Saturday, August 6, 2016

रामकृष्ण परमहंस

सर्वधर्म समन्वयक एवं मानवीय मूल्यों के पोषक, भारतवर्ष के महान सन्त रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८ फरवरी १८३६ ई० को पश्चिम बंगाल राज्य के कामारपुकुर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम खुदीराम और माता का नाम चन्द्रमणी देवी था। माता  पिता लाड़ प्यार में इन्हें गदाधर के नाम से पुकारा करते थे। गदाधर पुकारने के संदर्भ में एक प्रसंग यह था कि इनके पिता ने एक दिन स्वप्न में यह देखा था कि भगवान विष्णु उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे और इनकी माता ने भी शिव मंदिर में पूजा के दौरान अपने गर्भ में एक अलौकिक प्रकाश को प्रवेश करते हुए देखा था। अतः बालक के जन्म के बाद उन्होंने उसका नाम गदाधर रख दिया। सात वर्ष की अल्पायु में ही इनके पिता का स्वर्गवास हो गया जिसके फलस्वरूप इनका बचपन कठिनाइयों में व्यतीत हुआ। इनके बड़े भ्राता श्री रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता के एक विद्यालय में सहायक अध्यापक थे अतः उन्होंने गदाधर को अपने पास ही ले आये। गदाधर बचपन से ही सहज ,विनयशील एवं प्रतिभावान थे किन्तु उनका मन पढाई लिखाई से विरक्त होने लगा था। सन् १८५५ ई०  में जब इनके भ्राता को दक्षिणेश्वर काली मन्दिर में मुख्य पुजारी का दायित्व मिल गया तब उन्होंने गदाधर को भी अपने साथ ले आये और उसी मंदिर में कालीमाता की प्रतिमा की साजसज्जा व सफाई आदि  कार्यों में लगा दिया। सन् १८६६ ई०भाई रामकुमार की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण ने उसी मंदिर के मुख्य पुजारी का कार्यभार संभाल लिया। एक दिन मंदिर में ही उन्होंने माता काली को अखिल ब्रह्माण्ड की माता के रूप में दर्शन किया। इस दर्शन का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया :--"घर, द्वार व मन्दिर सब कुछ अदृश्य हो गया ,जैसे कहीं कुछ भी नहीं था। मैंने एक अनन्त आलोक का सागर देखा। यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में मैंने दूर दूर तक देखा बस उज्जवल लहरें ही दिखाई पड़ीं जो क्रमशः मेरी ओर आ रहीं थीं। " इस घटना के बाद लोगों ने यह अनुमान लगाया कि सम्भवतः रामकृष्ण का मानसिक सन्तुलन ठीक नहीं है अतः उनकी माता व दुसरे बड़े भाई रामेश्वर ने इनका विवाह कराने का निर्णय ले लिया। रामकृष्ण को जब यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने अपने गाँव से ३ किलोमीटर की दूरी पर रह रहे श्री राम चन्द्र मुखर्जी की ५ वर्षीय कन्या से विवाह का सुझाव दिया। रामकृष्ण की २३ वर्ष की आयु में रामचन्द्र मुखर्जी की पुत्री शारदामणि से विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के बाद रामकृष्ण पुनः दक्षिणेश्वर मंदिर आ गये और १८ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर शारदामणि को भी अपने साथ ले आये। पत्नी को साथ ले आने पर भी वे एक सन्यासी का ही जीवनं जी रहे थे।उनका मानना था कि गृहस्थाश्रम एक तरह का किला है और किले में बैठकर शत्रु से युद्ध सुगमता से किया जा सकता है।  इसी बीच एक भैरवी ब्राह्मणी ने वहीं पर इन्हें तंत्र की विधिवत दीक्षा दी। धीरे धीरे स्वामी जी की ख्याति उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यास एवं सिद्धियों के कारण दूर दूर तक फैलने लगा। इसी बीच इनकी भेंट स्वामी दयानन्द जी से कलकत्ता में ही हुई और इस भेंट के पश्चात रामकृष्ण ने कहा :-"दयानन्द से भेंट करने गया तब मैंने ऐसा देखा कि उन्हें थोड़ी बहुत शक्ति प्राप्त हो चुकी है। उनका वक्षस्थल सदैव आरक्त दिखाई पड़ता था। रातदिन लगातार शास्त्रों पर ही चर्चा करते थे। अपने व्याकरण ज्ञान के आधार पर उन्होंने अनेक शस्त्र वाक्यों के अर्थ में उलटफेर कर दिया है। मैं ऐसा करूंगा ,मैं अपना मत स्थापित करूँगा। ऐसा कहने में उनका अहंकार दिखाई पड़ता है। "
उस समय आर्य समाज और ब्रह्म समाज दोनों बड़े ही प्रबल सांस्कृतिक आंदोलन बन गए थे किन्तु उनकी कमजोरियों ओर रामकृष्ण जी ने सर्वप्रथम  इंगित किया। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द बालब्रह्मचारी ,निरीह सन्यासी ,प्रचण्ड तार्किक और उदभट विद्वान थे किन्तु संतों की नम्रता और निरहंकार नहीं था। ब्रह्मसमाज में तार्किकता अधिक नहीं थी किन्तु ब्रह्मसमाजी अपने को जितना भक्तविह्वल दिखना चाहते थे वस्तुतः वैसा था नहीं। ब्रह्मसमाजियों  की भक्ति ज्ञान की नोक से उठायी हुई वस्तु जैसे थी। ब्रह्मसमाजियों का उद्देश्य समाज सुधार था किन्तु उन्होंने आश्रय धर्म का लिया था।
दयानन्द ,राममोहन एवं केशवचन्द्र सेन से रामकृष्ण अनेक बैटन में भिन्न थे। दयानन्द भारतीय परम्परा के प्रकांड पंडित और अंग्रेजी भाषा के भी ज्ञानी थे। चूंकि रामकृष्ण जी अधिक पढ़े लिखे नहीं थे.अंग्रेजी व संस्कृत का ज्ञान उन्हें बिलकुल नहीं था और वे अपनी बात कहने के लिए कभी भी आश्रम से बाहर नहीं जाते थे और न ही उन्होंने कभी हिन्दू धर्म को खतरे में बताया। पंडित और संत में यही भेद होता है जो ह्रदय और बुद्धि में। बुद्धि जहां परास्त हो जाती है ,ह्रदय वहां सहजता से प्रविष्ट हो जाता है। विद्या व ज्ञान समुद्र से उठती हुई तरंगों की तरह हैं किन्तु अनुभूति समुद्र के अंतराल में बस्ती है। अनुभूति का एक पल ज्ञान से बहुत अधिक मूल्यवान माना जाता है। रामकृष्ण जी अनुभूतियों के सिद्धस्थ संत थे। इसीलिए उनमें समस्त ज्ञान स्वयं प्रविष्ट हो गया था। उनके अनुसार धर्म अनुभूति का विषय है और भारतवासी धर्मात्मा उसी को मानते हैं जिसने धर्म के महासत्वों को केवल जाना ही नहीं बल्कि उनकी अनुभूति कर उनसे साक्षात्कार भी किया। स्वामी रामकृष्ण के आगमन से धर्म की यही अनुभूति प्रकट हुई और उन्होंने अपनी जीवन शैली से यह बता दिया कि धार्मिक सत्य केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं बल्कि वह प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है और उनके सामने संसार की समस्त धन सम्पदायें ,तृष्णायें ,सुखभोग आदि तृणवत व नगण्य हैं। जब हिन्दू ईसाई और मुस्लिम धर्म के आस्तिक व नास्तिक दोनों आपस में लड़ रहे थे कि किसका धर्म उत्तम है तब रामकृष्ण जी विश्व को यह संदेश रहे थे कि:"धर्म को शास्त्रार्थ का विषय मत बनाओ सम्भव हो तो उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए प्रयास करो। सभी धर्म एक ही ईश्वर की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं। "स्वामी जी ने कथनी और करनी में से करनी को सदैव प्राथमिकता प्रदान की और अपने उपदेश को उन्होंने अपने जीवन में उतारकर उसकी सत्यता को प्रमाणित किया। उन्होंने इस्लाम व ईसाइयत धर्म की साधना कर उसकी गहराइयों को भी जाना। साधन के मार्ग अनेक हैं उनमें से किसी एक को चुना  जा सकता है। प्रतिष्ठा मार्ग से नहीं बल्कि अनुभूति से होती है। जब अनुभूति की गहराईयां प्राप्त हो जाती हैं तो जातिगत व धर्मगत भेद स्वयं समाप्त हो जाता है ,ऐसा स्वामी जी मानना था। रामकृष्ण उस ऊँचाई के साधक जहां से सभी धर्म ,सत्य व मनुष्य उन्हें एक समान दिखाई पड़ते थे और जहां विवाद और शास्त्रार्थ की अनुगूँज नहीं होती ,जहां धर्म और राजनीति की गंध नहीं होती, ऐसे मार्ग के अनुयायी थे स्वामी रामकृष्ण जी। आजीवन वे बालकों की तरह सरल व निश्छल बने रहे और आजीवन उस मस्ती में डूबे रहे जिसके दो चार छीटों से जन्म जन्म की तृष्णा शांत हो जाती है। आनन्द उनका धर्म ,अतीन्द्रिय रूप का दर्शन उनकी पूजा ,और विरह उनका जीवन था। उनका व्यक्तित्व ऐसा था जो जीवन के अंतिम सत्य एवं अतीन्द्रिय वास्तविकता के उत्स के आमने सामने खड़ा होता था। उनके समकालीन अन्य सुधारक और सन्त पृथ्वी के वासी थे और पृथ्वी से ही वे ऊपर की ओर उठे थे किन्तु रामकृष्ण दैवी अवतार की भांति इस प्रकार आये कि मानो पृथ्वी पर कोई स्वर्ग की किरण भटककर आ गई हो। दृश्य की ओर से चलकर दयानन्द व केशवचन्द्र सेन ने जिस सत्य की ओर संकेत किया था ,अदृश्य की ओर से आकर रामकृष्ण ने उस सत्य को अपने जीवन में साकार कर दिखा दिया। पांच हजार वर्ष प्राचीन धर्मसाधना रुपी लता पर रामकृष्ण प्रथम पुष्प बनकर खिले और उन्हें देखकर लोगों में  फिर से वही विश्वास दृढ हो गया कि भारत में धर्म की अनुभूति जगाने वाले जिन ऋषियों और सन्तों की कथाएं सुनी जाती हैं ,वे असत्य व काल्पनिक नहीं हैं।
स्वामी रामकृष्ण ने महाकाली के नामस्मरण मात्र को अपनी साधना माना। दक्षिणेश्वर की कुटी में एक चौकी पर बैठकर वे उस धर्म का आख्यान करते थे जिसका आदि अन्त अतीत की गहराईयों में डूबा हुआ है और जिसका अंतिम छोर भविष्य के गह्वर की ओर फ़ैल रहा है। घर बैठे ही उन्हें गुरु भी मिलते गए। अद्वैत साधना उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली थी जो स्वयं उनकी कुटी में आये थे। तन्त्र साधना उन्होंने एक भैरवी से पाई थी जो स्वयम घूमते हुए उनके पास आ गए थे।इस्लामी साधना के गुरु श्री गोविन्द राय थे जो हिन्दू से मुसलमान बन गए थे। इसी प्रकार ईसाईयत की साधना उन्होंने शम्भु चरण मलिक के साथ की थी जो ईसाई धर्म के ज्ञाता थे। इन सभी साधनाओं में लीन होकर धर्म के गूढ़ रहस्यों की छानबीन करते हुए भी मां काली के चरणों में उनका विश्वास अटल रहा। जैसे एक अबोध बालकस्वयं अपनी चिंता नहीं करता उसी प्रकार रामकृष्ण अपनी परवाह कभी नहीं करते थे ,जैसे बालक प्रत्येक वस्तु की याचना अपनी मां से करता है ठीक उसी प्रकार स्वामी जी मां काली से ही माँगा करते थे और उनकी आज्ञा लेकर ही प्रत्येक कार्य करते थे। जब तोताराम जी ने स्वामी जी से पूंछा था कि क्या तुम अद्वैत साधना करोगे ? तब स्वामी जी ने कहा था कि मां काली से पूँछकर बताता हूँ। तोताराम जी ने समझा था कि इसकी कोई माता होगी। अतः उन्होंने प्रतीक्षा किया और जब स्वामी जी मंदिर से वापस आकर उन्हें बताया कि हाँ ,आज्ञा मिल गई है , तब तोताराम इस रहस्य को जान पाए थे क़ि मां काली की प्रतिमा में उनकी कितनी आस्था थी ?  
स्वामी जी जितेन्द्रिय थे और हिन्दूधर्म की प्रत्येक गहराईयों से भिज्ञ भी थे। सिर से पाँव तक वे आत्मज्योति से प्रकशित रहते थे। आनन्द ,पवित्रता और पुण्य की प्रभा हमेशा उनको घेरे रहती थी और वे रातदिन परमार्थ चिन्तन में ही निमग्न रहते थे। सांसारिक सुख ,समृद्धि यहां तक कि सुयश का भी उनके सामने कोई अस्तित्व नहीं था। साधना करते हुए उन्होंने अपने शरीर को इतना शुद्ध कर लिया था कि वह ईश्वरत्व का एक निर्मल यंत्र बन गया था और सांसारिकता के स्पर्श मात्र से उसमें विचित्र प्रक्रियाएं उत्पन्न होने लगतीं थीं। द्रव्य के प्रति यह वितृष्णा उनमें बढ़ती ही गई और अंत समय तो ऐसा भी आया कि हाथ में कपड़ा लपेटे बिना वे कांसे के बर्तन को भी नहीं छू सकते थे। निदान उनका मिटटी के बर्तन में ही चलने लगा था। उन्होंने पत्नी को अपने साथ रहने की अनुमति दे दी थी और साधना के मार्ग पर उन्हें भी आगे बढ़ाया। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि नारी के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण था ? 
स्वामी जी अदभुत गुणों एवं दैवीय व्यक्तित्व से आकृष्ट होकर हमेशा लोग उनको घेरे रहते थे। इनमें से कुछ युवक भी रहते थे जो स्वामी जी की शक्तियों की पहचान करने हेतु आते थे किन्तु स्वामी जी न तो कभी किसी चमत्कार का प्रदर्शन किया करते थे और न ही वाद विवाद द्वारा किसी प्रकार के विवाद को हल करने की चेष्टा करते थे। उनका सम्पूर्ण जीवन ही उन्मुक्त ग्रन्थ था और धर्म के लक्षण वे मुख से नहीं बल्कि अपने आचरणों से बताते थे। स्वामी जी लगभग अपढ़ थे किन्तु गहन साधना के कारण वे उस मूल उत्स पर पहुँच गए थे जहां से सभी ज्ञान उठकर ऊपर आते हैं ,जहाँ से दर्शनों की उत्पत्ति और धर्मों का ज्ञान होता है। इसीलिए उनके उपदेश विद्वान और मूर्ख सभी के लिए समान रूप से ग्राह्य थे। उनके वचनामृत की धाराजब कभी फूटती थी तब बड़े  तार्किक अवाक् हो जाते थे। केशव चन्द्र सेन से एक बार रामकृष्ण जी ने कहा कि ,केशव तू अपनी वक्तृता के द्वारा सभी को हिल देता है ,मुझे भी तो कुछ बता। केशवचन्द्र इस पर नम्रता से बोले "मैं क्या लोहार की दूकान में सुई बेचने जाऊं। आप ही कहते जाएँ ,मैं सुनूँगा। आपके ही श्रीमुख की दो चार बातें मैं लोगों को बताता हूँ जिन्हें सुनकर वे गदगद हो। "
 स्वामी जी की विषय प्रतिपादन की शैली वही थी जिसका आश्रय प्राचीन ऋषियों मुनियों व सन्तों ने लिया था तथा जो परम्परा से भारतीय सन्तों के उपदेश की पद्धति रही है। वे तर्कों का सहारा कम लेते थे ,जो भी समझना होता था उसे उपमाओं और दृष्टान्तों से समझते थे। देह और आत्मा दो भिन्न वस्तुएं हैं इस सिद्धांत को समझाते हुए वे कहते हैं कि "कामिनी कांचन की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाये तो देह अलग है और आत्मा अलग है ,यह स्पष्ट रूप से दिखने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा उसकी नरेरी से अलग हो जाता है और वे दोनों अलग अलग दिखने लगते हैं ,जैसे म्यान के भीतर रखी हुई तलवार के विषय में कह सकते हैं कि म्यान और तलवार दोनों भिन्न चीजें हैं ,वैसे ही देह और आत्मा के बारे में जानो। "
प्रतिमा पूजन का ईश्वर साधना में उपयोगिता व महत्व के बारे में वे बताते हैं कि जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है उसी तरह प्रतिमा से ईश्वर की याद आती है। माया ईश्वर की शक्ति है और वह ईश्वर में ही बसा करती है। तब क्या ईश्वर भी हमारे समान ही मायाबद्ध है ?इस गुत्थी को सुलझाने हेतु वे कहते हैं 'अरे नहीं ,रे भाई वैसा नहीं है। यही देखो न ,सर्प  के मुख्य में हमेशा विष रहता है किन्तु उसी मुख्य से वह हरदम खता पीता है ,पर वह स्वयं उस विष से नहीं मरता है। " 
मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है। इस शिक्षा को उन्होंने इस प्रकार समझाया था :-"मनुष्य मानो केवल तकिए का गिलाफ है। गिलाफ जैसे भिन्न भिन्न रंग और आकार के होते हैं वैसे ही मनुष्य भी कोई कुरूप ,कोई साधू और कोई दुष्ट होता है। बस इतना ही अंतर है पर जैसे सभी गिलाफ में एक ही पदार्थ है कपास ,वैसे ही सभी मनुष्यों में वाही एक सच्चिदानन्द भरा हुआ है। ईश्वराधना का व्यवहारिक भाग बताते हुए वे कहते हैं कि "जब तुम काम करते हो तो एक हाथ से काम करो और एक हाथ से भगवान के पांव पकड़े रहो। जब काम समाप्त हो जाये तब भगवान के चरणों को दोनों हाथ से पकड़ लो।" संकल्प शुद्धि के लिए उनका उपदेश था कि अभागा मनुष्य ही यह मानता है कि मैं पापी हूँ। ऐसा सोचते सोचते वह पापी हो भी जाता है। "स्वामी जी प्रायः वाद विवाद व तर्क से घबराते थे। उनके ही शब्दों में :"शास्त्रार्थ को मैं नापसन्द करता हूँ। ईश्वर शास्त्रार्थ शक्ति से परे है। मुझे तो प्रत्यक्ष दीखता है कि जो कुछ है वह ईश्वरमय है। फिर तर्कों से क्या फायदा ?बगीचों में तुम आम खाने जाते हो न कि पेड़ों के पत्ते गिनने। फिर मूर्ति पूजा ,पुनर्जन्म और अवतारवाद को लेकर यह विचार क्यों चलता है। बुद्धि का तो वे अविश्वास करते ही थे ,सहज ज्ञान पर ही उनकी अविचल श्रद्धा थी। सहज ज्ञान के द्वारा बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण किया जाता है किन्तु बुद्धि के परे की अनुभूतिवाली भूमि में सहज ज्ञान की भी आवश्यकता रहती है।तब तो ईश्वरीय कृपा का ही एकमात्र प्रकाश बच जाता है। इसीलिए वे कहा करते थे कि पाँव में एक छोटा सा काँटा चुभ जाये तो दूसरे काँटे से ही उसे निकालना पड़ता है किन्तु कांटे के निकल जाने पर तो दोनों काँटों को फेंक ही देना चाहिए। जातिभेद के सम्बन्ध में वे कहा करते थे कि ताड और खजूर को देखो न। आरम्भ में कितने पत्ते लिए रहते हैं किन्तु उनके खूब बढ़ जाने पर क्या होता है ? व्यर्थ के सारे बोझ झड़ जाते हैं और कुछ थोड़े से ही पत्ते रह जाते हैं।स्वामी जी का कथन है कि गृहस्थाश्रम एक तरह का किला है ,किले में बैठकर शत्रु से युद्ध सुगमता से किया जा सकता है।  आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं है  .नम्रता से देवता भी इंसान के वश में आ जाता है। इनके अनुसार जो संसार में वासनाओं की जीत ले वही पुरुष है। ऋषियों का धर्म ,सनातन धर्म अनन्त काल से है और आगे भी रहेगा। इस सनातन धर्म के भीतर निराकार,साकार सभी प्रकार की पूजाएं होती है। देवी भक्त धर्म मोक्ष दोनों ही प्राप्त करता है और फिर अर्थ काम भी भोग करता है। उनका कथन है कि विदयारूपिणी स्त्री वास्तव में सहधर्मिणी है। वह स्वामी के ईश्वर -पथ में जाने में विशेष सहायता करती है। एक दो बच्चे होने के बाद दोनों आपस में भाई बहन की तरह रहते हैं। दोनों ही ईश्वर के भक्त हो जाते हैं - दास तथा  दासी। उनकी गृहस्थी विद्या की गृहस्थी है। ईश्वर और भक्तों को लेकर सदा आनंद मनाते हैं। वे जानते हैं कि ईश्वर ही एकमात्र अपना है किन्तु थोड़ी साधना करना आवश्यक है। गुरु ही सब करते हैं किन्तु अंत में थोड़ी साधना करवा लेते हैं। अतः निष्काम होकर पुकारना चाहिए किन्तु सकाम भजन करते हुए निष्काम हो जाना पड़ता है।  
स्वामी जी एकबार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की प्रशसा करते हुए कहा था कि पक्का विद्वान कभी भी अहंकार नहीं दिखाता। आलू सिद्ध होने पर नरम ही हो जाता है। ऐसा व्यक्तित्व का धनी  था वह मनुष्य जिसने भाषण और वक्तव्य दिए बिना तथा सभा सम्मेलन में शास्त्रार्थ किये बिना केवल अपने आचरण और अपनी अनुभूतियों से यह सिद्ध कर दिया था कि हिन्दुत्व को केवल वेद  उपनिषद ही नहीं बल्कि वह रूप भी सत्य है जिसका आख्यान पुराणों एवं सन्तों के जीवनियों में मिलता है। रामकृष्ण जी के भीतर से हिन्दुत्व ने अपनी रक्षा सभी धर्मों को पछाड़कर नहीं किया प्रत्युत उन्हें अपना बनाकर की। हिन्दुत्व ,इस्लाम और ईसाईयत पर  श्रद्धा एक समान थी क्योंकि बारी बारी से सबकी साधना करके उन्होंने एक ही सत्य का साक्षात्कार किया था। रामकृष्ण जी अपने जीवनकाल में ही प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी किन्तु उनके शरीर त्याग का पश्चात तो उनके उपदेशों को स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व में इस प्रकार फैलाया कि संसार के कोने कोने में उनका नाम गूँज गया। उनकी जीवनी मैक्समूलर ने लिखी थी फिर उनका जीवन चरित्र रोम्याँरोला ने प्रकाशित करवाया था। महात्मा गांधी जी  ने स्वामी जी के सम्बन्ध में कहा था कि रामकृष्ण जी की जीवनी व्यवहार में आये हुए जीवित धर्म की एक कहानी है।
  १६ अगस्त सन् १८८६ ई० को प्रातःकाल स्वामीजी ने तीन बार मां काली का नामस्मरण करते हुए  अपने नश्वर शरीर को त्यागकर महासमाधि लेकर आत्मलीन हो गए। उनके द्वारा चलाये गए आध्यात्मिक आंदोलन ने अप्रत्यक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाने का काम किया। स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने गुरु रामकृष्ण जी के आदर्शों को जन जन तक पहुंचाने के लिए दलितों की सेवा हेतु रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। आज भी यह संस्था लोकसेवा के कार्य में संलग्न है जिसका मूलमंत्र है "मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है।"अपनी मृत्यु के पूर्व उन्होंने एक दिन अपने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा था --नरेंद्र मैं इन सबको तुम्हारे सहारे छोड़कर जा रहा हूँ। अब आगे का कार्य तुम्हें ही सम्भालना है। उनका कहना कि आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं है। बराबर आगे बढ़ने पर मंजिल मिल जाती है। नम्रता से देवता भी इंसान के वश में आ जाते हैं। जो संसार में रहकर वासनाओं को जित ले वही पुरुष है। मैं और मेरा अज्ञान  है तुम और तुम्हारा  यह ज्ञान है। ऋषियों का धर्म, सनातन धर्म अनंतकाल से है और रहेगा। इस सनातन धर्म के भीतर निराकार ,साकार सभी प्रकार की पूजाएं हैं। ज्ञानपथ,भक्तिपथ सभी हैं अन्य जो भी सम्प्रदाय हैं वे आधुनिक हैं। कुछ दिन रहेंगे फिर मिट जायेंगे।   
          यद सत्येन जगत सत्यं यददर्शेन भासयति। 
           यदानन्देन  नन्दन्ति  तस्मै  श्री गुरुवे नमः। 

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