Saturday, August 6, 2016

दयानन्द सरस्वती


  जीवन- वृतान्त :--
स्वामी दयानन्द सरस्वती के वास्तविक जन्मस्थान व जन्मतिथि आदि के सम्बन्ध में विद्वानों में काफी मतभेद है। पण्डित लेखराज के अनुसार इनका जन्म गुजरात प्रान्त के टनकारा गाँव के एक जमींदार औदीच्य ब्राह्मण श्री करसन तिवारी के यहां सन १८२४ ई में हुआ था। इनका बचपन का नाम मूलशंकर था। पांच वर्ष की अल्पायु में इन्हें देवनागरी लिपि का ज्ञान प्रारम्भ कर दिया गया था तथा आठवें वर्ष में यज्ञीपवीत संस्कार सम्पन्न कराया गया था। दसवें वर्ष में वे पार्थिव शिव की पूजा करने लगे थे। पिता ने इन्हें संस्कृत व्याकरण व वेदपाठ सीखना आरम्भ किया जिसके फलस्वरूप वे १४ वर्ष की आयु में यजुर्वेद संहिता कण्ठस्थ कर लिया। महाशिवरात्रि के पर्व पर इन्हें यह आभास हुआ की एक दिन व्रत रखकर तथा पाषाण प्रतिमा पर वेलपत्र व फूल आदि चढ़ा देना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि दूसरो के उपकार के लिए स्वयम तथा अपने सर्वस्व को अर्पित कर शिवभक्त बनना उद्देश्य होना चाहिए। इसका असर बालक मूलशंकर के मन पर इस प्रकार पड़ा कि उन्होंने अपने पिता से मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में अनेकों प्रश्न कर डाले। सन १८३८ ई में उनकी बहन विशूचिका की १४ वर्ष की अल्पायु में हैजा से मृत्यु हो गयी थी। इस घटना का गहरा प्रभाव उनके मन पर पड़ा और वे शिव की पाषाण मूर्ति की पूजा के सम्बन्ध में अपने पूर्व के विचारों पर मंथन करने को विवश हो गए। इसी घटना ने उन्हें वैराग्य की ओर उन्मुख कर दिया। १८ वर्ष की अवस्था में अपने चाचा की आकस्मिक मृत्यु ने उन्हें और अधिक झकझोर दिया जिसके कारण मृत्यु के रहस्य के प्रति उनकी जिज्ञासा दृढ हो गयी। इसके बाद वे गुपचुप ढंग से लोगों से अमरत्व के उपायों को जानने का प्रयास करने लगे। किसी ने उन्हें बताया कि योगाभ्यास से ऐसा सम्भव हो सकता है। इन्हीं अन्तर्द्वन्दों के मध्य उन्होंने घर परिवार छोड़ने का निश्चय कर लिया किन्तु यह बात जब उनके पिता को ज्ञात हुई तब उन्होंने उन्हें ऐसा  रोकने का भरपूर प्रयास किया और उनका विवाह करने का भी निर्णय ले लिया।  विवाह की बात पर उन्होंने अपने मित्रो के माध्यम से इसे कुछ दिन स्थगित रखने का सन्देश पिता को भिजवा दिया।
कुछ दिन पश्चात गांव से तीन कोस की दूरी पर रह रहे एक वृद्ध पण्डित के घर वे अध्ययन के लिए चले गए और वहीं से उन्होंने अपने विवाह न करने के संकल्प से पुनः पिता को अवगत कराया किन्तु जब पिता इनका विवाह कराने की तैयारी करने लगे तो मूलशंकर ने विक्रम सम्वत १९०३ की सायंकाल गृहत्याग कर दिया। घर त्यागकर वे ८ मील की दूरी पर स्थित एक गांव में रात्रि व्यतीत की और दूसरे दिनअन्य गांव के एक हनुमान मन्दिर में रात्रि बितायी। इसी दौरान उन्हें कुछ ठग साधु मिले जिन्होंने उन्हें यह परामर्श दिया कि वैराग्य के लिए शरीर पर धारण किये गए वस्त्र एवम आभूषण का त्याग करना पड़ेगा तब मूलशंकर ने तत्काल अपने वस्त्र और आभूषण उन साधुओं को अर्पित कर दिया और आगे चलकर वे सायला नामक ग्राम के लाल भक्त नामक वैष्णव साधु के यहां पहुँच गए और उन्हीं से नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ले ली। यहां उन्हें ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य की संज्ञा प्राप्त हुई और वे कमण्डल धारणकर योगसाधना में तत्पर हो गए। अन्य साधुओं के साथ वे यहां से अहमदाबाद के निकट कांगड़ा पहुँच गए। तीन माह बाद सरस्वती के तट पर स्थित सिद्धपुर के कार्तिक मेले में पहुंचकर किसी उच्चकोटि के की तलाश करने लगे। सिद्धपुर के नीलकण्ठ महादेव मन्दिर में जहां अन्य साधु भी ठहरे थे ,वहीं पर वे भी रहने लगे। मेले में जिस भी योगी की चर्चा सुनते वे तुरन्त जाकर उसके उपदेश सुनते। किसी वैरागी ने उनके सिद्धपुर में होने की सूचना उनके पिता तक पहुंच दी। मूलशंकर के पिता चार सिपाहियों के साथ सिद्धपुर आ गए और उन्हें साधुवेश में देखकर अत्यधिक क्रोधित हुए तथा उन्हें कठोर वचन भी कहते हुए माता के मरणासन्न होने की बात बताई। भयवश मूलशंकर पिता के चरणों में गिर गए और उनसे क्षमायाचना करने लगे। क्रोध में आकर पिता ने उनके साधुवेश के कपडे भी फाड़ डेल और नए वस्त्र देकर उन्हें अपने साथ घर ले आये।
वहाँ से घर वापस आने पर पिता ने उन्हें रातदिन निगरानी में रखने लगे और सिपाहियों का कड़ा पहरा लगा दिया। मूलशंकर के मन में वैराग्य की भावना उन्हें विह्वल कर रही थी अतः एक दिन रात्रि के तीसरे पहर में जब सभी सिपाही गहरी निद्रा में थे ,तब वे चुपके से निकले और एक पेड़ पर चढ़कर उसी के निकट स्थित मन्दिर की छत पर पहुँच गए। सारा दिन उसी मन्दिर की छत पर बैठे रहे क्योंकि सिपाही उनकी तलाश कर रहे थे। रात्रि में वे मन्दिर की छत से नीचे उतरे और दो कोस दूर स्थित एक गांव जा पहुंचे। वहां से वे अहमदाबाद होते हुए बड़ोदरा पहुँच गए जहां उन्हें कुछ शांकर मत के वेदांती सन्यासियों का सानिध्य प्राप्त हो गया और वहीँ उन्होंने नववेदांत स्वीकार कर लिया।
धर्म तत्व की विवेचना :-
 एक दिन उन्हें यह ज्ञात हुआ कि नर्मदा के तट पर साधुओं की एक वृहत गोष्ठी आयोजित होने वाली है अतः वे उसमें भाग लेने हेतु चाणोद करनाली चले गए और यहां पर उनकी भेंट स्वामी सच्चिदानंद नामक एक सन्यासी से हुई और उनसे विस्तारपूर्वक चर्चा का अवसर उन्हें मिल गया। चर्चा के बाद वे स्वामी परमानंद परमहंस के निकट आकर वेदांतसार तथा वेदांत परिभाषा आदि शांकरमत के ग्रन्थों का सम्यक अध्ययन किया। यहीं पर उन्होंने चिदाश्रम स्वामी से सन्यास लेने की अपनी इच्छा प्रकट की किन्तु स्वामी जी के इंकार कर देने पर वे स्वामी पूर्णानन्द के पास आकर सन्यास लेने की इच्छा प्रकट की। पहले तो पूर्णानंद ने भी इंकार कर दिया क्योंकि वे महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे अतः एक गुजराती ब्राह्मण को सन्यास की दीक्षा नहीं दे सकते थे। जब उन्होंने अपने कुलीन औदीच्य ब्राह्मण होने का परिचय दिया तब स्वामी जी ने स्वीकृति प्रदान कर दी और दयानंद सरस्वती का नाम प्रदान किया। पूर्णानंद से सन्यास की दीक्षा लेने के बाद कुछ दिनों तक वे उनके साथ बिताया और फिर यहीं से वे स्वामी योगानंद नामक एक प्रसिद्ध योगी की प्रशंसा सुनकर विद्याध्ययन हेतु उनके पास आ गए और अध्ययन के बाद यहीं से सिनोर नामक स्थान पर कृष्णा शास्त्री के पास अध्ययन करने चले गए। कुछ समय बाद ज्वालानंद पुरी व शिवानंद गिरि नामक दो योगियों से भेंट हुई तो उनसे योगविद्या का अध्ययन किया। इस प्रकट यत्र तत्र विचरण करते हुए १९१२ विक्रमी सम्वत में वे प्रथम बार हरिद्वार पहुंचे और यहां के कुंभमेले में सहभागिता की। मेले के दौरान वे चन्डी पर्वत पर योगाभ्यास करते रहे और मेले की समाप्ति पर  वहां से वे ऋषिकेश चले गए। ऋषकेश में दो साधुओं से उनकी भेंट हुई और उन्हीं साधुओं के साथ वे टेहरी चले गए जो उनदिनों विद्या अध्ययन का प्रमुख केंद्र था। टेहरी में पण्डितों ने उन्हें भोजन हेतु जब आमन्त्रित किया तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि वे पण्डित मांसाहारी हैं। तब उन्होंने उनसे यह निवेदन किया कि वे व्रत रखे हैं अतः फल  उनके निवास स्थल पर पहुंचा दें तो अच्छा होगा। कुछ दिन यहां पर रहकर उन्होंने तन्त्र ग्रन्थ का अध्ययन किया तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस ग्रन्थ में तो मद्य ,मांस भक्षण ,अमर्यादित मैथुन को ही मोक्ष का साधन बताया गया। यह देखकर उन्हें वितृष्णा पैदा उइ और अवसर पाकर उन्होंने इसका प्रबल खण्डन करना आरम्भ कर दिया। इसी स्थान पर गंगागिरि नामक एक सच्चरित्र सन्यासी से उनकी भेंट हो गयी तो वे उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए। दो मास तक टेहरी में रहकर स्वामी जी अपने कुछ साथियों को लेकर केदारघाट होते के अगस्त्य मुनि की समाधिस्थल पर जा पहुंचे। यहां से वे शिवपुरी पर्वत पर जाकर चार माह तक यहीं पर निवास किया और फिर यहां से अकेले ही वापस केदारघाट आ गए। केदारघाट से गुप्तकाशी ,गौरीकुंड तथा भीमगंगा होते के त्रियुगी नारायण पहुँच गए। कुछ दिन बाद वे यहां से तुंगनाथ की छोटी पर चढ़े और वहां सर्दी अधिक होने तथा पानी की अनुपलब्धता देखकर वे पुनः वापस लेत पड़े और ऊखीमठ होते हुए बद्रीनाथ पहुँच गए जान रावल पदवीधारी महंत से कई दिनों तक वेद एवम दर्शन पर चर्चा करते रहे। स्वामी जी का धैर्य टूट रहा था क्योंकि उन्हें कोई विद्वान सर्वज्ञ सन्यासी के रूप में नहीं मिल पा रहा था। फिर भी वे कुछ दिन वहां रहकर अपनी तलाश जारी रखे ।एक दिन वे अलकनंदा के तट पर आकर उसे पार करके कुछ खाने पिने की वस्तु तलाशने लगे क्योंकि कई दिनों से वे मुंह में केवल बर्फ के टुकड़े रखकर अपनी प्यास बुझा रहे थे।वहां से दूसरे दिन जंगल पर करके वे रामपुर पहुँच गए और यहीं पर रामगिरि नामक साधु के पास ठहर गए। कुछ दिन बाद वे काशीपुर आकर अपने लक्ष्य को दृढ करते हुए यह संकल्प लिया कि जबतक अमरत्व विद्या का सम्यक ज्ञान वे नहीं प्राप्त कर लेते तब तक शरीर नीं छोड़ेंगे। अतः वे द्रोणसागर ,मुरादाबाद ,सम्भल और गढ़मुक्तेश्वर होते हुए गंगा के किनारे आकर प्रवास करने लगे।
कुछ दिन यत्र तत्र भृमण करते हुए वे मथुरा आकर स्वामी विरजानन्द के सानिध्य में कुछ दिन बिताये। स्वामी विरजानन्द के क्रोधी स्वभाव के कारण वे खिन्न अवश्य थे किन्तु विद्या अध्ययन हेतु वे कुछ दिन यहां भी रुक गए। मथुरा से वे १९२० विक्रमी में आगरा आ गए और यहां उन्होंने सन्ध्याविधि नामक एक पुस्तक लिखी जिसे लाल रूपलाल ने ३०००० पार्टियों में छपवाकर मुफ्त में बंटवा दी। यहां से स्वामी जी ग्वालियर ,जयपुर ,पुष्कर होते हुए अजमेर पहुंचे और यहां पर उन्होंने शैव मत का खण्डन करना आरम्भ कर दिया। सन १८६७ ई में हरिद्वार कुम्भ मेले में स्वामी जी आकर हजारों साधु सन्तों के साथ पधारे के स्वामी विशुद्धानन्द से मुलाकात की। स्वामी विशुद्धानंद ने पुरुष सूक्त के मन्त्र "ब्राह्मणोस्य मुखमासीद "की व्यख्या करते हुए ब्राह्मण की उत्पत्ति परमात्मा के मुख से बताया तब स्वामी  दयानन्द जी नेइसका वास्तविक अर्थ बताते हुए कहा कि ब्राह्मण परमात्मा के मुख से नहीं बल्कि वह ब्राह्मण समाज के मुख के तुल्य महत्व रखता है। हरिद्वार के धर्म मेले में स्वामी जी ने निर्भय होकर मतमतांतरों का खण्डन करते हुए उपनिषदों का प्रमाण देते हुए एकेश्वर उपासना का प्रचार प्रसार किया और मूर्तिपूजा ,अवतार ,तीर्थ आदि मिथ्या विश्वासों का भी खण्डन किया। इसके प्रशंसा में आर्य समाज के प्रथम कवि अमीचन्द ने लिखा  :-
                उपज्यो  दण्डी ,छिपे  पाखण्डी ,डरे  घमण्डी धूर्त अन्यायी।
                 विद्या पाकर निकला दिनकर,तिमिर हटाकर ज्योति दिखायी।
                  आये हैं स्वामी दयानन्द नामी ,गर्ज सभा में सिंह की न्यायी।
                  सत का मण्डन,दम्भ का खण्डन,पांव तलक की धूल उड़ाई।
                    डरे हैं प्रमादी अनीश्वरवादी ,पौराणिक के दिन राम दुहाई।
                   बड़े बड़े नास्तिक होकर आस्तिक,हाथ जोड़ आये शरणाई।
                    वेदों के बल से युक्ति प्रबल से ,कलियुग की काया पलटाई।
                        योगीश्वर महर्षि आत्मदर्शन ,जिनके हिस्से में  ही आई।
स्वामी दयानंद गृहस्थों से उपहार स्वरूप जो कुछ भी पाते थे उसे  दीनजनों में बाँट देते थे और स्वयं मात्र एक कौपीन पहनकर अवधूतावस्था में गंगा के किनारे चल पड़ते थे। स्वामी जी ढाई वर्षों तक गंगा का तट पर रहकर अपने उपदेशों से लोगों को कृतार्थ करते रहे और इस अवधि में अनेकों बार उन्हें विद्वतजनों से शास्त्रार्थ करने का भी अवसर प्राप्त हुआ। वे जहां भी जाते थे वहां मूर्तिपूजा आदि पौराणिक कृत्यों का खण्डन करते और ब्राह्मणों का कोपभाजन भी बनते। एकबार उन्हें पान में विष मिलाकर एक ब्राह्मण ने खिलने का प्रयास किया तो स्वामी जी को सन्देह हो गया और प्रशासन ने उसे कारागार में डाल दिया तब वे स्वयं जाकर उसे छुड़वाया भी था। एक घटना कानपुर में घटी जब कुछ शरारती तत्वों ने स्वामी जी को गंगा में डुबाने का प्रयास किया था किन्तु पहचानने में भूल हो जाने के कारण विरजानंद स्वामी को गंगा में फेंक दिए जिन्हें समय पर गंगा से निकाल लिया गया था। ऐसी एक घटना सोरों में भी हुई थी। फरुक्खाबाद में उन्हें जब मारने की चेष्टा हुई थी तब भी लोगों को  सफलता नहीं मिली थी। ऐसी घटनाओं से परेशान होकर लाला जगन्नाथ ने स्वामी जी को गंगा तट छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाने को कहा तब स्वामी जी ने उनसे कहा कि यहां तो तुम सब मुझे बचा लोगे ,अन्यत्र कौन बचाएगा। सर्व व्यापक परमात्मा ही मेरा रक्षक है। स्वामी जी ने फरुखाबाद में एक संस्कृत पाठशाला खोली थी जिसके माध्यम से वे संस्कृत भाषा का विकास करना चाह रहे थे।
१६ नवम्बर १८६८ को गुरु से आज्ञा लेकर स्वामी जी पुष्कर और हरिद्वार में भी अपनी विद्या का प्रकाश फैलाया और अंत में काशी जो पण्डितों का गढ़ था ,वहां जाकर मूर्तिपूजा का प्रबल खण्डन करना आरम्भ कर दिया। काशी के प्रमुख विद्वान पँ० राजाराम ने घोषणा की थी कि यदि वे स्वामी जी के प्रश्नों का उत्तर दे देंगे छुरी से स्वामी जी को  अपनी नाक  कटवानी पड़ेगी।इसपर स्वामी जी ने कहा था कि दो छुरी रखवाएं ताकि मेरे द्वारा जबाब दे देने पर राजाराम जी के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जा सके। ऐसा जबाब पाने पर राजाराम ने अपना एक शिष्य भेजकर स्वामी जी की विद्वता का आकलन करवाया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि स्वामी जी प्रकांड पण्डित हैं किन्तु वे नास्तिक भी हैं। यह समाचार काशी नरेश को भी मिला तो उन्होंने सभी पण्डितों को स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने हेतु अपने निवास पर बुलवाया। उस शास्त्रार्थ का विषय था कि क्या मूर्तिपूजा वेदसम्मत है ?सभा में जब पण्डितों ने वेदों में देवताओं के आवाहन तथा मूर्तिपूजा उल्लेख का कोई प्रमाण नहीं दे पाए तब स्वामी विशुद्धानंद ने कहा कि जब उपनिषदों में मनोब्रह्मेत्युपासीत जैसे वाक्यों द्वारा मन और सूर्य आदि की उपासना का विधान है तो शालिग्राम की पूजा भी स्वीकार कर लेनी चाहिए। इस पर स्वामी जी ने उत्तर दिया कि मन और आदित्य की उपासना का विधान ब्राह्मण ग्रन्थों में है जिन्हें आप लोग वेद कह रहे हैं किन्तु यह कहीं नहीं कहा गया है कि पाषाण ब्रह्मेत्युपासीत। इसके बाद पुराण शब्द के अर्थ पर चर्चा हुई और एक वाक्य को उपनिषद का वाक्य न होने पर पण्डितों ने जब शर्त लगाई तब स्वामी जी उसे उपनिषद का वाक्य होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया। शास्त्रार्थ के अंत में जब रात्रि होने लगी तो पण्डितों ने दो पन्ने हाथ में लहराते हुए कहा कि ये वेद के अंश हैं और इसमें लिखा है कि यज्ञ के समाप्त होने पर दसवें दिन पुराण सुनना चाहिए। स्वामी जी ने वे दोनों पन्ने हाथ में लेकर ज्योंहि उसे पढ़ने के लिए दीपक मंगवाया तभी सभी पण्डितों ने कोलाहल मच दिया। काशी नरेश भी समझ नहीं पाए फिर भी उन्होंने  पण्डितों के साथ तालियां बजा  दिया और सभी पण्डित अपनी विजयघोष के नारे के साथ वहां से प्रस्थान कर दिए। इसी बीच किसी शरारती व्यक्ति ने स्वामी जी पर ईंट पत्थर फेंकना आरम्भ कर दिया तब कोतवाल पण्डित रघुनाथ प्रसाद ने स्वामी जी को एक कोठरी में बन्द करवा दिया और उनकी रक्षा की।इस शास्त्रार्थ के बाद भी स्वामी जी कुछ दिनों तक काशी में रहे किन्तु किसी भी पण्डित ने उनका विरोध नहीं किया। अंत में पण्डित समुदाय ने यह घोषणा करवा दी कि जो स्वामी जी का दर्शन करेगा वह पतित हो जायेगा किन्तु बड़ी संख्या में लोग स्वामी जी के उपदेश सुनते रहे। समाचार पत्रो मेंउक्त शास्त्रार्थ का निष्कर्ष छपा कि उसमें स्वामी जी का पक्ष प्रबल रहा।
जनवरी १८७० से १८७२ ई तक स्वामी जी प्रयाग में वास किये और यहां रहकर उन्होंने लघुकौमुदी का खण्डन किया। यहां पर उनसे शास्त्रार्थ करने हेतु कोई भी नहीं आया। दिसम्बर १८७२ से अगस्त १८७३ तक वे कलकत्ता में रहकर अनेकों ब्रह्मसमाजियों से वार्तालाप किया। जातिभेद के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि जातिभेद केवल गुणकर्म के आधार पर है न कि जन्मजात। ईश्वर के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि ईश्वर निराकार व सच्चिदानंदस्वरूप है। सांख्यदर्शन की विधिवत व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि सांख्यकार स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म को मानते हैं। यदि वे नास्तिक होते तो ऐसा कदापि न मानते। सृष्टि की उत्पत्ति उन्होंने ६ कारणों से बताई। प्रथम परमाणु जैसा न्याय दर्शन ने बताया है ,दूसरा मीमांसा का कर्मसिद्धांत तीसरा सांख्य का तत्व ,चौथा ज्ञान -विचार व बुद्धि का विकास, पांचवा वैशेषिक काल का निरूपक है और छठ परमात्मा को सृष्टि का निमित्तकारण जैसा वेदांत ने कहा है।
२६ अक्टूबर १८७४ ई को स्वामी जी बम्बई आ गए और यहां भी उन्होंने अपने मत का प्रचार -प्रसार साहसपूर्वक किया। २० जून १८७५ ई को पूना जाकर दो मास तक वेदोपदेश देते रहे और दिसम्बर १८७६ ई में वे दिल्ली पहुँच गए और अजमेरी दरवाजे के बाहर कुतुबरोड पर अपना डेरा डाल दिया और यहीं पर उन्होंने एक गोष्ठी बुलाते हुए मुंशी कन्हैय्यालाल ,नवीनचन्द्र राय ,केशव चन्द्र सेन ,इंद्रमणि मुरादाबादी ,सैय्यद अहमद खान ,हरिश्चंद्र चिंतामणि के साथ वार्तालाप किया। यहां से वे पंजाब की ओर प्रस्थान किये और लुधियाना ,लाहौर ,अमृतसर में अपना व्याख्यान दिया। इसी दौरान रुड़की से पण्डित उमराव सिंह का पात्र उन्हें मिला और २५ जुलाई १८७८ ई को वे रुड़की पहुँच गए। ११ अगस्त तक यहां पर रहकर अपना व्याख्यान दिया और विभिन्न लोगों से वार्तालाप करते रहे। अलीगढ ,मेरठ ,व अजमेर नगरों में भी उन्होंने अपना व्याख्यान दिया और इसके बाद १४ अप्रैल १८७९ से मार्च १८८१ तक पश्चिमोत्तर भारत अवध ,बिहार में धर्म प्रचार किया। १० मार्च १८८१ ४ दिसम्बर १८८१ तक वे राजस्थान में धर्मोपदेश दिए ततपश्चात पुनः ३१ दिसम्बर १८८१ को बम्बई दूसरी बार चले गए तथा २२ जून १८८२ तक यहां पर निवास किया। २५ जुलाई १८८२ से १ मार्च १८८३ ई तक उदयपुर में धर्मोपदेश तथा महाराणा सज्जन सिंह को शास्त्राभ्यास करवाया। यहां से जोधपुर होते हुए २६ अक्टूबर १८८३ को अजमेर पहुंचे। अजमेर में स्वामी जी को भिनाव की कोठी में डॉ लक्ष्मण दास ने उनका उपचार आरम्भ किया। २९ सितम्बर की रात्रि को राजा की प्रेयसी नन्ही फैजउल्लाखां ने स्वामी जी को दूध में विष मिलाकर दे दिया था जिसके कारण उनके शरीर पर फफोले पद गए थे और लगातार हिचकियों के कारण वे अचेत भी हो गए थे। उपचार के बाद जब चेतना वापस नहीं लौटी तब उन्होंने अपने शिष्य आत्मानंद व स्वामी गोपालगिरी को बुलवाकर पूंछा कि तुम लोग अब क्या चाहते हो। दोनों ने उत्तर दिया कि हम आपके आरोग्य लाभ की कामना करते हैं। स्वामी जी ने सभी को पंक्तिबद्ध होकर खड़े होने तथा कमरे के सभी दरवाजे खुलवाकर स्वयम चारपाई पर लेट गए और पूंछा कि आज कौन सा दिन है ?लोगों ने बताया कि आज कार्तिक अमावस्या तिथि मंगलवार है। यह सुनकर स्वामी जी ने परमात्मा की स्तुति की ,वेदमन्त्रों से परमेश्वर का गुणानुवाद करते हुए अंत में गायत्री मन्त्र का उच्चारण किया और अपने दोनों नेत्र खोलकर कहा -हे सर्वशक्तिमान ईश्वर ,तेरी यही इच्छा है ,तेरी इच्छा पूर्ण हो। अहा ,तूने कैसी लीला की। इन्हीं वाक्यों के साथ उन्होंने करवट ली और श्वास को बाहर निकलते हुए अंतिम श्वास लेकर परलोक से अलविदा ले ली। 
स्वामी जी के व्यक्तित्व में एक अलौकिक शक्ति थी तभी तो लोग उनसे शास्त्रार्थ करने आया करते थे किन्तु वापस लौटते समय वे उनके अनुयायी भी बन जाते थे। अपनी दिनचर्या में स्वामी जी ईशरोपासना व योगासन को कभी भी नहीं भूलते थे। वे सच्चे मानवतावादी थे। एकबार बैलगाड़ी कीचड़ में फँस गयी थी और गाड़ीवाला बैलों को पीट पीट कर थक गया किन्तु बैलगाड़ी कीचड़ से बाहर नहीं निकल प् रही थी तब स्वामी ने स्वयम उस गाड़ी से बैलों को खुलवाकर उसे कीचड़ से बाहर निकाला था। स्वामी जी के चरित्र की यह सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे अप्रसिद्धि में जन्मे ,उसी में पले और  उसी वातावरण में प्राप्त की किन्तु जब वे कर्मक्षेत्र में आये तब परम्परागत रूढ़िवादिता के विरुद्ध जीवनभर गरजते रहे। कई बार विद्वान पण्डितों ने उन्हें मूर्ति पूजा -खण्डन के मार्ग छोड़कर उसका समर्थन करने तथा उन्हें विष्णु का अवतार घोषित करने प्रलोभन दिया किन्तु स्वामी जी अपने मार्ग पर अडिग रहे। उनका मन्तव्य था कि जबतक हिन्दू मूर्तिपूजा से विरत नहीं होंगे तबतक वे सत्पथ पर नहीं चल पाएंगे और उनकी सामाजिक एवम राजनैतिक प्रगति भी अवरुद्ध रहेगी। इसीलिए उन्होंने अपनी आत्मा का समस्त बल मूर्तिपूजा के खण्डन तथा उसे वेद के विरुद्ध सिद्ध करने में लगा दिया। मुस्लिम एवम ईसाइयों की वैदिक धर्म के प्रति जो दूषित धरना थी उसे स्वामी जी ने अपनी अवधारणा से छीन भिन्न कर दिया था। उन्होंने आर्यों की श्रेष्ठ बुद्धि को वरीयता प्रदान की और निखारने के लिए वेदमन्त्रों का ज्ञान उन्हें प्रदान किया। उन्होंने समस्त आर्य सन्तान को गायत्री की शिक्षा दी और बुद्धि की शुद्धता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना आवश्यक बताया। 
स्वामी जी परमात्मा को ही सर्वोत्कृष्ट गुरु मानते थे क्योंकि उसकी शिक्षा त्रुटिहीन एवम पक्षपात विहीन है। परमात्मा की शिक्षा वेदों में वर्णित है और वेदों के वास्तविक स्वरूप से जनसाधारण को उन्होंने परिचित करवाया। इन्ही उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्होंने सन १८७५ ई में आर्यसमाज की स्थापना की अनुमति प्रदान की और आर्य समाज के नियम १७ में स्पष्ट किया --"इस समाज में स्वदेश के हितार्थ दो प्रकार की शुद्धि के लिए प्रयत्न किया जायेगा। पहला परमार्थ और दूसरा लोकव्यवहार। इन दोनों का शोधन और शुद्धता की उन्नति तथा सम्पूर्ण संसार के हित की उन्नति की जाएगी। "आर्यसमाज की स्थापना के सन्दर्भ में अपनी सहमति देते हुए उन्होंने कहा था --"मेरा अभिप्राय है कि भारत में यदि नाना प्रकार के मतमतान्तर प्रचलित हैं ,तो वे सभी वेदों को मानते हैं। मेरा कोई स्वतन्त्र मत नहीं है और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूँ। यदि आगे चलकर मेरी कोई गलती पायी जाये तो युक्तिपूर्वक परीक्षा करके उसे सुधार लेना। " 
स्वामी जी ने मूर्तिपूजा खण्डन के साथ साथ श्राद्ध ,तीर्थ तथा अवतारवाद की भी आलोचना की। उनका मत था कि मृत पितरों के नाम पर दान देने से उनकी आत्मा को कोई लाभ नहीं मिलता है और किसी जलाशय या नदी में स्नान करने से पापों का विनाश नहीं होता है और न ही मुक्ति मिलती है। परमात्मा अजन्मा व अमर होने के कारण मनुष्य की देह में कभी भी प्रविष्ट नहीं होता। उन्होंने एक नवीन सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहा कि आत्मा और परमात्मा दो पृथक पदार्थ हैं तथा प्रकृति भी अनादि है तथा परमात्मा ही सर्वशक्तिमान और सृष्टि का आदि कारण है। मोक्ष के सन्दर्भ में वे मानते हैं कि जीव मुक्त होकर परमात्मा के सानिध्य में एक निश्चित अवधि तक दिव्यानन्द का भोग करता है ततपश्चात पुनः संसार में वापस आ जाता है। स्वामी जी सर्वशिक्षा के समर्थक थे तथा बालविवाह के विरोधी थे। उन्होंने जाति एवम वर्ण को जन्माधारित नहीं माना बल्कि प्रत्येक आर्य के लिए शिखा और यग्योपवीत आवश्यक बताया। गोरक्षा में स्वामी जी की प्रबल आस्था थी और इसके लिए उन्होंनेगौरक्षिणी सभा स्थापित करने का परामर्श दिया था। उन्होंने यह कार्य गौकल्याणनिधि नामक पुस्तक लिखकर की। स्वामी जी प्रथम पुरुष थे जिन्होंने गौरक्षा के प्रश्न को धर्म की परिधि से बाहर निकालकर उसे विस्तृत आधार देते हुए इसके आर्थिक पक्ष का समर्थन किया था। स्वामी जी ने आत्माभिव्यक्ति के सन्दर्भ में कहा ---भाई ,मेरा कोई स्वतन्त्र मत नहीं है। मैं तो वेदों के अधीन हूँ और हमारे भारत में २५ करोड़ आर्य हैं। कई कई बातों में किसी किसी में कुछ भेद हो जाता है जो विचार करने से आप ही आप हल हो जाता है। मैं सन्यासी हूँ और मेरा कर्तव्य यही है कि जो आप लोगों का अन्न खाता हूँ उसके बदले में जो सत्य समझता हूँ उसका निर्भयता से उपदेश करता हूँ। मैं कुछ कीर्ति का रागी नहीं हूँ।चाहे कोई मेरी स्तुति करे या निन्दा करे ,मैं मेरा कर्तव्य समझकर धर्मबोध करता हूँ। चाहे कोई माने या न माने इसमें मेरा कोई लाभ हानि नहीं है। 
स्वामी जी उच्चकोटि के विरक्त एवम वीतरागी महापुरुष थे क्योंकि उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति व मायामोह का परित्याग करके सन्यास जीवन स्वीकार किया था। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। अपनी योगशक्ति का उन्होंने कभी भी प्रदर्शन नहीं किया। वे न किसी राजा से भयभीत हुए और न ही किसी पण्डित से। उपनिषदकाल के पश्चात कोई भी महापुरुष ऐसा साहस नहीं किया था जैसा स्वामी जी ने किया था। मूर्तिपूजा का खण्डन छोड़ने हेतु कई प्रकार के प्रलोभन तत्कालीन राजाओं द्वारा  दिए गए थे किन्तु उन्होंने अपनी दृढ़ता पर आंच नहीं आने दी। 

स्वामी जी द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नवत हैं :--

१-पाखण्ड खण्डन या भागवत खण्डन जो उन्होंने संस्कृत भाषा में लिखी है और भागवत मत का खण्डन किया है।
२-अद्वैतमत खण्डन भी संस्कृत में लिखी पुस्तक है। 
३-सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक के प्रथम भाग में वैदिक धर्म तथा आर्य जीवन पद्धति का वर्णन है और उत्तरार्ध में मतमतान्तरों का खण्डन किया गया है। 
४-ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका तथा वेदभाष्य। 
५-पंच महायज्ञ विधि जिसमे गृहस्थों के लिए नित्य कर्तव्य ,ब्रह्म यज्ञ ,अग्निहोत्र ,पितृयज्ञ ,बलिवैश्वयज्ञ तथा अतिथियज्ञ की विवेचना की गयी है। 
६-वेदांग प्रकाश ,जो चौदह खण्डों में संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है। 
७-संस्कृत वाक्य प्रबोध। 
८-व्यवहारभानु जिसमें बालकों की सभ्यता ,शिष्टाचार तथा आर्योचित व्यवहारों का वर्णन है। 
९- वेदांतिध्वान्त  . 
१०-भ्रान्तिनिवारण 
११-भ्रमोच्छेदन 
१२- गौकल्याण  निधि 
 १३- संस्कारविधि जिसमें गर्भाधान से अंत्येष्टिपर्यन्त शास्त्रोक्त १६ संस्कारों के महत्व तथा विधि का निरूपण किया गया है।   
                                       चिन्मयं व्याप्तेन यत्किंचित सचराचरम। 
                                       तत्पदं  दर्शनं  येन तस्मै  श्रीगुरुवे  नमः।                                                              
     

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