्वी के वासी थे और पृथ्वी से ही वे ऊपर की ओर उठे थे किन्तु रामकृष्ण दैवी अवतार की भांति इस प्रकार आये कि मानो पृथ्वी पर कोई स्वर्ग की किरण भटककर आ गई हो। दृश्य की ओर से चलकर दयानन्द व केशवचन्द्र सेन ने जिस सत्य की ओर संकेत किया था ,अदृश्य की ओर से आकर रामकृष्ण ने उस सत्य को अपने जीवन में साकार कर दिखा दिया। पांच हजार वर्ष प्राचीन धर्मसाधना रुपी लता पर रामकृष्ण प्रथम पुष्प बनकर खिले और उन्हें देखकर लोगों में  फिर से वही विश्वास दृढ हो गया कि भारत में धर्म की अनुभूति जगाने वाले जिन ऋषियों और सन्तों की कथाएं सुनी जाती हैं ,वे असत्य व काल्पनिक नहीं हैं।
स्वामी रामकृष्ण ने महाकाली के नामस्मरण मात्र को अपनी साधना माना। दक्षिणेश्वर की कुटी में एक चौकी पर बैठकर वे उस धर्म का आख्यान करते थे जिसका आदि अन्त अतीत की गहराईयों में डूबा हुआ है और जिसका अंतिम छोर भविष्य के गह्वर की ओर फ़ैल रहा है। घर बैठे ही उन्हें गुरु भी मिलते गए। अद्वैत साधना उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली थी जो स्वयं उनकी कुटी में आये थे। तन्त्र साधना उन्होंने एक भैरवी से पाई थी जो स्वयम घूमते हुए उनके पास आ गए थे।इस्लामी साधना के गुरु श्री गोविन्द राय थे जो हिन्दू से मुसलमान बन गए थे। इसी प्रकार ईसाईयत की साधना उन्होंने शम्भु चरण मलिक के साथ की थी जो ईसाई धर्म के ज्ञाता थे। इन सभी साधनाओं में लीन होकर धर्म के गूढ़ रहस्यों की छानबीन करते हुए भी मां काली के चरणों में उनका विश्वास अटल रहा। जैसे एक अबोध बालकस्वयं अपनी चिंता नहीं करता उसी प्रकार रामकृष्ण अपनी परवाह कभी नहीं करते थे ,जैसे बालक प्रत्येक वस्तु की याचना अपनी मां से करता है ठीक उसी प्रकार स्वामी जी मां काली से ही माँगा करते थे और उनकी आज्ञा लेकर ही प्रत्येक कार्य करते थे। जब तोताराम जी ने स्वामी जी से पूंछा था कि क्या तुम अद्वैत साधना करोगे ? तब स्वामी जी ने कहा था कि मां काली से पूँछकर बताता हूँ। तोताराम जी ने समझा था कि इसकी कोई माता होगी। अतः उन्होंने प्रतीक्षा किया और जब स्वामी जी मंदिर से वापस आकर उन्हें बताया कि हाँ ,आज्ञा मिल गई है , तब तोताराम इस रहस्य को जान पाए थे क़ि मां काली की प्रतिमा में उनकी कितनी आस्था थी ?  
स्वामी जी जितेन्द्रिय थे और हिन्दूधर्म की प्रत्येक गहराईयों से भिज्ञ भी थे। सिर से पाँव तक वे आत्मज्योति से प्रकशित रहते थे। आनन्द ,पवित्रता और पुण्य की प्रभा हमेशा उनको घेरे रहती थी और वे रातदिन परमार्थ चिन्तन में ही निमग्न रहते थे। सांसारिक सुख ,समृद्धि यहां तक कि सुयश का भी उनके सामने कोई अस्तित्व नहीं था। साधना करते हुए उन्होंने अपने शरीर को इतना शुद्ध कर लिया था कि वह ईश्वरत्व का एक निर्मल यंत्र बन गया था और सांसारिकता के स्पर्श मात्र से उसमें विचित्र प्रक्रियाएं उत्पन्न होने लगतीं थीं। द्रव्य के प्रति यह वितृष्णा उनमें बढ़ती ही गई और अंत समय तो ऐसा भी आया कि हाथ में कपड़ा लपेटे बिना वे कांसे के बर्तन को भी नहीं छू सकते थे। निदान उनका मिटटी के बर्तन में ही चलने लगा था। उन्होंने पत्नी को अपने साथ रहने की अनुमति दे दी थी और साधना के मार्ग पर उन्हें भी आगे बढ़ाया। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि नारी के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण था ? 
स्वामी जी अदभुत गुणों एवं दैवीय व्यक्तित्व से आकृष्ट होकर हमेशा लोग उनको घेरे रहते थे। इनमें से कुछ युवक भी रहते थे जो स्वामी जी की शक्तियों की पहचान करने हेतु आते थे किन्तु स्वामी जी न तो कभी किसी चमत्कार का प्रदर्शन किया करते थे और न ही वाद विवाद द्वारा किसी प्रकार के विवाद को हल करने की चेष्टा करते थे। उनका सम्पूर्ण जीवन ही उन्मुक्त ग्रन्थ था और धर्म के लक्षण वे मुख से नहीं बल्कि अपने आचरणों से बताते थे। स्वामी जी लगभग अपढ़ थे किन्तु गहन साधना के कारण वे उस मूल उत्स पर पहुँच गए थे जहां से सभी ज्ञान उठकर ऊपर आते हैं ,जहाँ से दर्शनों की उत्पत्ति और धर्मों का ज्ञान होता है। इसीलिए उनके उपदेश विद्वान और मूर्ख सभी के लिए समान रूप से ग्राह्य थे। उनके वचनामृत की धाराजब कभी फूटती थी तब बड़े  तार्किक अवाक् हो जाते थे। केशव चन्द्र सेन से एक बार रामकृष्ण जी ने कहा कि ,केशव तू अपनी वक्तृता के द्वारा सभी को हिल देता है ,मुझे भी तो कुछ बता। केशवचन्द्र इस पर नम्रता से बोले "मैं क्या लोहार की दूकान में सुई बेचने जाऊं। आप ही कहते जाएँ ,मैं सुनूँगा। आपके ही श्रीमुख की दो चार बातें मैं लोगों को बताता हूँ जिन्हें सुनकर वे गदगद हो। "
 स्वामी जी की विषय प्रतिपादन की शैली वही थी जिसका आश्रय प्राचीन ऋषियों मुनियों व सन्तों ने लिया था तथा जो परम्परा से भारतीय सन्तों के उपदेश की पद्धति रही है। वे तर्कों का सहारा कम लेते थे ,जो भी समझना होता था उसे उपमाओं और दृष्टान्तों से समझते थे। देह और आत्मा दो भिन्न वस्तुएं हैं इस सिद्धांत को समझाते हुए वे कहते हैं कि "कामिनी कांचन की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाये तो देह अलग है और आत्मा अलग है ,यह स्पष्ट रूप से दिखने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा उसकी नरेरी से अलग हो जाता है और वे दोनों अलग अलग दिखने लगते हैं ,जैसे म्यान के भीतर रखी हुई तलवार के विषय में कह सकते हैं कि म्यान और तलवार दोनों भिन्न चीजें हैं ,वैसे ही देह और आत्मा के बारे में जानो। "
प्रतिमा पूजन का ईश्वर साधना में उपयोगिता व महत्व के बारे में वे बताते हैं कि जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है उसी तरह प्रतिमा से ईश्वर की याद आती है। माया ईश्वर की शक्ति है और वह ईश्वर में ही बसा करती है। तब क्या ईश्वर भी हमारे समान ही मायाबद्ध है ?इस गुत्थी को सुलझाने हेतु वे कहते हैं 'अरे नहीं ,रे भाई वैसा नहीं है। यही देखो न ,सर्प  के मुख्य में हमेशा विष रहता है किन्तु उसी मुख्य से वह हरदम खता पीता है ,पर वह स्वयं उस विष से नहीं मरता है। " 
मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है। इस शिक्षा को उन्होंने इस प्रकार समझाया था :-"मनुष्य मानो केवल तकिए का गिलाफ है। गिलाफ जैसे भिन्न भिन्न रंग और आकार के होते हैं वैसे ही मनुष्य भी कोई कुरूप ,कोई साधू और कोई दुष्ट होता है। बस इतना ही अंतर है पर जैसे सभी गिलाफ में एक ही पदार्थ है कपास ,वैसे ही सभी मनुष्यों में वाही एक सच्चिदानन्द भरा हुआ है। ईश्वराधना का व्यवहारिक भाग बताते हुए वे कहते हैं कि "जब तुम काम करते हो तो एक हाथ से काम करो और एक हाथ से भगवान के पांव पकड़े रहो। जब काम समाप्त हो जाये तब भगवान के चरणों को दोनों हाथ से पकड़ लो।" संकल्प शुद्धि के लिए उनका उपदेश था कि अभागा मनुष्य ही यह मानता है कि मैं पापी हूँ। ऐसा सोचते सोचते वह पापी हो भी जाता है। "स्वामी जी प्रायः वाद विवाद व तर्क से घबराते थे। उनके ही शब्दों में :"शास्त्रार्थ को मैं नापसन्द करता हूँ। ईश्वर शास्त्रार्थ शक्ति से परे है। मुझे तो प्रत्यक्ष दीखता है कि जो कुछ है वह ईश्वरमय है। फिर तर्कों से क्या फायदा ?बगीचों में तुम आम खाने जाते हो न कि पेड़ों के पत्ते गिनने। फिर मूर्ति पूजा ,पुनर्जन्म और अवतारवाद को लेकर यह विचार क्यों चलता है। बुद्धि का तो वे अविश्वास करते ही थे ,सहज ज्ञान पर ही उनकी अविचल श्रद्धा थी। सहज ज्ञान के द्वारा बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण किया जाता है किन्तु बुद्धि के परे की अनुभूतिवाली भूमि में सहज ज्ञान की भी आवश्यकता रहती है।तब तो ईश्वरीय कृपा का ही एकमात्र प्रकाश बच जाता है। इसीलिए वे कहा करते थे कि पाँव में एक छोटा सा काँटा चुभ जाये तो दूसरे काँटे से ही उसे निकालना पड़ता है किन्तु कांटे के निकल जाने पर तो दोनों काँटों को फेंक ही देना चाहिए। जातिभेद के सम्बन्ध में वे कहा करते थे कि ताड और खजूर को देखो न। आरम्भ में कितने पत्ते लिए रहते हैं किन्तु उनके खूब बढ़ जाने पर क्या होता है ? व्यर्थ के सारे बोझ झड़ जाते हैं और कुछ थोड़े से ही पत्ते रह जाते हैं।स्वामी जी का कथन है कि गृहस्थाश्रम एक तरह का किला है ,किले में बैठकर शत्रु से युद्ध सुगमता से किया जा सकता है।  आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं है  .नम्रता से देवता भी इंसान के वश में आ जाता है। इनके अनुसार जो संसार में वासनाओं की जीत ले वही पुरुष है। ऋषियों का धर्म ,सनातन धर्म अनन्त काल से है और आगे भी रहेगा। इस सनातन धर्म के भीतर निराकार,साकार सभी प्रकार की पूजाएं होती है। देवी भक्त धर्म मोक्ष दोनों ही प्राप्त करता है और फिर अर्थ काम भी भोग करता है। उनका कथन है कि विदयारूपिणी स्त्री वास्तव में सहधर्मिणी है। वह स्वामी के ईश्वर -पथ में जाने में विशेष सहायता करती है। एक दो बच्चे होने के बाद दोनों आपस में भाई बहन की तरह रहते हैं। दोनों ही ईश्वर के भक्त हो जाते हैं - दास तथा  दासी। उनकी गृहस्थी विद्या की गृहस्थी है। ईश्वर और भक्तों को लेकर सदा आनंद मनाते हैं। वे जानते हैं कि ईश्वर ही एकमात्र अपना है किन्तु थोड़ी साधना करना आवश्यक है। गुरु ही सब करते हैं किन्तु अंत में थोड़ी साधना करवा लेते हैं। अतः निष्काम होकर पुकारना चाहिए किन्तु सकाम भजन करते हुए निष्काम हो जाना पड़ता है।  
स्वामी जी एकबार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की प्रशसा करते हुए कहा था कि पक्का विद्वान कभी भी अहंकार नहीं दिखाता। आलू सिद्ध होने पर नरम ही हो जाता है। ऐसा व्यक्तित्व का धनी  था वह मनुष्य जिसने भाषण और वक्तव्य दिए बिना तथा सभा सम्मेलन में शास्त्रार्थ किये बिना केवल अपने आचरण और अपनी अनुभूतियों से यह सिद्ध कर दिया था कि हिन्दुत्व को केवल वेद  उपनिषद ही नहीं बल्कि वह रूप भी सत्य है जिसका आख्यान पुराणों एवं सन्तों के जीवनियों में मिलता है। रामकृष्ण जी के भीतर से हिन्दुत्व ने अपनी रक्षा सभी धर्मों को पछाड़कर नहीं किया प्रत्युत उन्हें अपना बनाकर की। हिन्दुत्व ,इस्लाम और ईसाईयत पर  श्रद्धा एक समान थी क्योंकि बारी बारी से सबकी साधना करके उन्होंने एक ही सत्य का साक्षात्कार किया था। रामकृष्ण जी अपने जीवनकाल में ही प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी किन्तु उनके शरीर त्याग का पश्चात तो उनके उपदेशों को स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व में इस प्रकार फैलाया कि संसार के कोने कोने में उनका नाम गूँज गया। उनकी जीवनी मैक्समूलर ने लिखी थी फिर उनका जीवन चरित्र रोम्याँरोला ने प्रकाशित करवाया था। महात्मा गांधी जी  ने स्वामी जी के सम्बन्ध में कहा था कि रामकृष्ण जी की जीवनी व्यवहार में आये हुए जीवित धर्म की एक कहानी है।
  १६ अगस्त सन् १८८६ ई० को प्रातःकाल स्वामीजी ने तीन बार मां काली का नामस्मरण करते हुए  अपने नश्वर शरीर को त्यागकर महासमाधि लेकर आत्मलीन हो गए। उनके द्वारा चलाये गए आध्यात्मिक आंदोलन ने अप्रत्यक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाने का काम किया। स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने गुरु रामकृष्ण जी के आदर्शों को जन जन तक पहुंचाने के लिए दलितों की सेवा हेतु रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। आज भी यह संस्था लोकसेवा के कार्य में संलग्न है जिसका मूलमंत्र है "मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है।"अपनी मृत्यु के पूर्व उन्होंने एक दिन अपने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा था --नरेंद्र मैं इन सबको तुम्हारे सहारे छोड़कर जा रहा हूँ। अब आगे का कार्य तुम्हें ही सम्भालना है। उनका कहना कि आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं है। बराबर आगे बढ़ने पर मंजिल मिल जाती है। नम्रता से देवता भी इंसान के वश में आ जाते हैं। जो संसार में रहकर वासनाओं को जित ले वही पुरुष है। मैं और मेरा अज्ञान  है तुम और तुम्हारा  यह ज्ञान है। ऋषियों का धर्म, सनातन धर्म अनंतकाल से है और रहेगा। इस सनातन धर्म के भीतर निराकार ,साकार सभी प्रकार की पूजाएं हैं। ज्ञानपथ,भक्तिपथ सभी हैं अन्य जो भी सम्प्रदाय हैं वे आधुनिक हैं। कुछ दिन रहेंगे फिर मिट जायेंगे।   
          यद सत्येन जगत सत्यं यददर्शेन भासयति। 
           यदानन्देन  नन्दन्ति  तस्मै  श्री गुरुवे नमः। 

Thursday, August 4, 2016

स्वामी विशुद्धानन्द

जीवन- परिचय :--
 स्वामी विशुद्धानन्द का जन्म पश्चिम बंगाल प्रान्त में बर्दवान से १६ मील दूर  स्थित बण्डूल ग्राम में फाल्गुन मास की २९ वीं तिथि सन १८५३ ई० को हुआ था इनके पिता का नाम अखिल चन्द्र चट्टोपाध्याय एवम माता का नाम राजराजेश्वरी देवी था। इनके माता पिता ने बचपन में इनका नाम भोलानाथ रखा था। बचपन से ही भोलानाथ तेजस्वी,कुशाग्र बुद्धि सम्पन्न एवम धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इनके जन्म के ६ माह बाद पिता का देहांत हो गया था अतः इनका लालन पालन इनके चाचा ने किया था किन्तु ८ वर्ष बाद चाचा  की भी मृत्यु हो जाने के कारण वे पूर्णतयः अपनी माता के आश्रित हो गए। बालक भोलानाथ बचपन से ही शिवभक्त थे और बिना भगवान शिव की पूजा किये वे जल तक ग्रहण नहीं करते थे। बण्डूल ग्रामके उत्तर दिशा में एक वटवृक्ष स्थित जहां वे प्रायः जाकर उसके नीचे बैठा करते थे। एक दिन भोलानाथ विल्वपत्र से भगवान शिव की पूजा कर रहे थे और इसी दौरान एक नटखट बालक ने उनकी पूजा खण्डित कर दी तब उन्हें बहुत क्रोध आया और क्रोध में ही उन्होंने उसे यह कह दिया था कि तूने हमारे शिव के साथ ऐसा किया है अतः शिवजी का सांप तुझे डस लेगा। उस समय तो वह बालक वहां से चला गया था किन्तु उसी शाम को एक सांप ने वास्तव में उसे डस लिया तब सभी लोगों ने भोलानाथ से आग्रह किया कि वह उसे ठीक कर दें तब वे बालक के मृतप्राय शरीर का स्पर्श किये और शिव जी से प्रार्थना की कि वे बालक को क्षमा कर दें, तब वह बालक अपनी चेतना में वापस लौट आया।
एक अन्य घटना यह घटी कि बालक भोलानाथ को उनके ही घर के किसी सदस्य ने एक बार डाट दिया थाजिसके कारण वे नाराज होकर भगवान कृष्ण की एक मूर्ति लेकर निकटवर्ती तालाब में कूद पड़े थे किन्तु वे तालाब में जिधर भी जाते उधर का जल उनके साथ ही चलकर घुटने के नीचे ही रहता। यह आश्चर्यपूर्ण स्थिति को देखकर लोग विस्मित हो गए थे। इसी प्रकार की अन्य कई घटनाएं उनके साथ घटी जिसके कारण उनपर किसी दैवीय कृपा का पाया जाना सिद्ध होने लगा और उनके असाधारण व्यक्तित्व से आसपास के लोग भी परिचित हो गए।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई किन्तु वे अंग्रेजी पढ़ने से से सदैव इंकार कर दिया करते थे। संस्कृत भाषा से उनका विशेष लगाव था अतः उन्होंने नवदीप के एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय से संस्कृत भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त किया। भोलानाथ अपनी मां से बहुत प्रेम करते थे एकबार उनकी मां विशूचिका की गम्भीर बीमारी से पीड़ित हो गयीं और उनकी हालत बिगड़ने लगी तब उनकी चाची ने भोलानाथ से कहा कि पगले चाचा अब तुम्ही बताओ मेरी दीदी बचेगी कि नहीं। तब भोलानाथ ने कहा हाँ ,अवश्य बचेंगी। यह कहकर वे अपने घर के पीछे स्थिर गौशाला में जाकर सभी देवी देवताओं का ध्यान करते हुए अपनी मां के स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना करने लगे। इसी बीच घर के एक नौकर ने आकर उनसे कहा कि तुम्हारी मां ठीक हो गयी हैं तब उन्हें ईश्वर पर अटूट विश्वास हो गया और वे दौड़कर मां के पास पहुँचकर उन्हें अपने गले से लगा लिया।
भोलानाथ जब चौदह -पन्द्रह वर्ष के थे तो एकबार सीढ़ी सी उतरते समय उन्हें एक कुत्ते ने काट लिया था। थोड़े दिन बाद उनके पूरे श्री में जलन व पीड़ा होने लगी तब घरवालों ने उनका बहुत इलाज करवाया किन्तु कोई लाभ नहीं मिला। इसी दौरान एक दिन घूमते हुए वे गंगा के तट पर गए तो वहां एक जटाजूटधारी सन्यासी को गंगा में डुबकी लगते हुए देखा। सन्यासी के चेहरे पर विलक्षण तेज दिखाई पडा  तो भोलानाथ वहीँ नदी के किनारे बैठकर उन्हें डुबकी लगते हुए अपलक देखने लगे। कुछ देर बाद सन्यासी नदी से बाहर आये तब भोलानाथ ने उनके पूंछने पर अपनी व्यथा उनसे बतायी। तब सन्यासी ने कहा -बेटा घबराओ नहीं ठीक हो जायेगा। ऐसा कहते हुए उन्होंने कोई औषधि खाने के लिए उन्हें दी और अपनी हथेली भोलानाथ की हथेली पर रखी तो उन्हें बर्फ जैसी शीतलता का अनुभव होने लगा और उनकी तबियत धीरे धीरे ठीक होने लगी। दुसरे दिन वे पुनः उसी तट पर गए और उसी सन्यासी से दीक्षा लेने का आग्रह किया तब सन्यासी ने कहा ,--बीटा हम तुम्हारे गुरु नहीं हैं। तुम्हारे गुरु तो यहां से कुछ दूर पर रहते हैं। जब समय आएगा तब हम तुम्हें उनके पास ले चलेंगे।एक दिन उन्होंने भोला नाथ को आकाश मार्ग से अष्टभुजा ले गए वहां एक सप्ताह तक निर्जन स्थान पर उन्हें रखा इसके बाद हिमालय स्थित विज्ञानं एवम योगशिक्षा के केंद्र ज्ञानगंज आश्रम ले गए। इस आश्रम के अधिष्ठाता परमहंस भृगुराम जी थे और इनकी आयु लगभग ८०० वर्ष थी। परमहंस के गुरु का नाम महातपा था जो १५०० वर्ष के थे। यद्यपि इनका लौकिक शरीर नहीं था किन्तु अलौकिक शरीर द्वारा वे समस्त योगियों का मार्गदर्शन किया करते थे। यहां सात दिन रहने के बाद भोलानाथ को  स्वामी नीमनंद राज राजेश्वरी मठ ले गए जहां महातपा ने उन्हें दीक्षा दी। वहां वे १२ वर्ष तक ब्रह्मचारी के रूप में रहे और दो वर्ष सन्यासी के रूप में। यहीं पर इन्हें विशुद्धानंद की संज्ञा मिली। परमहंस भृगुराम ने ने उनकी परीक्षा लेने के बाद उन्हें एक शिवलिंग प्रदान किया।  यह कहते हुए उन्होंने भोलानाथ को योग का एक आसन सिखाया और बाद में एक बीजमन्त्र भी बताया। इसके बाद वह सन्यासी गंगासागर चले गए किन्तु भोलानाथ उस आसन और बीजमन्त्र का निरन्तर अभ्यास करते रहे।
भोलानाथ जब बर्दवान के कंचन नगर मेस में रहने लगे तब वहीं पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ढाका में एक सन्यासी आये हैं जो अधिकतर जल में ही रहा करते हैं और जब जल से बाहर निकलते हैं तो उनके साथ जल भी बाहर निकल आता है। भोलानाथ को तुरन्त पूर्व में गंगा के तट पर मिले हुए उस सन्यासी की याद आ गयी और वे अपने एक हरिपद नामक साथ के साथ ढाका की ओर प्रस्थान कर दिए।ढाका में रमना नामक स्थान पर उनकी भेंट उस सन्यासी से हो गयी तब उन्हें यह मालूम हुआ कि उस सन्यासी का नाम भीमानन्द परमहंस है। भोलानाथ ने उनसे कहा कि प्रभु ,अब मुझे  कीजिये। तब परमहंस जी इंकार नहीं कर पाए और उन दोनों को अपना शिष्य बना लिया और उसी दिन उन्होंने दोनों की आँख पर एक पट्टी बांधकर अपने साथ विध्याचल ले आये और कुछ दिन रहने के बाद उन दोनों को छोड़कर  कहीं चले गए किन्तु  ५-६ दिन बाद वापस आकर पुनः उन दोनों की आँख पर पट्टी बांधकर हिमालय स्थित दुर्गम योगाश्रम ले गए जहां परमहंस भृगुराम ने उन्हें बीजमन्त्र दिया और काफी दिनों तक योगाभ्यास करवाया। यहीं पर परमहंस श्यामनन्द से भेंट हुई तब उन्होंने भोलानाथ को १२ वर्षों तक सूर्यविज्ञान की साधना की शिक्षा देते हुए उन्हें पारंगत बना दिया। गुरु परमहंस देव से दीक्षा लेने के बाद उनका नाम "विशुद्धानन्द"  रखा गया और वहीं पर उन्होंने गुरु से नाभिधौति क्रिया सीखी। तत्पश्चात किरात धौति व किरात कुम्भव की सिद्धि भी उन्हीं से प्राप्त की जिसके कारण वे अपने शरीर को शून्य बनाने में समर्थ हो गए। कहा जाता है कि स्वामी विशुद्धानन्द के शरीर में तीन चार सौ स्फटिक गोलक छिपे रहते थे और वे अपने रोम छिद्रों से आवश्यकतानुसार उन्हें बाहर भी निकाल लेते थे। कहते हैं कि इन गोलकों से कमलगन्ध निकलती रहती थी। योगाभ्यास द्वारा वे अपने मस्तक से शिवलिंग,माला,शालिग्राम आदि बाहर निकालकर पुनः उसे  मस्तक के अन्दर रख लेते थे।
योग- साधना :-
भोलानाथ के बड़े भाई भूतनाथ चट्टोपाध्याय एक चिकित्सक थे। एक दिन उन्होंने स्वामी विशुद्धानन्द से कहा --क्या आप योगबल से स्व० पिता जी से बात करवाकर उनके दर्शन दिलवा सकते हैं ?पहले तो वे मौन रहे किन्तु कई बार यही प्रश्न करने पर उन्होंने कहा हाँ मैं उनके दर्शन करवा सकता हूँ। अपने भाई को वे एक कमरे में ले गए और एक स्वच्छ चारपाई बिछवाकर उस पर स्वच्छ शैय्या डलवाया और अपने योगबल से अपने स्व० पिता जी की मूर्ति को शैय्या पर बुला लिया। लगभग १५ मिनट तक वह मूर्ति उनके सभी प्रश्नों का जबाब देती रही फिर अंतर्ध्यान हो गयी। कुछ दिन बाद उनके भाई गम्भीर रूप से बीमार हो गए तब उनकी माता ने स्वामी जी से उसकी बीमारी के बारे में जाकर बताया तब स्वामी जी स्वयं अपने गांव आये और भाई को देखकर कहा कि अब भाई नहीं बचेंगे। उन्होंने उनकी मृत्यु की तिथि व समय भी बता दिया था और वहां से चले गए। इसके बाद उनकी माता ने उनसे कई बार विवाह कर लेने का प्रस्ताव रखा तब उन्होंने कहा की गुरूजी से पूंछकर बताऊंगा। गुरूजी के पास जब वे यह प्रस्ताव लेकर गए और उनकी आज्ञा मांगी तब गुरु ने कहा --विवाह करने में कोई हर्ज नहीं है अतः विवाह कर लो। इससे तुम्हारी तपस्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तब स्वामीजी ने विवाह कर लिया और बाद में दो पुत्रों के वे पिता भी बन गए। 
एक दिन वार्तालाप के दौरान विशुद्धानन्द जी ने अपने शिष्य उपेन्द्र से कहा कि हम संसार में जो कुछ भी देख रहे हैं वह ईश्वर ही है। एक उदाहरण द्वारा उन्होंने समझाया जवा के पौधे में  गुलाब का फूल  दिखलाया तब उपेन्द्र उसे ज्योंहि स्पर्श के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया तो वास्तव में उससे गुलाब का फूल उत्पन्न हो गया। तब बाबा ने कहा --जो कुछ भी तुम देख रहे हो वह गुण वैषम्य का फल है। सूक्ष्म परमाणुओं और गुणों के सम्मिश्रण से इस जगत की उत्पत्ति हुई है तब उपेंद्र ने कहा आप हमारे सामने बैठे हैं ,क्या यह भी मिथ्या है ?तब स्वामी जी ने हंसते हुए कहा --हमारा अस्तित्व कहाँ है ?इन्हीं शब्दों के साथ वे अचानक अदृश्य हो गए और कुछ देर बाद एक दुसरे दरवाजे से भीतर आते हुए उपेंद्र को दिखाई पड़े। सन्निकट आकर स्वामी जी ने कहा __बेटा ,केवल ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। अपना कर्तव्य करते रहो  ,धीरे धीरे इस जगत को भी समझ लोगे। 
स्वामी विशुद्धानन्द अपने गुरु भृगुराम द्वारा प्रदान किये गए हरिहर नामक शिवलिंग को अपने मस्तक में स्थापित कर लिया था जिसे बाद में उन्होंने अपने गांव में बाण्डलेश्वर महादेव नामक एक मन्दिर में प्रतिष्ठित करवा दिया था। स्वामी जी ने बर्दवान,कलकत्ता,बंडूल,जगन्नाथपुरी,झालदा एवं वाराणसी में योगसाधना हेतु   योगाश्रम स्थापित किया एवम काशी में साधना के लिए शिक्षा मन्दिर तथा विज्ञानं मन्दिर का निर्माण करवाया। सन  १९३८ ई०में स्वामी जी ने अपने कलकत्ता स्थित आश्रम में महासमाधि ले ली थी। अपनी मृत्यु से कई दिन पूर्व से ही वे अस्वस्थ चल रहे थे जब उनके शिष्यों ने चिकित्सक बुलवाया तब वे एकांत में एक चादर ओढ़े हुए लेटे थे। चिकित्सक ने चादर के नीचे से अपना हाथ अंदर डालकर स्वामी जी की नाड़ी देखना चाहा तो उन्हें स्वामी जी का हाथ नहीं मिल पाया तब स्वामी जी ने धीरे से उनसे कहा कि डॉक्टर साहब चादर उठाकर हाथ की नाड़ी अच्छी तरह से देख लीजिये। डॉक्टर ने ज्योंही अपना चादर हटाया तो चादर के साथ ही स्वामी जी के हाथ की चमड़ियां व मांसपेशियां भी ऊपर उठ गयी और विस्तर पर  केवल उनकी नसें फैली हुई दिखाई पड़ी। डॉक्टर ने गौर से देखा की उनकी समस्त नसें पूर्ववत चल रहीं थीं तो वे स्तब्ध हो गए और स्वामी के पेअर पकड़कर कहा -क्षमा कीजिये बाबा मैं आपका इलाज करने में सर्वथा असमर्थ हूँ।
स्वामी जी का मन्तव्य है कि साधन जीवन में कर्म ही प्रधान है और शास्त्र ज्ञान शुष्क ज्ञान है। उन्मादिनी भक्ति भी यथार्थ भक्ति नहीं है बल्कि वास्तविक भक्ति व ज्ञान ही महत्वपूर्ण है। सभी देवी देवता मूल में अभिन्न हैं उनमें छोटे बड़े का भेद नहीं करना चाहिए और अभ्यास के लिए अपने इष्ट भाव में दृढ रहना चाहिए। महाशक्ति की कृपा प्रतिक्षण टपक रही है परन्तु कर्म के बिना उसको धारण नहीं किया जा सकता है। कर्म से असाध्य ज्ञान होता है ,कर्म माने क्रियाशक्ति। नित्य क्रिया के समय होने वाले दर्शनों की उपेक्षा करनी चाहिए एवं अपने लक्ष्य की ओर यथाशक्ति दृष्टि रखनी चाहिए। बाहर से देवदर्शन का मूल्य नगण्य है। स्वयं देवत्व लाभ किये बिना देव दर्शन को बाहरी देव दर्शन कहते हैं। इसलिए यदि देवता को जानना हो तो स्वयं देवता होना चाहिए। उन्होंने रूपान्तरण को मनुष्य के जीवन का आदर्श माना है और इसे ही वे यथार्थ मुक्ति की संज्ञा देते हैं। विश्वास की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा कि विश्वास क्या साधारण वस्तु है ?विश्वास अर्थात श्वास जब विगत होता है तो विश्वास का जन्म होता है। प्रकृत विश्वास की इस प्रकार स्थापना होने पर साधना का सूत्रपात होता है। 
जिनके मंगलमय विधान से सन्तान प्रसव से पूर्व ही उसके आहार के लिए माता के स्तनों में अमृतधारा की व्यवस्था हो जाती है उसी प्रकार विश्व जननी आनन्दमयी महाशक्ति पर यदि निर्भर रह सकें तो जीव को फिर चिंता किस बात की। जिस समय सुख दुःख में ,उठान पतन में बाहर भीतर सोते जागते सभी अवस्थाओं में एक मात्र उनकी ही मंगलमय सत्ता का साक्षात्कार होने लगता है उस समय क्षुद्र अहंकार न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। जो साधक निर्भरशील हो जाता है उसे कोई भय या उद्वेग नहीं हो पता है। उसका योगक्षेम फिर भगवान ही वहन करते रहते हैं। स्वामी का स्पष्ट कथन है कि किसी को ठगों नहीं ,किसी को हे दृष्टि से न देखो ,सरल के साथ असरल व्यवहार न करो ,असत्य पथ पर न चलो ,इससे सुखी रहोगे। इसके विपरीत करके भले ही काशी में मरो अथवा भगवान के पैरों में मरो ,रक्षा नहीं होगी। मेरी तो बात क्या मेरे बाबा भी नहीं बचा सकेंगे। उनका मानना था कि सद्गुरु सब एक हैं। यदि कोई सद्गुरु किसी पर कृपा करते हैं तब उसके माता -पिता ,भरत -भगिनी, पुत्र, कन्या इत्यादि सबको अपने चरण में आश्रय देते हैं ,उनके उद्धार की व्यवस्था करते हैं। अतः वासना रूपी प्रबल तरंग में पड़कर जीवन के किस भाग में सुख है ,इसका निर्णय कर सकना समस्त लोक के लिए दुष्कर है।  
सूर्यविज्ञान के प्रणेता :-- 
स्वामी जी का जीवन अतिविचित्र,निर्मल,कठोर,संयमी,एवम असाधारण करुणा वाला था।  वे प्रायः कहा करते थे कि सहसा किसी में विश्वास नहीं करना ,विश्वास करोगे तो ठगे जाओगे। इस जगत की प्रत्येक परमाणु तुम्हारे प्रतिकूल है। तुम्हारे मित्र एकमात्र तुम्ही हो। अतः अपने सिवा किसी अन्य मित्र की ओर आकर्षित न होना। स्वामी जी सूर्य विज्ञानं को जगत के सभी विज्ञानों में शिरोमणि मानते थे। उनके अनुसार इसे जान लेने  के पश्चात व्यक्ति के सभी अभाव दूर हो जाते हैं। उनका कथन था कि संसार में जो कुछ भी दिखाई पड़ता है वह सब महाशक्ति का व्यापर है। महामाया कृपा शक्ति विज्ञानं के बल से महाशक्ति का महातत्व स्थूल जगत में उत्तरी जा सकती है। योग और सूर्यविज्ञान से सब कुछ जाना जा सकता है। द्वैत तथा अद्वैत ,नित्य एवं अनित्य ,गति एवं स्थिति, इन सबको यथार्थ सदभाव से देखना हो तो एकमात्र विज्ञानं का ही आश्रय लेना होगा ,उन्होंने आगे बताया कि सभी शक्तियों की जो मूल शक्ति है ,एकमात्र वही सबके आदि और अन्त में रहती है। समस्त विषयों में उनके प्रकाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। समस्त ज्ञान एवम विज्ञानं का विकास सूर्य के ही आश्रित है और सूर्य के आलोक में देह मध्यस्थ ईद मार्ग संचारी चन्द्र प्रकाशित होकर  स्निग्ध अमृत धारा से समस्त देह को आप्यायित कर देता है। योगविद्या को अत्यन्त गूढ़ मानते हुए वे कहते हैं कि लोग जिसका अनुष्ठान करते हैं वह योग नहीं है। मात्र ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञानोदय नहीं हो सकता क्योंकि शास्त्र तो केवल पथ दिखाते हैं किन्तु पथ पर अग्रसर होने के लिए यथार्थ कर्म की आवश्यकता होती है। स्वामी जी में इस प्रकार की अनगिनत सिद्धियां थीं। महिमा सिद्धि की प्रणाली समझते हुए उन्होंने अपनी तर्जनी अंगुली का इतना अधिक विस्तार कर दिया था कि उसे पहचानना कठिन हो गया था। उनमें अणिमादि सिद्धियाँ प्रत्यक्ष दिखाई पड़तीं थीं। स्वामी जी अपने नवमुण्डी आसन के रहस्य को सर्वसाधारण के लिए गुप्त रखा था। उनके परम् शिष्य पण्डित गोपीनाथ कविराज ने स्वामी जी के कार्यों एवम उनकी ज्ञानगंज धरा की आत्मक्रियायोग की साधना को अपने साधनापरक ग्रंथों में जनहित के लिए पूर्णरुपेण अभिव्यक्त कर दिया है। सद्गुरु के बताये हुए पथ पर चलते हुए उनके द्वारा दी गयी शक्ति से सम्पन्न बन करके निरन्तर श्रद्धा और संयम समवेत योगकर्म का अनुष्ठान करने से चित् की शुद्धि होती है और ज्ञान का उदय भी हो जाता है। ज्ञान के दृढ होने पर शुद्ध भक्ति का संचार होता है। प्रेम की इस अवस्था में हृदय पिघल जाता है और जगदम्बा को पाने के लिए प्रेम ही एकमात्र साधन है। 
योगशास्त्र में ऐसे किसी भी अलौकिक सिद्धि का वर्णन नहीं मिलता है जो अपेक्षाकृत सुगम उपाय द्वारा सूर्यविज्ञान से उपलब्ध न की जा सके। पातञ्जल योग दर्शन का विभूतिपाद शिव पुराणादि अथवा अन्य प्राचीन ग्रन्थ ,तन्त्रशास्त्र,बौद्ध तथा जैनशास्त्रों के योग सम्बन्धी ग्रंथों ,सूफी एवम ईसाई ग्रन्थों में वर्णित प्रत्येक व्यापार इस सूर्यविज्ञान द्वारा सहज साध्य है। वाराणसी स्थित विशुद्धानन्द कानन में स्वामी जी लोगों से प्रायः मिला करते थे। यहां स्थित विज्ञानं मन्दिर सूर्यविज्ञान का प्रमुख केंद्र है जो पचास वर्ष पूर्व अपनी अद्भुत शक्तिप्रदर्शन से विश्व को स्तब्ध कर दिया था। ६०-६२ वर्ष पूर्व अंग्रेज विद्वान ब्रन्टन भारतीय सन्यासियों की सिद्धि की खोज में भारत आया था और अपने संस्मरण में उसने यहां के जिन तीन सन्यासियों की भूरि भूरि प्रशंसा की थी वे सन्यासी श्रृंगेरी के तत्कालीन शंकराचार्य,महर्षि रमन एवम स्वामी विशुद्धानन्द जी थे। स्वामी जी के चमत्कारों का विस्तारपूर्वक वर्णन उसने अपनी पुस्तक में किया है। वार्तालाप के दौरान स्वामी जी ने उनसे कहा था -"समस्त संसार और उसके जीवन का रहस्य सूर्य है। हमें साडी शक्तियां सूर्य से मिलती हैं। जो कुछ हम देख रहे हैं वह सूर्य के प्रभाव से एक वस्तु को दूसरी वस्तु में तथा मृत शरीर को जीवित प्राणी में बदल जा सकता है। "
सूर्य का नाम सविता अर्थात प्रसव करने वाला माना जाता है। समस्त जगत का आविर्भाव सूर्य से ही हुआ है और इसी में  सृष्टि,पालन एवम संहार तीनों विद्यमान है। सूर्य वैज्ञानिक उस रहस्य को आयत्त कर लेते हैं और उन रश्मियों की पहचान भी कर लेते है तभी तो वे उनके परस्पर मेल की प्रणाली सीखकर इच्छानुरूप वस्तु की सृष्टि कर सकते हैं। इससे योगी की आत्मिक शक्ति पर कोई अन्तर या प्रभाव नहीं पड़ता है किन्तु इच्छाशक्ति से यदि सृष्टि करना पड़े तो उपादान बाहर से नहीं लिया जाता बल्कि आत्मस्वरूप से ही लिया जाता है। सूर्य विज्ञानं में सूर्य रश्मि से उपादान लिया जाता है। यद्यपि इच्छाशक्ति से सृष्टि करना निषिद्ध है क्योंकि इससे आत्मिक हानि की सम्भावना बनी रहती है किन्तु सूर्य विज्ञानं के द्वारा की गयी सृष्टि से किसी प्रकार के आत्मिक अपकर्ष की सम्भावना नहीं रहती है। 
सूर्य शक्ति का परिज्ञान होने पर इन रश्मियों के विशिष्ट प्रक्रियामूलक संघटन से कोई भी वस्तु उत्पन्न की जा सकती है परन्तु रश्मियों की पहचान करना अत्यन्त कठिन कार्य है। रश्मियां विभिन्न रंग की होती हैं और सबसे पहले श्वेत प्रकाश लाया जाता है जिसको शास्त्र में विशुद्धसत्व कहते हैं। इस शुभ सत्ता के ऊपर प्रयोजन के अनुरूप विभिन्न रश्मियों का उद्भावन और संयोजन किया जाता है और उसी से वस्तु का आविर्भाव होता है। सामान्यतयः प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक वस्तु का अन्तर्भाव सन्निहित होता है किन्तु उनमें गुण प्रधान भाव होता है। यह क्रिया विशिष्ट ज्ञान ही विज्ञानं है। वैज्ञानिक प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण करते हैं तब उन्हें क्रमानुसार ज्ञान होता है। सूर्य वुग्यान में जबतक क्रमांतर्गत सभी रश्मियों का क्रमशः आकर्षण करने पर भी अंतिम रश्मि का आकर्षण नहीं हो पता तबतक बाह्य दृष्टि से उस वस्तु का कुछ भी पता नहीं चल पाता। अंतिम  आविर्भाव  वस्तु का भी स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता  है। यह एक अपूर्व व्यापार है। अंतिम रश्मि को छोड़कर शेष रश्मियों का आहरण करके उसे दीर्घकाल तक रखा जा सकता है और प्रयोजन के समय केवल एक रश्मि का आहरण करके अभीष्ट वस्तु का उदय किया जा सकता है। यह वस्तु कल्पित नहीं होती बल्कि शुद्ध सद्वस्तु होता है और जागतिक वस्तु से कहीं अधिक निर्मल और स्थायी होती है। 
रश्मियों के संयोजन के सम्बन्ध में स्वामी जी बताते हैं कि एक रश्मि के साथ दूसरी रश्मि का संयोजन तभी हो सकता है जब दोनों रश्मियां समकाल स्थायी हों। इन सभी रश्मियों के अन्तराल में एक विशुद्ध शुभ्र किरण रहती है जिसमें तीव्र आकर्षण शक्ति होती है। सृष्टि में उस शुभ्र किरण का स्फुरण नहीं रहता बल्कि यह समग्र सृष्टि की पृष्ठभूमि में रहती है परन्तु वैज्ञानिक उसे खण्डरूपेण प्रकट कर सकते हैं। स्वामी जी का कथन है कि योग और इच्छाशक्ति से सृष्टि होती है अर्थात बाह्य जगत का कोई भी पदार्थ दोनों प्रकार से बन सकते हैं फिरभी दोनों में भेद है। सूर्य विज्ञानं में सूर्य की रश्मि पहचानकर विभिन्न रश्मियों का संघटन करके सृष्टि होती है। सूर्य रश्मियां क्षणिक होती हैं और प्रकट के साथ  भी जाती हैं। संयोजन तो तभी होगा जब दोनों रश्मियां समकाल स्थायी हों।  
ज्ञानगंज की अवधारणा :-
ज्ञानगंज के रहस्य को वहां के साथ संश्लिष्ट परमहंसगणों एवम भैरवी माताओं ने गम्भीर एवम महिमामण्डित किया है ज्ञानगंज में अनेकों ब्रह्मचारी,दण्डी स्वामी,तीर्थस्वामी,परमहंस,भैरवी,ब्रह्मचारिणी एवम कुमारी विद्यमान हैं। वहां पर सदैव योगचर्चा के साथ विज्ञानं चर्चा चलती रहती है। विज्ञानं के अर्थ में सूर्यविज्ञान,चन्द्रविज्ञान,वायुविज्ञान,नक्षत्रविज्ञान आदि सम्मिलित हैं। मनुष्य सृष्टि के इतिहास में श्री विशुद्धानंद का आविर्भाव एक अभूतपूर्व अलौकिक घटना है। आध्यात्मिक सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार मनुष्य योनि में सामान्यतः जीवों का जन्म अथवा चैतन्य सत्ता के पुरुषोत्तम अंश से अवतारी महापुरुषों का आविर्भाव सिद्ध होता है ,वैसा कुछ स्वामी जी के साथ नहीं था। चैतन्य सत्ता से ऊपर पूर्णसत्ता या विशुद्धसत्त्ता अंश से शून्य मार्ग का अवलम्बन कर सीधे मनुष्य योनि में इनका अवतरण हुआ था। विशुद्धसत्त्ता सर्वोच्च आदि सत्ता है। महाचैतन्य और महाकाल दोनों का जहां से उदभव है अर्थात चिद और अचिद के परे जो सत्ता है ,उसे ही विशुद्ध सत्ता कहतें हैं। परब्रह्म की अलौकिक प्रतिभा स्वामी जी में जन्मजात विद्यमान थी अतः समस्त ज्ञान विज्ञानं स्वयम उनमें जाग्रत थे। वे अद्वितीय थे किन्तु संसार में लोकव्यवहार हेतु उन्हें द्वितीय होना पड़ा था। वे बचपन में ही अलौकिक ज्ञानगंज के योगयोयों द्वारा ज्ञानगंज आकाशमार्ग से ले आये गए थे। अतः विशुद्धानंद जी का अवतरण किसी धर्म की स्थापना अथवा साधु समाज के परित्राण के लिए नहीं हुआ था बल्कि उस तत्व विज्ञानं का संसार में प्रकाश करना था जिसे महात्मा बुद्ध ने अनुभव किया थाकिंतु उच्चतर प्रक्रिया आयत्त न होने के कारण उसे प्राप्त न कर सके थे। इसीलिए स्वामी जी ने मरदेह में अवस्थित होकर चिरकाल तक साधना की थी। उनका लक्ष्य था कि किस प्रकार मरदेह मृत्यु वर्जित होकर चिदानन्दमय नित्यदेह में परिणत हो सके। उनके अंतरात्मा में यह कामना छिपी थी किमनुष्य विज्ञानं पथ पर अग्रसर होकर अंत में विज्ञानं स्वरूप में अवस्थित हो। विज्ञानं के पथ को ही एकमात्र ऐसा पथ माना जिसपर चलकर क्षण एवम महाप्राण की प्राप्ति हो सकती है।    
सन १९१८ ई में महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ कविराज को स्वामी जी ने दीक्षित किया था। ज्ञानगंज में स्वामी जी ने २० वर्ष तक तपस्या की थी। उनके आदेश एवम संरक्षण में अखण्ड महायोग की तीन कठिन साधनायें सत्रह सत्रह मास की उन्होंने पूरी की थी। स्वामी जी का कथन है कि सभी कार्यों का समय होता है। असमय में कोई भी कार्य सुसम्पन्न नहीं होता है। सूर्योदय,सूर्यास्त,मध्याह्न और महानिशा ये चार सन्धि क्षण बताते हुए वे कहते हैं कि सूर्योदय एवम सूर्यास्त में जो वस्तु प्राप्त होती है ,वह अधिक सूक्ष्मतर है। मानव हृदय में यदि सरसों भर भी पवित्रता रहे तो अखण्ड महामाया का विशुद्धभाव से ध्यान करने से जो ज्ञान आता है उसके उज्ज्वल तेज से सकल प्रकार के पाप -ताप,माया-यन्त्रणा,आसक्ति का मेल आदि सब कुछ भस्म हो जाते हैं। तब हृदय में महाशक्ति तथा जगत शक्ति का ज्ञानामृत प्रकाशित होकर जीव के कलुषित सन्तप्त चित्त रुपी महा आवरण से परित्राण पाता ही है। " विशुद्धानन्द जी जीव के उपासक थे। वे विशुद्ध सत्ता के रूप में चैतन्य सत्ता से भी अतीत है जो आलोक एवं अंधकार दोनों के अतीत उपस्थित होकर जीव को पूर्णतत्व प्राप्ति का पथ प्रदर्शन करने के लिए मृत्युलोक में अवतरित हुए थे। उनका अभिमत था कि मनुष्य देह में जबतक मनुष्यत्व की प्राप्ति नहीं होगी तबतक पूर्ण ब्रह्म अवस्था की प्राप्ति नहीं हो सकती। देवता अथवा ईश्वर की समकक्षता पाना मनुष्य का उद्देश्य नहीं है इसीलिए विशुद्धानंद जी ने नरदेह में अवस्थित होकर चिरकाल तक साधना की। उनका एकमात्र लक्ष्य यह था कि किस प्रकार नरदेह मृत्यु वर्जित होकर चिदानन्दमय नित्य देह में परिणित हो सके। उन्होंने आजीवन मनुष्य की साधना की अतः उनके लिए मनुष्यत्व ही साध्य था। जीव के उपासक होने के कारण जीवों का अभाव तथा अतृप्ति से उनका उद्धार करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य था और इसी उद्देश्य के प्रति वे जीवनभर सचेष्ट रहे। 
विशुद्धानन्द परमहंस देव द्वारा काशीधाम स्थित अपने आश्रम में १४ फरवरी १८३५ ई को श्री श्री नवमुण्डी महासन की स्थापना की गयी थी एवम इस महासन का नाम चारों ओर प्रसारित हुआ। सन १९३२ ई में स्वामी जी की मूर्ति इस आश्रम में स्थापित की गयी थी। नवमुण्डी आसन परम् पवित्र एवम महनीय है इसका तत्व इतना गुह्य है कि साधारणतः इसके सम्बन्ध में स्वामी जी किसी को कुछ भी नहीं बताते थे। लौकिक कामनाओं की सिद्धि की असाधारण सामर्थ्य इसमें है। बहरी जगत में जैसे ब्रह्माण्ड है वैसे ही मनुष्य के देहरूप  अंतर्जगत में भी ब्रह्माण्ड है अर्थात पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों स्तरों की बनावट एक ही प्रकार की है। जो योगी अपने देह की ब्रह्माण्ड के रूप में धारणा कर सकता है एवम इस धारणा से अपने को ब्रह्माण्ड के अधिष्ठाता के रूप में पहचान सकता है तभी वह ब्रह्मा के समकक्ष हो जाता है। स्वामी जी को इसीलिए सूर्यविज्ञान का प्रणेता एवम योगिराजाधिराज के रूप में जाना जाता है। स्वामी जी को किसी महाप्रयोजन हेतु अपने शरीर को संकुचित करना पड़ा था किन्तु उनका कर्मशरीर आज भी वैसा ही कार्य कर रहा है। उन्हें प्रतीक्षा है मनुष्यों में उचित आधार हेतु कुछ अवशिष्ट कर्म की और यही मां की पुकार है निकट भविष्य में यह कर्म शेष होने हैं और तब वे पुनः स्थूल शरीर में आत्मप्रकाश करेंगे। स्वामी जी जीवों के उपासक थे अतः वे जीवों के कल्याणार्थ मनुष्यों के दुःख आदि को सदा के लिए निवृत्त करने हेतु कृतसंकल्प हैं। 
                                         अखण्डमण्डलाकारं व्यापतं येन चराचरम। 
                                         तत्पदं  दर्शितं  येन , तस्मै श्री  गुरुवे  नमः।                

Tuesday, August 2, 2016

स्वामी विवेकानन्द /महर्षि अरविन्द



जीवन -यात्रा :--
स्वामी विवेकान्द का जन्म १२ जनवरी दिन सोमवार सन १८६३ ई० में कलकत्ता के शिमला दत्त परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवम माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनकी माता नित्य रामायण का पथ करती थी। काफी दिनों तक उनकी गोद खाली रहने के कारण सन्तान की आकांक्षा में  काशी विश्वनाथ का व्रत रखना आरम्भ किया तब काशी के वीरेश्वर शिव की अनुकम्पा से एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने वीरेश्वर रखा। बचपन में वीरेश्वर नटखट व शरारती स्वभाव के थे किन्तु साधु सन्यासियों को देखकर वे बहुत प्रसन्न होते थे। एक बार घर पर आये हुए साधु को उन्होंने भिक्षा में अपना न्य कपड़ा उतारकर दे दिया था। इस घटना के बाद जब कोई साधु उनके घर आता था तो वीरेश्वर को घर के किसी कमरे में बन्द कर दिया जाता था। कमरे में बन्द होने पर भी वे जो भी सामान कमरे में देखते उसे खिड़की से साधु की ओर फेंक देते थे। बचपन में वे शिव एवम सीताराम की मूर्ति बाजार से खरीदकर उससे खेलते व उसकी पूजा भी करते थे। कुछ दिनों बाद बालक का नाम नरेन्द्र रखते हुए ६ वर्ष की अल्पायु में उन्हें अध्ययन हेतु स्कूल भेज दिया गया  और एक अध्यापक घर पर भी पढने हेतु लगा दिया गया। ७ वर्ष की आयु में संस्कृत व्याकरण मुग्धबोध उन्होंने कण्ठस्थ कर लिया और रामायण  व गीता के कुछ श्लोक गुनगुनाने लगे थे। ८ वर्ष की आयु में वे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने हेतु प्रवेश लिए और वहां पर उनकी चंचलता एवम कुशाग्र बुद्धि से उनके अध्यापक भी हतप्रभ होने लगे। आगे चलकर जब उन्हें अंग्रेजी भाषा का ज्ञान दिया जाने लगा तो उन्होंने इंकार कर दिया। बहुत समझाने बुझाने  पर वे राजी हुए। सन १८७९ ई में १६ वर्ष की आयु में एंट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे कालेज में प्रवेश लिए। नरेन्द्र के पिता बहुत ही विद्वान व प्रसिद्ध वकील थे अतः घर में हर प्रकार की पुस्तकें उपलब्ध रहती थी। नरेन्द्र उन पुस्तकों को पढ़ा करते थे।
केशव चन्द्र द्वारा संस्थापित ब्रह्मसमाज के प्रति उन दिनों लोगों की रूचि बढ़ने लगी थी। अतः नरेंद्र भी उसमें रूचि लेने लगे थे और दर्शन तथा अध्यात्म की पुस्तकें भी पढ़ना आरम्भ कर दिए थे जिसके कारण वे धीरे धीरे अध्यात्म की ओर उन्मुख होने लगे। जब पिता ने एक धनवान की कन्या से उनका विवाह करने का प्रस्ताव रखा तब उन्होंने उसे इंकार कर दिया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता देवेंद्र ठाकुर उन दिनों गंगा के तट पर आश्रम बनाकर रह रहे थे। जिज्ञासावश नरेंद्र उनके पास पहुँच गए और उनसे पूंछा कि महर्षि जी क्या आपने ईश्वर को देखा है ? महर्षि ने प्रश्न को टालते हुए कह कि बालक तुम्हारी आँखें योगियों की आँखों की तरह हैं।तब यह सुनकर अत्यधिक निराश होकर नरेंद्र यह मानते हुए कि महर्षि ने भी भगवान को नहीं देखा है ,वापस लौट आये।
कलकत्ता में सुरेन्द्रनाथ मित्तल के घर में उनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई, तो उन्होंने उनके समक्ष एक भजन गया जिससे प्रभावित होकर रामकृष्ण जी ने उन्हें दक्षिणेश्वर मन्दिर आने को कहा। एक दिन कालेज में पढ़ते समय उनके अध्यापक ने कहा कि एकाग्रता के लिए बालकों को दक्षिणेश्वर मन्दिर अवश्य जाना चाहिए तो नरेंद्र की जिज्ञासा और अधिक बढ़ गयी और वे रामकृष्ण जी से मिलकर अपनी समस्त जिज्ञासाओं को शांत करने का विचार कर लिए। एक दिन जब उनके भाई ने कालेज की पढाई में मन लगाने को कहा तब उन्होंने यह उत्तर दिया "-क्या यह शिक्षा पवित्र और ईश्वरभक्त बनाएगी और क्या इस शिक्षा से मैं संसार के मायावी चक्कर से निकलकर भगवान को प्राप्त कर सकूँगा ?भाईजी मैं इस शिक्षा से क्या करूँगा जो केवल रोटी कमाना सिखाती है ,मैं तो उस ज्ञान को प्राप्त करूँगा जो मेरे हृदय को प्रभु के प्रकाश से जगमगा दे और जिसके बाद मुझे संसार की कोई आवश्यकता न रहे।"नरेन्द्र की कालेज की परीक्षा जब समाप्त हो गयी तब वे अपने कुछ मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर मन्दिर गए। नरेंद्र के इस प्रथम आगमन पर रामकृष्ण जी ने कहा था --"नरेंद्र कमरे में पश्चिमी दरवाजे से आया। ऐसा लगा कि उसे अपने शरीर व कपड़ों की कोई परवाह नहीं है। बाहरी दुनिया के प्रति भी उसका विशेष ध्यान नहीं था। कलकत्ता के भौतिकवादी वातावरण से आते हुए इस आध्यात्मिक युवक को देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ।" जब नरेंद्र मन्दिर में प्रविष्ट हुए थे तब स्वामी जी समाधिस्थ थे। थोड़ी देर बाद उनके उठने पर नरेंद्र बोल पड़े --क्या आपने भगवान को देखा है ?स्वामी जी ने दृढ़ता से कहा, हाँ, मैंने भगवान को देखा है। मैं भगवान को उसी प्रकार स्पष्ट देखता हूँ जिस प्रकार आपको देख रहा हूँ। इस उत्तर के पश्चात नरेंद्र की सारी जिज्ञासाएं स्वतः शांत हो गयीं। थोड़ी देर बाद रामकृष्ण  नरेंद्र का हाथ पकड़कर उन्हें मन्दिर के भीतर ले गए और उनसे कहा --नरेंद्र तुम इतनी देर से क्यों आये ? मां ने मुझसे कहा है कि तुम अवश्य आओगे ,मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। तुम उस नारायण के अवतार नर हो। तुम इस धरती पर मानवता के सन्ताप व दुःख दूर करने के लिए आये।"  यह कहते हुए वे भावविभोर होकर रो पड़े। नरेंद्र शांत मन से उन्हें सुन रहे थे किन्तु वे यह नहीं समझ पा रहे थे स्वामी जी ऐसा क्यों कह रहे हैं ?मन ही मन उन्होंने सोचा कि यह कैसी अजीब बात कर रहें हैं। मैं तो विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूँ। मुझे  नारायण नर क्यों कहा जा रहा है ?इन्हीं विचार मंथन के साथ वे वहां से वापस घर आ गए।
इसके बाद नरेंद्र की आस्था दृढ़तर होती गयी और वे कुछ दिन बाद फिर दक्षिणेश्वर मन्दिर आये और फिर लगातार आने के क्रम को जारी रखा। जिस पहली भेंट में उन्होंने स्वामीजी को पागल समझा था अब वे भी उसी पागलपन का शिकार होते हुए अपने को देख रहे थे।धीरे धीरे उन्हें यह अनुभव होने लगा कि स्वामीजी पागल नहीं हैं अपितु स्वार्थ ,तृष्णा व माया के जंजाल में फंसे दुनिया के इस पागलखाने में केवल वही बुद्धिमान व्यक्ति हैं। स्वामी जी के सम्पर्क से नरेंद्र का विचार बदलने लगा और उन्हें यह अनुभूति होने लगी कि स्वामीजी जैसा साधक किसी भटकते हुए मानव मन को उचित दिशा दे सकता है। रामकृष्ण जी को भी यह आभास हो गया कि सत्य को जानने की प्रबल इच्छा ने ही नरेंद्र को संदेहशील बना दिया है परन्तु उन्हें यह विश्वास भी था कि नरेंद्र सन्देह व जिज्ञासा की समस्त सीढियाँ स्वयम चढ़कर अपने लक्ष्य को एक दिन अवश्य प्राप्त कर लेगा। अब स्वामी जी ने अपने योग्य शिष्य को अपने पास सदैव देखने को व्यग्र होने लगे और नरेंद्र भी इसी व्यग्रता का शिकार हो चुके थे।
नरेंद्र स्वभावतः सन्यासी थे। स्वामी रामकृष्ण के सम्पर्क ने उनके भटकते मन को शांति की गहन अनुभूति करायी। उनके माता -पिता व अन्य सम्बन्धी उनके इस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति उत्सुकता तथा पढाई में अरुचि व विवाह से इंकार करने की स्थिति से चिंतित होने लगे। सन १८८४ ई में २१ वर्ष की आयु में नरेंद्र ने बी०ए०की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और इसी दौरान हृदयगति रुकने के कारण उनके पिता की मृत्यु हो गयी।  अतः आर्थिक स्थिति धीरे धीरे कमजोर होने लगी थी। उन्होंने कानून की शिक्षा ग्रहण करने हेतु विचार अवश्य किया था किन्तु आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण अब उन्हें एक नौकरी की तलाश आवश्यक हो गयी थी किन्तु प्रयास के बावजूद नौकरी कहीं भी मिल नहीं पा रही थी। भयंकर आर्थिक स्थिति के बावजूद भी नरेंद्र का ईश्वर पर विश्वास अटल रहा किन्तु मां की स्थिति देखकर वह अशांत अवश्य हो जाते थे। इसी दौरान स्वामी जी के कुछ शिष्य नरेंद्र के पास आये और उनसे वार्तालाप के दौरान नरेंद्र ने यह कह दिया कि किसी नरक के भय से ईश्वर पर विश्वास करना एक कायरता है। भगवान का अस्तित्व संदिग्ध है। शिष्यों ने यह बात रामकृष्ण जी को बता दी किन्तु स्वामी जी को इस पर विश्वास नहीं हुआ कि नरेंद्र ऐसा कह सकता है।
नरेंद्र अपने पारिवारिक दायित्व से मुक्त होने के लिए एक दिन स्वामी जी के निकट जाकर कहा कि भगवान आपकी बात तो सुनते हैं।  अतः आप मेरे भूखे परिवार के लिए उनसे सहायता क्यों नहीं मांगते ? यह सुनकर स्वामी जी ने उत्तर दिया -मैंने तो कई बार मां काली से यह प्रार्थना की है ,पर तुम्हें इस पर विश्वास ही नहीं ,इसलिए वह तुम्हारे लिए प्रार्थना भी स्वीकार नहीं करती। अच्छा ,आज मंगलवार है ,तुम स्वयम मां काली के पास जाकर अपनी इच्छा के अनुसार वरदान मांग लो। स्वामी जी के विश्वास दिलाने पर नरेंद्र मन्दिर के भीतर गए और ज्योंहि उन्होंने काली की मूर्ति की ओर देखा तो उन्हें यह लगा कि मां काली एक जीवित साक्षात् भगवान का रूप हैं। उनके इस दर्शन से वे रोमांचित हो उठे और उनसे करवद्ध प्रार्थना की कि मां मुझे सन्यास दो , ज्ञान व भक्ति दो। यह वरदान दो कि मुझे सदा तुम्हारे दर्शन होते रहें। उनके वापस आने पर स्वामी जी न कहा, नरेंद्र तुमने अपने परिवार के लिए मां से क्या माँगा ?तब नरेंद्र बोल पड़े -मैं तो उस सम्बन्ध में मांगना ही भूल गया। तब स्वामी जी ने पुनः कहा कि तुम फिर मन्दिर में जाओ और मां से अपने परिवार के कष्ट को दूर करने हेतु वरदान मांगो। नरेन्द्र पुनः मन्दिर के भीतर गए और मां के सामने से होते हुए वापस आ गए।   स्वामी जी ने तीसरी बार उन्हें फिर भेजा तो नरेंद्र मन्दिर के अंदर जाकर सोचने लगे मां से मैं कितनी छोटी चीज मांगने आया हूँ। यह तो वैसे ही है जैसे किसी राजा से फल और सब्जी की मांग करना। अपनी मूर्खता का आभास करते हुए नरेंद्र बोल पड़े मां,मुझे ज्ञान व भक्ति के सिवा और कुछ नहीं चाहिए। मन्दिर से बाहर आने पर स्वामी जी ने कहा कि इसका तात्पर्य यह है कि तुम्हारे भाग्य में सांसारिक सुख नहीं लिखा है। अच्छा जाओ तुम्हारे परिवार को सादा भोजन व आवश्यक कपडा अवश्य मिलता रहेगा। नरेंद्र के जीवन की यह प्रथम अनुभूति थी कि मां की मूर्ति में उन्हें ईश्वर का साक्षात् दर्शन हुआ। नरेंद्र ने स्वामी जी से अपने सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए कहा -रामकृष्ण जी मुझ पर इतना अधिक विश्वास करते थे जितना मेरे भाई व मां भी मुझपर नहीं करते थे। यह उनका अथाह प्रेम व अटल विश्वास ही था जिसके कारण मैने उनके समक्ष समर्पण कर दिया। दुनिया वाले तो स्वार्थ के लिए प्रेम का नाटक करते हैं।
ईश्वर के अस्तित्व  सम्बन्ध में अनेकों प्रश्नों के साथ नरेंद्र स्वामी जी के पास आये थे और स्वामी जी ने सर्वप्रथम तो सभी सन्देहों को बुद्धि से दूर करने का प्रयास किया तथा बाद में उसे अद्वैत वेदांत की शिक्षा प्रदान करके ताकि उनके तर्कपूर्ण बुद्धि को ईश्वर ज्ञान प्राप्त हो जाये। नरेंद्र ने निर्विकल्प समाधि लेकर मोक्ष प्राप्त करने की अपनी इच्छा जब प्रकट की तो स्वामी जी ने उसे इससे भी ऊपर की उस अनुभूति का दर्शन कराना चाहा जिसके अनुसार ब्रह्म इसके बाहर नहीं होता बल्कि प्रत्येक प्राणी में उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। नरेंद्र ने अन्ततः स्वामी जी की इच्छा का समादर किया और सदैव के लिए मानवता की सेवा एवम राष्ट्र सेवा का व्रत ले लिया। इसी दौरान स्वामी जी अस्वस्थ रहने लगे थे क्योंकि उनके गले की बीमारी धीरे धीरे उन्हें अशक्त बनाने लगी थी। प्रायःस्वामी जी नरेंद्र को अपने पास बुलाते और अपना सम्पूर्ण समय आध्यात्मिक विषयों पर ही वार्तालाप करने में  बिताया करते थे। स्वामी जी ने अपनी मृत्यु के पूर्व नरेन्द्र को अपने पास बुलाया और एकटक उनकी ओर देखने लगे। नरेंद्र को ऐसा महशूस हुआ कि कोई दिव्य ऊर्जा उनके शरीर में प्रविष्ट हो रही है और वे कुछ देर के लिए अचेत हो गए। चेतना वापस आने पर उन्होंने देखा कि रामकृष्ण जी रो रहे हैं। रोने का कारण पूछने पर स्वामी जी ने कहा --"ओह ,नरेंद्र ,आज मैंने तुम्हे अपना सबकुछ दे दिया है। मैं अब फकीर हो गया हूँ। जो महान शक्ति मेरे द्वारा तुझमें आज प्रविष्ट हुई है ,तुम इसके द्वारा दुनिया में कोई बड़ा कार्य करोगे। यह कार्य समाप्त करने के बाद ही तुम उस स्थान को लौट सकोगे जहां से तुम आये हो। "
स्वामी रामकृष्ण दिन प्रतिदिन क्षीण हो रहे थे।  अतः एक दिन अपने सभी शिष्यों के समक्ष उन्होंने नरेंद्र से कहा --नरेंद्र मैं इन सबको तुम्हारे सहारे छोड़कर जा रहा हूँ। ५० वर्ष की अवस्था में स्वामी जी ने १६ अगस्त १८८६ को अपना शरीर त्याग दिया। इस समय नरेंद्र की आयु मात्र २३ वर्ष थी। नरेंद्र अब स्वामी जी की अंतिम इच्छा के अनुसार समस्त अन्य शिष्यों के साथ उनके अधूरे कार्यों को पूर्ण करने में लग गए। एक विशेष कार्यक्रम में सभी शिष्यों ने जीवनभर ब्रह्मचारी रहकर सादा जीवन व्यतीत करने का निर्णय लिया और उसी समय नरेंद्र ने अपने को छोड़कर अन्य सभी शिष्यों को एक नया  आध्यात्मिक नाम प्रदान किया और उन्हें भारत -भ्रमण कर स्वामी जी के सन्देशों को फ़ैलाने का उत्तरदायित्व सौंप दिया।केवल रामाकृष्णानंद ने स्वामी जी के पवित्र देह अवशेष के पास ठहर गए ,शेष सभी भारत भ्रमण पर निकल गए।
स्वामी विवेकानन्द  ने भी  सन १८८८ ई में एक लम्बी यात्रा का संकल्प लेकर मठ से बाहर निकल पड़े और सर्वप्रथम उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण किया।वाराणसी ,मथुरा ,वृन्दावन ,हाथरस ,इलाहाबाद होते हुए वे हिमालय स्थित तीर्थस्थलों के दर्शन किये और बाद में वे अलवर आकर कुछ दिन यहां पर ठहर गए। अलवर से जयपुर जाकर दो सप्ताह वहां ठहरने के बाद जूनागढ़ होते हुए सोमनाथ पहुँच गए। इसी प्रकार लगभग आधे भारत का भ्रमण करने के बाद नरेंद्र का मन भारत की दशा एवम स्थिति को सुधारने के लिए बेचैन हो उठा। अतः वे दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े। रामेश्वर होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँच गए। कन्याकुमारी स्थित एक शिला पर वे तीन दिन तक बिना कुछ खाये पिए बैठे रहे और समुद्र की शांत लहरों को निहारते रहे। .इसी दौरान उन्हें जो अनुभूति हुई वह उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है --"मैंने मातृभूमि के उद्धार का उपाय ढूंढ निकाला है। अब उसी में जीवन लगाऊंगा --नहीं --नहीं मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। जब तक भारत का प्रत्येक मनुष्य भरपेट भोजन नहीं कर पाता, जब तक यह मातृभूमि वेदांत के मधुरगान से गूंज नहीं जाती, तब तक हे प्रभू , मैं बार बार जन्म लूँ और इन करोड़ों भारतवासियों की सेवा करूँ ,यही मोक्ष है। "बाद में यह शिला विवेकानन्द शिला के नाम से जानी गयी क्योंकि इसी शिला पर उक्त दिव्य व महान अनुभूति ने उस तपस्वी  व साधक को एक देशभक्त सन्यासी बनाया था। इसी चट्टान पर उन्होंने यह व्रत लिया था कि अब वे भूखे नंगे व पतित भारत की सेवा ही करेंगे। उन्होंने धर्म व मोक्ष की एक नई परिभाषा देते हुए कहा कि -"मोक्ष सन्यासी का लक्ष्य अवश्य है पर मुझे मेरे गुरुदेव से यही आदेश प्राप्त हुआ है कि भारत के करोड़ों लोगों की सेवा ही मोक्ष का साधन है। "
कन्याकुमारी के बाद वे मद्रास गए। उनके शिष्यों ने यहां पर उनके अमेरिका यात्रा हेतु कुछ धन एकत्रित किये और खेतड़ी के महाराजा ने अपने सचिव को यह आदेश दिया कि स्वामी जी की अमेरिका यात्रा का पूर्ण प्रबन्ध कराया जाये। अमेरिका प्रस्थान के पूर्व यहीं पर विदाई समारोह में उन्होंने अपना आध्यात्मिक नाम  विवेकानन्द  स्वीकार किया था। ३१ मई १८९३ ई को ३० वर्ष की अवस्था में वे वहीँ से अमेरिका के लिए प्रस्थान किये। सर्वप्रथम वे जहाज से बैंकोवर पहुंचे और यहां से केनेडा होते हुए रेलमार्ग से शिकागो पहुँच गए गए। यहां उन्हें यात्रा की थकान महशूस हुई  एक होटल में वहीं पर ठहर गए। यहीं से वे दूसरे दिन विश्वमेला देखने गए जहां विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यहां पर कोई भी उनका परिचित नहीं था फिरभी उन्हें यहां ज्ञात हुआ कि विश्वधर्मसम्मेलन में प्रवेश हेतु परिचयपत्र के साथ आवेदन करना अनिवार्य है। सम्मेलन  सितम्बर में जो अभी दो माह बाद पड़ना था, का समाचार मिलने पर वे अधीर हो उठे क्योंकि उनके  पैसे खत्म हो रहे थे। अतः मित्रों से परामर्श करके वे एक सस्ते शहर बोस्टन चले गए जहां उनकी भेंट एक विद्वान महिला मिस सनबोर्न से हुई जो उनसे बात करके अत्यधिक प्रभावित हुई और उसके आमन्त्रण पर वे उसके घर जाकर ठहर गए। शरीर पर गेरुआ वस्त्र एवमहाथ में कमण्डल लिए एक सन्यासी को देखकर वहां के लोग विस्मित हो उठे थे। बोस्टन में ही उनका परिचय प्रोफेसर जे० एच० रिट से हुआ और इनसे चार घण्टे के वार्तालाप से प्रभावित होकर रिट ने इन्हें धर्म सम्मेलन में व्याख्यान देने का परामर्श दिया।  स्वामी जी अपने परिचयपत्र न होने की कठिनाई बताया तो रिट ने कहा कि स्वामी जी आपसे परिचयपत्र मांगना सूर्य से यह पूंछने के बराबर है कि क्या उसे चमकने का अधिकार है।अंततः प्रो० रिट ने स्वयम  ही धर्मसभा की प्रतिनिधि चयन समिति के प्रधान को एक पत्र लिखकर स्वामीजी के व्याख्यान देने का प्रबन्ध कर दिया। ११ सितम्बर १८९३ को डॉ ० बारो ने अपने उद्घाटन भाषण से सम्मेलन का शुभारम्भ किया। विश्व के सभी धर्मों के आचार्य मंच पर बैठे थे। लगभग दस हजार विद्वानों से हाल खचाखच भरा हुआ था। भारत से ब्रह्मसमाज के नागरकर ,लंका के बौद्ध धर्मपाला भी उसमें मौजूद थे। स्वामी जी के व्याख्यान देने का क्रमांक ३१० नियत था। उस सभा में अल्पायु के केवल स्वामी जी ही थे क्योंकि उस समय उनकी आयु ३० वर्ष थी। अपने व्याख्यान क्रम आने पर स्वामी जी मंच पर आये और बोलने लगे --"अमेरिका निवासी भाई एवम बहनों ,इन शब्दों पर ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। आगे उन्होंने कहा -विभिन्न नदियां विभिन्न स्थानों से निकलकर जिस प्रकार एक सिंधु में विलीन हो जाती हैं ,उसी प्रकार विश्व के सभी धर्म विभिन्न मार्ग रखते हुए भी एक ही सत्य प्रभु की ओर ले जाते हैं। कोई किसी भी मार्ग से क्यों न जाये ,यदि वह सच्चे दिल से प्रभु की कामना करता है तो ईश्वर उसको अवश्य प्राप्त होता है। "बाद में स्वामीजी हिंदुत्व पर भाषण देते हुए कहा -"मेरा वेदांत पाप की भाषा नहीं जानता। हिन्दू आप में से किसी को पापी नहीं समझता।आप तो उस परम् पवित्र आनंद स्वरूप के पुत्र हैं।  मेरी मातृभूमि भारत को आज धर्म की आवश्यकता नहीं है। धर्म हमारे पास बहुत हैं। भारत के करोड़ों लोगों की भूख मिटने के लिए रोटी चाहिए। "धर्मसभा के श्रोताओं को स्वामीजी के उक्त शब्दों से यह ज्ञात हो गया था कि विवेकानंद एक सन्यासी ही नहीं अपितु एक देशभक्त भी है। १७ दिनों की धर्मसभा की कार्यवाही में स्वामी जी कई बार भाषण दिए और २७ सितम्बर को  उनका अंतिम भाषण हुआ।  अमेरिका के प्रसिद्ध समाचारपत्र न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा -स्वामी विवेकानंद धर्मसभा में निःसन्देह सबसे महान व्यक्तित्व हैं। उनका भाषण सुनकर हमें ऐसा लग रहा है कि इतने विद्वानों के देश को धर्मप्रचारक भेजना कितनी मूर्खता की बात है। अन्य समाचार पत्रों में भी उनकी फोटो के साथ विस्तृत भाषण छपे। 
धर्म सम्मेलन के बाद वे अमेरिका में प्रचारक के रूप में यत्र तत्र भ्रमण किये। वे जहां भी जाते हजारों लोग उनको सुनने हेतु आतुर दिखने लगे। प्रत्येक भाषण में उनका देश-प्रेम से भरा हुआ हृदय उभरकर सामने आ जाता था। उन्होंने स्वयम कहा था कि मैं उस धर्म का प्रचार करने जा रहा हूँ बौध्दमत जिसका बिगड़ा हुआ बच्चा है और ईसाई धर्म दूर की गूंज मात्र। लगभग एक वर्ष तक स्वामी जी अमेरिका में रहे और वहां उन्होंने कई लोगों को दीक्षा देकर वेदांत का प्रचार प्रसार करने हेतु तैयार कर दिया। सन १८९५ ई ० में स्वामी जी की एक शिष्या कुमारी डच्चर ने थाउजेंड आईलैंड पार्क में एक मकान का प्रबन्ध कर दिया और स्वामी जी अपने १२ शिष्यों के साथ उसमें रहने लगे और उन शिष्यों को वेदांत की शिक्षा देने लगे। यहां से स्वामी जी इंग्लॅण्ड पहुँच गए और २२ अक्टूबर १८९५ ई को लन्दन के प्रसिद्ध प्रिंसेज हाल में अपना भाषण दिया। १३ दिसम्बर १८९६ ई को लंदनवासियों की ओर से एक विदाई कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें स्वामी जी ने कहा --"मेरा यह शरीर कभी भी नष्ट हो सकता है। मैं एक प्रयोग के तरह इसे फेंक भी सकता हूँ पर मैं मानवता की सेवा का महान कार्य तबतक करता रहूंगा जबतक सारा विश्व उस परमसत्य को नहीं समझ लेता। "
१६ दिसम्बर १८९६ ई को वे भारत लौट पड़े और १५ जनवरी १८९७ को श्रीलंका पहुंचकर अति उत्साह से वे उछल पड़े और कहा यह मेरा भारत है। स्वामी जी की वापसी का समाचार सुनकर भारत में प्रसन्नता व उत्साह की लहर सी दौड़ पड़ी थी। श्रीलंका में दो प्रभावशाली भाषण देने के बाद वे २६ जनवरी को भारत पहुंचकर उसकी मिटटी को माथे से लगा लिया। २८ फरवरी १८९७ ई ० को एक बड़े समारोह में उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। १ मई १८९७ ई ० को बलराम बाबू के घर पर अन्य शिष्यों ने एक संगठन बनाने पर विचार विमर्श किया और वहीं पर रामकृष्ण मिशन के स्थापना की घोषणा कर दी गयी। बंगाल में पड़े दुर्भिक्ष में रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों ने जनता की भरपूर सेवा की जिससे यह प्रमाणित हो गया कि मोक्ष पथ के पथिक अब बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय के अभिनव मार्ग पर चल पड़े हैं। बाद में कलकत्ता नगर के प्लेग महामारी के प्रकोप के अवसर पर भी मिशन ने ऐसा ही परिचय दिया। 
स्वामी जी अपने कश्मीर यात्रा से वापस आकर भगिनी निवेदिता के कन्या स्कूल का उद्घाटन किया। अब स्वामी जी अपने मठ के शिष्यों को प्रचार प्रसार हेतु सम्पूर्ण भारत में भेजने  योजना बनाने लगे। उन्होंने हिमालय क्षेत्र में भी एक मठ की स्थापना की। भगिनी निवेदिता के साथ २० जून १८९९ ई ० को दूसरी बार वे अमेरिका गए और पुनः अपने विद्वतापूर्ण भाषण से उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया। वहीं से २० जुलाई को वे पेरिस चले गए और ९ दिसम्बर १९०० ई ० को वहीं से बेलूर मठ जाकर अपना अधिकांश समय वहीं व्यतीत करने लगे। २९ जून १९०१ ई ० को वे मठ के आंगन में प्रेमानंद जी के साथ  टहल रहे थे तभी उन्होंने कहा -"मैं जब शरीर छोडूंगा तो मेरा दाह संस्कार गंगा के किनारे इसी स्थान पर करना। "२ जुलाई १९०२ ई ० को सायंकाल सात बजे वे चुपचाप अपने पूजा गृह में चले गए और यह आदेश दिया कि बिना बुलाये कोई भी यहां न आये। एक घण्टे बाद एक शिष्य को बुलवाया तो शिष्य वहां जाकर देखता है कि स्वामी जी चुपचाप विस्तर पर पड़े हुए।   उनके हाथ में हलचल हुई तो उन्होंने एक गहरी श्वास लेते हुए अपनी अंतिम श्वास ली और इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
धार्मिक एवं दार्शनिक पक्ष :-- 
स्वामी जी  प्रायः कहा करते थे कि मनुष्य को केवल मनुष्य की आवश्यकता है और सब कुछ हो जायेगा किन्तु आवश्यकता है वीर्यवान ,तेजस्वी श्रीसम्पन्न और ईमानदार नवयुवकों की। मेरी आशाएं आधुनिक पीढ़ी में केंद्रित है। इसी में मेरे कार्यकर्ता निर्भय होकर सिंह के समान पूरी समस्या का हल कर देंगें। इसीलिए मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया है। यदि मैं सफलता प्राप्त न कर पाया तो इसे पूरा करने के लिए कोई और आगे आएगा और मुझे तो संघर्ष करते रहने में ही सन्तोष प्राप्त होगा। " उन्होंने यह भी कहा था कि मेरे वेदांत के अनुसार किसी ईसाई को हिन्दू बनने या किसी बौद्ध को ईसाई बनने की आवश्यकता नहीं है। अपने अपने मार्ग से सब प्रभु तक पहुंचे ,यही वेदांत का सन्देश है।
स्वामी विवेकानंद को सर्वप्रथम नास्तिकता की ओर झुकना पड़ा था किन्तु स्वामी रामकृष्ण जी की शिक्षाओं ने उनके भौतिकवादी नास्तिक विचारों को समूल उखाड़ फेंका और उसकी जगह भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के मूलतत्व वेदान्त के प्रचार प्रसार हेतु उन्हें जागरूक कर दिया। उन्होंने वेदान्त को एक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने का अनवरत प्रयास किया और भारतीय दर्शन की प्राण स्वरूपिणी इसकी आध्यात्मिकता को पुनः एक बार विश्वदर्शन के मंच पर प्रस्तुत कर दिया। उनका तत्व दार्शनिक दृष्टिकोण बौद्धिक ज्ञान तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि आत्मानुभूति की प्रबल शक्ति में उनका दृढ विश्वास भी था। यद्यपि परमसत्ता के विषय में स्वामीजी अद्वैतमत के समर्थक थे किन्तु सम्पूर्ण जगत को ब्रह्म की अभिव्यक्ति बताते हुए उन्होंने जगत को पूर्णतयः मिथ्या नहीं माना। वे विशुद्ध एकत्व को न मानकर बहुत्व में एकत्व के सिद्धांत को मानते हैं। यही वेदान्त का मूलस्तम्भ है। वे "एकमेवाद्वितीयम" के माध्यम से इस विरोध को समाप्त कर दिया कि परमसत्ता अनेक है। सत्ता की एकात्मकता के सन्दर्भ में उन्होंने" सर्व खलु इदं ब्रह्म"का कथन करते हुए जगत को पूर्णतयः सत्य बताया। जगत के सम्बन्ध में स्वामीजी का तर्क है कि जब जगत ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है तो यह मिथ्या कैसे हो सकती है ?
ईश्वर के सम्बन्ध में स्वामीजी ने ब्रह्मसूत्र के कथन "जन्माद्यस्यतः"अर्थात जिससे विश्व का जन्म ,स्थिति और प्रलय होता है, वही ईश्वर है,का समर्थन किया। उनके अनुसार जो अनंत ,शुद्ध ,नित्यमुक्त ,सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ, दयास्वरूप एवं प्रेमस्वरूप परमगुरु है वही ईश्वर है। ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों स्वरूपों को समान रूप से ग्रहण करते हुए इसे एकमेवाद्वितीयम द्वारा समन्वित कर दिया। स्वामीजी का कथन है -"ब्रह्म का निर्गुण स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण प्रेम तथा उपासना के योग्य नहीं है और इसीलिए भक्त ईश्वर के सगुण भाव को परमनियोक्ता ईश्वर मानकर उसकी उपासना करता है। "
स्वामीजी समस्त संसार को अपनी ज्ञानपरिधि में लेना चाहते हैं। उनका कथन है -"हम  अस्वीकार नहीं करते --न तो ईश्वरवादी को और न ही नास्तिक को। हमारे धर्म में शिष्य बनने के लिए एक ही शर्त है कि चरित्र का गठन इस प्रकार किया जाये कि वह एक साथ ही अत्यन्त व्यापक हो और उसमें गहराई हो।"  वे मानवतावादी विचार के पोषक थे। तत्व चिंतन को उतना महत्वपूर्ण नहीं मानते थे जितना कि मानव कल्याण की सम्भावनाओं की खोजबीन को। इसी सन्दर्भ  कहा था -"आत्मा है या नहीं इसकी किसे परवाह है ?कोई अपरिवर्तनशील सत्ता है या नहीं ,इसके बारे में किसे व्यग्रता है ?हमारे सामने यह संसार है और यह दुःख एवं पीड़ाओं से भरा है।  संसार में उतरो जैसे बुद्ध उतरे थे और इन दुःख पीड़ाओं को कम करने के लिए संघर्ष करो। विवेकानन्द आत्मा को बन्धनग्रस्त नहीं मानते क्योंकि उन्होंने स्वतन्त्रता को आत्मा की प्रमुख विशेषता माना है। मृत्यु आत्मा का अंत नहीं है बल्कि वह अजर एवं अमर है और उसे आत्मानुभूति द्वारा जरामरण से मुक्त किया जा सकता है। इस पूर्ण स्वातन्त्र्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने योग की आवश्यकता बतायी। जरामरण से मुक्ति हेतु उपयुक्त साधन के सन्दर्भ में उनका मत है कि बुद्धि की शक्ति  उद्देश्य की पूर्ति हेतु पूर्णरूपेण सक्षम नहीं है। इसके लिए उन्होंने अंतर्दृष्टि की आवश्यकता बतायी। प्रायः मनुष्य अपने कर्म के द्वारा ईश्वरानुभूति करना चाहता है क्योंकि कर्म ही पूजा है ,ऐसा गीता में कहा गया है। स्वामीजी के अनुसार यह मार्ग कर्मप्रधान व्यक्ति का है। उनके अनुसार "कर्मयोग निःस्वार्थता एवं सद्कार्यों के माध्यम से मुक्ति की एक नैतिकतापूर्ण एवं धार्मिक प्रणाली है। कर्मयोगी किसी सिद्धांत विशेष में विश्वास की आवश्यकता नहीं समझता। वह यह नहीं पूंछता  कि उसकी आत्मा क्या है ?उसे अपनी निःस्वार्थता की अनुभूति का विशिष्ट उद्देश्य प्राप्त करना है और उसे अपनी शक्ति से अधिक कार्यान्वित करना है। "
कर्मयोगी की कर्मफल में आसक्ति नहीं होती, अतः वह बन्धनग्रस्त भी नहीं होता है।स्वामी जी ने कहा है कि -"वह अच्छा कार्य  जो बिना किसी प्रयोजन के अर्थात न तो धन के लिए और न ही ख्याति के लिए करता है और  ऐसा करता है तब वह बुद्ध कहा जायेगा। उससे कर्मशक्ति का एक प्रवाह फूटेगा जो विश्व में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करेगा।" स्वामीजी ने बताया कि ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति सगुण ईश्वर के प्रति भक्ति या प्रेम के द्वारा होती है। उन्होंने भक्ति के तीन प्रकार बताये ,पहला बाह्य उपचार या कर्मकाण्ड जो भक्ति का स्थूल स्तर है। दूसरा भावना जिसमें प्रतीकों की अपेक्षा भावना का महत्व अधिक है क्योंकि इसके द्वारा आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता का ज्ञान होता है। तीसरा पराभक्ति या पराविद्या जिसमें समस्त प्रतीक तथा रूपाकार विलीन होकर रहस्यानुभूति की विविध प्रक्रियाएं प्रस्तुत करता है।भक्तियोग  साधन के सम्बन्ध में वे रामानुज के मत से सहमत होते हुए कहते हैं कि भक्ति की उपलब्धि विवेक ,दमन ,अभ्यास ,यज्ञादिक क्रियायों की पवित्रता ,बल और उल्लास के निरोध से होती है। वे ईश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा को ही भक्ति मानते हैं। इसके सम्बन्ध में उन्होंने  कि मनुष्य के हृदय में जो भावनायें तथा वासनाएं उत्पन्न होती हैं वे स्वयं दूषित नहीं हैं बल्कि उनका धीरे धीरे नियंत्रण करते हुए उसे उच्च ध्येय की ओर तब तक लगाते रहना चाहिए जब तक परमोच्च दशा की प्राप्ति न हो जाये। 

उन्होंने प्रत्येक आत्मा को अव्यक्त ब्रह्म बताया और इस महामन्त्र के ज्ञान को ही ज्ञानयोग बताया। बाह्य तथा अंतःप्रवृत्ति को वशीभूत कर आत्मा के ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य बताया। यद्यपि विवेकानन्द ने सभी प्रकार के योगानुष्ठान को महत्व दिया था किन्तु ज्ञानयोग के प्रति उनकी विशेष निष्ठां थी। स्वामीजी की धर्म में पूर्ण आस्था थी। वे बुद्धि को धर्म का आवश्यक तथ्य बताते हुए कहते हैं -"बुद्धि का अनुसरण करते हुए मानवमात्र को नास्तिक होना अच्छा है ,पर किसी व्यक्ति के प्राधिकार के आधार पर अंधविश्वासों के रूप में करोड़ों देवताओं में विश्वास करना अच्छा।  मनुष्य का महत्व इसी बात में है कि वह चिन्तनशील प्राणी है। स्वामी विवेकानंद जी ने समस्त ज्ञान को स्वानुभूतिजन्य बताया। उनके अनुसार -"प्रत्येक निश्चित विज्ञानं की एक साधारण चित्तभूमि है। उससे जो सिद्धांत उपलब्ध होते हैं ,कोई भी इच्छा करने पर उनका सत्यासत्य तत्काल समझ सकता है। "इन समस्त चिंतन और विचारों का प्रतिफल राजयोग विद्या है जिसमें यम ,नियम ,आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान एवं समाधि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उन्होंने अपनी राजयोग नामक पुस्तक में इसका विधिवत वर्णन किया है। आगे उन्होंने यह भी कहा है कि भक्तियोगी को ज्ञानमार्ग पर चलने की आवश्यकता है क्योंकि भक्ति  ही उसे पूर्णता नहीं प्रदान कर सकती बल्कि ज्ञानमार्ग एवं कर्ममार्ग दोनों के सहयोग से भक्ति मार्ग सुदृढ़ होता है। विभिन्न मार्गों को स्वीकार करते हुए अंततः उन्होंने आत्मा की अनंत शक्ति के प्रति अटूट विश्वास प्रकट किया और यही उनकी आध्यात्मिक परिपूर्णता का स्वतः प्रमाणित एवं अनुभूतिजन्य मार्ग था जिसके सहयोग से उन्हें परमसत्ता के साक्षात्कार में सहायता मिली। 
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                                                                श्री अरविन्द          
जीवन परिचय :- 
 नव जागरण के देवदूत श्री महर्षि अरविन्द का पूरा नाम अरविन्द घोष था। महर्षि एवम योगी की उपाधि उन्हें बाद में उनके दार्शनिक चिन्तन एवम तत्व-निरूपण के सन्दर्भ में मिली थी। अरविन्द जी का जन्म पश्चिम बंगाल प्रान्त के कलकत्ता नगर में १५ अगस्त १८७२ ई० को हुआ था। इनके पिता का नाम डॉ० राधाकृष्णन घोष था जो उस समय के कुशल चिकित्सक थे। इनके पिता प्रारम्भ से ही इन्हें उच्च शिक्षा दिलवाकर किसी उच्च सरकारी पद  पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे।  अतः उसी के अनुरूप इनकी शिक्षा दीक्षा भी प्रारम्भ की गयी। ५  वर्ष की अल्पायु में इन्हें दार्जलिंग के एक योरोपियन स्कूल में दाखिल करा दिया गया जहां पर केवल योरोपियन भाषाओँ में ही पढ़ाई होती थी। अतः दो वर्ष बाद इन्हें शिक्षा ग्रहण करने हेतु इंग्लैंड भेज दिया गया। कम उम्र के कारण इन्हें किसी हास्टल में न रखकर मि ० डिवेटनामक एक गृहस्थ के घर में रखने की व्यवस्था की गयी।  सन १८८५ ई ० में डिवेट के आस्ट्रेलिया चले जाने पर अरविन्द को सेन्टपाल स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया। वहां के हेडमास्टर को इतनी छोटी आयु में इनकी लैटिन भाषा की योग्यता को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था अतः उसने इन्हें ग्रीक पढना आरम्भ कर दिया। अपनी इस विकसित योग्यता के कारण सत्रह वर्ष की आयु में कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज के लिए ८० पौंड की सर्वोच्च छात्रवृत्ति प्राप्त  की। वहाँ अध्ययन प्राप्त करके वे १८ वर्ष की आयु में आई ,सी ,यस की परीक्षा उत्तीर्ण किये और अध्ययन के दौरान ही इन्होंने अंग्रेजी,जर्मन,फ्रेंच,ग्रीक एवम इटैलियन भाषाओँ का भी सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया था। विद्यार्थी जीवन में ही इन्हें देशभक्ति ने इस प्रकार प्रेरित किया कि उन्होंने जानबूझकर आई ,सी, एस की घुड़सवारी की परीक्षा देने से इंकार कर दिया था और राष्ट्रसेवा करने का पूर्ण निश्चय कर लिया।इस प्रकार सन १८९३ ई ० तक इक्कीस वर्ष की आयु में अरविन्द ने इंग्लैंड के कालेजों की सभी पढ़ाई कर ली थी। अंग्रेजी पर तो इनका इतना अधिकार था कि वे उसी समय उसमें कविता लिखने लगे थे। इनके पिता इनको पक्का अंग्रेज बनाना चाहते थे और जन्म से अभी तक उन्हें अंग्रेजी वातावरण में ही रखा गया। भारत आकर इन्होंने दार्शनिक विषयों से सम्बन्धित दो एक प्लेटो की पुस्तकें पढ़ी और संस्कृत भाषा का ज्ञान भी प्राप्त किया। यहां आकर इनका सम्पर्क कुछ ऐसे भारतीय युवकों से हो गया जिन पर योरोप के क्रन्तिकारी विचारों का प्रभाव पड़ चूका था और इसीलिए उनको अपने देश की पराधीनता खटकने लगी थी। इन्होंने युवावस्था में ही स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेना आरम्भ कर दिया था। इनकी प्रतिभा से तत्कालीन बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित हुए थे और उन्होंने अपने रियासत के कालेज में इन्हें शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्ति प्रदान कर दी। बड़ौदा में क्रमशः प्राध्यापक,वाइस प्रिंसिपल व उनके निजी सचिव के गुरुतर भार का वहन करते हुए इन्होंने हजारों छात्रों को देश भक्ति की ओर प्रेरित किया। १८९६ से १९०५ तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा कालेज के फ्रेंच प्राध्यापक व वाइस प्रिंसिपल के पद  पर रहते हुए क्रांतिकारियों को प्रशिक्षित किया। प्रायः वे अपने जीवन में कभी भी रूपये पैसे का हिसाब नहीं रखते थे किन्तु राजस्व अधिकारी के रूप में उन्होंने विश्व की प्रथम आर्थिक विकास योजना का प्रारूप तैयार किया और उसका कार्यान्वयन करके बड़ौदा राज्य को गौरवान्वित भी किया। इसके बाद वे विभिन्न आर्थिक विचार गोष्ठियों व समारोहों में सम्मनापूर्वक बुलाये जाने लगे थे।
क्रांतिकारी आंदोलन में सहयोग :- 
लार्ड कर्जन की बंग भंग की योजना के विरोध में बंगाल में एक जबरदस्त आंदोलन हुआ तब अरविन्द घोष ने इस आंदोलन का सक्रिय रूप से प्रतिनिधित्व किया था। इसी बीच उन्होंने नेशनल ला कालेज की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और ७५ रूपये मासिक वेतन पर उन्होंने उसमें अध्यापन कार्य भी किया। अरविन्द घोष कलकत्ता आकर राजा सुबोध की अट्टालिका में रहने लगे किन्तु जन सामान्य से मिलने में हो रही असुविधा के दृष्टिगत वे बाद में छक्कू खानसाना की गली में रहने लगे। उन्होंने किशोरगंज जो अब बंगलादेश में है ,में स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व किया और इस नेतृत्व में उन्होंने भारतीय पोशाक धोती,कुरता और चादर का ही चयन किया। कुछ दिनों बाद वे "बन्दे मातरम" नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ कर दिया तो ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों व क्रियाकलापों से आतंकित होने लगी तथा २ मई १९०८ ई को उनके चालीस अन्य युवक साथियों  के साथ इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इस घटना को अलीपुर षड्यन्त्र केस के नाम से जाना गया । इसी घटना के सम्बन्ध में उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर कारागार में निरुद्ध रखा गया और इन्होंने कारागार में ही हिन्दू धर्म एवम हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना की। इसी  मामले में अरविन्द घोष को अभियुक्त के रूप में सजा दिलाये जाने हेतु ब्रिटिश सरकार ने जिस गवाह को तैयार कर रखा था ,उसकी आकस्मिक हत्या कर दिए जाने के फलस्वरूप उनका पक्ष कोर्ट में प्रस्तुत करने के लिए प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजनदास ने पूर्ण तन्मयता से पैरवी की और अपने अकाट्य तर्कों एवम प्रभावी बहस के आधार पर अरविन्द घोष को समस्त अभियोगों से मुक्त करवा दिया। ६ मई १९०९ ई ० को मुकदमे का फैसला आया और ३० मई १९०९ ई० को अरविन्द घोष  ने उत्तरपाड़ा में आयोजित एक विशाल जनसभा में अपना प्रभावशाली भाषण दिया जिससे उनकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी। इन्होंने इस सभा में अपने कारावास के दौरान उत्पन्न अनुभूतियों का वृहत एवम प्रभावशाली विवेचना करते हुए कहा था :--"जब मुझे आप लोगों के द्वारा कुछ कहने के लिए कहा गया तो मैं आज एक विषय हिन्दू धर्म पर कहूंगा। मुझे नहीं पता कि मैं अपना आशय पूर्ण कर पाउँगा या नहीं। जब मैं यहां बैठा था तो मेरे मन में आया कि मुझे आपसे बात करनी चाहिए। एक शब्द पूरे भारत से कहना चाहिए और यही शब्द मुझसे सबसे पहले जेल में कहा गया था।  अतः मैं यही आपको कहने के लिए जेल से बाहर आया हूँ। एक साल हो गया है मुझे यहां आये हुए। पिछली बार आया था तो यहां राष्ट्रीयता के बड़े बड़े प्रवर्तक मेरे साथ बैठे थे। यह तो वह सब था जो एकांत से बाहर आया, जिसे ईश्वर ने भेजा  था ताकि जेल के एकांत में वह ईश्वर के शब्दों को सुन सकें। यह तो वह ईश्वर ही था जिसके कारण आप यहां हजारों की संख्या में आये। अब वह बहुत दूर है ,हजारों मील दूर।
राजनैतिक संघर्ष का युग :-
 सन १९०५ ई ० में लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो टुकड़ों में विभक्त कर दिया तो देश में एक भयंकर राजनैतिक तूफान आ गया था। परिणामस्वरूप भारत के सभी प्रान्तों में एक जोरदार आंदोलन छिड़ गया जिसका केंद्र बंगाल था। लोगों ने विदेशी माल का बहिष्कार करके विलायती कपड़ों की होली जलाई। हजारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल कालेज छोड़कर स्वदेश प्रचार का कार्य आरम्भ कर दिया। उस समय देश की सबसे बड़ी राजनैतिक संस्था कांगेस थी किन्तु उसमे नरम दल वालों की प्रधानता थी जो सरकार से प्रार्थना करने के सिवाय किसी सीधी कार्यवाही के लिए तैयार नहीं थे। इधर लोकमान्य तिलक,लाला लाजपत राय,श्री विपिन चन्द्र पालआदि गरम दल के नेता सरकार के सामने स्वराज्य की मांग को बलपूर्वक रखने के पक्ष में उद्यत हो गए। श्री अरविन्द भी इसी दल में थे किन्तु बड़ौदा में सरकारी नौकरी करने के कारण अभी वे इस आंदोलन में अप्रत्यक्ष रूप से ही भाग ले पा रहे थे। जब आन्दोलन क्रमशः बढ़ने लगा और तिलक से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया तो उन्होंने एक वर्ष का अवकाश ले लिया और प्रत्यक्ष रूप से आंदोलन में सहभागिता करना आरम्भ कर दिया। राजनैतिक आंदोलन की सफलता और देशवासियों तक स्वाधीनता का सन्देश पहुँचाने के लिए वनडे मातरम नामक एक दैनिक पत्र  निकाला गया जिसका आर्थिक और सम्पादकीय भार श्री अरविन्द के ऊपर डाला गया । इनके उत्तेजक एवं युवाओं को आकर्षित करने वाले लेखों से सरकार डर गयी और ऐसा अवसर ढूढने लगी जिससे इनको हटाया जा सके। शीघ्र ही इन पर दो मुकदमे चलाये गए जो युगान्तर एवं वन्दे मातरम में में प्रकाशित लेखों के सम्बन्ध में थे। इस मुकदमें के कारण वन्दे मातरम और श्री अरविन्द जी का नाम सम्पूर्ण भारत में फ़ैल गया और लोग उनको पूज्यभाव से देखने लगे। उधर सरकार को भी अपनी हार का अनुभव होने लगा क्योंकि श्री अरविन्द के लेख वास्तव में ऐसे उच्च भावों से युक्त होते थे कि उनको घृणा फ़ैलाने वाला अथवा हिंसा के लिए उत्तेजक नहीं सिद्ध किया जा सकता था। 
इसी समय सूरत कांगेस की तयारी होने लगी। पिछले काशी और कलकत्ता के अधिवेशनों में देश के कुछ वयोवृद्ध नेताओं ने गरम और नरम दल वालों को समझा बुझाकर कांगेस में सम्मिलित कर रखा था फिरभी सरकारी दमन के कारण देश में बड़ी उत्तेजना फैलने लगी थी। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में संघर्ष छिड़ गया जिसके कारण अधिवेशन भंग करना पड़ा। श्री अरविन्द इस अवसर पर गरम दल के मुखिया तिलक के प्रधान सहयोगी बन गए और वे स्वतन्त्रता के सन्देश का नगर नगर में प्रचार करने लगे। कलकत्ता वापस आने पर उनका बहुत धूमधाम से स्वागत किया गया। इन दिनों श्री अरविन्द भाषण देते समय अपनी आँखों को बन्द कर लिया करते थे और मन में आयी हुई अन्तरात्मा की आवाज को प्रकट करने लगे थे। श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे और उन पर सनसनी भ प्रभाव पड़ने लगा था।
राजनीति का त्याग और अध्यात्म का प्रचार :-
उपरोक्त मुकदमों के समाप्त होने पर जब श्री अरविन्द जी जेल से बाहर आये तो उन्होंने देखा कि देश की दशा बिलकुल बदल गयी है सरकार ने भरी दमन से लोगों के लिखने ,बोलने एवं प्रचार करने पर रोक लगा दी है और सभी मुख्य नेताओं को जेल में बन्द कर रखा है तथा वन्दे मातरम का प्रकाशन भी बन्द करवा दिया है। इसलिए उन्होंने अपने विचारों के प्रकाशन के लिए अंग्रेजी भाषा में "कर्मयोगिन"  और बंगला में "धर्म "नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया। इन पत्रों में वे राजनीति एवं अध्यात्म का समन्वय करके बहुत अच्छे ढंग से अपने उद्दात्त विचार प्रस्तुत।  उन्होंने उसमें लिखा कि कर्मयोग और धर्म ही मानव जीवन का सार है और वही सच्ची राजनीति है क्योंकि यही गीता का उपदेश है। शिक्षा में भी वे अध्यात्म का प्रवेश अनिवार्य मानते थे। उन्होंने योरोप की ऊंची शिक्षा प्राप्त करके देख लिया था कि उसकी नींव भौतिकता पर रखी गयी है। इसलिए सांसारिक दृष्टि से वैभव और चमक दमक प्राप्त कर लेने पर भी उसमें शाश्वत कल्याण और शांति प्रदान करने की शक्ति नहीं है। श्री अरविन्द जी का विश्वास था कि अंतरात्मा का सत्ता सर्वव्यापी है और जड़जगत के पदार्थ भी उससे पृथक नहीं हैं। इसीलिए वे प्राचीनकाल की तरह कुश के आसन पर बैठकर पढ़ना ही धर्मानुकूल पये। उनके मतानुसार आत्म-शक्ति ही सर्वप्रधान है और वही प्रत्येक पदार्थ को भले या बुरे रूप में अनुप्राणित कर सकती है। उन्होंने कर्मयोगिन में लिखा था कि "केवल अंतरात्मा ही हमें बचा सकती है। हम अपने हृदय को महान और स्वतन्त्र बनाकर ही सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से बड़े और स्वाधीन बन सकते हैं। जब भारत अपनी खोयी हुई जातीयता प्राप्त कर लेगा तो वह संसार में मानव परिवार में अधिक पूर्ण और विशाल जीवन का अधिकारी बन सकेगा। "
पांडिचेरी में आध्यात्मिक जीवन :-
पांडिचेरी पहुँचने पर श्री अरविन्द पूर्णतः प्रकट रूप से वहां नहीं रहते थे केवल उनके कुछ घनिष्ठ परिचितों को ही इसकी जानकारी थी। वहां के राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने उनसे अनुरोध किया कि उनके कार्य में सहयोग करें परन्तु अब वे योगसाधना में तल्लीन हो चुके थे इसलिए इस विषय उन्होंने सभी मित्रों से क्षमा मांग ली। आरम्भ में उन्हें शंकर चट्टी पर ठहराया गया जहां पहले स्वामी विवेकानंद भी ठहर चुके थे। यहां पर  अरविन्द का जीवन अत्यंत सादा था। वे और उनके तीन साथी फर्श पर ही सोते थे और गृहस्वामी के यहां से जो चावल और शक अथवा मद्रासी रसम बनता था उसी को वे खा लेते थे। इसी समय फ्रांस की विद्वान दार्शनिक पाल रिचर्ड पांडिचेरी आकर इनसे मिली। इस भेंट से उनको यह अनुभव हुआ कि श्री अरविन्द उनके बड़े भाई के समान हैं और उनका ज्ञान भंडार बहुत विशाल है। बाद में पाल रिचर्ड की पत्नी मीरा रिचर्ड  भी पांडिचेरी आकर श्री अरविन्द से मिलीं और कुछ दिनों बाद वे श्री अरविन्द की प्रधान सहायिका हो गयीं तथा बाद में वे माता जी के नाम से अरविन्द आश्रम का संचालन करने लगीं। 
श्री अरविन्द की साधना जैसे जैसे बढ़ती गयी बाह्य संसार से उनका सम्बन्ध कम होता गया। अंत में उनकी सिद्धि का दिन आ गया। दिनांक २४ नवम्बर १९२६ ई ० को उन्होंने संसार से पूर्णतयः सम्बन्ध विच्छेद करके एकांत जीवन बिताने का निश्चय कर लिया। इसके पश्चात अपने शिष्यों और साधकों से जो जो मार्ग दर्शन का सम्बन्ध रखा वह केवल माता जी के माध्यम से। इस प्रकार नवम्बर १९२६ से जीवन के अंतिम दिन ५ दिसम्बर १९५० तक वे एकांतवास करके एक ऐसी साधना में निमग्न रहे जिसका उद्देश्य आध्यात्मिक भाव सम्पन्न लोगों को साक्षात्कार के  आगे बढ़ने में सहायता पहुँचाना था। भारत तथा अन्य देशों के उद्धार के लिए जो आंदोलन चल रहे थे ,उनमें भी वे संकल्प शक्ति द्वारा सहयोग देते रहे। अपने आरम्भिक जीवन में श्री अरविन्द एक बहुत ऊंचे दर्जे के विद्वान तथा साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने साहित्यिक विषयों पर बड़े बड़े ग्रन्थ लिख डेल थे। सावित्री नामक एक महाकाव्य अंग्रेजी भाषा में लिखा जिसकी तुलना महाकवि मिल्टन की रचनाओं से की जाने लगी थी। वैसे तो यह एक पौराणिक कथा ही है पर इसको पढ़ते समय पाठक इस दृश्य जगत से बहुत ऊपर एक अज्ञात लोक में पहुँच जाता है।    
इसी घटना के बाद उनकी योगी जीवन आरम्भ हुआ और पांडिचेरी में एक आश्रम की स्थापना उनके द्वारा की गयी। इसी आश्रम में वेद ,उपनिषद आदि ग्रन्थों पर  टीकाएँ लिखी और योगसाधना पर मौलिक ग्रन्थों की रचना भी की। वे एक कवि ,दार्शनिक एवम साधक थे। इनकी कृतियों में द  मदर ,लेटर्स आन योग,सावित्री,योगसमन्वय,दिव्यजीवन,फ्यूचर पोयट्री,योगिक साधना,आदि प्रमुख हैं। दिव्य जीवन के द्वारा इन्होंने अपना दार्शनिक व्यक्तित्व को पूरे विश्व के समक्ष रखा और वे इसी के कारण भारतीय समकालीन दर्शन के प्रमुख पुरोधा के रूप में भी जाने गए।  
दार्शनिक पृष्ठभूमि :-
स्वामी विवेकानंद के पश्चात भारतीय समकालीन दर्शन का विकास महर्षि अरविन्द के संरक्षण में उत्तरोत्तर आगे बढ़ा। इनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है इनका गम्भीर चिंतन एवम स्पष्ट लेखन। इनकी रचनाएँ एक प्रकार से उनके मानसिक स्तर एवम अप्रतिम व्यक्तित्व की सर्वोत्तम प्रतिनिधि हैं। इनकी प्रतिभा का सर्वतोमुखी स्वरूप इनकी बुद्धि की भेदन शक्ति ,असाधारण अभिव्यक्ति क्षमता ,उत्कट निष्ठा एवं उद्देश्य की एकांतिकता आदि का सहज अनुभव इनकी कृतियों से आसानी से हो जाता है। डॉ. ए० सी० भट्टाचार्य का इनके बारे में कथन है ::-- "भारत के स्वतन्त्रता यज्ञ के ऋतिविक  आचार्य यदि स्वामी विवेकानंद को कहा जाये तथा मन्त्र द्रष्टा ऋषि बंकिम को कहा जाये तो निःसन्देह रूप से श्री अरविन्द उस यज्ञानुष्ठान के प्रमुख पुरोधा कहे जायेंगे। "
श्री अरविन्द बीसवीं शती के एक महान योगी तथा दार्शनिक हैं। उनके अनुसार विश्व में नित्य एक दिव्य विकास जारी है। इसे वे भौतिक या प्रकृतिक विकास न कहकर ब्रह्म के द्वारा ब्रह्म के लिए ब्रह्म का विकास मानते हैं। एकमात्र  ब्रह्म की सत्ता मानते हुए उन्होंने भी नव्यवेदान्त की परम्परा से अपने को जोड़ रखा था। यद्यपि उन्होंने मायावाद का खण्डन कर माया को ब्रह्म की शक्ति माना है फिरभी उनका ब्रह्म सचल है। वह जगत की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है क्योंकि ब्रह्म के दिव्य विकास के अंतर्गत उन्होंने आरोह और अवरोह इन दो गतियों की ओर संकेत किया है। ब्रह्म अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए इन्ही दोनों गतियों में चक्राकार घूमता रहता है। अवरोह के प्रमुख चार स्तर अर्थात जड़तत्व,जीवतत्व,मानस तत्व एवम अतिमानस। इसमें अतिमानस सर्वोच्च स्तर है।
जगत सृष्टि से उनका तात्पर्य था कि सबसे पहले ब्रह्म अतिमानस में अवतरित होता है फिर मानस में और अंत में जीव एवम जड़ तत्व  में अवतरित हो जाता है। उनके अनुसार जड़तत्व में भी अतिमानस अंतर्व्याप्त है। अतिमानस और ब्रह्म का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए अरविन्द ने वेदांत के कारण ब्रह्म एवम कार्य ब्रह्म का अनुकरण किया। अवरोह के बाद ब्रह्म का आरोह प्रारम्भ होता है जिसे आरोह विकास कहा गया। यह जड़ का जीव में विकास प्रस्तुत करता है। अभी तक विश्व का विकास मानव स्तर तक ही पहुंचा है।  अब इसे अतिमानस की ओर बढ़ना है। अरविन्द ने अपने दर्शन में अतिमानस के स्तर एवम उसके स्वरूप का विधिवत वर्णन किया है। अरविन्द आधुनिक वैज्ञानिकों की इस धारणा को स्वीकार करते हैं कि जड़ से प्राण तत्व उत्पन्न हुआ है और प्राण तत्व से मानस तत्व। वे इसके आगे यह भी मानते हैं कि ठीक इसी प्रकार मानस तत्व से अतिमानस तत्व प्रकट होता है। श्रीअरविन्द का विकासवाद अन्य वैज्ञानिकों की भांति भौतिक विकासवाद नहीं है बल्कि यह आध्यात्मिक विकासवाद है क्योंकि इसमें ब्रह्म अंतर्निहित है। 
श्रीअरविन्द ने अपने पूर्णयोग के द्वारा प्रकृति को अतिमानस के स्तर तक उठाने का प्रयास किया। यह उनका सर्वमुक्ति का सिद्धांत है। उन्होंने अद्वैत सत्ता में अटूट विश्वास रखा जिसके कारण वे आत्मा में अनन्तशक्ति स्वीकार करते हैं। इसके लिए उन्होंने स्वानुभूति द्वारा अतिमानस के स्तर तक पहुँचने का प्रयास किया। स्वानुभूति प्रक्रिया द्वारा उन्होंने अपने दर्शन को आध्यात्मिक विकासवाद के स्तर तक ले जाने का भी प्रयास किया। 
श्रीअरविन्द का दर्शन बौद्धिक तर्कों पर नहीं बल्कि योग की व्यावहारिक अनुभूति तथा यौगिक प्रकाश पर आधारित है। उन्होंने मानसिक ज्ञान से परे अतिमानसिक ज्ञान को स्वीकार किया तथा स्वानुभूति का तात्पर्य उन्होंने उस ज्ञान से लिया जो मानसिक या बौद्धिक ज्ञान से परे हो। चूँकि अरविन्द ने अतिमानसिक ज्ञान को स्वीकार किया है, अतः उनका दर्शन स्वानुभूतिमूलक माना गया। वैदिक परम्परा का समर्थन करते हुए उन्होंने उच्चतर मानसिक ज्ञान का मानसिक बौद्धिक ज्ञान से सम्बन्ध व्यक्त किया है। उनके शब्दों में -"वस्तुतः मनस अतिमानस का एक पतन है ,इसलिए इसका फिर उसमें उत्थान अवश्यम्भावी है जिससे यह पतित हुआ था। "अतिमानसिक स्तर पर चितशक्ति अविभाजित रहती है परन्तु मानसिक स्तर पर वह एकांतिक एकाग्रता से आत्मसंलग्न हो जाती है। श्रीअरविन्द ने बौद्धिक या मानसिक ज्ञान को परमसत्ता के साक्षात्कार के लिए उपयुक्त नहीं मानते। वे बौद्धिक ज्ञान से परे जाकर अतिमानसिक ज्ञान को प्राप्त करना ही सच्चा साक्षात्कार मानते हैं। वे कहते है --"यदि बुद्धि हमारे लिए सर्वोच्च सम्भव ज्ञान का साधन हो और अतिभौतिक सत्य तक पहुँचने का और दूसरा कोई साधन न हो तो हमारी अंतिम अभिवृत्ति एक व्यापक तथा बुद्धिसम्मत अज्ञेयवाद का होना अवश्यम्भावी है। सृष्टि की वस्तुएं कुछ अंशों तक जानी जा सकती हैं परन्तु परमतत्व और मनस के परे सभी कुछ हमेशा के लिए अवश्य अज्ञेय रह जायेगा। "श्रीअरविन्द के अनुसार ससीम बुद्धि असीम सत्ता को धारण नहीं कर सकती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बुद्धि विरोधी थे। परमसत्ता के साक्षात्कार के सन्दर्भ में उन्होंने बुद्धि को ससीम अवश्य कह दिया तथापि उसका विकल्प उन्होंने स्वानुभूति द्वारा प्रस्तुत किया। 
श्रीअरविन्द के अनुसार स्वानुभूति उच्चतर ज्ञान का तीसरा सोपान है। स्वानुभूति से उपलब्ध अतिमानसिक सत्य की झलकों की तुलना उन्होंने कठोपनिषद के शब्दों में की है। उनका कथन है _-"स्वानुभूति हमेशा ही एक उच्चतर प्रकाश की धार ,झलक या बाहरी किनारा जैसा है। हमारे अन्दर यह एक प्रक्षेपित क्षुर या धार या दूरवर्ती अतिमानसिक प्रकाश का बिंदु है। "स्वानुभूति और अतिमानस के बीच अधिमानस का स्तर स्वीकार करते हुए अरविन्द जी ने इसे अज्ञान का जनक कहा।यह सर्वात्मक चैतन्य तक पहुँचने का एक  मार्ग है। अधिमानस को उन्होंने वह चेतन सर्वगत मनस कहा जो अतिमानसिक सत्यचेतना के साथ साक्षात् सम्बन्ध रखता है। अधिमानस पूर्ण एकीकरण की क्षमता नहीं रखता।
श्रीअरविन्द के अनुसार अतिमानस में सत,चित,और आनन्द की जो अविभाज्य एकता है वह अधिमानस में नष्ट हो जाती है और यह अधिक से अधिक प्रतीयमान विभेदों को समन्वयात्मक दृष्टि से एकत्रित करके देख सकती है।  इसलिए अतिमानसिक चेतना को ही अरविन्द जी ने सर्वोच्च ज्ञान माना। इसका आविर्भाव तभी सम्भव है जबकि वह ऊपर से और साथ ही अंदर से प्रकाशित होती हो। स्वानुभूति जिस सत्य को क्षणिक झलकों से प्राप्त करती है वही शक्ति प्रदीप्त मनस में दृश्य रूपों में और उच्चतर मनस में ज्योतिर्मय विचारों में प्रकट होती है। श्रीअरविन्द का मत है कि अतिमानस चैतन्य को प्राप्त करने के लिए हमारे ह्रदय के अंतस्तल में स्थित इस अवगूढ़ आंतरिक आधार को भी विकसित करना परम् आवश्यक है। इसे वे चैत्य पुरुष कहते हैं। अतिमानस ब्रह्म से आत्मविस्तार कैसे होता है ?इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने अतिमानस को ब्रह्म का विशाल आत्म-प्रसारण बताया। प्रसारण देश और काल का सूचक है। जब वह वस्तुनिष्ठ रहता है तब उसे देश कहते हैं किन्तु  जब आत्मनिष्ठ हो जाता है तब काल कहलाता है।अतिमानस देश और काल को धारण करता है न कि उससे धृत है। इसलिए वह शाश्वत देश और शाश्वत काल को देख सकता है एवम दैशिक विभाजनों और कालिक क्रमिकताओं की एकीभूत कर सकता है। 
अतिमानस की सर्जना शक्ति को अरविन्द जी दिव्य माया कहते हैं। इसी के द्वारा वे वैविध्य के आविर्भाव को सम्भव मानते हैं। दूसरे शब्दों में इस माया द्वारा ब्रह्म विश्व में प्रक्षेपित होता है। अतएव विश्व के अधिष्ठान के रूप में वे एक ऐसे सत को स्वीकार करते हैं जो निर्विशेष परमसत न होकर इस विशेष अर्थ में सविशेष है कि वह एक मूल आत्म-एकाग्रता है।श्रीअरविन्द के पूर्णयोग का तात्पर्य उनके आध्यात्म योग या अधिमानसिक योग से है। उनका मत है कि इस योग में व्यक्ति के सर्वांगीण विकास पर अर्थात सभी शक्तियों एवम पक्षों के एक साथ विकसित होने पर बल दिया जाता है। उनका सर्वांगीण योग प्रवृत्ति एवम निवृत्ति मार्गों में एक सामंजस्यपूर्ण समन्वय प्रस्तुत करता है जिसका लक्ष्य वे ब्रह्म में लीन हो जाना नहीं मानते बल्कि वह पृथ्वी पर ही रोग, शोक,जरामरण आदि से मुक्त अमृतमय दिव्य जीवन को विकसित करने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास में वे धर्मयोग,ज्ञानयोग,भक्तियोग एवम राजयोग सभी की अनिवार्यता पर बल देते हैं। इन सभी मार्गों को वे वैदिक कहते हैं। वे इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि ज्ञान,भक्ति अथवा कर्म में से किसी एक मार्ग पर योग अंतःकरण से चलने पर अंत में अन्य दो का लाभ भी प्राप्त हो जाता है। 
श्रीअरविन्द परमसत्ता के दो स्वरूप मानते हैं ,पहला विशुद्ध सत अर्थात परात्पर ब्रह्म और दूसरा परात्पर पुरुष। ब्रह्म के इसी स्वरूप को उन्होंने अतिमानस भी कहा है क्योंकि इसी से वे सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। एकमात्र सत्य ब्रह्म से नानात्मक जगत की उत्पत्ति का उल्लेख करते हुए उनका कथन है -"ब्रह्म अपने आपको चेतना के अनेक क्रमागत रूपों में प्रकट करता है। ये रूप सत्ता में सहवर्ती या काल के अन्दर समकालीन रहते हुए भी अपने सम्बन्ध में क्रमागत रहते हैं और जीवन को भी आत्मोन्मीलन करते हुए अपने आपकी सत्ता के चिर नवीन प्रदेशों में ऊपर उठते जाना होगा। "
उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री अरविन्द प्रतीकात्मक तथ्यों की उपयोगिता का बहुत अधिक महत्व मानते हैं। यह मार्ग एक प्रकार से सगुण से निर्गुण की ओर जाने का है। वे परमसत्ता को " नेति, नेति" पद्धति से ज्ञेय बताते हैं न कि अज्ञेय। वे उसे अपने लिए स्वप्रकाश मानते हैं। उनका कथन है --"ये सत्य हमारे धारणात्मक संबोध के सामने ऐसे मूलभूत पहलुओं की तरह आते हैं जिनमें हम सर्वगत सद्वस्तु को देखते और अनुभव करते हैं। उनका स्वरूप बौद्धिक ज्ञान के द्वारा नहीं वरन एक आध्यात्मिक अनुभूति के द्वारा ही हमारी सीधी पकड़ में आता है। "
अरविन्द जी कथन है कि जिस प्रकार प्राचीनकाल में कर्म विकास के कार्यक्रम में पशु के बाद मनुष्य आया ,इसी प्रकार मनुष्य की असभ्य जाति के बाद दिव्यता वाली जाति पृथ्वी पर अवश्य आएगी अर्थात मानव की व्यर्थ चेष्टा, परिश्रम, रक्तपातऔर आंसुओं से भरी हुई परिस्थिति के अंत में दिव्य जाति प्रकट होगी। मर्त्य मन जिन बातों की अभी कल्पना ही नहीं कर सकता उन वस्तुओं का इन लोगों को ज्ञान होगा।  उनका मन्तव्य है कि जीवन में प्रकाश फ़ैलाने  का कार्य निरन्तर चालू रहना चाहये। जब तक विरोधी शक्तियां उनके घर में ही न दी जाएँ। तभी प्रकाश संसार के अवचेतन आधार पर आक्रमण के सकता है। अभी भी मनुष्य जाति के लिए आशा है कि कोई अज्ञेय शक्ति अवतरित हो सकती है। कई लोगों ने उसके पदचाप का अनुभव भी किया है। एक प्रकाश नीचे उतरकर अज्ञान को नष्ट कर देता है ,पाप पूण्य समाप्त होते हैं तब हमारे सभी शब्द सत्य की वाणी में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार देवताओं के निवास योग्य एक मन्दिर का निर्माण हो जाता है। यही पूर्णता की प्राप्ति मनुष्य जाति के लिए एक लक्ष्य है। एक मनुष्य की परिपूर्णता से मानवीय क्षेत्र में ईश्वरीय शिविर स्थापित हो जाता है। आगे उन्होंने कहा कि हमें संसार की क्रियाओं से अलग हटकर अपने आप में आना होगा। अंतर्मुखी ठकर बाह्य विषयों से दूर रहना होगा। इन्द्रियाँ जिस चीज के लिए तरसा करती हैं उनके बिना सुख पूर्वक रहने में समर्थ होना ,सच्चे आध्यात्मिक जीवन की पहली शर्त है। परमलक्ष्य तो है आत्मा का स्वातन्त्र्य जिसमें जीव सब धर्मों का परित्यागकर कर्म के अपने एक मात्र विधान के लिए परमेश्वर की ओर मुड़ता है और सीधे संकल्प द्वारा कर्म करता है और दिव्य प्रकृति के स्वातन्त्र्य में निवास करता है। 
अरविन्द जी का मानना है कि सर्वात्मा परमप्रभु के सम्मुख पूर्ण आत्मसमर्पण आवश्यक है। अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं एवं योजनाओं को छोड़कर सर्वथा प्रभु पर निर्भर हो जाना ,जिसमें वह दिव्य चेतनसत्ता व्यक्ति में उतर सके और अपना कार्य विधिपूर्वक हो सके। 
श्री अरविन्द की योगप्रणाली :-  
श्री अरविन्द ने जिस योगप्रणाली का प्रचार किया वह पहले से प्रचलित योगप्रणालियों से कितनी ही बातों में बिलकुल नवीन थी। उनका कथन है -"वैदिक काल में योग का आशय यह था कि उसकी सहायता से मनुष्य अपने स्वाभाविक जीवन का अधिक विकास कर सके ,पर मध्यकाल में उसे केवल गृहत्यागी साधु -सन्यासियों के काम की चीज बना दिया गया। " उनके मतानुसार हमारा समस्त जीवन योग ही है चाहे हम उसे समझकर करें और चाहे बिना समझे क्योंकि इस शब्द से हमारा तात्पर्य यही होता है कि मनुष्य अपनी सोई हुई शक्तियों को जग सके और उसकी सहायता से आत्म-परिपूर्णता की ओर अग्रसर हो सके। उन्होंने अपने पूर्णयोग का विस्तृत विवेचन आर्य मासिक पत्रिका में किया था जिसमे योग का लक्ष्य मानव-चेतना के स्वरूप को बदलना बताया गया था। मानव-चेतना को देवचेतना के रूप में परिवर्तित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी सम्पूर्ण शक्तियों का प्रयोग किया जाये अर्थात ज्ञान,कर्म और भक्ति इन तीनों को  समन्वय की स्थिति में लाया जाये। इस प्रकार के सर्वांगीण विकास के लिए उद्योग करना ही जीवन का उद्देश्य है। साथ ही यह मनोवैज्ञानिक सत्य भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हर व्यक्ति की ज्ञान,कर्म और भक्ति में से किसी एक में विशेष रूचि होती है। इस रूचि या प्रवृत्ति का पूरा उपयोग करना चाहिए। इसको लेकर वह अपनी साधना आरम्भ करे और उसे आगे बढाये परन्तु सम्पूर्ण चेतना के रूपान्तर के लिए उसे दूसरे अंगों को भी विकसित करना होगा। ऐसा न करने से उसकी विशेष प्रवृत्ति में भी अपूर्णता रह जाएगी। उदाहरणार्थ किसी भक्त का भक्तिभाव तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता जब तक वह शुद्धज्ञान के क्षेत्र में भी प्रगति न कर लेगा। 
श्री अरविन्द जी का योग विशेष रूप से मनोवैज्ञानिक है। साधना के सिद्धांत तो सबके लिए एक से ही है किन्तु किसके लिए -किस समय अथवा किस अवस्था में ,कैसी साधना उपयोगी है ,यह प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक विकास और स्थिति पर निर्भर है। श्री अरविन्द जी यहीं पर गुरु की आवश्यकता को अनिवार्य मानते हैं। साधना और योग में पुस्तकें पढ़कर इसीलिए सफलता नहीं मिलती कि इनके क्रमभेद बड़े सूक्ष्म हैं। अवस्था और व्यक्ति के भेद से इनके क्रम में भेद करना आवश्यक होता है। श्री अरविन्द जी कहा है -"वास्तव में योगी का गुरु परमात्मा है ,पर विशेष व्यक्तियों को छोड़कर सामान्यतया साधक के लिए शरीरधारी गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु अपने आत्मबल से सूक्ष्म रूप में साधक को आत्म -जिज्ञासा को जाग्रत करता है और अपने उसी सूक्ष्म प्रभाव से उसे भिन्न भिन्न परिस्थितियों में से गुजरते हुए चेतना के मार्ग पर अग्रसर करता है। साधारणतया योग का उद्देश्य समाधि अवस्था और उसका आनन्द माना जाता है। भारतवासियों की वर्तमान धारणा के अनुसार इसके लिए संसार का त्याग आवश्यक समझ जाता है। केवल गीता ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसने इस मत को स्वीकार न करके संसार को ही आध्यात्मिकता का वास्तविक क्षेत्र माना है। अरविन्द जी भी प्रत्येक व्यक्ति को योग का अधिकारी मानते हैं और कहते हैं कि "एक समय आएगा जब समग्र मानवजाति की चेतना विकसित होकर वर्तमान की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च स्तर को प्राप्त कर लेगी। श्री अरविन्द की योगप्रणाली के तीन मौलिक अभ्यास हैं -पहली अभीप्सा,दूसरी परित्याग,और तीसरी आत्मोद्घाटन। श्री अरविन्द के अनुसार योग का उद्देश्य वास्तव में शरीर,मन और आत्मा को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है जिससे वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपना सन्तुलन स्थिर रख सकें।  
                        स्थावरं जगंव्यापतं यदकिञ्चित सचराचरम। 
                         तत्पदं  दर्शनं  येन  तस्मै  श्री  गुरुवे  नमः।