जीवन- परिचय :--
स्वामी विशुद्धानन्द का जन्म पश्चिम बंगाल प्रान्त में बर्दवान से १६ मील दूर स्थित बण्डूल ग्राम में फाल्गुन मास की २९ वीं तिथि सन १८५३ ई० को हुआ था इनके पिता का नाम अखिल चन्द्र चट्टोपाध्याय एवम माता का नाम राजराजेश्वरी देवी था। इनके माता पिता ने बचपन में इनका नाम भोलानाथ रखा था। बचपन से ही भोलानाथ तेजस्वी,कुशाग्र बुद्धि सम्पन्न एवम धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इनके जन्म के ६ माह बाद पिता का देहांत हो गया था अतः इनका लालन पालन इनके चाचा ने किया था किन्तु ८ वर्ष बाद चाचा की भी मृत्यु हो जाने के कारण वे पूर्णतयः अपनी माता के आश्रित हो गए। बालक भोलानाथ बचपन से ही शिवभक्त थे और बिना भगवान शिव की पूजा किये वे जल तक ग्रहण नहीं करते थे। बण्डूल ग्रामके उत्तर दिशा में एक वटवृक्ष स्थित जहां वे प्रायः जाकर उसके नीचे बैठा करते थे। एक दिन भोलानाथ विल्वपत्र से भगवान शिव की पूजा कर रहे थे और इसी दौरान एक नटखट बालक ने उनकी पूजा खण्डित कर दी तब उन्हें बहुत क्रोध आया और क्रोध में ही उन्होंने उसे यह कह दिया था कि तूने हमारे शिव के साथ ऐसा किया है अतः शिवजी का सांप तुझे डस लेगा। उस समय तो वह बालक वहां से चला गया था किन्तु उसी शाम को एक सांप ने वास्तव में उसे डस लिया तब सभी लोगों ने भोलानाथ से आग्रह किया कि वह उसे ठीक कर दें तब वे बालक के मृतप्राय शरीर का स्पर्श किये और शिव जी से प्रार्थना की कि वे बालक को क्षमा कर दें, तब वह बालक अपनी चेतना में वापस लौट आया।
एक अन्य घटना यह घटी कि बालक भोलानाथ को उनके ही घर के किसी सदस्य ने एक बार डाट दिया थाजिसके कारण वे नाराज होकर भगवान कृष्ण की एक मूर्ति लेकर निकटवर्ती तालाब में कूद पड़े थे किन्तु वे तालाब में जिधर भी जाते उधर का जल उनके साथ ही चलकर घुटने के नीचे ही रहता। यह आश्चर्यपूर्ण स्थिति को देखकर लोग विस्मित हो गए थे। इसी प्रकार की अन्य कई घटनाएं उनके साथ घटी जिसके कारण उनपर किसी दैवीय कृपा का पाया जाना सिद्ध होने लगा और उनके असाधारण व्यक्तित्व से आसपास के लोग भी परिचित हो गए।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई किन्तु वे अंग्रेजी पढ़ने से से सदैव इंकार कर दिया करते थे। संस्कृत भाषा से उनका विशेष लगाव था अतः उन्होंने नवदीप के एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय से संस्कृत भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त किया। भोलानाथ अपनी मां से बहुत प्रेम करते थे एकबार उनकी मां विशूचिका की गम्भीर बीमारी से पीड़ित हो गयीं और उनकी हालत बिगड़ने लगी तब उनकी चाची ने भोलानाथ से कहा कि पगले चाचा अब तुम्ही बताओ मेरी दीदी बचेगी कि नहीं। तब भोलानाथ ने कहा हाँ ,अवश्य बचेंगी। यह कहकर वे अपने घर के पीछे स्थिर गौशाला में जाकर सभी देवी देवताओं का ध्यान करते हुए अपनी मां के स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना करने लगे। इसी बीच घर के एक नौकर ने आकर उनसे कहा कि तुम्हारी मां ठीक हो गयी हैं तब उन्हें ईश्वर पर अटूट विश्वास हो गया और वे दौड़कर मां के पास पहुँचकर उन्हें अपने गले से लगा लिया।
भोलानाथ जब चौदह -पन्द्रह वर्ष के थे तो एकबार सीढ़ी सी उतरते समय उन्हें एक कुत्ते ने काट लिया था। थोड़े दिन बाद उनके पूरे श्री में जलन व पीड़ा होने लगी तब घरवालों ने उनका बहुत इलाज करवाया किन्तु कोई लाभ नहीं मिला। इसी दौरान एक दिन घूमते हुए वे गंगा के तट पर गए तो वहां एक जटाजूटधारी सन्यासी को गंगा में डुबकी लगते हुए देखा। सन्यासी के चेहरे पर विलक्षण तेज दिखाई पडा तो भोलानाथ वहीँ नदी के किनारे बैठकर उन्हें डुबकी लगते हुए अपलक देखने लगे। कुछ देर बाद सन्यासी नदी से बाहर आये तब भोलानाथ ने उनके पूंछने पर अपनी व्यथा उनसे बतायी। तब सन्यासी ने कहा -बेटा घबराओ नहीं ठीक हो जायेगा। ऐसा कहते हुए उन्होंने कोई औषधि खाने के लिए उन्हें दी और अपनी हथेली भोलानाथ की हथेली पर रखी तो उन्हें बर्फ जैसी शीतलता का अनुभव होने लगा और उनकी तबियत धीरे धीरे ठीक होने लगी। दुसरे दिन वे पुनः उसी तट पर गए और उसी सन्यासी से दीक्षा लेने का आग्रह किया तब सन्यासी ने कहा ,--बीटा हम तुम्हारे गुरु नहीं हैं। तुम्हारे गुरु तो यहां से कुछ दूर पर रहते हैं। जब समय आएगा तब हम तुम्हें उनके पास ले चलेंगे।एक दिन उन्होंने भोला नाथ को आकाश मार्ग से अष्टभुजा ले गए वहां एक सप्ताह तक निर्जन स्थान पर उन्हें रखा इसके बाद हिमालय स्थित विज्ञानं एवम योगशिक्षा के केंद्र ज्ञानगंज आश्रम ले गए। इस आश्रम के अधिष्ठाता परमहंस भृगुराम जी थे और इनकी आयु लगभग ८०० वर्ष थी। परमहंस के गुरु का नाम महातपा था जो १५०० वर्ष के थे। यद्यपि इनका लौकिक शरीर नहीं था किन्तु अलौकिक शरीर द्वारा वे समस्त योगियों का मार्गदर्शन किया करते थे। यहां सात दिन रहने के बाद भोलानाथ को स्वामी नीमनंद राज राजेश्वरी मठ ले गए जहां महातपा ने उन्हें दीक्षा दी। वहां वे १२ वर्ष तक ब्रह्मचारी के रूप में रहे और दो वर्ष सन्यासी के रूप में। यहीं पर इन्हें विशुद्धानंद की संज्ञा मिली। परमहंस भृगुराम ने ने उनकी परीक्षा लेने के बाद उन्हें एक शिवलिंग प्रदान किया। यह कहते हुए उन्होंने भोलानाथ को योग का एक आसन सिखाया और बाद में एक बीजमन्त्र भी बताया। इसके बाद वह सन्यासी गंगासागर चले गए किन्तु भोलानाथ उस आसन और बीजमन्त्र का निरन्तर अभ्यास करते रहे।
भोलानाथ जब बर्दवान के कंचन नगर मेस में रहने लगे तब वहीं पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ढाका में एक सन्यासी आये हैं जो अधिकतर जल में ही रहा करते हैं और जब जल से बाहर निकलते हैं तो उनके साथ जल भी बाहर निकल आता है। भोलानाथ को तुरन्त पूर्व में गंगा के तट पर मिले हुए उस सन्यासी की याद आ गयी और वे अपने एक हरिपद नामक साथ के साथ ढाका की ओर प्रस्थान कर दिए।ढाका में रमना नामक स्थान पर उनकी भेंट उस सन्यासी से हो गयी तब उन्हें यह मालूम हुआ कि उस सन्यासी का नाम भीमानन्द परमहंस है। भोलानाथ ने उनसे कहा कि प्रभु ,अब मुझे कीजिये। तब परमहंस जी इंकार नहीं कर पाए और उन दोनों को अपना शिष्य बना लिया और उसी दिन उन्होंने दोनों की आँख पर एक पट्टी बांधकर अपने साथ विध्याचल ले आये और कुछ दिन रहने के बाद उन दोनों को छोड़कर कहीं चले गए किन्तु ५-६ दिन बाद वापस आकर पुनः उन दोनों की आँख पर पट्टी बांधकर हिमालय स्थित दुर्गम योगाश्रम ले गए जहां परमहंस भृगुराम ने उन्हें बीजमन्त्र दिया और काफी दिनों तक योगाभ्यास करवाया। यहीं पर परमहंस श्यामनन्द से भेंट हुई तब उन्होंने भोलानाथ को १२ वर्षों तक सूर्यविज्ञान की साधना की शिक्षा देते हुए उन्हें पारंगत बना दिया। गुरु परमहंस देव से दीक्षा लेने के बाद उनका नाम "विशुद्धानन्द" रखा गया और वहीं पर उन्होंने गुरु से नाभिधौति क्रिया सीखी। तत्पश्चात किरात धौति व किरात कुम्भव की सिद्धि भी उन्हीं से प्राप्त की जिसके कारण वे अपने शरीर को शून्य बनाने में समर्थ हो गए। कहा जाता है कि स्वामी विशुद्धानन्द के शरीर में तीन चार सौ स्फटिक गोलक छिपे रहते थे और वे अपने रोम छिद्रों से आवश्यकतानुसार उन्हें बाहर भी निकाल लेते थे। कहते हैं कि इन गोलकों से कमलगन्ध निकलती रहती थी। योगाभ्यास द्वारा वे अपने मस्तक से शिवलिंग,माला,शालिग्राम आदि बाहर निकालकर पुनः उसे मस्तक के अन्दर रख लेते थे।
योग- साधना :--
भोलानाथ के बड़े भाई भूतनाथ चट्टोपाध्याय एक चिकित्सक थे। एक दिन उन्होंने स्वामी विशुद्धानन्द से कहा --क्या आप योगबल से स्व० पिता जी से बात करवाकर उनके दर्शन दिलवा सकते हैं ?पहले तो वे मौन रहे किन्तु कई बार यही प्रश्न करने पर उन्होंने कहा हाँ मैं उनके दर्शन करवा सकता हूँ। अपने भाई को वे एक कमरे में ले गए और एक स्वच्छ चारपाई बिछवाकर उस पर स्वच्छ शैय्या डलवाया और अपने योगबल से अपने स्व० पिता जी की मूर्ति को शैय्या पर बुला लिया। लगभग १५ मिनट तक वह मूर्ति उनके सभी प्रश्नों का जबाब देती रही फिर अंतर्ध्यान हो गयी। कुछ दिन बाद उनके भाई गम्भीर रूप से बीमार हो गए तब उनकी माता ने स्वामी जी से उसकी बीमारी के बारे में जाकर बताया तब स्वामी जी स्वयं अपने गांव आये और भाई को देखकर कहा कि अब भाई नहीं बचेंगे। उन्होंने उनकी मृत्यु की तिथि व समय भी बता दिया था और वहां से चले गए। इसके बाद उनकी माता ने उनसे कई बार विवाह कर लेने का प्रस्ताव रखा तब उन्होंने कहा की गुरूजी से पूंछकर बताऊंगा। गुरूजी के पास जब वे यह प्रस्ताव लेकर गए और उनकी आज्ञा मांगी तब गुरु ने कहा --विवाह करने में कोई हर्ज नहीं है अतः विवाह कर लो। इससे तुम्हारी तपस्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तब स्वामीजी ने विवाह कर लिया और बाद में दो पुत्रों के वे पिता भी बन गए।
एक दिन वार्तालाप के दौरान विशुद्धानन्द जी ने अपने शिष्य उपेन्द्र से कहा कि हम संसार में जो कुछ भी देख रहे हैं वह ईश्वर ही है। एक उदाहरण द्वारा उन्होंने समझाया जवा के पौधे में गुलाब का फूल दिखलाया तब उपेन्द्र उसे ज्योंहि स्पर्श के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया तो वास्तव में उससे गुलाब का फूल उत्पन्न हो गया। तब बाबा ने कहा --जो कुछ भी तुम देख रहे हो वह गुण वैषम्य का फल है। सूक्ष्म परमाणुओं और गुणों के सम्मिश्रण से इस जगत की उत्पत्ति हुई है तब उपेंद्र ने कहा आप हमारे सामने बैठे हैं ,क्या यह भी मिथ्या है ?तब स्वामी जी ने हंसते हुए कहा --हमारा अस्तित्व कहाँ है ?इन्हीं शब्दों के साथ वे अचानक अदृश्य हो गए और कुछ देर बाद एक दुसरे दरवाजे से भीतर आते हुए उपेंद्र को दिखाई पड़े। सन्निकट आकर स्वामी जी ने कहा __बेटा ,केवल ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। अपना कर्तव्य करते रहो ,धीरे धीरे इस जगत को भी समझ लोगे।
स्वामी विशुद्धानन्द अपने गुरु भृगुराम द्वारा प्रदान किये गए हरिहर नामक शिवलिंग को अपने मस्तक में स्थापित कर लिया था जिसे बाद में उन्होंने अपने गांव में बाण्डलेश्वर महादेव नामक एक मन्दिर में प्रतिष्ठित करवा दिया था। स्वामी जी ने बर्दवान,कलकत्ता,बंडूल,जगन्नाथपुरी,झालदा एवं वाराणसी में योगसाधना हेतु योगाश्रम स्थापित किया एवम काशी में साधना के लिए शिक्षा मन्दिर तथा विज्ञानं मन्दिर का निर्माण करवाया। सन १९३८ ई०में स्वामी जी ने अपने कलकत्ता स्थित आश्रम में महासमाधि ले ली थी। अपनी मृत्यु से कई दिन पूर्व से ही वे अस्वस्थ चल रहे थे जब उनके शिष्यों ने चिकित्सक बुलवाया तब वे एकांत में एक चादर ओढ़े हुए लेटे थे। चिकित्सक ने चादर के नीचे से अपना हाथ अंदर डालकर स्वामी जी की नाड़ी देखना चाहा तो उन्हें स्वामी जी का हाथ नहीं मिल पाया तब स्वामी जी ने धीरे से उनसे कहा कि डॉक्टर साहब चादर उठाकर हाथ की नाड़ी अच्छी तरह से देख लीजिये। डॉक्टर ने ज्योंही अपना चादर हटाया तो चादर के साथ ही स्वामी जी के हाथ की चमड़ियां व मांसपेशियां भी ऊपर उठ गयी और विस्तर पर केवल उनकी नसें फैली हुई दिखाई पड़ी। डॉक्टर ने गौर से देखा की उनकी समस्त नसें पूर्ववत चल रहीं थीं तो वे स्तब्ध हो गए और स्वामी के पेअर पकड़कर कहा -क्षमा कीजिये बाबा मैं आपका इलाज करने में सर्वथा असमर्थ हूँ।
स्वामी जी का मन्तव्य है कि साधन जीवन में कर्म ही प्रधान है और शास्त्र ज्ञान शुष्क ज्ञान है। उन्मादिनी भक्ति भी यथार्थ भक्ति नहीं है बल्कि वास्तविक भक्ति व ज्ञान ही महत्वपूर्ण है। सभी देवी देवता मूल में अभिन्न हैं उनमें छोटे बड़े का भेद नहीं करना चाहिए और अभ्यास के लिए अपने इष्ट भाव में दृढ रहना चाहिए। महाशक्ति की कृपा प्रतिक्षण टपक रही है परन्तु कर्म के बिना उसको धारण नहीं किया जा सकता है। कर्म से असाध्य ज्ञान होता है ,कर्म माने क्रियाशक्ति। नित्य क्रिया के समय होने वाले दर्शनों की उपेक्षा करनी चाहिए एवं अपने लक्ष्य की ओर यथाशक्ति दृष्टि रखनी चाहिए। बाहर से देवदर्शन का मूल्य नगण्य है। स्वयं देवत्व लाभ किये बिना देव दर्शन को बाहरी देव दर्शन कहते हैं। इसलिए यदि देवता को जानना हो तो स्वयं देवता होना चाहिए। उन्होंने रूपान्तरण को मनुष्य के जीवन का आदर्श माना है और इसे ही वे यथार्थ मुक्ति की संज्ञा देते हैं। विश्वास की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा कि विश्वास क्या साधारण वस्तु है ?विश्वास अर्थात श्वास जब विगत होता है तो विश्वास का जन्म होता है। प्रकृत विश्वास की इस प्रकार स्थापना होने पर साधना का सूत्रपात होता है।
जिनके मंगलमय विधान से सन्तान प्रसव से पूर्व ही उसके आहार के लिए माता के स्तनों में अमृतधारा की व्यवस्था हो जाती है उसी प्रकार विश्व जननी आनन्दमयी महाशक्ति पर यदि निर्भर रह सकें तो जीव को फिर चिंता किस बात की। जिस समय सुख दुःख में ,उठान पतन में बाहर भीतर सोते जागते सभी अवस्थाओं में एक मात्र उनकी ही मंगलमय सत्ता का साक्षात्कार होने लगता है उस समय क्षुद्र अहंकार न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। जो साधक निर्भरशील हो जाता है उसे कोई भय या उद्वेग नहीं हो पता है। उसका योगक्षेम फिर भगवान ही वहन करते रहते हैं। स्वामी का स्पष्ट कथन है कि किसी को ठगों नहीं ,किसी को हे दृष्टि से न देखो ,सरल के साथ असरल व्यवहार न करो ,असत्य पथ पर न चलो ,इससे सुखी रहोगे। इसके विपरीत करके भले ही काशी में मरो अथवा भगवान के पैरों में मरो ,रक्षा नहीं होगी। मेरी तो बात क्या मेरे बाबा भी नहीं बचा सकेंगे। उनका मानना था कि सद्गुरु सब एक हैं। यदि कोई सद्गुरु किसी पर कृपा करते हैं तब उसके माता -पिता ,भरत -भगिनी, पुत्र, कन्या इत्यादि सबको अपने चरण में आश्रय देते हैं ,उनके उद्धार की व्यवस्था करते हैं। अतः वासना रूपी प्रबल तरंग में पड़कर जीवन के किस भाग में सुख है ,इसका निर्णय कर सकना समस्त लोक के लिए दुष्कर है।
स्वामी जी का मन्तव्य है कि साधन जीवन में कर्म ही प्रधान है और शास्त्र ज्ञान शुष्क ज्ञान है। उन्मादिनी भक्ति भी यथार्थ भक्ति नहीं है बल्कि वास्तविक भक्ति व ज्ञान ही महत्वपूर्ण है। सभी देवी देवता मूल में अभिन्न हैं उनमें छोटे बड़े का भेद नहीं करना चाहिए और अभ्यास के लिए अपने इष्ट भाव में दृढ रहना चाहिए। महाशक्ति की कृपा प्रतिक्षण टपक रही है परन्तु कर्म के बिना उसको धारण नहीं किया जा सकता है। कर्म से असाध्य ज्ञान होता है ,कर्म माने क्रियाशक्ति। नित्य क्रिया के समय होने वाले दर्शनों की उपेक्षा करनी चाहिए एवं अपने लक्ष्य की ओर यथाशक्ति दृष्टि रखनी चाहिए। बाहर से देवदर्शन का मूल्य नगण्य है। स्वयं देवत्व लाभ किये बिना देव दर्शन को बाहरी देव दर्शन कहते हैं। इसलिए यदि देवता को जानना हो तो स्वयं देवता होना चाहिए। उन्होंने रूपान्तरण को मनुष्य के जीवन का आदर्श माना है और इसे ही वे यथार्थ मुक्ति की संज्ञा देते हैं। विश्वास की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा कि विश्वास क्या साधारण वस्तु है ?विश्वास अर्थात श्वास जब विगत होता है तो विश्वास का जन्म होता है। प्रकृत विश्वास की इस प्रकार स्थापना होने पर साधना का सूत्रपात होता है।
जिनके मंगलमय विधान से सन्तान प्रसव से पूर्व ही उसके आहार के लिए माता के स्तनों में अमृतधारा की व्यवस्था हो जाती है उसी प्रकार विश्व जननी आनन्दमयी महाशक्ति पर यदि निर्भर रह सकें तो जीव को फिर चिंता किस बात की। जिस समय सुख दुःख में ,उठान पतन में बाहर भीतर सोते जागते सभी अवस्थाओं में एक मात्र उनकी ही मंगलमय सत्ता का साक्षात्कार होने लगता है उस समय क्षुद्र अहंकार न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। जो साधक निर्भरशील हो जाता है उसे कोई भय या उद्वेग नहीं हो पता है। उसका योगक्षेम फिर भगवान ही वहन करते रहते हैं। स्वामी का स्पष्ट कथन है कि किसी को ठगों नहीं ,किसी को हे दृष्टि से न देखो ,सरल के साथ असरल व्यवहार न करो ,असत्य पथ पर न चलो ,इससे सुखी रहोगे। इसके विपरीत करके भले ही काशी में मरो अथवा भगवान के पैरों में मरो ,रक्षा नहीं होगी। मेरी तो बात क्या मेरे बाबा भी नहीं बचा सकेंगे। उनका मानना था कि सद्गुरु सब एक हैं। यदि कोई सद्गुरु किसी पर कृपा करते हैं तब उसके माता -पिता ,भरत -भगिनी, पुत्र, कन्या इत्यादि सबको अपने चरण में आश्रय देते हैं ,उनके उद्धार की व्यवस्था करते हैं। अतः वासना रूपी प्रबल तरंग में पड़कर जीवन के किस भाग में सुख है ,इसका निर्णय कर सकना समस्त लोक के लिए दुष्कर है।
सूर्यविज्ञान के प्रणेता :--
स्वामी जी का जीवन अतिविचित्र,निर्मल,कठोर,संयमी,एवम असाधारण करुणा वाला था। वे प्रायः कहा करते थे कि सहसा किसी में विश्वास नहीं करना ,विश्वास करोगे तो ठगे जाओगे। इस जगत की प्रत्येक परमाणु तुम्हारे प्रतिकूल है। तुम्हारे मित्र एकमात्र तुम्ही हो। अतः अपने सिवा किसी अन्य मित्र की ओर आकर्षित न होना। स्वामी जी सूर्य विज्ञानं को जगत के सभी विज्ञानों में शिरोमणि मानते थे। उनके अनुसार इसे जान लेने के पश्चात व्यक्ति के सभी अभाव दूर हो जाते हैं। उनका कथन था कि संसार में जो कुछ भी दिखाई पड़ता है वह सब महाशक्ति का व्यापर है। महामाया कृपा शक्ति विज्ञानं के बल से महाशक्ति का महातत्व स्थूल जगत में उत्तरी जा सकती है। योग और सूर्यविज्ञान से सब कुछ जाना जा सकता है। द्वैत तथा अद्वैत ,नित्य एवं अनित्य ,गति एवं स्थिति, इन सबको यथार्थ सदभाव से देखना हो तो एकमात्र विज्ञानं का ही आश्रय लेना होगा ,उन्होंने आगे बताया कि सभी शक्तियों की जो मूल शक्ति है ,एकमात्र वही सबके आदि और अन्त में रहती है। समस्त विषयों में उनके प्रकाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। समस्त ज्ञान एवम विज्ञानं का विकास सूर्य के ही आश्रित है और सूर्य के आलोक में देह मध्यस्थ ईद मार्ग संचारी चन्द्र प्रकाशित होकर स्निग्ध अमृत धारा से समस्त देह को आप्यायित कर देता है। योगविद्या को अत्यन्त गूढ़ मानते हुए वे कहते हैं कि लोग जिसका अनुष्ठान करते हैं वह योग नहीं है। मात्र ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञानोदय नहीं हो सकता क्योंकि शास्त्र तो केवल पथ दिखाते हैं किन्तु पथ पर अग्रसर होने के लिए यथार्थ कर्म की आवश्यकता होती है। स्वामी जी में इस प्रकार की अनगिनत सिद्धियां थीं। महिमा सिद्धि की प्रणाली समझते हुए उन्होंने अपनी तर्जनी अंगुली का इतना अधिक विस्तार कर दिया था कि उसे पहचानना कठिन हो गया था। उनमें अणिमादि सिद्धियाँ प्रत्यक्ष दिखाई पड़तीं थीं। स्वामी जी अपने नवमुण्डी आसन के रहस्य को सर्वसाधारण के लिए गुप्त रखा था। उनके परम् शिष्य पण्डित गोपीनाथ कविराज ने स्वामी जी के कार्यों एवम उनकी ज्ञानगंज धरा की आत्मक्रियायोग की साधना को अपने साधनापरक ग्रंथों में जनहित के लिए पूर्णरुपेण अभिव्यक्त कर दिया है। सद्गुरु के बताये हुए पथ पर चलते हुए उनके द्वारा दी गयी शक्ति से सम्पन्न बन करके निरन्तर श्रद्धा और संयम समवेत योगकर्म का अनुष्ठान करने से चित् की शुद्धि होती है और ज्ञान का उदय भी हो जाता है। ज्ञान के दृढ होने पर शुद्ध भक्ति का संचार होता है। प्रेम की इस अवस्था में हृदय पिघल जाता है और जगदम्बा को पाने के लिए प्रेम ही एकमात्र साधन है।
योगशास्त्र में ऐसे किसी भी अलौकिक सिद्धि का वर्णन नहीं मिलता है जो अपेक्षाकृत सुगम उपाय द्वारा सूर्यविज्ञान से उपलब्ध न की जा सके। पातञ्जल योग दर्शन का विभूतिपाद शिव पुराणादि अथवा अन्य प्राचीन ग्रन्थ ,तन्त्रशास्त्र,बौद्ध तथा जैनशास्त्रों के योग सम्बन्धी ग्रंथों ,सूफी एवम ईसाई ग्रन्थों में वर्णित प्रत्येक व्यापार इस सूर्यविज्ञान द्वारा सहज साध्य है। वाराणसी स्थित विशुद्धानन्द कानन में स्वामी जी लोगों से प्रायः मिला करते थे। यहां स्थित विज्ञानं मन्दिर सूर्यविज्ञान का प्रमुख केंद्र है जो पचास वर्ष पूर्व अपनी अद्भुत शक्तिप्रदर्शन से विश्व को स्तब्ध कर दिया था। ६०-६२ वर्ष पूर्व अंग्रेज विद्वान ब्रन्टन भारतीय सन्यासियों की सिद्धि की खोज में भारत आया था और अपने संस्मरण में उसने यहां के जिन तीन सन्यासियों की भूरि भूरि प्रशंसा की थी वे सन्यासी श्रृंगेरी के तत्कालीन शंकराचार्य,महर्षि रमन एवम स्वामी विशुद्धानन्द जी थे। स्वामी जी के चमत्कारों का विस्तारपूर्वक वर्णन उसने अपनी पुस्तक में किया है। वार्तालाप के दौरान स्वामी जी ने उनसे कहा था -"समस्त संसार और उसके जीवन का रहस्य सूर्य है। हमें साडी शक्तियां सूर्य से मिलती हैं। जो कुछ हम देख रहे हैं वह सूर्य के प्रभाव से एक वस्तु को दूसरी वस्तु में तथा मृत शरीर को जीवित प्राणी में बदल जा सकता है। "
सूर्य का नाम सविता अर्थात प्रसव करने वाला माना जाता है। समस्त जगत का आविर्भाव सूर्य से ही हुआ है और इसी में सृष्टि,पालन एवम संहार तीनों विद्यमान है। सूर्य वैज्ञानिक उस रहस्य को आयत्त कर लेते हैं और उन रश्मियों की पहचान भी कर लेते है तभी तो वे उनके परस्पर मेल की प्रणाली सीखकर इच्छानुरूप वस्तु की सृष्टि कर सकते हैं। इससे योगी की आत्मिक शक्ति पर कोई अन्तर या प्रभाव नहीं पड़ता है किन्तु इच्छाशक्ति से यदि सृष्टि करना पड़े तो उपादान बाहर से नहीं लिया जाता बल्कि आत्मस्वरूप से ही लिया जाता है। सूर्य विज्ञानं में सूर्य रश्मि से उपादान लिया जाता है। यद्यपि इच्छाशक्ति से सृष्टि करना निषिद्ध है क्योंकि इससे आत्मिक हानि की सम्भावना बनी रहती है किन्तु सूर्य विज्ञानं के द्वारा की गयी सृष्टि से किसी प्रकार के आत्मिक अपकर्ष की सम्भावना नहीं रहती है।
सूर्य शक्ति का परिज्ञान होने पर इन रश्मियों के विशिष्ट प्रक्रियामूलक संघटन से कोई भी वस्तु उत्पन्न की जा सकती है परन्तु रश्मियों की पहचान करना अत्यन्त कठिन कार्य है। रश्मियां विभिन्न रंग की होती हैं और सबसे पहले श्वेत प्रकाश लाया जाता है जिसको शास्त्र में विशुद्धसत्व कहते हैं। इस शुभ सत्ता के ऊपर प्रयोजन के अनुरूप विभिन्न रश्मियों का उद्भावन और संयोजन किया जाता है और उसी से वस्तु का आविर्भाव होता है। सामान्यतयः प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक वस्तु का अन्तर्भाव सन्निहित होता है किन्तु उनमें गुण प्रधान भाव होता है। यह क्रिया विशिष्ट ज्ञान ही विज्ञानं है। वैज्ञानिक प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण करते हैं तब उन्हें क्रमानुसार ज्ञान होता है। सूर्य वुग्यान में जबतक क्रमांतर्गत सभी रश्मियों का क्रमशः आकर्षण करने पर भी अंतिम रश्मि का आकर्षण नहीं हो पता तबतक बाह्य दृष्टि से उस वस्तु का कुछ भी पता नहीं चल पाता। अंतिम आविर्भाव वस्तु का भी स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। यह एक अपूर्व व्यापार है। अंतिम रश्मि को छोड़कर शेष रश्मियों का आहरण करके उसे दीर्घकाल तक रखा जा सकता है और प्रयोजन के समय केवल एक रश्मि का आहरण करके अभीष्ट वस्तु का उदय किया जा सकता है। यह वस्तु कल्पित नहीं होती बल्कि शुद्ध सद्वस्तु होता है और जागतिक वस्तु से कहीं अधिक निर्मल और स्थायी होती है।
रश्मियों के संयोजन के सम्बन्ध में स्वामी जी बताते हैं कि एक रश्मि के साथ दूसरी रश्मि का संयोजन तभी हो सकता है जब दोनों रश्मियां समकाल स्थायी हों। इन सभी रश्मियों के अन्तराल में एक विशुद्ध शुभ्र किरण रहती है जिसमें तीव्र आकर्षण शक्ति होती है। सृष्टि में उस शुभ्र किरण का स्फुरण नहीं रहता बल्कि यह समग्र सृष्टि की पृष्ठभूमि में रहती है परन्तु वैज्ञानिक उसे खण्डरूपेण प्रकट कर सकते हैं। स्वामी जी का कथन है कि योग और इच्छाशक्ति से सृष्टि होती है अर्थात बाह्य जगत का कोई भी पदार्थ दोनों प्रकार से बन सकते हैं फिरभी दोनों में भेद है। सूर्य विज्ञानं में सूर्य की रश्मि पहचानकर विभिन्न रश्मियों का संघटन करके सृष्टि होती है। सूर्य रश्मियां क्षणिक होती हैं और प्रकट के साथ भी जाती हैं। संयोजन तो तभी होगा जब दोनों रश्मियां समकाल स्थायी हों।
ज्ञानगंज की अवधारणा :-
ज्ञानगंज के रहस्य को वहां के साथ संश्लिष्ट परमहंसगणों एवम भैरवी माताओं ने गम्भीर एवम महिमामण्डित किया है ज्ञानगंज में अनेकों ब्रह्मचारी,दण्डी स्वामी,तीर्थस्वामी,परमहंस,भैरवी,ब्रह्मचारिणी एवम कुमारी विद्यमान हैं। वहां पर सदैव योगचर्चा के साथ विज्ञानं चर्चा चलती रहती है। विज्ञानं के अर्थ में सूर्यविज्ञान,चन्द्रविज्ञान,वायुविज्ञान,नक्षत्रविज्ञान आदि सम्मिलित हैं। मनुष्य सृष्टि के इतिहास में श्री विशुद्धानंद का आविर्भाव एक अभूतपूर्व अलौकिक घटना है। आध्यात्मिक सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार मनुष्य योनि में सामान्यतः जीवों का जन्म अथवा चैतन्य सत्ता के पुरुषोत्तम अंश से अवतारी महापुरुषों का आविर्भाव सिद्ध होता है ,वैसा कुछ स्वामी जी के साथ नहीं था। चैतन्य सत्ता से ऊपर पूर्णसत्ता या विशुद्धसत्त्ता अंश से शून्य मार्ग का अवलम्बन कर सीधे मनुष्य योनि में इनका अवतरण हुआ था। विशुद्धसत्त्ता सर्वोच्च आदि सत्ता है। महाचैतन्य और महाकाल दोनों का जहां से उदभव है अर्थात चिद और अचिद के परे जो सत्ता है ,उसे ही विशुद्ध सत्ता कहतें हैं। परब्रह्म की अलौकिक प्रतिभा स्वामी जी में जन्मजात विद्यमान थी अतः समस्त ज्ञान विज्ञानं स्वयम उनमें जाग्रत थे। वे अद्वितीय थे किन्तु संसार में लोकव्यवहार हेतु उन्हें द्वितीय होना पड़ा था। वे बचपन में ही अलौकिक ज्ञानगंज के योगयोयों द्वारा ज्ञानगंज आकाशमार्ग से ले आये गए थे। अतः विशुद्धानंद जी का अवतरण किसी धर्म की स्थापना अथवा साधु समाज के परित्राण के लिए नहीं हुआ था बल्कि उस तत्व विज्ञानं का संसार में प्रकाश करना था जिसे महात्मा बुद्ध ने अनुभव किया थाकिंतु उच्चतर प्रक्रिया आयत्त न होने के कारण उसे प्राप्त न कर सके थे। इसीलिए स्वामी जी ने मरदेह में अवस्थित होकर चिरकाल तक साधना की थी। उनका लक्ष्य था कि किस प्रकार मरदेह मृत्यु वर्जित होकर चिदानन्दमय नित्यदेह में परिणत हो सके। उनके अंतरात्मा में यह कामना छिपी थी किमनुष्य विज्ञानं पथ पर अग्रसर होकर अंत में विज्ञानं स्वरूप में अवस्थित हो। विज्ञानं के पथ को ही एकमात्र ऐसा पथ माना जिसपर चलकर क्षण एवम महाप्राण की प्राप्ति हो सकती है।
सन १९१८ ई में महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ कविराज को स्वामी जी ने दीक्षित किया था। ज्ञानगंज में स्वामी जी ने २० वर्ष तक तपस्या की थी। उनके आदेश एवम संरक्षण में अखण्ड महायोग की तीन कठिन साधनायें सत्रह सत्रह मास की उन्होंने पूरी की थी। स्वामी जी का कथन है कि सभी कार्यों का समय होता है। असमय में कोई भी कार्य सुसम्पन्न नहीं होता है। सूर्योदय,सूर्यास्त,मध्याह्न और महानिशा ये चार सन्धि क्षण बताते हुए वे कहते हैं कि सूर्योदय एवम सूर्यास्त में जो वस्तु प्राप्त होती है ,वह अधिक सूक्ष्मतर है। मानव हृदय में यदि सरसों भर भी पवित्रता रहे तो अखण्ड महामाया का विशुद्धभाव से ध्यान करने से जो ज्ञान आता है उसके उज्ज्वल तेज से सकल प्रकार के पाप -ताप,माया-यन्त्रणा,आसक्ति का मेल आदि सब कुछ भस्म हो जाते हैं। तब हृदय में महाशक्ति तथा जगत शक्ति का ज्ञानामृत प्रकाशित होकर जीव के कलुषित सन्तप्त चित्त रुपी महा आवरण से परित्राण पाता ही है। " विशुद्धानन्द जी जीव के उपासक थे। वे विशुद्ध सत्ता के रूप में चैतन्य सत्ता से भी अतीत है जो आलोक एवं अंधकार दोनों के अतीत उपस्थित होकर जीव को पूर्णतत्व प्राप्ति का पथ प्रदर्शन करने के लिए मृत्युलोक में अवतरित हुए थे। उनका अभिमत था कि मनुष्य देह में जबतक मनुष्यत्व की प्राप्ति नहीं होगी तबतक पूर्ण ब्रह्म अवस्था की प्राप्ति नहीं हो सकती। देवता अथवा ईश्वर की समकक्षता पाना मनुष्य का उद्देश्य नहीं है इसीलिए विशुद्धानंद जी ने नरदेह में अवस्थित होकर चिरकाल तक साधना की। उनका एकमात्र लक्ष्य यह था कि किस प्रकार नरदेह मृत्यु वर्जित होकर चिदानन्दमय नित्य देह में परिणित हो सके। उन्होंने आजीवन मनुष्य की साधना की अतः उनके लिए मनुष्यत्व ही साध्य था। जीव के उपासक होने के कारण जीवों का अभाव तथा अतृप्ति से उनका उद्धार करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य था और इसी उद्देश्य के प्रति वे जीवनभर सचेष्ट रहे।
विशुद्धानन्द परमहंस देव द्वारा काशीधाम स्थित अपने आश्रम में १४ फरवरी १८३५ ई को श्री श्री नवमुण्डी महासन की स्थापना की गयी थी एवम इस महासन का नाम चारों ओर प्रसारित हुआ। सन १९३२ ई में स्वामी जी की मूर्ति इस आश्रम में स्थापित की गयी थी। नवमुण्डी आसन परम् पवित्र एवम महनीय है इसका तत्व इतना गुह्य है कि साधारणतः इसके सम्बन्ध में स्वामी जी किसी को कुछ भी नहीं बताते थे। लौकिक कामनाओं की सिद्धि की असाधारण सामर्थ्य इसमें है। बहरी जगत में जैसे ब्रह्माण्ड है वैसे ही मनुष्य के देहरूप अंतर्जगत में भी ब्रह्माण्ड है अर्थात पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों स्तरों की बनावट एक ही प्रकार की है। जो योगी अपने देह की ब्रह्माण्ड के रूप में धारणा कर सकता है एवम इस धारणा से अपने को ब्रह्माण्ड के अधिष्ठाता के रूप में पहचान सकता है तभी वह ब्रह्मा के समकक्ष हो जाता है। स्वामी जी को इसीलिए सूर्यविज्ञान का प्रणेता एवम योगिराजाधिराज के रूप में जाना जाता है। स्वामी जी को किसी महाप्रयोजन हेतु अपने शरीर को संकुचित करना पड़ा था किन्तु उनका कर्मशरीर आज भी वैसा ही कार्य कर रहा है। उन्हें प्रतीक्षा है मनुष्यों में उचित आधार हेतु कुछ अवशिष्ट कर्म की और यही मां की पुकार है निकट भविष्य में यह कर्म शेष होने हैं और तब वे पुनः स्थूल शरीर में आत्मप्रकाश करेंगे। स्वामी जी जीवों के उपासक थे अतः वे जीवों के कल्याणार्थ मनुष्यों के दुःख आदि को सदा के लिए निवृत्त करने हेतु कृतसंकल्प हैं।
अखण्डमण्डलाकारं व्यापतं येन चराचरम।
तत्पदं दर्शितं येन , तस्मै श्री गुरुवे नमः।
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