Monday, August 8, 2016

स्वामी श्रीरामप्रसादाचार्य

जीवन- परिचय :-
 अयोध्या की सन्त परम्परा में स्वामी श्रीरामप्रसादाचार्य जी एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिनके योग एवम सिद्धियों के दिव्य प्रकाश से अयोध्या सदियों तक प्रकाशित रही है। स्वामी रामप्रसादाचार्य जी का जन्म श्री हनुमान जी महराज की असीम अनुकम्पा से एवम श्री रघुनाथ जी की आराधना के फलस्वरूप विक्रम सम्वत १७६० [सन १७०३ ई० } श्रावण तिथि  सप्तमी को ब्राह्ममुहूर्त वेला  में लक्ष्मणपुर सम्प्रति लखनऊ नगर से पश्चिम छः कोश  की दूरी पर स्थित मित्रपुर सम्प्रति मलीहाबाद के समीप वक्तयारपुर नामक  ग्राम में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हीरामणि एवम माता का नाम सुशीला देवी था।इनके दो बड़े भाई थे जो पिता की इच्छा के अनुरूप पठन -पाठन में प्रवीण नहीं थे।  इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई थी  एवं आठवें वर्ष में इनका उपनयन संस्कार भी सम्पन्न करा दिया गया था और तभी से वे ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट हो गए थे।  बाद में एक ब्राह्मण कन्या के साथ इनका विवाह करवा दिया गया और इसके बाद वे गृहस्थ जीवन बिताने लगे।इनके दोनों भाई इनसे अलग रहते थे।  इनकी दो सन्तानें भी थीं किन्तु पत्नी के आकस्मिक देहान्त हो जाने के कारण माता-पिता एवम दोनों सन्तानों की देखभाल एवम लालन-पालन का गुरुतर दायित्व इनके ऊपर आ गया था। इन्ही परिस्थितयों में अपनी सहधर्मिणी की मृत्यु के कुछ दिन पश्चात ही इन्होंने वैराग्य ग्रहण करने का निश्चय कर लिया था।श्री वसावन नामक विद्वान से शास्त्र एवं पुराण का विधिवत अध्ययन कर उनसे ज्ञानार्जन प्राप्त किया। बचपन से ही वे धर्मपरायण थे और साधु सन्तों की सेवा एवम लोकसेवा के प्रति तत्पर रहते थे। उनके इस स्वभाव को देखकर उनके दोनों बड़े भाई चिंतित रहा करते थे कि इस प्रकार इनकी गृहस्थी कैसे चलेगी ?अतः भाइयों ने इनको घर से निकल दिया तब रामप्रसाद जी पत्नी सहित वहीं पर पर्णकुटी बनाकर रहने लगे और रामनाम कीर्तन व साधु-सेवा में रत हो गए। रामप्रसाद जी का एक कायस्थ मित्र था जिसका नाम भी रामप्रसाद ही था।  वह इन दोनों की उस समय सहायता व सेवा भी करता था।   
श्रीरामप्रसादाचार्य जी ने वैष्णवों से श्रीहरिदास जी के गुणों के सम्बन्ध में काफी सुन रखा था अतः वे दीक्षा लेने हेतु रहस्य पत्रादि प्राप्ति विषयक प्रश्नों के समाधान हेतु श्री हरिदास महराज जी के पास गए और जब इन्होंने वैष्णव दीक्षा प्राप्त करने हेतु उनसे सविनयपूर्वक आग्रह किया तब श्रीहरिदास जी ने अपनी सहर्ष स्वीकृति देते हुए विधि-विधानपूर्वक उन्हें पञ्च संस्कारों से संस्कारित करके रहस्यमन्त्र {षड़क्षर मन्त्र },राम शरणागति मन्त्र, चरम मन्त्र और अर्थादि उनको प्रदान करते हुए गुरु दीक्षा प्रदान कर दी थी ।  गुरुदीक्षा प्राप्त करने के बाद रामप्रसाद जी गुरु की आज्ञा लेकर तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। सर्वप्रथम नैमिषारण्य आकर वैष्णवों के मध्य श्रीराम कथा सुनाने लगे और यहां एक मास निवास करने के पश्चात वे श्रीराम जन्मोत्सव देखने हेतु अयोध्या आ गए और अयोध्या आगमन के पश्चात वे सर्वप्रथम  श्री सरयू जी के दर्शन कर उनकी स्तुति की और फिर स्वर्णखनिकुण्ड पर आकर विश्राम-वास किया। यहां से वे नित्य रामघाट जाकर प्रतिदिन सरयू में स्नान करने लगे और प्रतिदिन रामपंचायतन का विधिवत पूजन- यजन और षड़क्षर श्री मन्त्रराज का अनुष्ठान आदि को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित कर लिया। पूजन के बाद वे नित्य श्रीरामकोट और कनक भवन का दिव्यदर्शन करना एवम उनकी परिक्रमा को भी अनिवार्य नियम में समाहित कर लिये थे। 
साधना- पथ :- 
वैशाख सुदी नवमी को श्रीकनक भवन  में श्रीसीता जन्मोत्सव को देखकर वे भावसमाधिस्थ से हो गए थे और उनका सम्पूर्ण शरीर एवम रोम उत्फुल्ल व प्रफुल्लित हो उठा।  तन-मन की सुधि- बुधि खोकर वे सीतामय हो गए थे और जब परमानन्द सागर में आपादमस्तक निमज्जित होने लगे तो वे काफी देर तक वहीं बैठकर मां सीता की अनुपम छवि को आत्मसात करते रहे। अगले दिन के नित्य नियम के सम्पादन में उन्हें किंचित विलम्ब हो गया क्योंकि उस दिन वे देर रात्रि तक जागते रहे थे तथा जनकजा के दिव्य- दर्शन में विकल हो उठे थे जिसके कारण उन्हें काफी देर बाद नींद आयी थी। नियम में विलम्ब हो जाने की हीनतावश और तीव्रता में तिलकमध्य श्रीधारण करने को वे इसी विकलता के कारण भूल गए थे किन्तु अपनी इस भूल का संज्ञान आने पर उन्हें अपराधबोध हुआ और श्रीजनकलली से प्रार्थनापूर्वक क्षमा याचना करने लगे। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री जनकनन्दिनी उनके सम्मुख स्वयं प्रकट होकर उन्हें दिव्य दर्शन दिए और निजदास पर करुणापूर्ण दृष्टि की वृष्टि करती हुई बोलीं -- "हे वत्स ,शोकार्त मत हो ,तुम शीघ्रता में तिलकमध्य श्रीधारण न कर मेरी ही तो सेवा व पूजा में तत्पर हुए हो ,इसलिए मैं अपने करकमलों से तुम्हारे भाल पर बिन्दु {टीका }लगा देती हूँ। इससे तुम जगत में प्रसिद्ध हो जाओगे। अब तुम जाकर मेरी आज्ञा को स्वीकार करके रत्नसिंहासन के पूर्व द्वार पर निवास करो। वहां मेरी सेवा में अनुरत रहने से तुम्हारा सर्वाभीष्ट पूर्ण होगा " जगद्जननी मां सीता के करकमलों से अपने भाल पर टीका लगाने के पश्चात  अंतर्ध्यान हो गयीं। श्री रामप्रसादाचार्य जी का ऊर्ध्वपुण्ड तिलक से भूषित भाल देखकर सभी वैष्णव विस्मित हो उठे किन्तु स्वामी जी तो अपने जीवन को धन्य मानते हुए इसे  अपना सौभाग्य समझ लिया । इसके बाद स्वामीजी माता सीता के आदेशानुसार मन्दिर के बाहरी दरवाजे पर स्थित एक कक्ष में रहने लगे।  यह स्थान "बड़ा स्थान"श्री चक्रवर्ती महाराज दशरथ के राजमहल  ,बड़ी जगह के नाम से प्रसिद्ध है और यहां पर स्थित मन्दिर आज भी यथावत विद्यमान है। इसी घटना के बाद वैष्णव जन इसे अपना भी सौभाग्य मानने लगे किन्तु कुछ लोग तिलक देखकर तरह तरह की बातें करते हुए इसे अपशकुन भी  बताने लगे थे । कुछ वैष्णव सन्तो ने उनके भाल पर लगे हुए तिलक को ईर्ष्यावश बार बार धुलने का प्रयास भी किया लेकिन जगद्जननी जगदम्बा के करकमलों के संस्पर्श से भूषित वह दैवीय तिलक भला कैसे छूटता। परिणामस्वरूप सभी वैष्णव  अंत में नतमस्तक हो गए और तभी से  श्रीमदरामप्रसादाचार्य जी महराज   "आदयविन्दुगद्याचार्य" के नाम से विश्व प्रसिद्ध हो गए। इसके बाद स्वामीजी प्रत्येक वर्ष मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को नियम से श्रीसीताराम जी का विवाहोत्सव मनाने लगे।दूर देश से  एवं विदेशों से अयोध्या आये हुए श्रद्धालुगण स्वामी रामप्रसाद जी से रामकथामृत का श्रद्धापूर्वक श्रवण करते और अपने को धन्य मानते। परमकृपालु महराज रामप्रसाद जी के परम् शिष्य श्रीरघुनाथप्रसादाचार्य उनकी सेवा सुश्रुखा में लग गए और बाद में रामप्रसाद जी से उन्होंने दीक्षा भी ली। आचार्य लक्षणयुक्त उन महात्मा के बहुत से विरक्त शिष्य हुए और कालान्तर में अनेकों सद्गृहस्थ और विरक्त शिष्यों की अविच्छिन्न परम्परा प्रवाहित होती  गयी। इसी परम्परा के अन्तर्गत श्री रामप्रपन्न तिवारी जी को भी श्रीरामप्रसादाचार्य जी ने विधि विधानपूर्वक पञ्च गव्य के साथ चन्द्रिका,मुद्रिका ,रामनाम व धनुषबाण इन चारों संस्कारों द्वारा दीक्षित करके उन्हें "रामचरणदास "के नाम से विभूषित करते हुए अपना प्रिय शिष्य बना लिया । 
 स्वामी रामप्रसादाचार्य जी नवमुण्डी आसन एवम पँचमुण्डी आसन में सिद्धस्थ थे जिसके कारण वे अपनी साधना द्वारा महासिद्धि प्राप्त कर ली थी। कई बार लोग उनके अलौकिक चमत्कार से हतप्रभ  भी हो चुके थे। उस समय पञ्चमुंडी आसन की चर्चा भारतीय तन्त्रशास्त्र में थोड़ी बहुत दृष्टिगोचर होने लगी थी। इसी समय स्वामी रामकृष्ण परमहंस और साधक कमलाकांत आदि ने पँचमुण्डी आसन पर बैठकर अपनी साधना द्वारा विलक्षण सिद्धि प्राप्त कर ली थी। स्वामी रामप्रसादाचार्य जी  अपनी इस सिद्धि का सदुपयोग सर्वमुक्ति व लोकहित के कार्यों में करते थे और आडम्बर से वे सदैव दूर रहते थे। सिद्धि द्वारा अप्रत्यक्ष का ज्ञान होने की एक घटना उस समय देखने को मिली जब श्री राम प्रपन्न तिवारी श्रीहनुमत्प्रेरणा से वैराग्य हेतु कालाकांकर से अयोध्या के लिए प्रस्थान किये थे और अयोध्या स्थित इसी  बड़ा स्थान या बड़ी जगह  पर आकर मन्दिर के कपाट तत्समय  बन्द हो जाने के कारण मन्दिर की सीढ़ियों पर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बैठ गए थे तब स्वामी रामप्रसादाचार्य जी को इसकी अनुभूति हो चुकी थी। चूँकि वे उस समय अस्वस्थ थे, अतः उन्होंने अपने उत्तराधिकारी एवम परमप्रिय शिष्य श्री रघुनाथप्रसादाचार्य {दीनबन्धु }को मन्दिर के बाहर बैठे हुए श्री राम प्रपन्न तिवारी को सादर अपने पास ले आने का आदेश दिया था। श्री राम प्रपन्न तिवारी के आगमन से वे अत्यन्त गदगद हो उठे और उसी समय एक महोत्सव आयोजित कर उनका नामकरण "रामचरन दास "करते हुए अपने पर्रिकर में उन्हें सम्मिलित कर लिया था । ऐसा उन्होंने अपनी साधना से प्राप्त सिद्धि द्वारा प्राप्त पूर्वाभास के कारण ही किया था। इस घटना का वर्णन श्रीकरुणामणिमाला में इस प्रकार किया गया है --
                             कहि समुझाय प्रमाण,महिमा कण्ठी तिलक की। 
                             युगल गुरुहिं सनमान,पादोदक मुख श्री धरयो। 
                             कुसुमन माल प्रसाद,उठवत आपुहिं गिर परेऊ। 
                             सद्गुरु  रामप्रसाद  तब, लै उठाय  पहिरायऊ।
स्वामी रामप्रसादाचार्य जी अपने जीवन के अंतिम काल में अयोध्या का समस्त कार्यभार अपने शिष्य श्रीरघुनाथप्रसादाचार्य जी को देकर चित्रकूट आ गये थे और यहाँ चित्रकूट की प्रदक्षिणा करके उसके ही निकट ईशान दिशा में पर्णकुटी बनाकर वे कुछ दिन तक प्रवास भी किये थे। चित्रकूट में  ही एक स्रवतकुष्ठी  महायोगी पूर्णनामधारी ब्राह्मण को कुष्ठ रोग से रोता एवम  विलखता हुआ देखकर वे दयार्द्र हो गए थे  और उसके अनुनय विनय को देखते हुए तत्क्षण उन्होंने उसे श्री सीता राम जी का चरणोदक दे दिया जिसके पान करते ही वह ब्राह्मण पूर्ण स्वस्थ हो गया था।यह घटना उनके करुणामय हृदय व सिद्ध महायोगी होने का प्रमाण है।यह ब्राह्मण बाद में पूर्णदास के नाम से उनका शिष्य बन गया था।  इसके बाद वे अयोध्या वापस आ गए और श्रावण, शुक्ल पक्ष,तिथि  तृतीया  सम्वत १८६१ सन १८०४ ई० को महासमाधि ले ली।      
स्वामी रामप्रसादाचार्य जी को आदयविंदुगद्याचार्य  की जो महाउपाधि प्राप्त हुई थी, वह परम्परा आज भी बड़ा स्थान अयोध्या में सतत प्रवाहित है और इस परम्परागत पीठ पर सम्प्रति बिन्दुगाद्याचार्य महंत श्री देवेन्द्रप्रसादाचार्य जी विराजमान हैं। स्वामी जी ने अपने १०१ वर्ष के जीवनकाल में अयोध्या की सन्त परम्परा को  बहुत अधिक ऊँचाइयों तक पहुंचाया था तथा अपने संरक्षण में रसिकपीठ की स्थापना करवायी और उस पीठ पर श्री रामचरणदास "करुणासिन्धु जी महराज" को प्रतिष्ठित किया था। यह परम्परा भी यथावत चल रही है और इस पीठ पर सम्प्रति रसिक पीठाधीश्वर जनमेजय शरण जी महराज विद्यमान हैं। यही नहीं उनके द्वारा संस्थापित अन्य परम्पराएं व पीठ अभी भी यथावत संचालित हैं। 
श्री रामप्रसाद पदपद्म पवित्र रेणून मूघ्नारवहामि संततं शुभलब्धयेहम। 
येनावतीर्य भुवि वैष्णव सम्प्रदायः सञ्चारितस्सकल लोकसुखाय शुद्ध:।          

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