Wednesday, October 19, 2016

आत्माभिव्यक्ति

              
भारतवर्ष में जितने भी सन्त महात्मा पैदा हुए हैं, शायद उतने संसार के किसी भी देश में नहीं। सम्भवतः ऐसा इसलिए क्योंकि भारत की भूमि प्राचीनकाल से ही देवभूमि मानी जाती रही है तथा धर्म एवं अध्यात्म का संदेश भारतवर्ष आदिकाल से ही सम्पूर्ण संसार को देता रहा है। सन्त साक्षात ईश्वर के प्रतिरूप माने जाते रहे हैं क्योंकि उनमें न्यूनाधिक ईश्वरीय गुण अथवा उसके लक्षण दिखलायी अवश्य पड़ते हैं। आत्मानुभूति के मार्ग पर चलकर वे ईश्वरीय कृपा प्राप्त कर लेते हैं और उसी कृपा के माध्यम से पीड़ित ,असहाय एवं दुःखी व्यक्तियों की पीड़ा को दूर करके उन्हें सुख व संतोष प्रदान करते रहे हैं। 
वैसे तो संत पुरुष के स्वरूप को किसी भी परिभाषा के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है क्योंकि परिभाषा द्वारा उनका स्वरूप सीमित हो जायेगा तथा उनकी अर्हता भी निर्धारित हो जाएगी फिर भी सन्त दो प्रकार के माने जाते हैं-प्रथम ऐसे सन्त जो भक्ति को ज्ञान की जननी मानते हैं और दूसरे ऐसे सन्त जो ज्ञान को ही भक्ति का मूलस्रोत मानते हैं। कुछ सन्त इन दोनों के समन्वित दृष्टिकोण को लेकर अपने साधना -पथ पर आगे बढ़ते हैं। संत के लिए किसी प्रकार की शैक्षिक व अन्य अर्हताएं निर्धारित करना कदाचित उपयुक्त न होगा क्योंकि भारतीय सन्त परम्परा में कुछ ऐसे सन्त भी हुए हैं जो कोई भी शैक्षिक अर्हता नहीं रखते थे फिर भी अपने आचरण ,कार्य एवं ईश्वर के प्रति अटूट आस्था रखने के कारण वे भारतीय जन मानस में पूज्य रहें हैं। जनकल्याण की भावना तथा ईश्वर के प्रति अटूट निष्ठां ये दोनों लक्षण ही उनको पूज्यनीय बनाने हेतु पर्याप्त हैं।संत को गुरु की उपाधि से भी विभूषित किया जाता है और गुरु का गुरुतर कार्य भक्त को भगवान का साक्षात्कार कराना माना गया है। गुरु और भगवान की द्वैत स्थिति का वर्णन करते हुए गुरु नानकदेव जी ने अपने प्रसिद्ध दोहे के माध्यम से कहा है --
                                            गुरु गोविन्द दोउ खड़े,, काके लागूँ पाँय। 
                                              बलिहारी गुरु आपने ,गोविन्द दियो बताय। 
गुरु नानकदेव ने भगवान की अपेक्षा गुरु को अधिक महत्ता प्रदान की है क्योंकि गुरु ही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है। सामान्यतः मनुष्य किसी सन्त अथवा गुरु की शरण में इसीलिए जाता है कि गुरु उसे सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करते हुए ईश्वर तक पहुँचाने में सहायक होगा। ऐसा वही सन्त कर सकता है जो स्वयम सदाचार के मार्ग पर चलकर ईश्वर का दर्शन प्राप्त कर चुका हो। ऐसे सन्त में ईश्वर का दर्शन यदि भक्त करता है तो गुरु नानकदेव के उक्त कथन की स्वयम पुष्टि हो जाती है क्योंकि गुरु नानकदेव ने ऐसे ही गुरु की परिकल्पना की थी।गुरु के सम्बन्ध में शास्त्रों में कहा गया कि :--
                                  
                                  न  गुरोरधिकं  तत्वम, न  गुरोरधिकं  तपः। 
                                   न  गुरोरधिकं  ज्ञानं, तस्मै  श्री गुरुवे  नमः। 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोध करने के दौरान मुझे पँ श्रीराम शर्मा आचार्य जी का सानिध्य प्राप्त हुआ था और उस विराट व्यक्तित्व ने निश्चित ही मेरे जीवन को एक नई दिशा प्रदान की। वर्ष २०१५ में जब मैं कनिष्ठ पुत्र राजीव के आकस्मिक निधन के कारण कठिन दौर से गुजर रहा था ,ऐसे समय में महांत जन्मेजय शरण जी एवम बिन्दुगाद्याचार्य देवेंद्रप्रसादाचार्य जी द्वारा अपनेक्यों न भारत के अग्रणी सन्तों पूज्य गुरु स्वामी करुणासिन्धुजी महराज की पुण्य स्मृति में उनकी जन्मस्थली ग्राम गोपालपुर ,प्रतापगढ़ में नवकुण्डीय श्रीराम महायज्ञ का आयोजन किया गया था और उसमें मुझे भी सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चूँकि श्रीकरुणासिन्धुजी मेरे पूर्वज {पितामह }थे ,अतः ऐसे पुनीत अवसर पर उनकी पूण्य स्मृति में एक स्मारिका प्रकाशित करते हुए उनके जीवन-दर्शन को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। इसके बाद ही मेरे मन में यह विचार उठने लगा किक्यों न भारत के अग्रणी सन्तों के जीवन -दर्शन को एक पुस्तक में प्रकाशित किया जाये ?इस परिकल्पना को मैंने "हमारे पूज्य सन्त "नामक इस पुस्तक में साकार करने का प्रयास किया है। इस प्रयास में मैं कहाँ तक सफल हुआ,इसका निर्णय तो सुधी पाठकगण ही करेंगे। 
ऐसे सत्ताइस सन्तों के चयन में महांत जन्मेजय शरण जी एवम महांत देवेंद्रप्रसादाचार्य जी का मार्गदर्शन मिला तथा स्वामी आनन्द जी ,स्वामी मंजुलदास जी ,ब्रजेश कुमार मिश्र,श्रीरामेशचंद्र त्रिपाठी,श्री सत्यदेव मिश्र,डॉ दिनेश चन्द्र अवस्थी,इं सुनील बाजपेई ,श्री राजमणि दुबे का सहयोग प्राप्त हुआ। श्री संजीव त्रिपाठी,कु० पूर्णिमा एवम ज्योत्सना ,आयुष त्रिपाठी ने पुस्तक के कवर पृष्ठ एवम संतों के चित्रों को संकलित करने में विशेष योगदान दिया तथा श्री अरुण कुमार जग्गी ने उत्साहपूर्वक इस पुस्तक को "प्रिंट आर्ट आफसेट "प्रेस से मुद्रित किया। अतः इन सभी को साधुवाद देते हुए आशा करता हूँ कि पाठकगण इन संतों के जीवन दर्शन को आत्मसात अवश्य करेंगे।
                ॐ शान्तिः। तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु। ॐ शान्तिः। 

दिनाँक १३ मार्च ,२०१७                                                               डॉ० जटाशंकर त्रिपाठी 
                                                                                             मो ० ९४५४४१३३४६ ,७९०५४३६७९५ 

लेखक-परिचय

डॉ जटाशंकर त्रिपाठी का जन्म ६ अप्रैल १९५८ ई० को उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रतापगढ़ जिलान्तर्गत कुंडा तहसील स्थित ग्राम गोपालापुर में हुआ था। अपने पिता स्व० शिवशंकर त्रिपाठी एवं माता स्व० रामदुलारी ने अपनी अनेकों मनौतियों के फलस्वरूप आठवीं सन्तान के रूप में इनको जन्म दिया था। अतः इनका लालन-पालन एवं प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही सम्पन्न हुई तथा आठंवीं  की परीक्षा जूनियर हाईस्कूल बहोरिकपुर विद्यालय से तथा हाईस्कूल एवं इंटर की परीक्षा छत्रधारी इंटर मीडिएट कालेज  लखपेड़ा कोटा भवानीगंज से उत्तीर्ण की।स्नातक की पढ़ाई हेतु प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और यहीं से स्नातक एवं स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण करके डी०फिल०की उपाधि दर्शनशास्त्र में प्राप्त की।इनका विवाह श्रीमती शांति देवी से हुआ एवम इन्होंने दो पुत्र सञ्जीव एवं राजीव तथा दो पुत्रियां पूर्णिमा एवं ज्योत्स्ना को जन्म दिया किन्तु वर्ष २०१५ में कनिष्ठ पुत्र राजीव, जो पूर्वांचल ग्रामीण बैंक में सहायक मैनेजर थे, की आकस्मिक मृत्यु से इन्हें गहरा आघात लगा।विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान ही अपनी साहित्यिक अभिरुचि को साकार करते हुए इन्होंने  कविताएं,कहानी एवम लेख आदि लिखना आरम्भ कर दिया था तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके प्रकाशन के साथ ही आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद से रेडियो कार्यक्रमों  के प्रसारण में भी सहभागिता करने लगे थे ।वर्ष १९८९ ई ० में लोकसेवा आयोग से सहायक समीक्षा अधिकारी के पद  पर उत्तरप्रदेश सचिवालय में चयनित हुए और सम्प्रति डिप्टी सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत हैं।इनका शोध प्रबन्ध "भारतीय समकालीन दर्शन में प्रो० रानडे के योगदान "को एकेडमी ऑफ कम्परेटिव फिलासफी एन्ड रिलीजन ,बेलगांव ,कर्नाटक द्वारा वर्ष १९८२ ई में प्रकाशित किया गया था । इनका काव्य संग्रह"श्रृंखला"वर्ष १९८९ में एवं"जीवेम शरदः शतम {योगासन,प्रणायाम एवं ध्यान}"वर्ष २०१४ ई में प्रकाशित हुआ। राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान उत्तरप्रदेश द्वारा इन्हें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं साहित्य गौरव इक्यावन हजार एवम दो हजार रुपये का  पुरस्कार एवं सम्मानपत्र प्रदान किया गया था । रसिकपीठ जानकीघाट बड़ा स्थान, श्रीअयोध्या के संस्थापक अनंत श्रीविभूषित स्वामी करुणासिन्धु जी महराज,जो इनके पूर्वज थे, के ३४१वीं जन्मतिथि पर उनकी जन्मभूमि ग्राम गोपालापुर कुंडा, प्रतापगढ़  में माह अप्रैल २०१५ को सम्पन्न हुए नवकुंडीय श्रीराम महायज्ञ के अवसर पर उनकी पुण्यस्मृति में एक स्मारिका का प्रकाशन करके अपनी धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभिरुचि को मूर्तरूप देते हुए तदुपरान्त"भारत के प्रमुख तीर्थस्थल"एवं"हमारे पूज्य सन्त" नामक दो पुस्तकों की रचना की। सम्प्रति  "गाओ मेरे मन"काव्य संग्रह एवं महात्मा बुद्ध एवं बौद्धस्थल प्रकाशनाधीन है।

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    डॉ० प्रणव पण्ड्या, एम डी {मेडिसिन }
कुलाधिपति -देव संस्कृति विश्वविद्यालय 
प्रमुख -अखिल विश्व गायत्री परिवार 
निदेशक -ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान 
सम्पादक -अखण्ड ज्योति                                                                        २५ अगस्त २०१६ 
                                                                                                          श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 

                                                                 " दो शब्द " 

यह जानकर प्रसन्नता है कि परमपूज्य गुरुदेव पँ० श्रीराम शर्मा आचार्य जी एवं परम् वन्दनीया माताजी के प्रति असीम श्रद्धा रखने वाले हमारे अभिन्न डॉ जटाशंकर त्रिपाठी ने "हमारे पूज्य सन्त" विषय पर लेखनी चलाई है एवं इसे ग्रन्थ का रूप दिया है। इसके अन्तर्गत महात्मा बुद्ध,आद्यगुरु शंकराचार्य,गुरु गोरखनाथ,सन्त नामदेव,सन्त ज्ञानेश्वर,गोस्वामी तुलसीदास,गुरु नानकदेव,सन्त एकनाथ,स्वामी दयानन्द सरस्वती,स्वामी रामकृष्ण परमहंस,स्वामी विशुद्धानन्द परमहंसदेव जी ,स्वामी विवेकानन्द,महर्षि अरविन्द,स्वामी रामतीर्थ,सन्त रानाडे, पँ० गोपीनाथ कविराज,ठाकुर अनुकूल चन्द्र,सन्त देवराहा बाबा,स्वामी करपात्रीजी ,कृपालु जी एवं पँ० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के जीवन- परिचय, कृतित्व एवं साधनापथ का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। 
यूँ तो इन महापुरुषों की जीवनी विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध है लेकिन अपने स्वाध्याय एवं अनुभूति के आधार पर तथ्यपूर्ण साधना विधानों के साथ प्रेरक स्वरूप में इनके विचारों को लिखना निश्चित रूप से विशेष पुरुषार्थ है। इसे गागर में सागर भरने की संज्ञा दी जा सकती है। तुलसीदास जी की जीवनी में आपने रत्नावली के वाक्य को इस रूप में प्रस्तुत किया है -"मेरे इस हांड-मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आशक्ति है यदि इसकी आधी आशक्ति भी भगवान से होती तो तुम्हारा बेडा पार हो गया होता। लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ। धिक् धिक् ऐसे  प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ। अस्थि चर्ममय देह ममतामें ऐसी प्रीति। तैसी जो श्रीराम महँ ,होति न भव भीति। कहते हैं कि ये शब्द तुलसीदास जी को बाण की तरह आहत कर दिए और बिना कोई क्षण बिताये सीधे काशी चले गए एवं अपने गृहस्थ वेश का परित्याग कर साधुवेश धारण कर लिया। 
स्वामी रामप्रसादाचार्य के विषय में लिखा है -"स्वामी जी अपने १०१ वर्ष के जीवनकाल में अयोध्या की सन्त -परम्परा को ऊंचाइयों तक पहुँचाया था तथा रसिकपीठ की स्थापना करके उस पद पर श्रीरामचरणदास "करुणासिन्धु जी महराज" को प्रतिष्ठित किया था। पँ० गोपीनाथ कविराज के सम्बन्ध में वक्तत्य है "बाहरी जगत में जैसे ब्रह्माण्ड है, वैसे ही मनुष्य के देहरूप अंतर्जगत में भी ब्रह्माण्ड है अर्थात पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों स्तरों की बनावट एक ही प्रकार की है। जो योगी अपने देह को ब्रह्माण्ड के रूप में धारण कर सकता है एवं इस धारणा से अपने को ब्रह्माण्ड के अधिष्ठाता के रूप में पहचान सकता है तभी वह ब्रह्मा के समकक्ष हो जाता है। श्री अरविन्द के बारे में मार्मिक पंक्तियाँ हैं -स्वामी विवेकानन्द के पश्चात भारतीय समकालीन दर्शन का विकास महर्षि अरविन्द के संरक्षण में उत्तरोत्तर आगे बढ़ा। इनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है इनका गम्भीर चिन्तन एवं स्पष्ट लेखन। इनकी रचनाएँ एक प्रकार से उनके मानसिक स्तर एवं अप्रतिम व्यक्तित्व की सर्वोत्तम प्रतिनिधि है। इनकी प्रतिभा का सर्वतोमुखी स्वरूप इनकी बुद्धि की भेदन शक्ति,असाधारण अभिव्यक्ति क्षमता,उत्कट निष्ठा एवं उद्देश्य की एकांतिकता आदि का सहज अनुभव इनकी कृतियों से आसानी से हो जाता है। डॉ ए सी भट्टाचार्य का इनके बारे में कथन है -भारत के स्वतन्त्रता यज्ञ के ऋत्विक आचार्य यदि स्वामी विवेकानन्द को कहा जाये तथा मन्त्र द्रष्टा ऋषि बंकिम को कहा जाये तो निःसन्देह रूप से श्री अरविन्द उस यज्ञानुष्ठान के प्रमुख पुरोधा कहे जायेंगे। 
स्वामी विवेकानन्द को आपने भारतमाता के सच्चे सपूत व देशप्रेमी की संज्ञा दी है। १७ दिनों की धर्मसभा की कार्यवाही में स्वामी जी कई बार भाषण दिए और २७ सितम्बर को अंतिम भाषण हुआ। अमेरिका के प्रसिद्ध समाचारपत्र न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा -स्वामी विवेकानन्द धर्मसभा में निःसन्देह सबसे महान व्यक्तित्व हैं। उनका भाषण सुनकर हमें ऐसा लग रहा है कि इतने विद्वानों के देश को धर्म प्रचारक भेजना कितनी मूर्खता की बात है। अन्य समाचारपत्रों में भी उनकी फोटो के साथ विस्तृत भाषण छपे। धर्म सम्मेलन के बाद वे अमेरिका में प्रचारक के रूप में यत्र-तत्र भ्रमण किये। वे जहाँ भी जाते हजारों लोग उनको सुनने हेतु आतुर दिखने लगे। प्रत्येक भाषण में उनका देशप्रेम से भरा  हुआ हृदय उभरकर सामने आ जाता था। उन्होंने स्वयं कहा था कि मैं उस धर्म का प्रचार करने जा रहा हूँ बौद्धमत जिसका बिगड़ा हुआ बच्चा है और ईसाई धर्म दूर की गूंज मात्र। 
वेदमूर्ति तपोनिष्ठ परम् पूज्य गुरुदेव एवम परम् वन्दनीया माताजी भगवतीदेवी शर्मा  को भी हमारे पूज्य सन्त में सम्मिलित करते हुए आपने लिखा है -सन १९३५ ई के पश्चात उनके जीवन का नया दौर आरम्भ हुआ जब गुरु सत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पांडिचेरी आश्रम,रवीन्द्रनाथ टैगोर सी मिलने शांतिनिकेतन तथा महात्मा गाँधी से मिलने साबरमती आश्रम गए। सांस्कृतिक आध्यात्मिक मोर्चे पर राष्ट्र की स्वतन्त्रता हेतु उपयुक्त मार्ग निकाले जाने सम्बन्धी सुझाव व अनुष्ठान यथावत चलाते रहते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और आगरा से प्रकाशित हो रहे सैनिक समाचारपत्र के सम्पादक श्री कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पर्क में आये और उनके साथ सहसम्पादन का कार्य किया। बाबू गुलाबराय व पालीवाल से सम्पादन के गुर सीखकर ही उन्होंने सन १९३८ ई में अखण्ड ज्योति पत्रिका के प्रकाशन प्रारम्भ किया। यह कार्य उन्होंने आरम्भ में परिजनों के नाम पाती लिखकर पैर से संचालित मशीन द्वारा मात्र २५० पत्रिका छपवाने से की थी किन्तु क्रमशः इसकी संख्या बढ़ती गयी और आज अखण्ड ज्योति की पन्द्रह लाख प्रतियां विभिन्न भाषाओँ में प्रकाशित हो रही है। इसके साथ विज्ञान एवं आध्यात्म का समन्वय करने वाले ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना ,स्वतन्त्रता आंदोलन एवम रचनात्मक कार्यक्रमों को भी बारीकी से प्रस्तुत किया। इसके लिए आपने चेतना की  शिखर यात्रा एवं मेरी वसीयत सहित अन्य साहित्य का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया है। आपने युग ऋषि द्वारा प्रकाशित प्रमुख पुस्तकों की सूची  भी दी है।
डॉ जटाशंकर त्रिपाठी को "हमारे पूज्य सन्त "के प्रकाशन हेतु हार्दिक साधुवाद देता हूँ। उनके मंगलमय जीवन की कामना करते हुए मैं सूक्ष्मसत्ता में विराजमान परम्  पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माता जी से यह प्रार्थना करते हूँ कि वे डॉ जटाशंकर त्रिपाठी को इसी प्रकार सत्कार्य में सतत संलग्न रहने ,साहित्यिक प्रतिभा निखारने एवं अभ्युदय निःश्रेयस का लाभ प्राप्त करने का आशीर्वाद प्रदान करें। 

                                                                                                           डॉ0प्रणव पण्ड्या  
                                                                        शान्तिकुञ्ज ,हरिद्धार    

आशीर्वचन

अनंत श्री विभूषित कनिष्ठ जगतगुरु शंकराचार्य                       श्री चौमुखनाथ परमधाम आश्रम 
स्वामी आत्मानंद सरस्वती जी महराज                                              ग्राम लखरौनी पथरिया 
राष्ट्रिय अध्यक्ष -विश्व हिन्दू जागरण परिषद                                        जिला- दमोह {म० प्र० }
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष -श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण न्यास, अयोध्या


                                                                    आशीर्वचन 

परम् श्रद्धेय, डॉ जटाशंकर त्रिपाठी  जी ,
                                      आप द्वारा लिखी गयी दोनों पुस्तकों "भारत के प्रमुख तीर्थस्थल "एवम "हमारे पूज्य सन्त "को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। निश्चित ही आपके द्वारा किया जा रहा आध्यात्मिक एवं वैदिक प्रयास निश्चित ही राष्ट्र के लिए अलौकिक सम्पदा के रूप में संचित होगी। इसी आशा के साथ आपके दीर्घायु होने की शुभकामना सहित। 
                                                                                                 


                                                                                           स्वामी आत्मानंद सरस्वती


              रसिक पीठाधीश्वर जन्मेजय शरण जी महराज                                        १५ अगस्त २०१६ 
जानकीघाट,बड़ा स्थान ,श्री अयोध्या, उ० प्र०                                           स्वतन्त्रता दिवस  

                                                               शुभकामना सन्देश 

                                          गंगादि  तीर्थेषु  वसन्ति मत्स्या,देवालये  पक्षिगणाश्च सन्ति। 
                                            भावोझितास्ते न फलं लभन्ते,तीर्थाच्चदेवायतनाच्चमुख्यात। 
                                              भावं ततो हृत्कमले निधाय ,तीर्थानि सेवेत समाहितात्मा। 
                                                                                                                            {नारद पुराण }
अर्थात गंगा आदि तीर्थों में मछलियां रहती हैं तथा देव मन्दिरों में पक्षीगण रहते हैं किन्तु उन्हें तीर्थ एवं देव मन्दिरों में निवास करने का कोई पुण्य प्राप्त नहीं हो पाता है क्योंकि उनके चित्त में भावभक्ति की श्रद्धा नहीं होती है। अतः हृदय कमल में भक्तिभाव धारण करके एकाग्रचित्त होकर तीर्थ-सेवन करना चाहिए। 
तीर्थस्थलों को परिभाषित करते हुए शास्त्रों में कहा गया है कि "तरति संसार महार्णवं येन तत तीर्थमिति"अर्थात जो संसार रूपी भवसागर को पार कराने में समर्थ है ,ऐसे तरने की यात्रा को ही तीर्थयात्रा कहते हैं। स्कन्दपुराण में स्थावरतीर्थ,जंगमतीर्थ एवं मानसतीर्थ तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि सतयुग में ध्यान द्वारा ,त्रेतायुग में यज्ञानुष्ठान द्वारा,द्वापरयुग में भगवान की पूजा करके जो पुण्य प्राप्त होता है वह पुण्य कलियुग में केवल सत्संग व भगवद -संकीर्तन से ही प्राप्त हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है "कलियुग समजुग आन नहिं जो नर कर विस्वास। गाई राम गुन गन विमल भवतर बिनहिं प्रयास। " तीर्थयात्रा के लिए संकल्प व श्रद्धाभाव इन दोनों प्रधान तत्वों का होना अनिवार्य है अन्यथा तीर्थयात्रा फलदायी नहीं हो सकती। सात्विक मनुष्य निष्काम भाव से मोक्ष प्राप्ति हेतु एवं राजसी व्यक्ति सकाम भाव से अर्थात पुत्र,धन,सम्पत्ति,सुख आदि की लालसा से तीर्थयात्रा करते हैं किन्तु तामसी व्यक्ति यदि तीर्थयात्रा के लिए उद्यत होते हैं तो उनके लोभ,मोह,अहंकार,ईर्ष्या,काम,क्रोध आदि दुर्विकारों का ह्रास अवश्य हो जायेगा। कहा गया है कि अहंभाव एवं आसक्ति की मूर्च्छा टूटते ही चैतन्यता के अनेकों द्वार स्वतः खुल जाते हैं और पुण्यकर्म के अवसर मनुष्य को स्वतः मिलने लगते हैं। 
भारत के प्रमुख तीर्थस्थल नामक इस पुस्तक में डॉ जटाशंकर त्रिपाठी जी  ने चारों धामों ,द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं इक्यावन शक्तिपीठों में से प्रमुख शक्तिपीठों का सामान्य परिचय,भौगोलिक स्थिति,पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों व उनके दर्शनीय स्थलों का परिचय देते हुए उनके सम्बन्ध में जो चित्रण प्रस्तुत किया है उसके लिए वे निश्चित रूप से साधुवाद के पात्र हैं। मैं इनके आध्यात्मिक पथ की इस पुनीत यात्रा के प्रति अपना शुभाशीष देते हुए आशा करता हूँ कि पाठकगण भी इस पुस्तक से लाभान्वित अवश्य होंगे। 

                                                                                               महांत जनमेजय शरण 
                                                                                    श्री जानकीघाट बड़ास्थान ,श्री अयोध्या  
   बिन्दुगाद्याचार्य देवेंद्रप्रसादाचार्य                                                            १५ अगस्त ,२०१६ 
 अध्यक्ष ,श्री रामप्रसाद सेवा ट्रस्ट ,श्री अयोध्या ,उ० प्र०                               स्वतन्त्रता दिवस 


                                                           आशीर्वचन 

हिन्दू धर्मशास्त्रों में सन्त -परम्परा के अन्तर्गत ऐसे अनेक सन्तों का वर्णन मिलता है जिन्हें ईश्वर का सानिध्य प्राप्त हो चुका है। वास्तव में सन्त की न तो कोई जाति होती है और न ही कोई कोई सम्प्रदाय। सन्त निरपेक्ष होते हैं क्योंकि सन्त समस्त प्राणियों को समभाव से देखते हैं। इन्हें महापुरुष की भी संज्ञा दी जाती है क्योंकि सन्त अन्य पुरुषों की अपेक्षा आचारवान,धर्मज्ञ एवं भगवदभक्त होते हैं। इसीलिए हम इन्हें श्रद्धाभाव से देखते हैं। श्रद्धा को कलियुग की औषधि माना जाता है क्योंकि श्रद्धा में ही जीवन की सरसता ,उल्लास,उत्सव और आनन्द समाहित है ।हिन्दू  धर्मशास्त्रों में कहा गया है -"महाजनो येन गताः स पन्थाः "अर्थात महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही मार्ग सर्वथा अनुकरणीय हो जाता है। 
सन्त धर्म के रक्षक भी होते हैं तथा अपनी आध्यात्मिक चेतना द्वारा समाज का मार्ग दर्शन भी करते हैं। सन्त जन्मजात नहीं होते हैं बल्कि इसी समाज से निकलकर वे अपनी प्रतिभा,नियम-संयम एवं भगवदभक्ति के कारण इस परमपद को प्राप्त कर लेते हैं। सन्त की सामाजिक भूमिका का विश्लेषण करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -"शठ सुधरहिं सत संगति पाई "अर्थात शठ का भी सुधार हो सकता है यदि वह श्रद्धायुक्त होकर महापुरुष अथवा सन्त के उपदेशों व उनके आचरण को आत्मसात कर लें। जैसे लोहा भी पारस के संग सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार सन्त की कृपा से मनुष्य सोना ही नहीं  बल्कि पारस भी बन सकता है। 
ड़ॉ० जटाशंकर त्रिपाठी ने ऐसे कतिपय सन्तों के जीवन-दर्शन को इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत करके उन्होंने उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं अटूट विश्वास का प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। महात्मा बुद्ध,आदिगुरु शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ से लेकर महाराष्ट्र के पांचों सन्तों नामदेव,ज्ञानेश्वर,एकनाथ,तुकाराम एवं रामदास तथा अनुवर्ती सन्तों यथा श्री करुणासिन्धु जी महराज, स्वामी श्री रामप्रसादाचार्य जी एवं पँ० श्री राम शर्मा आचार्य जी के जीवन दर्शन को पाठकों के सम्मुख इस पुस्तक में प्रस्तुत किया जा रहा है जो  एक स्तुत्य कार्य है और इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम ही है। हम श्री धनुषधारी भगवान से यह यह प्रार्थना करते हैं कि डॉ जटाशंकर त्रिपाठी के परिश्रम व समर्पित भाव से लिखित यह पुस्तक जनोपयोगी एवं भक्तिमार्ग का प्रदर्शक बने ,ऐसी मेरी शुभकामना है। 
अस्तु" हमारे पूज्य सन्त" नामक इस पुस्तक के सफल  प्रकाशन  हेतु  अपनी  शुभकामना व्यक्त  करते  हुए 
डॉ ० त्रिपाठी को एतदर्थ मैं उन्हें स्नेहाशीष प्रदान करता हूँ। 
  
                                                                      बिन्दुगाद्याचार्य  महांत देवेंद्रप्रसादाचार्य 
                                                                     अध्यक्ष, श्री रामप्रसाद सेवा ट्रस्ट, अयोध्या                                        

महात्मा बुद्ध


गौतमबुद्ध बौद्ध दर्शन के प्रणेता एवं बौद्धधर्म के संस्थापक थे। इनका जन्म ६२४ ई०पू० कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था। कहा जाता है कि जब बुद्ध अपनी माता मायादेवी के गर्भ में थे उसी समय प्रसवकाल निकट होने पर उनकी माता अपने पिता के घर जा रही थीं और मार्ग में लुम्बिनी वन में विश्राम करने के समय ही उन्हें असह्य प्रसव-पीड़ा होने लगी तब वहीँ पर उन्होंने बालक सिद्धार्थ को जन्म दिया था। इनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के राजा थे। गौतमबुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ के जन्म से कुछ समय बाद ही इनकी माता मायादेवी की मृत्यु हो गई थी, अतः इनका लालन- पालन इनकी विमाता गौतमी ने किया था। इनका बचपन राजसी वैभव में व्यतीत हुआ था और इनकी शिक्षा दीक्षा भी एक राजकुमार की भांति हुई थी। गौतमबुद्ध बचपन से ही एकांत प्रिय, विचारशील एवं गम्भीर व्यक्तित्व के थे। ऐसा देखकर इनके पिता ने इनका विवाह शाक्यकुल की रूपवती कन्या यशोधरा से करवा दिया ताकि उनका मन सांसारिक जीवन में लग जाये। कुछ दिनों बाद राहुल नामक एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई फिर भी उनका मन विरक्त ही रहता था। यद्यपि इनके पिता ने इनकी संसारिक जीवन से उदासीनता को दृष्टिगत करते हुए इन्हें वाह्य जगत से दूर रखने का पूर्ण प्रयास किया था किन्तु वे विषयभोग से आसक्त नहीं हो पाए। एक दिन सिद्धार्थ विहार के लिए निकले थे उसी समय मार्ग में एक वृद्ध व्यक्ति को जाते हुए देखा। उसे देखकर उनके मन में अनेकों प्रश्न उठने लगे। पुनः एकदिन उन्होंने एक रोगग्रस्त व्यक्ति को देखा जो असह्य पीड़ा से कराह रहा था और उसी समय एक मृत व्यक्ति की शवयात्रा को देखकर तो उनका मन अत्यधिक विचलित हो उठा और इनसे मुक्ति का मार्ग वे खोजने लगे। कुछ दिनों बाद उन्होंने एक सन्यासी को देखा जो प्रसन्नचित्त भाव से विचरण कर रहा था तो उन्होंने मन ही मन सन्यासी के जीवन को अपने द्वारा पूर्व में देखे गए बुढ़ापा ,व्याधि, तथा मृत्यु जैसी गम्भीर समस्यायों से जूझ रहे सभी व्यक्तिओं से बेहतर समझा और उसी मार्ग का अनुसरण करने का संकल्प ले लिया। इसी चिन्तन में वे प्रायः डूबे रहते थे और एक दिन रात में जब पत्नी और पुत्र दोनों गहरी निद्रा में सो रहे थे तब वे २९ वर्ष की आयु में चुपके से राजभवन छोड़कर किसी अज्ञात स्थल की ओर चल दिए। गौतमबुद्ध के इस गृहत्याग को बौद्ध गर्न्थों में "महांनिष्क्रमण" कहा गया है। वे कंथक अश्व पर सवार होकर तीन राज्यों की सीमा को पार करके अनोमा नदी के किनारे पहुँच गए और वहीँ पर उन्होंने अपने राजसी वस्त्र व आभूषण का त्याग करके सन्यासी का जीवन स्वीकार कर लिया । इसके बाद वे भिक्षाटन करते हुए वृक्षों के नीचे निवास करने लगे। कुछ दिन अनोमा नदी के किनारे स्थित मल्लों के अनुपिया नामक गाँव में रहने के बाद वे वहां से राजगृह की ओर चल पड़े। राजगृह में उनके प्रवेश की सूचना पाकर वहां के तत्कालीन राजा बिंबसार ने उन्हें बुलवाया और उनसे वार्ता करके उन्हें साधना के इस कठिन मार्ग से अलग करना चाहा किन्तु सिद्धार्थ अपने संकल्प पर अडिग रहे। वहां से वे सम्यक ज्ञान की खोज में इधर उधर भ्रमण करते हुए वैशाली के निकट अलारकालाम नामक एक सन्यासी के यहां रहकर साधना करने लगे। कुछ दिनों तक यहां रहने के पश्चात भी जब उन्हें शांति की अनुभूति नहीं हुई तब वे रूद्रकुमारपुत्त नामक दूसरे धर्माचार्य/सन्यासी के यहां पहुँच गए। यहां से भी अपेक्षित ज्ञान व शांति न प्राप्त होने पर वे बोधगया स्थित उरुवेला नामक स्थान पर आ गए। यहां पर उनकी भेंट कौण्डिय, वप्प, भद्दिय, महनम और अश्वजित नामक पांच युवक सन्यासियों से हुई। सिद्धार्थ इन पांचों  सन्यासियों के साथ वहीँ पर कठोर तप करना प्रारम्भ कर दिए और कुछ दिनों बाद तप से उन सभी की काया क्षीण होने लगी। अन्य सह सन्यासियों के परामर्श पर उन्होंने इस कठोर तप में किंचित शिथिलता कर साधना के मार्ग को थोड़ा सरल करना चाहा किन्तु सिद्धार्थ को यह उचित नहीं लगा। अतः उन्होंने वहीँ पर महातप करना आरम्भ कर दिया। अन्न जल त्याग देने के कारण उन सभी का शरीर काला पड़ने लगा और उनका शरीर इतना क्षीण हो चला था कि एकदिन सिद्धार्थ वहीँ पर मूर्छित होकर चबूतरे पर गिर गए। कठोर तप करते हुए ६ वर्ष व्यतीत होने के बाद उनके साथ रह रहे अन्य पांच सन्यासियों का धैर्य टूटने लगा और वे सभी सिद्धार्थ से अलग होकर अठारह योजन दूर ऋषिपत्तन मृगदाय की ओर चल पड़े।
अब गौतमबुद्ध अकेले ही साधनारत रहने लगे। उसी समय उरुवेला की ही एक सुजाता नामक धनी परिवार की कन्या ने अपने तरुणी होने पर वहां स्थित एक बरगद के वृक्ष से यह प्रार्थना की थी कि यदि समान जाति के कुल में उसका विवाह होकर वह पुत्रवती हो जाएगी तो प्रतिवर्ष उनकी पूजा किया करेगी। जब उसकी यह प्रार्थना पूर्ण हो गई तब वह वैशाख पूर्णिमा के दिन विधिविधान से खीर बनाकर अपनी पूर्णा  नामक दासी के साथ उस बरगद के नीचे एक तपस्वी को बैठा हुआ देखकर उसी को वह खीर अर्पित कर दी। गौतमबुद्ध ने उस खीर को प्रेमपूर्वक खाया और अगले एक सप्ताह तक भोजन नहीं किया। एक दिन उसी बोधवृक्ष के नीचे उन्होंने यह संकल्प लिया कि चाहे मेरा शरीर रहे या ना रहे, मांस, रक्त, नाड़ियां भले ही सूख क्यों ना जाये किन्तु वे सम्यक ज्ञान अर्जित किये बिना यहां से नहीं उठेंगें। अगले दिन प्रातःकाल उन्हें उसी बोधिवृक्ष के नीचे सम्यक सम्बोधि की प्राप्ति हो गई तो उनके मुख से निम्न स्वर फूट पड़े :-
                         अनेक जाति संसारं सन्धाविस्सं अनिविस्सं।
                          गहकारकं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।
बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात उन्होंने उरुवेला में उसी वृक्ष के आसपास धर्मचिन्तन एवं आनंद प्राप्ति करते हुए कुछ दिन बिताए और आठवें सप्ताह में उनके मन में यह विचार आया "मैंने बड़े गम्भीर ,उत्तम ,शान्त व विद्वानों द्वारा जानने योग्य धर्म को प्राप्त किया है। सांसारिक व्यक्ति भोग विलास में लीन हैं ,अतः मैं उनको धर्मोपदेश भी करूँ तो यह उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा। "इसी असमंजस में पड़कर वे धर्मोपदेश करने का साहस नहीं कर पा रहे थे तभी सहम्पत्ति ब्रह्मा जी ने उनके मन की बात समझकर उनके असमंजस को दूर करने हेतु स्वयं प्रकट हुए और उनसे कहा कि भन्ते:, धर्मोपदेश करें ,सुगत धर्मोपदेश करें। संसार के प्राणी धर्माचरण न करने पर नष्ट हो जायेंगे। यह आज्ञा पाते ही बुद्ध ने अपनी आँखें खोली और प्राणियों की ओर देखकर धर्मोपदेश के लिए उद्यत हो गए।
सर्वप्रथम वे आलारकालाम को धर्मोपदेश करने हेतु उनके गांव गए तो लोगों ने बताया कि उनकी तो मृत्यु हो चुकी है।  यह सुनकर बुद्ध अपने पूर्व के साथी उन पांच भिक्षुओं को धर्मोपदेश देने के लिए आगे बढे तो उन्हें याद आया कि उन्हें तो वाराणसी के ऋषिपत्तन मृगदाय के आश्रम में ही वे छोड़ आये हैं, अतः वे वाराणसी की ओर चल पड़े। उन पंचवर्गीय भिक्षुओं ने जब दूर से आते हुए बुद्ध को देखा तब वे आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि श्रवण, देखो गौतम आ रहा है, उसे कुछ देना नहीं है, केवल बैठने के लिए बस आसन ही दे देना है। जैसे जैसे गौतमबुद्ध उनके निकट आते गए उनके संकल्प स्वयं शिथिल होने लगे और वे दौड़कर उनके पास आकर किसी ने बुद्ध के पात्र चीवर ले लिए तो किसी ने आसन बिछा दिया तो कोई  उनके पैर धोने के लिए जल लेने दौड़ पड़ा। यह देखकर गौतमबुद्ध ने उनसे कहा कि ,भिक्षुओं तथागत को नाम लेकर मत पुकारो क्योंकि वह  अर्हत सम्यक सम्बुद्ध हो चुका है। मेरी बात सुनो ,जो अमृत मैं पाया हूँ, उसे आपको भी देना चाहता हूँ। तब बुद्ध ने अपने प्रथम उपदेश में उनसे कहा :-"भिक्षुओं को दो अन्तो का सेवन प्रव्रजितों को नहीं करना चाहिए ,पहला -कामवासना अर्थात पृथकजनों के योग्य ,अनार्य सेवित ,अनर्थों से युक्त कामवासनाओं में काम- सुख में लिप्त होना और दूसरा दुःखमय ,अनार्य, अनर्थों से युक्त ,आत्मपीड़ा में लगना। इन दोनों ही अन्तो में न जाकर तथागत ने एक मध्यमार्ग खोज निकाला है जिसे तुम आष्टांगिक मार्ग कह सकते हो ,जो निम्नवत है :-१-सम्यक दृष्टि २-सम्यक संकल्प ३-सम्यक वचन ४-सम्यक कर्म ५-सम्यक जीविका ६-सम्यक व्यायाम ७-सम्यक स्मृति ८-सम्यक समाधि
जन्म,जरा,व्याधि,मरण,अप्रिय संयोग, वियोग,यथेष्ट वस्तु की अनुपलब्धि इन सभी को दुःख बताते हुए कहा कि पांच उपादान स्कन्ध अर्थात रूप, वेदना,संज्ञा, संस्कार व विज्ञानं ही दुःख हैं। चार आर्य सत्यों के अंतर्गत उन्होंने दुःख ,दुःख समुदाय, दुःख निरोध एवं गामिनी प्रतिपदा आदि के उपदेश से उन पांचों भिक्षुओं को भी अपना शिष्य बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। आगे बुद्ध ने फिर उनसे कहा कि इन चार आर्य सत्यों के सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ही मैंने यह घोषणा की है कि मुझे सम्यक सम्बोधि प्राप्त हो चुकी है। बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात अब मैं सांसारिक बंधन से मुक्त हो चुका हूँ। यह मेरा अंतिम जन्म है ,अब मुझे संसार में दुबारा नहीं आना है। बुद्ध ने इसे निर्वाण की संज्ञा दी। बुद्ध के उपदेश को सुनकर उन पांचों भिक्षुओं को भी सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हो गई और उन्होंने उनसे प्रव्रज्या का अनुरोध किया तब बुद्ध ने कौण्डिय ,वप्प और भट्टिय को भिक्षु बनाकर उन्हें उपसम्पदा सौंप दी। दो अन्य भिक्षुओं को उन्होंने बाद में भिक्षु बनाया था।  यहीं से गौतमबुद्ध को तथागत की उपाधि से भिक्षुओं ने सम्बोधित करने आरम्भ कर दिया और तथागत की  विधिवत पूजा करके "अंतदीपो भव" अर्थात आत्मदीप होकर जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति करके सम्यक सम्बुद्ध कहलाए। 
बुद्ध के उक्त प्रथम उपदेश को धर्मचक्र- प्रवर्तन की संज्ञा दी गई। उक्त आष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से व्यक्ति को निर्वाण की प्राप्ति होती है ,ऐसा बुद्ध के उपदेशों में कहा गया। बुद्ध ने अपने  आष्टांगिक मार्ग में अधिक सुखपूर्ण जीवन बिताना अथवा अधिक काया क्लेश में संलग्न होना, इन दोनों का निषेध करते हुए मध्यम मार्ग पर चलने के लिए कहा। बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार तो किया किन्तु पुनर्जन्म व कर्म-सिद्धांत को स्वीकार किया। यज्ञीय कर्मकाण्डों एवं पशुबलि जैस कुप्रथाओं का उन्होंने प्रबल विरोध किया और मानवीय एकता व समानता पर उन्होंने विशेष बल दिया। बुद्ध ने सारनाथ में एक संघ की स्थापना की और  उनके प्रथम पांच शिष्यों के अतिरिक्त वाराणसी के अनेक वैश्यों ने संघ की सदस्यता ग्रहण की तब बुद्ध ने उन सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों में जाकर  बौद्धधर्म का  प्रचार -प्रसार करने का आदेश दे दिया था । 
महात्मा बुद्ध के जन्म स्थान ,ज्ञान प्राप्ति स्थल तथा कार्यक्षेत्र अर्थात जहां जहां जाकर उन्होंने उपदेश व धर्म प्रचार किये ,वे स्थल कालान्तर में बौद्धतीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन स्थानों पर बौद्धधर्म ,दर्शन एवं साहित्य का विकास उत्तरोत्तर होता रहा। ऐसे स्थानों उनका जन्मस्थल लुम्बिनी ,{कपिलवस्तु }ज्ञान प्राप्तिस्थल बोधगया ,सारनाथ जहां तथागत ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया एवं कुशीनगर जहां तथागत ने निर्वाण की प्राप्ति की थी ,प्रमुख हैं।      

जगद्गुरु शंकराचार्य



अद्वैत वेदान्त दर्शन के प्रणेता एवं सनातनधर्म के संरक्षक व भारतवर्ष के चारों कोनों पर चार मठों के संस्थापक आदि शंकराचार्य विश्व प्रसिद्ध सन्त एवं दार्शनिक के रूप में जाने जाते हैं।इनके पिता शिवगुरु नामपुदि को विवाह के कई वर्षों बाद भी जब कोई संतान नहीं हुई  तब उन्होंने अपनी पत्नी कामाक्षी देवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान शंकर की दीर्घकाल तक आराधना व पूजा करना आरम्भ कर दिया। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने इन्हें स्वप्न में दर्शन देते हुए वरदान मांगने हेतु कहा तब शिवगुरु ने भगवान शंकर से एक दीर्घायु एवं सर्वज्ञ पुत्र की मांग की। उनकी इस मांग पर शंकर जी ने कहा कि वत्स ,दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। अतः इनमें से किसी एक विकल्प के अनुसार वरदान मांगो ,तब शिवगुरु ने पुनः विचार करके एक सर्वज्ञ पुत्र प्राप्ति की अपनी अंतिम इच्छ व्यक्त की। भगवान शिव जी ने तब तथास्तु कहते हुए कहा कि वत्स ,तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी और मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में तुम्हारे यहां जन्म लूँगा। भगवान शिव के इस वरदान के फलस्वरूप इनका जन्म वैशाख शुक्ल पञ्चमी तिथि सन् ७८८ ई० में केरल प्रान्त के कालाड़ी गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह अपने माता -पिता की एकमात्र संतान थे। इनकी माता का नाम कामाक्षी देवी था। जन्म के समय इनके मुख पर एक दिव्य कान्ति  देखी गई थी। देवज ब्राह्मण ने इस बालक के मस्तक पर चक्रचिह्न ,ललाट पर नेत्रचिह्न एवं स्कन्ध पर शूलचिह्न देखकर इन्हें शिव का अवतार मानते हुए इनका नाम शंकर रखा दिया । इनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारत में वैदिक धर्म लगभग  क्षीण हो रहा था तथा बौद्ध धर्म का प्रसार सम्पूर्ण भारत में तेजी से हो चुका था।  ऐसे समय में शंकर का आविर्भाव सनातन धर्म के उत्थान हेतु एक प्रकाश स्तम्भ सिद्ध हुआ।इनके पिता शंकर को बाल्यावस्था से ही श्रेष्ठ संस्कार देना आरम्भ कर दिया था। तीन वर्ष की अल्पायु में इन्होने मलयालम भाषा का पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया था। इनके पिता की इच्छा थी कि बालक शंकर संस्कृत भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर उसमें पारंगत हों और धार्मिक संस्कारयुक्त नैतिक शिक्षा ग्रहण करें किन्तु इनके शैशवावस्था में ही इनके पिता की मृत्यु हो जाने के कारण आगे की शिक्षा एवं लालन -पालन का गुरुतर भार इनकी माता पर आ गया।शिवगुरु के एक मित्र विष्णुस्वामी ने एक दिन कामाक्षी से कहा कि भाभी ,शिवगुरु ने शंकर में जैसे संस्कार डाले हैं ,उसी के अनुरूप इनकी आगे की शिक्षा दीक्षा होनी चाहिए। अलवाई नदी के तट पर ब्रह्मस्वामी का गुरुकुल है। अतः वहीं पर इनकी शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था करना उचित होगा। इस पर कामाक्षी ने कहा -भैय्या ,मेरे एक ही बच्चा है ,इसे अपने पास ही रखूंगी। थोड़ा बहुत पढ़कर यहीं मन्दिर में पुरोहिती करेगा ,यही काफी है। विष्णु ने हँसकर कहा कि भैय्या होते तो वे आपकी बात से सहमत नहीं होते। तभी शंकर ने इसका समर्थन कर दिया तब माता भी गुरुकुल भेजने को तैयार हो गयीं। पांच वर्ष की अवस्था में ही इनका यज्ञोपवीत संस्कार भी सम्पन्न करा दिया गया एवं ततपश्चात इन्हें गुरुकुल शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेज दिया गया।गुरुकुल में शिक्षार्जन कर रहे सात वर्षीय बालक शंकर गुरुकुल के नियम के अनुपालन में भिक्षा मांगते हुए एक दिन किसी निर्धन ब्राह्मण के घर पहुँच गए तब उस ब्राह्मण की पत्नी ने भिक्षा के रूप में इस बालक के हाथ पर एक आँवला रखते हुए अपनी विपन्नता से उन्हें अवगत कराया। यह सुनकर बालक शंकर का हृदय द्रवित हो गया और उसने दयाभाव से आर्तस्वर में मां महालक्ष्मी के स्त्रोत पढ़कर उसकी विपन्नता को दूर करने की प्रार्थना की। बालक की प्रार्थना से प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने उस गरीब ब्राह्मण के घर को धनधान्य से परिपूर्ण करते हुए उसके घर में सोने के आँवले की वर्षा कर दी। इस गरीब ब्राह्मण की विपन्नता को दूर करने का श्रेय जिसे मिला वह बालक शंकर ही था जो आगे चलकर जगतगुरु शंकराचार्य के रूप में विश्वविख्यात हुआ।एक दिन शंकर अस्वस्थ थे उसी दौरान भिक्षा मांगते हुए गुरुकुल से दूर किसी गांव के पास स्थित मन्दिर के सामने मूर्छित हो गए। जब उनकी मूर्छा टूटी तब उन्होंने देखा कि कुछ लोग मन्दिर में किसी आयोजन की तैयारी कर रहें हैं और आयामोड़-प्रमोद तथा मांस -मंदिर की भी व्यवस्था कर रहें हैं। यह देखकर शंकर का हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक देश की इस अनास्था व अन्धविश्वास को समूल नष्ट नहीं  देंगें वे चैन से नहीं बैठेंगे।
 बालक शंकर जन्म से ही असाधारण प्रतिभा के धनी थे जिसके कारण प्रायः इनके गुरुजन भी यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे। अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न शंकर ने तीन वर्षों में ही वेद ,पुराण ,उपनिषद,रामायण ,महाभारत आदि ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया था और गुरुकुल से वापस होकर अपनी माता के पास आ गए। शंकर की मातृशक्ति इतनी प्रबल थी कि उनके अनुरोध पर आलबाई {पूर्णा }नदी जो उनके घर से बहुत दूर बहतीं थीं ,को अपना मार्ग बदलकर उनके गाँव कालाड़ी के निकट बहना पड़ा था । एक ज्योतिषी ने भी इनकी जन्मपत्री देखकर बताया था कि इनकी अल्पायु में ही मृत्यु का योग बन रहा है।यह सुनकर इनकी माता ने इनके विवाह हेतु कई बार प्रयास किया किन्तु शंकर हमेशा गृहस्थी से दूर रहने का अपना संकल्प व्यक्त किया करते।शंकर के सन्यास ग्रहण  करने की खबर जब उस राज्य के राजा राजशेखर को मिली तब वे उनके पास आये और उन्हें मन्दिर की पुरोहिती का कार्यभार देने का प्रस्ताव कर दिया किन्तु शंकर ने प्रस्ताव को ठुकराते हुए उनसे कहा कि राजन ,संसार में जो बुद्धिमान लोग हैं उन्हें अपनी आवश्यकताएं सीमित करके समाज सेवा करनी चाहिए। विद्या,ज्ञान,सदाचार,न्याय,नैतिकता तथा धर्मनिष्ठा से सामाजिक जीवन ओतप्रोत रहे ,स्वार्थ,कलह,कुटिलता से लोग बचे रहें ,यह उत्तरदायित्व राजा का ही नहीं है बल्कि उन व्यक्तियों का भी है जो प्रबुद्ध हैं। सन्यास ग्रहण करने की अपनी इच्छा जब इन्होंने अपनी माता के समक्ष प्रकट की तब माता ने भी  इंकार कर दिया। एक दिन शंकर पूर्णा नदी में स्नान कर रहे थे तभी इन्हें किसी घड़ियाल ने पकड़ लिया और इन्होंने शोर मचाना शुरू किया तब इनकी माता भी वहां पहुंच गयीं। माता को देखकर शंकर ने यह शर्त रखी कि यदि वह उन्हें सन्यास लेने की अनुमति दे दें तो वे घड़ियाल के मुख से बाहर आ सकते हैं। यह सुनकर माता जी ने उन्हें सन्यास ग्रहण करने की अनुमति दे दी थी। आचार्य शंकर के मन में सन्यास लेकर लोक सेवा की भावना और अधिक दृढ हो गयी और वे सात वर्ष की अल्पायु में ही सन्यास ग्रहण कर लिए और घरबार छोड़ दिया।

आचार्य शंकर पदयात्रा करते हुए सर्वप्रथम नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँच गए जहां उन्होंने गुरु गोविंद भगवदपाद सेदीक्षा ली और वहीं पर योग की शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म का सम्यक ज्ञान प्राप्त किया।  यहीं पर रहकर उन्होंने साधना भी आरम्भ कर दी। शंकर वेदांत से काफी प्रभावित हुए और इसी की साधना ने उन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य बना दिया। तीन वर्ष तक यहां पर अद्वैत तत्व की साधना करने के पश्चात अपने गुरु की आज्ञा लेकर काशी विश्वनाथ जी के दर्शन हेतु वे काशी {वाराणसी } आ गए। काशी आते समय मार्ग में उनकी एक चाण्डाल से भेंट हुई तो शंकर के शिष्यों ने  उस चाण्डाल को मार्ग से हट जाने को कहा ,पर वह मार्ग से नहीं हटा । अन्त में शंकर ने स्वयं उससे  मार्ग से हट जाने का अनुरोध किया तब चाण्डाल ने उत्तर दिया कि आचार्य आप शरीरस्थ परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप ब्राह्मण नहीं प्रतीत होते। चाण्डाल के इस कथन का शंकर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और नतमस्तक होते हुए उन्होंने चाण्डाल से विनम्र भाव में कहा कि आपने मुझे सद्ज्ञान दिया है ,अतः मैं अब आपको अपना गुरु मानता हूँ। ऐसा कहकर ज्योंहि वे चाण्डाल को प्रणाम करने हेतु उनके समक्ष नतमस्तक होना चाहे त्योंहि उस चाण्डाल के स्थान पर उन्हें भगवान शिव के साथ चार अन्य देवताओं के दर्शन हुए।शंकराचार्य का प्रथम प्रवचन अद्वैत एवं वेदान्त पर काशी में हुआ था। एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि "वेदांत विशुद्ध रूप से मनुष्य की आत्मा के आध्यात्मिक उत्थान को प्रशस्त करता है। वह व्यक्तियों के बीच बिलगाव की नहीं ,प्रेम,दया,करुणा,उदारता,तप,त्याग,सेवा,संगठन शक्ति संवर्द्धन और निष्काम भावना से धर्म कर्तव्यों के पालन की शिक्षा देता है। धर्म के नाम पर वर्ग,सम्प्रदाय और विभिन्न मत खड़े किये गए हैं। हिन्दू जाति के पतन का यही कारण है। आत्म-कल्याण और विश्व के आध्यात्मिक पुनरुत्थान के लिए हमें उन मानवीय गुणों पर ही लौटना पड़ेगा जिसमें चींटी से लेकर हाथी तक को अपने अस्तित्व की सुरक्षा करने का अधिकार है। "
 काशी में कुछ दिनों तक निवास करने के दौरान वे माहिष्मती नगरी {सम्प्रति बिहार की महिषी }में आचार्य मण्डन मिश्र से भेंट हुई। कहा जाता है कि आचार्य मिश्र के घर पर एक पालतू मैना थी जो वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। शंकराचार्य की मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ हुआ और मिश्र जी जब हारने लगे थे तब मण्डन मिश्र की पत्नी भारती ने शंकर से कहा कि अभी तो आप मेरे आधे अंग को ही हराया है। आप मुझसे शास्त्रार्थ करके मुझे भी हरा दें तब आप पूर्ण रूप से विजयी हो जायेंगे। भारती ने जब शंकर से कामशास्त्र पर प्रश्न करना आरम्भ किया तब बालब्रह्मचारी शंकर असहज महशूस करते हुए उनसे प्रश्नोत्तर हेतु कुछ समय देने का अनुरोध किया और परकाया में प्रवेश करके कामशास्त्र का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भारती से पुनः शास्त्रार्थ करके उन्हें हरा दिया। काशी प्रवास के दौरान उन्होंने अनेकों प्रकाण्ड पंडितों एवं ज्ञानियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और अंततः गुरु पद पर प्रतिष्ठित हो गए। काशी में कई पण्डितों ने उनसे दीक्षा भी ली और इसके बाद वे धर्म प्रचार करते हुए अनेकों गर्न्थों की रचना की। अद्वैत ब्रह्म के समर्थक आचार्य केवल ब्रह्म को ही सत्य मानते थे और वे ब्रह्मज्ञान में ही हमेशा लीन रहा करते थे।बाद में मण्डन मिश्र शंकराचार्य के परम् शिष्य बन गए और एकदिन दोनों ने मिलकर मन्त्रणा की कि सरे देश को उत्तर से दक्षिण तक एक सांस्कृतिक सूत्र में कैसे बाँधा जा सकता है ?सबसे बड़ी बाधा यह थी कि उत्तर के निवासी दक्षिण के निवासियों  सम्पर्क में नहीं आ पते थे और दक्षिण के निवासी उत्तरी लोगों के विचार सम्पर्क से वंचित रह जाते थे। शासन तन्त्र भी अनेक मतों में विभक्त थे और यातायात के साधन भी नहीं थे। मण्डन मिश्र जिनका नाम तब सर्वेश्वराचार्य हो गया था ने अपना अभिमत देते हुए कहा गुरुदेव ,उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम को एक धागे में बाँधने के लिए चार धर्मपीठों की स्थापना करनी चाहिए। शंकराचार्य इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इसी उद्देश्य की घोषणा कर दी कि जो लोग बद्रिकाश्रम से जल लेकर रामेश्वरम में चढ़ाया करेंगे वे मुक्ति के अधिकारी हुआ करेंगें। इस भवन के पीछे सांस्कृतिक एकता के प्रयत्न और संकल्प पूर्ति की भावना का विस्तार छुपा हुआ था जो आज तक यथावत चलता आ रहा है और उत्तर दक्षिण में एक धार्मिक मेखला का कार्य कर रहा है। पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका के समीप भी शंकर मठ स्थापित हुए और यह चारों धाम आज भी धार्मिक जनता के लिए श्रद्धा के केंद्र और राष्ट्रीय संगठन की आधारशिला बने हुए हैं।   
कहा जाता है कि एकबार वे ब्रह्ममुहूर्त में काशी के मणिकर्णिका घाट पर गंगा स्नान हेतु जा रहे थे तब  रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का शव अपनी गोद में रखकर विलाप कर रही थी। उसे विलाप करता देखकर आचार्य शंकर के शिष्यों ने उसे मार्ग से हटने के लिए कहा तब वह युवती अधिक जोर से रोने लगी। यह देखकर शंकर ने स्वयं उससे शव को हटाने की प्रार्थना की, तब उस युवती ने कहा कि ,हे ,सन्यासी आप बार बार मुझसे शव हटाने के लिए कह रहे हैं किन्तु अच्छा होगा कि आप इस शव को हट जाने के लिए कह दें। यह सुनकर आचार्य शंकर ने कहा कि देवी ,आप शोक में सम्भवतः यह भूल गईं हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती है। तब उस युवती ने कहा कि आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता है ?  युवती के प्रश्न को सुनकर आचार्य वहीँ पर बैठकर समाधिस्थ हो गए और इसी अवस्था में कुछ देर बाद उन्हें ज्ञान हुआ कि सर्वत्र आद्याशक्ति माया लीला विलाप कर रही है। यह देखकर उनका ह्रदय अनिर्वचनीय आनन्द से परिपूर्ण हो गया और उनके मुख से मातृवन्दना की एक धारा फूट पड़ी। इसके बाद शंकर में अद्वैतवाद ,विशिष्टाद्वैतवाद और निर्गुण ब्रह्मज्ञान के साथ साथ सगुण ब्रह्म की भक्ति भी प्रवाहित होने लगी। शंकराचार्य जी ने तब यह अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण ,निराकार ब्रह्म प्रतीत होता है वही द्वैत की भूमि पर सगुण एवं साकार भी प्रतीत होता है। इस प्रकार शंकर ने निर्गुण एवं सगुण दोनों का समर्थन करते हुए निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को आवश्यक बताया और अद्वैतज्ञान को सभी साधनाओं की परम उपलब्धि भी माना।
धर्म-यात्रा :- 
आचार्य शंकर  काशी से पैदल यात्रा करके बदरिकाश्रम पहुंचे और वहाँ सोलह वर्ष की अल्पायु में ही ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखकर अद्वैत वेदान्त का प्रचार -प्रसार करना आरम्भ कर दिया। उनके द्वारा संस्थापित चार धार्मिक मठों में भारत के दक्षिणी भाग में श्रृंगेरी मठ  ,पूर्वी भाग के जगन्नाथपुरी भाग में गोवर्धन पीठ ,पश्चिमी भाग के द्वारिका में शारदामठ तथा उत्तरी भाग अर्थात बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना करके भारत की एकात्मकता को प्रदर्शित किया। यह कार्य उन्होंने ३२ वर्ष की अवस्था में सम्पन्न कर लिया था।वेदांत और धर्माचरण का प्रसार करते हुए जगद्गुरु शंकराचार्य कश्मीर की ओर चल पड़े। उनके प्रशिक्षण का उडेश्य मनुष्य को हृदय,बुद्धि और आत्मा से सच्चा मनुष्य बनाना था। भक्ति का उन्होंने खण्डन नहीं किया किन्तु उन्होंने कर्म से पलायन करने वाले गृहत्यागी बौद्धों की तीव्र भर्त्सना की। शंकराचार्य ने ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित की और कहा कि यह ज्ञान ही मनुष्य की जीवात्मा को पवित्र करेगा। भक्ति और कर्म में समन्वय के लिए ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान से बन्धन-मुक्ति मिलती है ,ज्ञान ही वर्तमान जीवन को क्लेश और कष्टों से बचाने में समर्थ होता है। " आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा कि मनुष्य परमात्मा का ज्येष्ठ पुत्र है उसको परमात्मा ने विचार,वाणी,ज्ञान,बुद्धि,संकल्प,सुनने देखने ,बातचीत करने के ऐसे सर्वांगपूर्ण साधन दिए हैं जिनका समुचित सदुपयोग करके मनुष्य अपने आप ब्राह्मी स्थिति तक पहुँच सकता है। 
शंकराचार्य के सम्पूर्ण जीवनकाल के परिशीलन से यह उद्घाटित होता है कि उन्होंने आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था और उसमें पारंगत भी हो गए थे। वे बारह वर्ष की आयु में सभी धर्मशास्त्रों का सम्यक ज्ञान प्राप्त किया था और सोलह वर्ष की आयु में शांकर भाष्य ,ब्रह्मसूत्र भाष्य लिखकर अपनी अदभुत प्रतिभा का परिचय दे दिया था। शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में ही सन् ८२० ई   में केदारनाथ धाम में शरीर- त्याग दिया था।शंकर ने दिग्विजय ,शंकर विजय विलास ,शकरजप आदि अन्य धर्मगर्न्थों की रचनाएँ  भी की थी।
तत्व-विचार :- 
शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों को समान रूप से आत्मसात किया गया। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। उन्होंने तत्वमसि ,अहं ब्रह्मास्मि ,अयमात्मा ब्रह्म आदि की उक्तियों से आत्मा को ब्रह्मस्वरूप माना। ब्रह्म को जगत की उत्पत्ति ,स्थिति एवं प्रलय का निमित्त कारण मानते हुए अद्वैत दर्शन की स्थापना की। सांसारिक वस्तुओं को उन्होंने माया माना। ब्रह्म को सत् ,चित व आनन्द मानते हुए उन्होंने उसे सच्चिदानन्द की संज्ञा दी। जगत के सम्बन्ध में उनका मानना है कि नाम एवं रूप से व्याकृत,अनेक कर्ता,अनेक भोक्ता से संयुक्त जिसमें देशकाल ,निमित्त और कर्मफल भी नियत है।इस प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति एवं विनाश एकमात्र ब्रह्म से होने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।जब तक जगत को दुःखस्वरूप समझोगे तब तक उससे वैराग्य होगा। जब तक इसे जड़ समझोगे तब तक यह दृश्य और द्रष्टा रहेगा किन्तु जब हम अपने को सत और जगत को असत समझ लेंगे तो जगत भिन्न वस्तु कैसे रहेगा। असत वस्तु अधिष्ठान से भिन्न नहीं रहती। अतः सम्पूर्ण जगत अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। शंकराचार्य जी के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति निषिद्ध कर्म नहीं करता किन्तु निषिद्ध कर्म से दोष जानकर उसका त्याग नहीं करता और विहित कर्म करता है। बालक के समान ज्ञानी की सहज प्रवृत्ति होती है। 
ज्ञानमार्ग के प्रमुख आचार्य एवम प्रचारक आदि शंकराचार्य हैं जिन्होंने अपने समग्र भाष्यों में यही सिद्ध किया है कि जीव नामका कोई पृथक तत्व नहीं है और न तो माया नामकी कोई शक्ति है। जीव स्वयं ब्रह्म है। ब्रह्म सजातीय एवम विजातीय स्वगत भेद शून्य है एवं सत्य ज्ञानानंद रूप है,साक्षी है ,उदासीन है तथा निर्गुण ,निर्विशेष शुद्ध चैतन्य है। जगत मिथ्या है ,माया अनिर्वचनीय तत्व है। जीव ही एकमात्र ब्रह्म का आभास या प्रतिबिम्ब है और्वब्रह्म के ही समान है। घटाकाश के समाप्त होते ही महाकाश बन जाता है ,वैसे ही अंतःकरण की उपाधि समाप्त होते ही जीव ब्रह्म बन जाता है। माया ,अविद्या,अज्ञान ये तीनों ही एक हैं। यही माया  आश्रय करके नाना प्रकार के भ्र्मात्मक कार्य करती है।उनका कथन है कि जब अज्ञान के कारण द्वैतभाव रहता है तब सभी वस्तुएं स्व से भिन्न दिखाई पड़ती हैं किन्तु जब सब वस्तुएं आत्मरूप दिखाई पड़ती हैं तब एक अणु भी स्व से भिन्न नहीं रहता। जिस प्रकार जाग जाने पर स्वप्न का अस्तित्व नहीं रहता उसी प्रकार सत्य का ज्ञान प्राप्त होते ही शरीर के मिथ्यात्व के कारण पिछले कर्मों का फल भी नष्ट हो जाता है।उनका कथन है कि तुम पहले बद्ध थे अब जीव हो गए और अब ज्ञान से मुक्त हुए ,यही तो भ्रम है। तुम ज्यों के त्यों हो। तुम मुक्त ही थे इसे तुमने बस जान लिया है। ब्रह्म ज्ञान नहीं हुआ करता ,केवल अविद्या की निवृत्ति होती है। वृत्ति ज्ञान भी अविद्या निवृत्त करके बाधित हो जाता है। अंतःकरण को शुद्ध करने हेतु उन्होंने बताया कि मनुष्य शांत भाव से बैठ जाये और अपनी नाभि के पास एक त्रिकोण ज्योतिमय कुण्डली मन में धारण करके उसमें हवन करे। राग,द्वेषः ,काम,क्रोध,लोभ,मोह आदि की अट्ठाइस आहुतियाँ देने का विधान है। इसे प्रतिदिन करके देखो। इससे अंतःकरण शुद्ध हो जायेगा। तात्पर्य यह है कि स्थूल को सूक्ष्म में हवन कर दो।  
भारत की संस्कृति एवं धार्मिक चेतना को सुदृढ़ करने में शंकराचार्य जी का अपूर्व योगदान अविस्मरणीय है। भारत की एकता के प्रतीक के रूप में स्थापित चारों धामों की स्थापना से राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने का महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया। शंकराचार्य ने तत्कालीन भारत में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों ,अंधविश्वासों को समाप्त करके अद्वैत वेदान्त की अलौकिक ज्योति से भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित किया था। सनातन धर्म की रक्षा हेतु भारत के चारों दिशाओं में चार पवित्र मठों की स्थापना तथा शंकराचार्य जैसे महत्वपूर्ण पद /उपाधि की परिकल्पना करके उन्होंने इसे जीवन्त रखा। यह सम्पूर्ण कार्य उनकी अलौकिक प्रतिभा के कारण ही संभव हो पाया और अन्त में उन्होंने केदारनाथ धाम की पावन भूमि पर शरीर त्याग करके भारत के अमर एवं पूज्य सन्तों में अपने को प्रतिष्ठित कर दिया। 
शंकराचार्य जी ने वेदांत के सूत्रों पर टीका लिखकर वेदों में वर्णित व्यवस्था की पुनर्स्थापना की थी और ३५ वर्ष की अल्पायु में बौद्ध धर्म की व्यवस्था को छिन्नभिन्न कर दिया था। शंकराचार्य ने नवीन वेदांत की नींव डाली एवं उपनिषदों को वेदों के अंतर्गत मानते हुए उसे वेदांत की संज्ञा दी। उन्होंने व्यास रचित वेदांत सूत्रों पर भी भाष्य लिखा और बौद्ध धर्म के अनीश्वरवाद के समक्ष ईश्वरवादी धर्म का प्रचार प्रसार किया। वे ईश्वर-प्रेम में इतने निमग्न हो गए थे कि जीव और ब्रह्म की एकता का उपदेश देने लगे थे। 
महाप्रयाण :-
ऐसी उन्मुक्त आत्माओं ने स्वयं पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर भारतवर्ष की अधार्मिकता को समय समय पर नष्ट किया और सत्य धर्म की प्रतिष्ठा की। उन्होंने अपने प्रयाण से पूर्व वह व्यवस्था भी कर दी जिससे उनके न रहने पर भी धार्मिक शक्तियों का प्रभाव और प्रसार बढ़ता रहे। चार मठों की स्थापना हो चुकी थी किन्तु वे अपने आप में तब तक अपूर्ण थे जब तक उनमें जनजागरण का मन्त्र फूंकने वाली जीवित प्रतिमायें न प्रतिष्ठित कर दी जाएँ। जगद्गुरु ने साडी जिंदगी लोगों की मानसिक समीक्षा में ही बिता दी थी। सँसार में बुरे लोग हैं ,पर भलों की संख्या उनसे अधिक है। उन्होंने ऐसे कुछ उत्कृष्ट,निष्ठावान और त्यागी शिष्य भी ढूंढ निकाले थे जो उनके न रहने पर वैदिक धर्म की पताका फहराये रहते और फिर इस परम्परा को बहुत काल तक जीवित बनाये रहते। तोटकाचार्य को उत्तर दिशा में शारदामठ और सुरेश्वर को दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी मठ का भार सौंपकर उन्होंने एक दीर्घ निश्चिन्तता अनुभव की। जगद्गुरु के त्याग ,तपस्या और साधना का ही यह प्रभाव है कि यह परम्परा आज भी चली आ रही है। सारी व्यवस्थाएं सम्पन्न करके जगद्गुरु बद्रिकाश्रम चले गए और जीवन के अन्तिम दिनों में भी अद्वैत धर्म का उपदेश देते रहे तथा मनुष्यों के कल्याण की अन्य योजनाएं भी बनाते रहे। इसके बाद कुछ समय केदारनाथ में व्यतीत किया और यहीं पर इन्होंने ३२ वर्ष की अत्यन्त अल्पायु में समाधि लेकर इस नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया। संसार को ज्ञानामृत पिलाने के कारण उन्हें जगद्गुरु की उपाधि से स्मरण किया जाता है। सनातन धर्म चिरकाल तक उनके इस महान कार्य को स्मरण करता रहेगा। 
                                                   गुरोरब्रह्मा गुरोरविष्णु गुरोरदेवो महेश्वरः। 
                                                       गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।    

गुरु गोरखनाथ


महायोगी गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके जन्मकाल की प्रमाणिकता पर विद्वानों में काफी मतभेद है। राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार वे १३ वीं शताब्दी में पैदा हुए थे। नाथ परम्परा की शुरुआत इनसे पूर्व ही हो चुकी थी किन्तु गोरखनाथ जी ने इस परम्परा को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार अवश्य किया था। गोरखनाथ जी के गुरु मत्स्येंद्रनाथ थे जिन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके जन्म के संबन्ध में एक दंतकथा इस प्रकार प्रचलित है कि वे किसी स्त्री के गर्भ से पैदा नहीं हुए थे बल्कि गुरु मत्स्येंद्रनाथ के मानस पुत्र थे और बाद में उन्हीं से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए थे।
                        न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः। 
                        न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्री गुरुवे नमः। 


इनके जन्म के सम्बन्ध में कहा जाता कि एक बार गुरु मत्स्येंद्रनाथ भिक्षाटन हेतु किसी गांव गए थे और वहां पर किसी गृहस्वामिनी ने उन्हें भिक्षा देने के पश्चात उनसे एक पुत्र की याचना की थी। गुरु मत्स्येंद्रनाथ उसकी याचना से द्रवित होकर उसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देते हुए अपनी झोली से चुटकीभर भभूत देकर उससे कहा था कि तुम उचित समय पर एक यशस्वी पुत्र को जन्म दोगी। बारह वर्ष व्यतीत होने पर जब गुरु मत्स्येंद्रनाथ पुनः उसी गाँव में भिक्षाटन हेतु पहुंचे तब उन्हें अपना पूर्व में दिया गया वरदान याद आ गया था। अतः उसी घर के सम्मुख जाकर उन्होंने भिक्षा हेतु आवाज लगायी तो वही गृहस्वामिनी भिक्षा लेकर उनके समक्ष उपस्थित हो गई और कुछ देर तक शांत रहने के पश्चात उसने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि आपसे आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वह धर्मसंकट में पड़ गई थी क्योंकि गाँव की अनेक स्त्रियों ने उसकी हंसी उड़ाते हुए यह ताना देने लगी थी कि एक घुमक्कड़ साधु के आशीर्वाद पर उसने ऐसा विश्वास कैसे कर लिया कि भभूति से पुत्ररत्न की प्राप्ति हो जाएगी। ऐसा सुनकर लज्जावश उसने वह भभूति अपने घर के निकट स्थित एक घूर {गोबर के गड्ढे }में डाल दिया था।  गृहस्वामिनी से यह बात सुनकर गुरु मत्स्येंद्रनाथ उस भभूति के प्रभाव की यथास्थिति ज्ञात करने हेतु उसके साथ उस गोबर के गड्ढे के पास गए और बालक का आह्वान किया। उनके पुकार लगाते ही उस घूर से एक बारह वर्षीय बालक जो नाक नक्श ,उच्च ललाट एवं आकर्षक व्यक्तित्व का स्वस्थ बालक था, उनके सम्मुख प्रकट हो गया। गुरु गोरखनाथ जी उस बालक को अपने साथ अपने आश्रम ले आये और यही बालक बड़ा होकर गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और आगे चलकर उसने गुरु मत्स्येंद्रनाथ जी से दीक्षा लेकर अघोराचार्य की उपाधि प्राप्त की। गुरु मत्स्येंद्रनाथ द्वारा दी गई भभूति से जन्म लेने के कारण ही गोरखनाथ को उनका मानस-पुत्र कहा जाता है।

नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ जी के सम्बन्ध में पुराणों में कई जगह वर्णन मिलता है। इन्हीं आख्यानों में इनके गुरु के रूप में आदिनाथ जी का उल्लेख भी किया गया है। गोरखनाथ जी एक सिद्ध पुरुष थे कदाचित इसीलिए उनके अनुयायियों व भक्तों ने उनके वास्तविक जन्म ,जन्मस्थान व परिचय आदि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। उनके अनुयायी यह मानते हैं कि गोरखनाथ जी लाहौर {पंजाब } में रहे थे। उन्होंने त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया था और द्वापरयुग में हरभुज में तथा कलियुग में गोरखपुर के गोरखमण्डी में निवास किया था। विद्वानगण इस तथ्य पर सहमत हैं कि गोरखनाथ ने  ११ वीं से १२ वीं शती के मध्य में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था और अनेक ग्रन्थों की रचना भी की थी। गोरखनाथ जी का प्रसिद्ध मन्दिर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में स्थित है। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ के नाम पर ही इस जनपद का नामकरण हुआ था। गुरु गोरखनाथ के नाम पर ही नेपाल के गोरखा जिले का भी नामकरण किया जाना बताया जाता है। गोरखा जिले में स्थित एक गुफा में गोरखनाथ जी के पदचिह्न आज भी मौजूद बताया जाता है और वहीँ पर उनकी एक भव्य मूर्ति भी स्थापित की गई है। यहां पर प्रत्येक वर्ष वैशाख पूर्णिमा को रोट महोत्सव आयोजित होता है।
 गुरु मत्स्येंद्रनाथ व जालन्धरनाथ समकालीन बताए जाते हैं। मत्स्येंद्रनाथ योगमार्ग के प्रवर्तक थे और बाद में वे वामाचारी साधना मार्ग पर चल पड़े थे। मत्स्येंद्रनाथ लिखित कौलज्ञान निर्णय ग्रन्थ से यह सिद्ध होता है कि वे ग्यारहवीं शती के पूर्व के थे। राहुल सांस्कृत्यायन ने इन्हें नवीं शताब्दी का माना है। कबीर एवं नानक दोनों से गुरु गोरखनाथ जी का संवाद होने का भी उल्लेख मिलता है जिसके आधार पर इन्हें चौदहवीं शताब्दी के पूर्व का माना जाता है। गूगा की कहानी ,पश्चिमी नाथों की अनुभूतियाँ ,बंगाल की शैव परम्परा और धर्मपूजा का सम्प्रदाय ,दक्षिण के पुरातत्व के प्रमाण व ज्ञानेश्वर की परम्परा को यदि प्रमाण माना जाये तो यह काल १२०० ई ० के उधर ही जाता है। कथडी नामक एक सिद्ध के साथ भी गोरखनाथ जी का सम्बन्ध बताया जाता है। गोरखनाथ जी नाथयोग के अभिन्न स्वरूप हैं तथा इन्हें साक्षात् शिवस्वरूप भी माना जाता है। गोरखनाथ जी ने प्राणियों के आधिदैविक ,आधिदैहिक एवं आधिभौतिक दुःख की निवृत्ति के लिए मुक्तिदायक योग की जन जन के मन,हृदय औेर शरीर में प्राण-प्रतिष्ठा की थी। यही उनका मांगलिक सार्वभौम ,सार्वकालिक योगस्वरूप है। कल्पद्रुमतन्त्र गोरक्षस्तोत्रराज में उनकी स्तुति इस प्रकार की गई है :-
             निरंजनो  निराकारो निर्विकल्पो निरामयाः।
            अगम्यो अगोचरोलक्ष्यो गोरक्षः सिद्धवन्दितः।
             विश्वतेजो  विश्वरूपों  विश्ववैद्यः सदाशिवः।
               विश्वनामा विश्वनाथ:श्रीगोरक्ष नमोस्तुते
गोरखनाथ जी एक समर्थ महायोगी के रूप में विख्यात हुए जिन्होंने प्रत्येक युग में अपनी उपस्थिति देते हुए अपने अमरकायत्व दिव्य यौगिक व्यक्तित्व एवं मंगलमय चरित से लोक कल्याण किया। उन्होंने अपनी योगसाधना को व्यावहारिक रूप प्रदान कर उसे जन जन के लिए सहज ,सुलभ एवं अभ्यास योग्य बनाया। उनके अनुसार  प्रत्येक प्राणी में,घट घट में स्वसंवेद्य अलख निरंजन नाथतत्व विदयमान है। :-
                 जोगारम्भ की याही बाणी । सबघटि नाथ एकै करि जाणी।
गोरखनाथ जी का मन्तव्य है कि जब तक योगी अपनी ही काया में निर्वाण ,परमानन्द स्वरूप मोक्ष की अनुभूति नहीं करता है तब तक उसे योगयुक्त महाज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है क्योंकि गोरखबानी में कहा गया है  :-
                            उदय न अस्त,राति न दिन, सरबे सचराचर भाव न भिन्न।
                               सोई निरंजन, डाल न मूल ,सब व्यापीक सुषम न स्थूल।
गोरखनाथ जी के जीवन चरित की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने शिवोपदिष्ट योगमृत का निर्मल स्वरूप अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में यथार्थ रूप से सुरक्षित रखा था और इस परम्परा को उन्होंने सनातन एवं त्रिकालव्यापी माना। उन्होंने महायोग के रूप में लययोग,मंत्रयोग और राजयोग तथा हठयोग का समन्वित अभिन्न स्वरूप प्रतिपादित किया। उन्होंने इस महयोग की सिद्धि को गुरुप्रसाद स्वरूप माना तभी तो गोरक्षषतक में कहा गया है :-
                          श्रीगुरुं परमानन्दं वन्दे स्वानन्द विग्रहम्।
                          यस्य सानिध्यमात्रेण चिदानन्दायते  तनुः।
                                                               
नाथसिद्ध भर्तृहरि ने भी गोरखनाथ के साक्षात्कार प्रत्यक्ष दर्शन ,प्रसाद और अनुग्रह मानते हुए कहा है :-
                                गोरष मिल्या भरम सब भागा ,सुरति सबद सूं लागी।
                                 भनंत भरथरी हरिपद परस्या ,सहज भया अविनासी। 
                                                                                     {नाथसिद्धों की बानियाँ ६७९  }
कल्पद्रुमतंत्र गोरक्षस्तोत्रराज में भगवान कृष्ण ने उनके शिवस्वरूप का स्तवन करते हुए कहा है -हे, गोरखनाथ जी ,आप निरञ्जन ,निराकार ,निर्विकल्प ,निरामय ,अगम्य ,अगोचर एवं अलक्ष्य हैं। सिद्ध उसकी वन्दना करते हैं। आप हठयोग के प्रवर्तक शिव हैं।आप अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ की कीर्ति को बढ़ाने वाले हैं। योगी मन में आपका ध्यान करते हैं। आप विश्व के प्रकाशक हैं ,विष्वरूपहैं और विश्व द्वारा वन्दनीय सदाशिव हैं। हे गोरक्ष, आपको नमस्कार है।
महाराष्ट्रीय नाथ सम्प्रदाय की परम्परा में श्रीमदभागवत के ग्यारहवें स्कंध के दूसरे अध्याय में नौ योगीश्वरों का वर्णन मिलता है जिसमें कवि नारायण मत्स्येन्द्रनाथ ,करभाजन नारायण गहिनीनाथ ,अंतरिक्ष नारायण जालंधरनाथ ,प्रबुद्ध नारायण कृष्णपाद ,आविर्होत्र नारायण नागनाथ,पिप्पलायन नारायण चर्पटीनाथ ,चमस नारायण रेवणनाथ ,हरिनारायण भर्तृनाथ और द्रुमिल नारायण गोपीचन्द नाथ हैं। इन नारायणों में गोरखनाथ जी के नाम का उल्लेख न किया जाने से स्वतः स्पष्ट है कि वे शिवस्वरूप हैं। उन्हें "परचे जोगी सिंभ निवासा" कहकर उनके शिवगोरक्षस्वरूप को प्रकारान्तर से स्वीकार किया गया है। लोक व्यवहार में महायोग ज्ञान की प्रतिष्ठा के लिए गोरखनाथ के रूप में उन्होंने मत्स्येन्द्रनाथ जी से योगोपदेश प्राप्त किया अन्यथा यह पृथ्वी बिना गुरु के ही रह जाती। गोरखबानी की एक सबदी में कहा गया है :-"ताथै हम उल्टी थापना थापी " जिसका आशय है कि शिवस्वरूप होकर भी शिवगोरक्षरूप में उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ जी से योगोपदेश प्राप्त किया।
त्रेतायुग में गोरखनाथ जी की उपस्थिति सिद्ध करते हुए श्रीनाथतीर्थावली के २०३ -२०७ श्लोक में कहा गया कि पूर्व दिशा के तीर्थों में सबसे पहले गोरखपुर है जिसके उत्तर में पुण्यप्रद गोरखनाथ का स्थान है। त्रेतायुग में रामावतार में इस स्थान का वर्णन आया है। कहा जाता है कि गोरखपुर में स्थित गोरखनाथ की तपस्थली में रघुवंशी नरेश रघु ,अज और भगवान राम ने उनके दर्शन किये थे। भगवान राम के राज्याभिषेक में गोरखनाथ जी आमंत्रित तो थे किन्तु तपस्यारत होने के कारण वे उसमे उपस्थित नहीं हो सके थे। द्वापरयुग में जूनागढ़ राज्य के प्रभासपाटण के निकट गोरखमढी में उन्होंने तप किया था। इसका विस्तारपूर्वक वर्णन श्रीनाथतीर्थावली के ३१-३८ श्लोक में किया गया है। गोरखमढ़ी में श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी का विवाह सम्पन्न हुआ था और विवाह के समय दोनों ने गोरखनाथ जी का स्तवन भी किया था।कहा जाता है कि जब धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हो रहा था तब गोरखनाथ जी को आमंत्रित करने हेतु पांडववीर भीमसेन यहाँ आये थे। उस समय  गोरखनाथ जी समाधिस्थ थे अतः भीमसेन से  प्रतीक्षा करने को कहा गया, तब वे कुछ देर तक वहां पर विश्राम किये थे। भीमसेन जिस स्थल पर विश्राम किये थे वह भाग उनके भार से नीचे दब गया था और वहां पर एक सरोवर का स्वतः निर्माण हो गया था। कलियुग में महायोगी गोरखनाथ जी ने पेशावर के किले गोरखहट्टी नामक स्थान पर तपस्या की थी। कलियुग में तो वे अनेको स्थानों पर प्रकट होकर योगसाधकों एवं पुण्यात्माओं को दर्शन दिए थे। गोरखनाथ जी अपनी योगदेह में अमरकाय योगी के रूप में नित्य विद्यमान माने जाते हैं। सन्त कबीर ने अपनी साखी में "साखी गोरखनाथ ज्यूँ अमर भये कलिमाहि"कहकर उन्हें अमरत्व प्रदान किया है। इसी तरह सूफी कवि मुहम्मद जायसी ने पदमावत  कि गोरखनाथ जी से जब भेंट होती है तभी योगी   सिद्ध होता है।
उपर्युक्त कथनों से स्वतःस्पष्ट हो जाता है कि चारों युगों में नित्य विद्यमान महायोगी गोरखनाथ जी शिवस्वरूप अयोनिज महायोगी हैं। वे  अपने योगसिद्ध  शरीर में अमर हैं। उनका प्राकट्य जन्म दिव्य है और उनका योगमय चरित भी दिव्य है। उनकी उत्पत्ति रजवीर्य से नहीं हुई थी बल्कि बल्कि वे अयोनिज शिवगोरक्ष  रूप में प्रकट हुए थे। कहा जाता है कि शिवजी की नाभि से मत्स्येंद्रनाथ जी ,हाड से जालन्धरनाथ ,कान से कृष्ण्पाद और जटा से गोरखनाथ जी की उत्पत्ति हुई थी।
नाथ सम्प्रदाय के महायोगी गहिनीनाथ को शिवगोरक्ष गोरखनाथ ने अपनी कृपादृष्टि से महयोग का ज्ञानवैभव प्रदान किया था। गहिनीनाथ ने अपने गेहिनी प्रताप नामक ग्रन्थ में अपने आपको गोरखसुत कहा है ।  कहा जाता है कि एकबार योगी मत्स्येन्द्रनाथ के साथ गोरखनाथ जी भ्रमण पर गए थे तथा उन्होंने  कनकग्राम पहुँचने पर वहां पर बच्चों को मिटटी की मूर्ति बनाकर खेलते हुए देखा। उस  मूर्ति में गोरखनाथजी ने सहज मंत्र का उच्चारण करके उसमें प्राण- संचार कर दिया था और उसी मूर्ति से गहिनीनाथ प्रकट हुए थे। गोरखनाथ जी उस दिव्य बालक को अपने साथ लेकर वापस आश्रम आ गए थे और उसका लालन पालन करके उसे दीक्षा देते हुए उनको  एकाकी भ्रमण करने की अनुमति दे दी थी । गहिनीनाथ ने गोदावरी के तट पर नासिक के निकट ब्रह्मगिरि नामक स्थान पर कठोर तपस्या की थी । यह स्थान आज भी नाथ सम्प्रदाय के तीर्थस्थल के रूप में जाना जाता है। 
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर ने अपने ग्रन्थ ज्ञानेश्वरी में कहा है कि अद्वयज्ञान वैभव मत्स्येंद्रनाथ जी ने गोरखनाथ जी को दिया था और गोरखनाथ जी ने उसे गहिनीनाथ जी को प्रदान किया था। योगीराज गहिनीनाथ को योगदीक्षा देने के पश्चात गोरखनाथ जी श्रीजगन्नाथपुरी की यात्रा करते हुए गौड़ बंगाल के हेलापट्टन होते हुए रास्ते में एक वकुल वृक्ष के नीचे ध्यान में लीन हो गए और उसी समय योगीराज कृष्ण्पाद आकाशमार्ग से गुजर रहे थे। आभास होने पर गोरखनाथ जी ने अपनी सिद्धि के बल से अपने खड़ाऊं को आकाश में स्थापित कर उन्हें उसी पर पैर रखकर उतरने का आमंत्रण दिया। कृष्ण्पाद महयोग ज्ञान के विशेषज्ञ और सिद्धामृत मार्ग के तत्वज्ञ थे अतः उन्होंने आदेश आदेश कहते हुए नीचे उत्तर आये और गोरखनाथ जी से  पके हुए आम के फल प्रस्तुत करने का आग्रह किया। गोरखनाथ जी यौगिक चमत्कार में रूचि नहीं रखते थे फिरभी कृष्ण्पाद के आग्रह पर वे विचार कर ही रहे थे कि इसी बीच कृष्ण्पाद अपनी योगसिद्धि का प्रदर्शन कर उन्हें प्रभावित करने का प्रयास करने लगे और उनसे कहा कि देखो वृक्षों पर कितने मीठे आम के फल लदे  हुए हैं, अतः आपकी इच्छा हो तो आपके साथ मैं भी इन फलों का रसास्वादन कर लूँ। गोरखनाथ जी ने अतिथि की बात मानते हुए अपनी सहमति दे दी, तब कृष्ण्पाद जी मंत्र से भस्म आमंत्रित कर उसे आम के वृक्ष की ओर प्रेरित किया जिसके फलस्वरूप आम के ढेर दोनों के सम्मुख प्रस्तुत हो गए। दोनों ने एक साथ उनका रसास्वादन किया और जो फल बच गए थे उन्हें वापस पेड़ों पर स्थापित करने की बात कही गयी तब कृष्ण्पाद जी ने कहा कि पेड़ों से एकबार अलग हुए आम के फल पुनः कैसे पेड़ों पर वापस जा सकते हैं ? गोरखनाथ जी समझ गए कि कृष्ण्पाद उनका शक्ति परीक्षण करने चाहते हैं, अतः उन्होंने अपने हाथ में भस्म लेकर उसे प्रेषणास्त्र एवं संजीवनी मंत्र से अभिसिंचित कर आम के उन फलों को यथावत पेड़ों पर सुशोभित कर दिया। इसके बाद कृष्ण्पाद हेलापट्टन की ओर चल पड़े और गोरखनाथ जी कृष्ण्पाद के उस कथन कि मत्स्येंद्रनाथ जी की आयु के मात्र तीन दिन ही शेष बच्चे हैं ,की पुष्टि के लिए यमलोक की ओर प्रस्थान कर दिया। यमलोक में जाकर उन्होंने अपने गुरु के आयुक्षीणता को मिटाकर पुनः वापस आकर उसी वकुल के वृक्ष के नीचे आसन लगाकर गुरु मत्स्येंद्रनाथ के उद्धार की रुपरेखा सुनिश्चित करने लगे। इसके बाद वे कदली देश की और प्रस्थान किये। 
कदली देश में मत्स्येंद्रनाथ जी के प्रवेश के सम्बन्ध में एक उपाख्यान प्रचलित है। मत्स्येंद्रनाथ जी परकाया प्रवेश के ज्ञाता थे और वे एकबार गोरखनाथ के साथ भ्रमण के दौरान प्रयाग के राजा के मृत शरीर में प्रवेश कर राजसुख का उपभोग करना चाहा। राजा के शरीर में प्रवेश के पूर्व अपने शरीर की रक्षा का भार गोरखनाथ जी को सौंप दिया था और उनसे कहा था कि बारह वर्ष बाद वे अपने शरीर में पुनः वापस आ जायेंगे। मृत राजा की रानियों को किसी प्रकार से यह रहस्य ज्ञात हो गया तो रानियों ने मत्स्येंद्रनाथ के शरीर को नष्ट कर देने हेतु वीरभद्र को निर्देशित कर दिया। गोरखनाथ जी की अदभुत यौगिक शक्ति के कारण वह ऐसा कर नहीं पाया। गोरखनाथ ने रानी परिमिला के माध्यम से अपने गुरु के  उद्धार की एक  योजना बनायी और रानी परिमिला ने अग्नि में प्रवेश करके उसी घर में जयन्ती नाम से पुनर्जन्म लिया और मत्स्येंद्रनाथ ने उससे पहले जन्म में फिर मिलने का वचन दिया।  इसलिए कदली देश के रमणीय राज्य में उन्होंने उनके साथ विवाह कर लिया और यहीं पर मत्स्येन्द्रनाथ ने तांत्रिक कौलाचार की साधना प्रारम्भ कर दी और गोरखनाथ जी ने नाथयोग मार्ग को अपनाने हेतु सहज सम्बोधन दिया। मत्स्येन्द्रनाथ यहां पर भोग में योग का संरक्षण कर योगिनी कौलमत के पोषण में लगे थे। कहा जाता है कि मत्स्येन्द्रनाथ सिद्धमत त्यागकर कदली देश में योगिनियों की माया में आसक्त होकर योगज्ञान भूल गए थे। उनकी कौलज्ञान -निर्णय रचना में जिस साधना का वर्णन मिलता है वह कामरूप अथवा कदली देश की रानियों के घर में पूर्व से विद्यमान थी। एक दिन गोरखनाथ को किसी से ज्ञात हुआ कि उनके गुरु मंगला एवम कमला  नामक रमणियों द्वारा परिसेवित राजप्रासाद में अपने को बन्द कर रखे हैं।  अतः उन्होंने उस राजप्रासाद में जाने हेतु नर्तकियों का सहारा लिया। कलिंगा नर्तकी ने उनसे कहा कि राजप्रासाद में पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध है, तब गोरखनाथ जी ने कहा की वे मृदंगवादन में निपुण हैं।  अतः वे उन्हें अपने साथ मृदङ्गवादक के रूप में आसानी से ले चल सकती हैं। कलिंगा की स्वीकृति से वे राजप्रासाद में प्रविष्ट हो गए। कदली देश की महारानी को हनुमान जी की विशेष कृपा प्राप्त थी, अतः हनुमान जी उसकी सदा रक्षा  किया करते थे किन्तु गोरखनाथ जी ने अपने नागास्त्र से हनुमान जी का राजप्रासाद में प्रवेश रोकते हुए उन्हें महल के बाहर ही मूर्छित कर दिया था। चेतना वापस आने पर हनुमान जी ने अपने आराध्यदेव श्रीराम का स्मरण किया तब उन्हें ज्ञात हुआ कि राजप्रासाद में गोरखनाथ जी अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी को मुक्त कराने के लिए उपस्थित हो चुके हैं और उन्होंने ही उन्हें मूर्छित  किया था। तब हनुमान जी को स्मरण आया कि मत्स्येन्द्रनाथ को त्रिपाराज्य में उन्होंने ही रहने को प्रेरित किया था , अतः अब यदि वे रानी को छोड़कर गोरखनाथ का साथ देते हैं तो वचन भंग की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। तब उन्होंने श्रीराम से अनुरोध किया कि वे गोरखनाथ जी को सावधान कर दें। तब श्रीराम एवम हनुमान जी ब्राह्मण का वेश धारणकर गोरखनाथ के सम्मुख आये और उन्हें वास्तविकता से भिज्ञ कराया। गोरखनाथ ने कहा कि उनके गुरु नाथ सम्प्रदाय के संरक्षक हैं ,अतः यदि वे तांत्रिक योगिनी कौलाचार साधना में किसी कारणवश लीन हैं तो उन्हें सावधान करना उनका कर्तव्य है। हनुमान जी ने  कहा कि मैं जनता हूँ कि आप शिवस्वरूप हैं किन्तु मैंने रानी को वचन दे रखा है।  अतः आप मेरी भी विवशता का सम्मान करें। ऐसी स्थित में श्रीराम ने हनुमान जी से कहा कि आपने तो मत्स्येन्द्रनाथ जी को केवल बारह वर्ष तक ही त्रिपाराज्य में रहने की प्रेरणा दी थी किन्तु यह अवधि तो समाप्त हो चुकी है।  अतः आपके वचनभंग का अब औचित्य नहीं रह गया है। 
गोरखनाथ जी ने तब रमणी का रूप धारण कर महारानी के सम्मुख उपस्थित हुए तो वह उनके सौन्दर्य से अभिभूत होकर उन्हें मत्स्येन्द्रनाथ के सम्मुख न जाने का आग्रह किया, तब गोरखनाथ  नर्तकी वेश में नृत्यांगनाओं के साथ राजप्रासाद में प्रविष्ट हुए और अपनी मर्दल ध्वनि से गुरु का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। मत्स्येंद्रनाथ जी को तुरन्त आभास हो गया क्योंकि मर्दल ध्वनि से " जाग मछन्दर गोरख आया " के स्पष्ट स्वर उन्हें सुनाई पड़ रहे थे। अवसर पाकर गोरखनाथ जी ने अपने गुरु को यह स्मरण दिलाया कि वे आत्मा के योगी हैं और गुरु पद पर प्रतिष्ठित योगेश्वर भी हैं। गोरखनाथ जी ने रानी के सम्मुख ही उनसे कहा कि गुरुदेव, मैं आपका शिष्य गोरखनाथ हूँ। आपने हनुमान जी को जो वचन दिया था उसकी अवधि भी व्यतीत हो चुकी है। ऐसा सुनकर मत्स्येन्द्रनाथ को आसक्ति से विरक्ति की अनुभूति हुई और सिंहासन से उतरकर गोरखनाथ जी को अपने हृदय से लगा लिया और त्रिपाराज्य से बाहर चलने हेतु सहमत हो गए।इसके बाद वहाँ से दोनों वाल्मीकि आश्रम की ओर चल पड़े।
कहा जाता है कि एकबार गुरु गोरखनाथ जी राजा भर्तृहरि के दरबार में पहुंचे तो राजा ने उनकी अत्यधिक आवभगत एवम सेवा सत्कार किया जिससे प्रसन्न होकर गुरु गोरखनाथ ने राजा को एक अमरफल प्रदान किया था। अमरफल खाने से व्यक्ति चिरयौवन प्राप्त कर लेता है। अतः राजा भर्त्तृहरि ने उस अमरफल को अपनी दूसरी प्रिय रानी जिसे वे अत्यधिक प्रेम करते थे ,को इस आशय से दे दिया ताकि वे चिरकाल तक अपनी रानी को जवान व सुन्दर देख सकेंगे। रानी को जब उस फल की विशेषता ज्ञात हुई तब उसने उस अमरफल को अपने उस सेनापति को दे दी जिसे वह अत्यधिक प्रेम करती थी. .सेनापति ने उस फल को एक वैश्या जिसे वह प्रेम करता था ,को दे दिया। वैश्या ने वह फल प्राप्त होने पर सोचा कि यदि वह अमरफल खा लेती है तो चिरकाल तक उसे वैश्यावृत्ति करनी पड़ेगी अतः उसने वह अमरफल राजा भर्तृहरि को वापस देकर अपनी स्वामी -भक्ति सिद्ध करनी चाही तब राजा ने विस्तारपूर्वक उस फल की प्राप्ति की जानकारी उससे ली तब ज्ञात हुआ कि वह रानी जिसे वे अत्यधिक प्रेम करते थे वह तो किसी अन्य को प्रेम करती है। इस घटना से राजा में वैराग्य भाव जागा और वे गुरु गोरखनाथ की खोज में जंगल की ओर चल पड़े। जंगल में उन्होंने एक हिरन का शिकार किया तो घायल हिरन भागता  हुआ वहां जा पहुंच जहां गुरु गोरखनाथ जी ध्यान लगाए बैठे थे। हिरन को घायल देखकर गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से उस हिरन को जीवित कर दिया तब राजा उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और वैराग्य लेने की अपनी इच्छा प्रकट की। गुरु गोरखनाथ जी द्वारा उन्हें योग की दीक्षा प्रदान की गयी तब राजा उज्जैन में स्थित एक पहाड़ी में एक गुफा के अंदर १२ वर्षों तक घोर तपस्या की और अपूर्व सिद्धि प्राप्त की।   
गोरखनाथ जी से सम्बंधित ऐसी अनेकों कथाएं प्रचलित हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि उनमें अद्भुत यौगिक चमत्कार विद्यमान थे। एकबार उन्होंने खप्पर में खिचड़ी बनाई और आसपास की जनता को प्रसाद के रूप में उसे ग्रहण करने हेतु आमन्त्रित कर दिया। अपार जनसमूह के एकत्रित हो जाने पर भी वह खप्पर खाली नहीं हुआ। आज भी गोरखपुर स्थित मंदिर में मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी भोज का वृहत आयोजन होता है। गोरखनाथ मन्दिर के गर्भगृह में उनकी चरण पादुका आज भी विद्यमान है। वेदी पर गोरखनाथ जी की संगमरमर की बनी भव्य प्रतिमा प्राण -प्रतिष्ठित है और मंदिर में त्रेतायुग से प्रज्ज्वलित अखण्डज्योति आज भी निरन्तर वहां जल रही है। गोरखनाथ के उपदेशों की एक झलक इस प्रकार है :- 
                 हबकि न बोलिबा,ढबकि न चलिबा,धीरे धरिबा पांव। 
                 गरब न  करिबा ,सहजै  रहिबा ,भणत  गोरष  राव। 
                मन मैं रहिणा ,भेद न कहिणा ,बोलिबा अमृत वाणी। 
                 आगिला अगनी,होइबा अवधू,तौं आपण होइबा पाणी। 
                                       

नामदेव



  महाराष्ट्र की सन्त -परम्परा अर्थात सन्त पंचायतन में सन्त नामदेव का भी महत्वपूर्ण स्थान है। ज्ञानेश्वर के समकालीन होने के कारण दोनों के साध्य एवं साधन में समरूपता थी। दोनों एक साथ ही भ्रमण करते थे और दोनों अपनी उपदेशात्मक दर्शन प्रणाली से लोगों को कृतकृत्य करते थे। दोनों की रहस्यवादी पृष्ठभूमि की संरचना एक प्रकार की अवसादीय चट्टान से हुई है। नामदेव द्वारा प्रतिपादित ईश्वरानुभव का मार्ग वैसा ही सहज एवं सुगम्य है जैसा की ज्ञानेश्वर का मार्ग था। 
नामदेव जी का जन्म कार्तिक सुदी ११ संवत १३२८ सन १२६६ ई में महाराष्ट्र के  सतारा जिले के नयनी गाँव में हुआ था। वे जाति  के दर्जी थे। डॉ० भण्डारकर का कथन है कि सन्त नामदेव की मराठी कविता ज्ञानेश्वर की कविता से अधिक परिष्कृत इसलिए है क्योंकि नामदेव ने मात्र उपदेशों के माध्यम से ही अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया था। उन्होंने किसी ग्रन्थ विशेष का निर्माण नहीं किया था। नामदेव ने निर्गुण सम्प्रदाय से अपने को सम्बद्ध माना है। उनके समय में धार्मिक स्थिति यह थी कि नाथ सम्प्रदाय पूर्णतयः स्थापित हो चुका था और उससे सम्बंधित समस्त सन्त अलख निरंजन की योगपरक साधना के प्रचार में व्यस्त थे। इसी बीच नामदेव ने भी योगसाधना को अभंगों के माध्यम से समझना प्रारम्भ किया। 
परमात्मा की सर्वव्यापकता ,जगत की निस्सारता एवं आत्मा की अनन्त शक्ति का अभंगों के माध्यम से वर्णन करते हुए उन्होंने ज्ञानेश्वर की साधना से समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। ज्ञानेश्वर की ही भाँति उन्होंने भी ईश्वर एवं जगत के सम्बन्ध में कहा है कि -
                                      एक अनेक विआपक पूरक ,जत देवहुं तत् सोई। 
                                      माईआ चित्र विचित्र विमोहित बिला  बूझे कोई।  
उपर्युक्त पद में चित्र विचित्र शब्द की सार्थकता  जगत की रचना के संदर्भ में बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि चित्र विचित्र के साथ माइआ शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ब्रह्म ने अपनी माया शक्ति के द्वारा ही इस विचित्र एवं नाना विधिमूलक संसार की रचना की है। नामदेव द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म का स्वरूप स्वच्छ है, पर अज्ञानतावश मनुष्य बन्धन में पड़ा रहता है। इस संसार को समुद्र मानते हुए बीठन को ही वे खेवनहार बताते हैं। ईश्वर के प्रति अपने अनन्य प्रेम को व्यक्त करते हुए नामदेव जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "जिस प्रकार मधुमक्खियों का समुदाय फूल के सौरभ पर आसक्त होता है अथवा उड़कर शहद एकत्र करता है ठीक उसी प्रकार मेरे मन को ईश्वर के चरणों में आसक्त होना चाहिए। "
नामदेव की साधना भक्ति प्रधान सगुण उपासक की थी। वे ईश्वरीय अनुकम्पा को बहुत बड़ा महत्व देते थे और ईश्वरीय कृपा से सम्पूर्ण  जड़ जगत का मिथ्या ज्ञान दूर हो जाता है तथा परब्रह्म के प्रकाशमय रूप का दर्शन होता है। जगत के मिथ्या ज्ञान के पक्ष में उन्होंने कहा है कि "यह छोटा सा संसार जो एकमात्र कर्ता हैं ,को छिपा लेने की शक्ति रखता है। "ईश्वर के नाम स्वरूप एवं महात्म्य का वर्णन नामदेव इन शब्दों में करते हैं _"यदि मैं अपनी साधना को तुम्हारे चरणों में अर्पित कर दूँ तो मेरा जीवनक्रम टूट जायेगा और यदि वाणी में ईश्वर नाम की धारणा का समापन हो जाता है तो जिहवा हजारों खण्डों में विभक्त हो जाएगी। यदि मेरी आँखें तुम्हारे दिव्य रूप को देखने में चूक जाती हैं तब हठात उस स्थान को सदा के लिए बाहर निकल जाएगी।"  नामदेव जी का विश्वास था कि ईश्वरानुभूति की प्राप्ति ईश्वरीय अनुकम्पा से ही सम्भव है। एक बार ईश्वरानुभूति प्राप्त कर लेने पर बार बार प्रयत्न नहीं करना पड़ता क्योंकि फिर तो स्मरण मात्र ही पर्याप्त होता है। केवल उस अनुभूति की धारणा  को क्रमशः उनके दिव्य रूप के संदर्भ में ह्रदय में जागृत करते रहना चाहिए। यही मुक्ति का मार्ग है।  इसी मार्ग पर साधक परमलाभ की प्राप्ति कर सकता है, ऐसा नामदेव ने अपने अभंगों के माध्यम से बताया है। नामदेव जी  का मत है कि मनुष्य की ईश्वर साक्षात्कार की प्रवृत्ति ईश्वरप्रदत्त है। इसका उदाहरण वे गाय के उस बछड़े से देते हैं जो जंगल में पैदा होता है और उसका पालन वहां ईश्वर के अतिरिक्त और कौन करता है ? ईश्वर ऐसा वातावरण उत्पन्न करता है कि मनुष्य का तदनुकूल मार्ग स्वतः स्पष्ट हो जाता है। अतः यह पूर्णरूपेण सत्य है कि ईश्वर मनुष्य की प्रवृत्ति को उसकी प्रकृति के अनुरूप ही नियमित करता है। नामदेव ने आगे बताया कि एक बार ईश्वर साक्षात्कार प्राप्त हो जाने पर पुनः ईश्वर के दर्शन की आवश्यकता नहीं है। फिर तो उसका अन्तःदर्शन स्वानुभूति प्रक्रिया से होता ही रहेगा। मात्र स्मरण ही पर्याप्त सिद्ध होता है। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव के सम्बन्ध में  नामदेव का कथन है कि "हमें अपनी भूख और प्यास दोनों को ईश्वर के नाम के आगे तिरस्कृत कर देना चाहिए। जो ईश्वर अमरता का एकमात्र श्रोत है तथा नामदेव के ह्रदय में विद्यमान है उसी का वे निरन्तर आनन्दानुभव कर रहे हैं। "
ईश्वर प्राप्ति के सन्दर्भ में नामदेव बहुत ही सजग हैं क्योंकि आत्मानुभूति का परम लक्ष्य ईश्वरानुभव  ही है। सामाजिक उन्नयन के लिए अपनी वाणी को उन्होंने उन सभी व्यक्तियों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है जो अज्ञानवश अपने आप को नहीं जान पाते हैं। आत्मज्ञान द्वारा वे यह सिद्ध कर  देना चाहते थे कि ईश्वर का साक्षात् दर्शन आत्मा में ही हो सकता है क्योंकि आत्मा परमात्मा का ही रूप है। रूप ज्ञान से पूर्णता की ओर पहुंचा जा सकता है ,ऐसा उदघोष नामदेव जी ने किया। उनके ही शब्दों में -"बेचारे ब्राह्मण ईश्वर के वास्तविक साक्षात्कार मार्ग को नहीं जानते। ईश्वर प्राप्ति केवल उसके नाम की सतत धारणा से ही संभव है। मैं उन युवक एवं वृद्धों को ईश्वर नाम की तीव्र धारणा के लिए आहवान करता हूँ। अपने सभी धार्मिक उत्सवों में उन्हें ईश्वर के अतिरिक्त और किसी बारे में नहीं सोचना चाहिए। "
आत्मानुभूति एवं नामस्मरण की साधना द्वारा ही मोक्ष की कामना करते हुए नामदेव का यह कथन सर्वथा उल्लेखनीय है '-"गन्ना कभी भी अपने मीठेपन का परित्याग नहीं करता  है चाहे उसके  टुकड़े टुकड़े क्यों न कर डालें ?उसी तरह ईश्वरानुभूति की धारणा जन्मजात है। अतः उसका हृदय से पूर्ण निष्कासन संभव नहीं है क्योंकि इसी के माध्यम से आनन्दानुभूति प्राप्त होती है। "ईश्वरानुभूति के अत्यन्त सरल मार्ग का उल्लेख करते हुए नामदेव जी का कथन है कि ईश्वरानुभूति की धारणा में अपने को सदैव जागृत रखो। तुम्हारे सभी पाप ईश्वर के नाम- स्मरण मात्र से तुमसे अलग हो जायेंगे और तुम्हें स्वर्गलोक में निश्चित स्थान प्राप्त होगा। नामदेव ने ईश्वर को दयालु कर्तव्यनिष्ठ एवं भक्तप्रेमी के रूप में देखा। उनके ही शब्दों में "--ईश्वर स्वयं नामदेव के पास उसी रूप में आता है जैसे की गाय अपने बछड़े के पास आती है। "
नामदेव सगुण ब्रह्म के उपासक थे किन्तु निर्गुण ब्रह्म को भी वे  प्रकारान्तर से मान्यता देते थे एवं उसकी भी उपासना उसी रूप में करते थे। उनके अनुसार ईश्वर सर्व व्यापक है। संसार का ऐसा कोई भी स्थल नहीं है जो ईश्वर से रिक्त हो। वह ईश्वर यद्यपि भक्ति के संदर्भ में विभिन्न नामों से जाना जाता है फिर भी मूलतः वह एक ही है। नामदेव ने स्वयं अपने उपास्य को राम शब्द से सम्बोधित किया है। उनके अनुसार "जैसे भंवरा पुष्प के चारों ओर मंडराया करता है उसी प्रकार मेरा जीव कोकिल की भाँति प्रिय को रमईआ शब्द के माध्यम से सदैव रटता रहता है। मछली को जैसे जल प्रिय है उसी प्रकार राम मेरे लिए प्रिय हैं। "  नामदेव जी ने कबीर की भाँति परमात्मा को आत्मा का स्वामी एवं रक्षक -"मैं बाउरी मेरा राम भतारु " कहते हुए  माना है। 
माया के स्वरूप वर्णन में अन्य संतों की भांति नामदेव भी इसे कनक कामिनी की उपाधि देते हैं। "देखत तव रचना विचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये " तुलसीदास की इस पंक्ति में नामदेव की ही भावना बोलती है।  वे संसार को ब्रह्म की लीला समझते हैं। ब्रह्म और प्रापंचिक संसार में एकता स्थापित करते हुए वे इसे जल एवं तरंग की उपमा देते हैं। 
                                जल तरंग अरु फें बुदबुदा ,जल तें भिन्न न होइ। 
                                 इहु परपंच परब्रह्म की लीला ,विचरत आन न होइ। 
ईश्वरानुभूति के संदर्भ में उपरोक्त अज्ञान से मुक्ति परमावश्यक है। ईश्वर का स्वरूप अत्यन्त सरल एवं नैसर्गिक बतलाते हुए उन्होंने कहा है : -"ईश्वर का स्वरूप एक अंधे व्यक्ति के द्वारा भी देखा जा सकता है और एक गूंगा व्यक्ति भी एक बहरे के कानों तक ईश्वर के ज्ञान को पहुंचा सकता है। अनाहत नाद के सम्बन्ध में नामदेव जी का कथन है कि यह  सहस्त्रों स्वर में ईश्वर नाम की धारणा प्रकट करता है। ईश्वर के सर्व व्यापक स्वरूप का उल्लेख करते हुए नामदेव उसे एक ऐसा प्रकाश मानते हैं जिसे देखने के लिए किसी बाह्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं प्रकाशमान है और उसे देखने के लिए आत्मप्रकाश ही पर्याप्त है। उनके शब्दों में "केवल उसी में आत्मजागृति हो सकती है जो अपने गुरु के उपदेशों में सच्ची आस्था रखता है। हम अपनी आत्मा को देखने के लिए कौन सा दीपक जलाते हैं ? वह जो सूर्य एवं चन्द्रमा को प्रकाश देता है ,किसी अन्य दीपक से नहीं देखा जा सकता है। यहां पर न तो पूरब है और न पश्चिम ,न दक्षिण और न ही उत्तर बल्कि ईश्वरानुभूति के लिए उद्यत साधक के लिए ईश्वर सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। "
अंत में नामदेव अपनी आत्मानुभूति के संदर्भ में अपने तादात्म्यता  का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि "उन्हें ईश्वरानुभूति ने इतना आच्छादित कर लिया है कि उन्हें मालूम पड़ने लगा कि स्वयं ईश्वर ही थे और वह ईश्वर केवल उनका ही था। "नामदेव की इसी रहस्यवादी प्रवृत्ति से प्रेरणा पाकर संत रानडे ने अपने साधना मार्ग को उसी के समनांतर करने का प्रयास किया और उस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए कहा "महाराष्ट्र के सभी संतों में हम ईश्वर के नाम की सामर्थ्य एवं महत्ता पर शाश्वत प्रेरणा पाते हैं और इन सभी संतों में हम नामदेव के नामस्मरण की प्रेरणा को सर्वोत्कृष्ट कह सकते हैं।  "
नामदेव जी का कथन है कि निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त हुए बिना मनःशक्ति नहीं मिलती है। ज्ञान का उपयोग आचरण के लिए है जनसमूह को आकृष्ट करने के लिए नहीं। ज्ञान पचाना पड़ता है। सहृदयता ,नम्रता,आत्महित,दक्षता एवं आत्म-सन्तुष्टता ये चार महत्वपूर्ण बातें आदर्श व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं। मनः शान्ति ही मानव की सर्वश्रेष्ठ शक्ति है। यही अखण्डित प्रसन्नता है। आत्म सुख ही यथार्थ सुख है। यह आत्म सुख प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्वयं तैयार ही रहता है। आत्म सुख के स्मरण करने से ही वह सभी को प्राप्त होने वाला है। इस आत्म सुख का विस्मरण होने से अनेक संकट आते हैं। यह आत्म सुख बाह्य परिस्थिति निरपेक्ष है। आत्मसुख से ही इसका उदय होता है।   

Wednesday, October 5, 2016

ज्ञानेश्वर


ज्ञानेश्वर जाति  से मराठा ब्राह्मण थे सामाजिक तिरस्कार के परिणामस्वरूप वे जातिगत भेदभाव नहीं मानते थे। इनकी योगसाधना इतनी प्रबल थी कि मुसलमानी आतंक के बावजूद इस परम्परा का इन्होने विधिवत निर्वाह किया था। अपने संत जीवन में इन्होने इतनी ख्याति प्राप्त कर ली थी कि एक बार लोगों ने ज्ञानेश्वर द्वारा भैंसे के मस्तक पर हाथ रखने से उसके मुख्य से ऋग ,यजुर और सामवेद के मंत्रों को विधिवत उच्चारित होते हुए सुना। संत रानडे ने इनके सम्बन्ध में कहा था कि "ज्ञानेश्वर एक ऐसे संत थे जो हमारे सामने अपने आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ से लेकर अंत तक एक साधु जीवन का अनुकरण करते रहे। वे साधु बनाए नहीं गए थे बल्कि स्वयं बना हुआ था। "संत ज्ञानेश्वर को ज्ञानदेव के नाम से भी जाना जाता था। उनका आध्यात्मिक रहस्यवाद एकेश्वरवाद एवं सर्वेश्वरवाद दोनों को अपने विचारों में समाहित करता है। ज्ञानेश्वर ने रहस्यवादी प्रक्रिया एवं अनुभूति को अपने आप में पूर्ण मानते हैं। इसके लिए वे किसी ज्ञान, तप या कर्मकांड की  आवश्यकता  नहीं मानते। उनके ही शब्दों में "आनन्द साधक के पास स्वयं आता है और यह अपने प्रभाव में इतना शक्तिशाली है कि इसको सुनाने से ही सांसारिक सत्ता लुप्त हो जाती है और नित्यता हमारे पास स्वयं आ जाती है। "ज्ञानदेव की असीम भक्ति का अनुमान ज्ञानेश्वरी के इस कथन से लगाया जा सकता है कि वे इस क्षेत्र में कितने प्रवीण थे। "जब मैं ध्यानस्थ हुआ तब आपके दिव्यरूप के दर्शन हुए। वह मणि सा मोहक था ,प्रज्ज्वलित अग्नि के समान उज्ज्वल था ,मणियों से गुंथे हुए सूर्य के समान उज्जवल था और करोड़ों शशि व सूर्य के प्रकाश से भी अधिक चमकीला था। "इस प्रकार हम देखते हैं कि संत ज्ञानदेव की साधना भक्तिप्रधान सगुण उपासना से परिपूर्ण रहस्यवादी प्रक्रिया का अनुकरण करती हुई निश्चित लक्ष्य को नित्य प्राप्त मानती है।
 ज्ञानदेव के रहस्यवाद को प्रकारान्तर से बौद्धिक रहस्यवाद माना जाता है क्योंकि उसका उदभव भगवदगीता की दार्शनिक भावभूमि से हुआ है और गीता का प्रभाव उनके ऊपर विशेष रूप से पड़ा। गीता की मूल शिक्षाओं को लेकर उसे और अधिक सरल प्रक्रिया द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास इनकी सफलता का परिचायक है। गीता पर भाष्य प्रस्तुत करते हुए इन्होने उसके सम्पूर्ण तथ्यों को ग्रहण किया और उसे एक ग्रन्थ के रूप में निबद्ध किया। उनका यह ग्रन्थ ज्ञानेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। चूँकि इसमें गीता के श्लोकों की व्याख्या उसी के अनुरूप की गई थी, अतः विद्वानों के बीच यह अत्यधिक गौरवान्वित हुई। ज्ञानेश्वरी की रचना ज्ञानदेव जी ने पंद्रह वर्ष की अल्पायु में ही की थी। लगातार तीस वर्षों तक इसमें परवर्ती संतों एवं विद्वानों ने मूलभूत सुधार भी किया  जिसके कारण  ज्ञानेश्वरी की विषयवस्तु कुछ अंशों में परिवर्तित हो गई किन्तु ज्ञानेश्वरकृत  अंशों को निकाला नहीं गया। 
तत्व-विचार :-
ज्ञानेश्वरी की रचना के प्रारम्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी के "बन्दहुँ गुरु पद पदुम परागा "की भाँति क्रमशः गणेश एवं गुरु की वन्दना की गई है। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञानदेव की गुरु के प्रति असीम आस्था थी। उन्होंने अपने गुरु के प्रति ज्ञानेश्वरी के प्रथम अध्याय में लिखा है "जैसे कि वृक्ष की जड़ को सींचने पर वह पल्लवित होकर अनेक शाखाओं में विभक्त हो जाती है और जिस प्रकार मनुष्य सागर में स्नान करके यह कह सकता है कि उसने संसार की पवित्र नदियों में स्नान किया है ,जिस तरह परमानन्द जब एक बार प्राप्त हो जाता है तब सभी समरूपताएँ अपने आप प्राप्त हो जाती हैं ,उसी तरह गुरु सम्यक रूप से प्रसन्न कर लिया जाता है तो सभी इच्छाएं अपने आप पूर्ण हो जाती  हैं। ज्ञानेश्वर बताते हैं कि ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए संतों से प्रेम करना नितांत आवश्यक है क्योंकि वे संत ही उस दिव्य परमात्मा के दर्शन का मार्ग निर्देशन करते हैं। संत ज्ञान के साक्षात् मंदिर हैं और हमारी सेवा ही इनके प्रवेशद्वारों का निर्माण करती है। हमें अहं का परित्याग कर अहर्निश उनकी सेवा में तत्पर रहना चाहिए। ऐसा करने पर सम्पूर्ण संसार ईश्वर में ही दिखाई पड़ने लगता है। इससे मूर्खतापूर्ण प्रेम का अंत हो जाता है और ज्ञान का प्रकाश स्वतः प्रकाशित हो जाता है तथा गुरु अपनी कृपा से भक्तों को कृतकृत्य बनाने में सक्षम होता है। 
ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में ज्ञानदेव का विचार है कि वह कभी प्रकट होता तो कभी अदृश्य हो जाता है और वह साधक के सामने तरह तरह के रहस्यपूर्ण अभिनय करता है। संत ज्ञानेश्वर ने इसका बड़ा ही मार्मिक उल्लेख प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार हैं -"दिसे तब तब लये ,लपे तब तब अभ्भासे "उन्होंने बताया की जब साधक ईश्वर का दर्शन करना चाहता है तब वह नहीं दिखाई पड़ता किन्तु यदि साधक उससे मुंह मोड़ता है तो ईश्वर उसे दूसरी दिशा में दिखाई पड़ता है जैसाकि अर्जुन को श्रीकृष्ण दिखाई पड़े थे। इस विरोधाभास का ज्ञानेश्वरी के ग्यारहवें अध्याय में बड़ा ही मार्मिक वर्णन मिलता है कि यदि साधक ईश्वर को छूना चाहता है तो ईश्वर ऐसा न होने देगा। इसका तात्पर्य यह है कि उसे जानने के लिए इंद्रियों का प्रयोग निरर्थक है। वह तो मात्र आत्मानुभूति द्वारा ही जाना जा सकता है। ईश्वर के दर्शन के सम्बन्ध में भी वे ऐसा ही मत व्यक्त करते हैं "जब मैंने आपके तेज को देखने का प्रयास किया तो करोड़ों सूर्य का प्रकाश मेरी आँखों के सामने से गुजरा। कितना महान आश्चर्य ,आप का रूप करोडो बिजलियों से विभूषित था।" इसी स्थल पर ज्ञानेश्वर ने यह तर्क दिया कि जिसे   आँखें देखने में असमर्थता व्यक्त करती हैं उसे वे बिना आँख के देख सकते हैं। 
ज्ञानेश्वर ने इन समस्त तथ्यों को अपनी पुस्तक ज्ञानेश्वरी में  समाविष्ट किया  है। उसमें ऐसा कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा है जिसकी अनुपस्थिति से आत्मानुभूति प्रक्रिया में बाधा पड़े। उसमें बताया है कि आत्मानुभूति का सबसे सशक्त पहलू है ; गुरु का वरण। यदि सदगुरु की प्राप्ति हो गई तब ईश्वर साक्षात्कार में कोई संदेह नहीं रह जाता है। ज्ञानेश्वरी में संतों की जागरूकता  उल्लेख करते हुए कहा गया है कि  "यह आध्यात्मिक ज्ञान का पौध तुम्हारे द्वारा ही बोया गया है,अब तुमसे यही अपेक्षा  है कि तुम अपने एकाग्र चिन्तन से इसका विकास  करो, तभी यह पुष्पित होगा और विभिन्न प्रकार के फलों को जन्म देगा। अन्यत्र भी उन्होंने संतों को लोक कल्याण के प्रति जागृत किया है:- "यदि हंस स्वच्छ्न्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरण करता है तो क्या वह अन्य प्राणी को विचरण करने से रोकता है ? यदि आकाश समुद्र में प्रतिबिम्बित होता है तो क्या वह छोटे से तालाब में अपना प्रतिबिम्ब डालने से इंकार कर सकता है ?" सन्त ज्ञानेश्वर के अनुसार ईश्वर ही विश्व का एकमात्र संचालक,परिपालक एवं संहारकर्ता है। प्रकृति की अन्य शक्ति उनकी सृष्टि में सहायक मानी जाती हैं। उनके अनुसार जब कभी ईश्वर चाहता है कि हम अंतिम उच्छ्वास लें तब यह क्रिया अंततः समाप्त हो जाती है क्योंकि उसकी प्रेरक शक्ति "ईश्वरीय आदेश "इसे मूलतः विनष्ट कर देता है। ज्ञानेश्वर द्वारा प्रतिपादित भ्रम बाहुल्य का सिद्धांत अथवा माया का विचार जिसे शंकर ने पहले ही प्रतिपादित कर दिया था ,एक उत्कृष्ट काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण के माध्यम से ज्ञानेश्वरी में वर्णित है। उन्होंने ब्रह्म रूपी स्रोत से निःसृत माया रूपी नदी का कथन प्रस्तुत करके अद्वैतवादी सिद्धांत की पुनर्प्रतिष्ठा की। एक उपमा के माध्यम से वे कहते हैं कि जैसे नदी अपने परवाह में फेनाकृति का निर्माण करती है ,उसी तरह ईश्वर माया या भ्रम का प्रतिपादन जगत सृष्टि के सन्दर्भ में करती है। बुद्धिमान व्यक्ति इस माया नदी को तैरकर पर करना चाहता है जिसके परिणामस्वरूप बिना कोई चिह्न छोड़े हुए वह अथाह जल में डूब जाता है। ज्ञानेश्वर ने शब्द प्रमाण को उस पवित्र प्रस्तर की भांति बताया जिसे मनुष्य अपने वक्ष से बांधकर माया नदी को पर करना चाहता है परन्तु आगे चलकर वह भी किसी मछली के मुंह में जा गिरता है क्योंकि उन्हें प्रस्तर के आश्रय का अहंकार रहता है। अतः ज्ञानेश्वर ने माया नदी को पार करने का एक सरल उपाय खोजते हुए बताया कि यदि हम इस भयानक परवाह को पर करना चाहते हैं तब हमें एक कुशल नाविक की भांति एक सदगुरु की खोज करनी पड़ेगी तभी इस माया परवाह को पर करके आनंदस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति सम्भव हो सकती है। इस आत्मानुभूति के मार्ग पर व्यक्ति को अष्टसात्त्विक भाव का सहारा लेना पड़ता है। ये अष्टसात्त्विक भाव रोमांच,स्वेदश्राव,अश्रुपात,स्पन्द,आंशिक पक्षाघात,युगारम्भ,शांति और प्रसन्नता है। ज्ञानेश्वर ने इसका प्रयोग स्पष्ट करते हुए कहा है -"अपने अन्दर ब्रह्म का अपूर्वानुभव करके शरीर को निष्क्रिय समझकर ईश्वर के चरणों में नतमस्तक होने से सहज ही उसकी प्राप्ति होती है। "ज्ञानेश्वर के अनुसार स्वानुभूति के माध्यम से अद्वय परब्रह्म के साथ तदाकारता एक अनिर्वचनीय आनंद का कारण बन जाती है और तब ऐसी अवस्था में सगुण और निर्गुण दोनों एकरूप होकर केवल मुक्त स्वभाव परमानन्द रूप में शेष बचा रहता है। ज्ञानेश्वर ने ईश्वर और भक्त का बहुत ही मार्मिक वर्णन ज्ञानेश्वरी में किया है। उन्होंने ईश्वर और आत्मा की एकरूपता को विशेषण और विशेष्य की संगति द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि जैसे फूल और उसका सौरभ अलग नहीं किया जा सकता है उसी तरह भक्त और भगवान एकरूप हैं। इस रहस्यवादी अनुभूति के प्रथम चरण में ईश्वर की सन्निकटता की अनुभूति भक्त को होने लगती हैऔर भक्त अपने पूर्ण विलय के बाद ईश्वर को स्वयं प्राप्त कर लेता है।  
ज्ञानेश्वरी के नवें अध्याय में ज्ञानेश्वर ने पुरुष एवं प्रकृति के अवियोज्य समबन्ध का वर्णन किया है। उनके अनुसार  आत्मन एक शाश्वत द्रष्टा है तथा प्रकृति पूर्णरूपेण कर्ता है। इसी तरह उन्होंने क्षर एवं अक्षर की भी व्याख्या की है। क्षर का अर्थ इन्होने परिवर्तनीय एवं विनाशशील वस्तु से लिया है और इसके विपरीत अक्षर का अर्थ अपरिवर्तनीय, शाश्वत एवं स्थिर बताया है।  शरीर के संबन्ध  बताया है कि यह विभिन्न प्रकार के तत्वों का मिश्रण है। जिस प्रकार एक रथ उसके सभी अंगों को जोड़कर ही जाना जाता है उसी प्रकार आत्मा छत्तीस तत्वों का मिश्रण है। आत्मा शरीर की प्रतिबिम्बित करती है जैसे सूर्य झील को। शरीर कर्मों के प्रभाव का परिणाम है एवं जन्म मृत्यु के साथ चक्कर लगता रहता है। यह आग में फेंके हुए मक्खन के टुकड़े के समान है। मृत्यु में उतना ही समय लगता जितना कि पक्षी को उड़ने के लिए पंख फ़ैलाने में समय लगता है। 
आत्मा के पश्चात ईश्वर के स्वरूप का उल्लेख करते हुए ज्ञानेश्वर ने कहा है कि ईश्वर वास्तविक रूप से संसार से अलग नहीं है। वह संसार में ही अंतर्यामी है। घट घट में व्याप्त और सर्वत्र चेतन है। आत्मा एवं ईश्वर के स्वरूप वर्णन के पश्चात ज्ञानेश्वर ने दोनों की तादाम्य अवस्था का वर्णन करने हेतु अग्रसर होते हैं। उन्होंने इस मार्ग को अत्यन्त  सरल एवं सुगम बताया। उनके अनुसार  कोई भी साधक सहज ही यह मार्ग अपना सकता है। ईश्वर साक्षात्कार के संदर्भ में बताया कि यह अनुभूतियों के पदचिह्नों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है और उन्हें कहीं अन्यत्र जाने की आवश्कता नहीं है। इस मार्ग पर चलता हुआ साधक दिन और रात्रि का अंतर नहीं जान पाता है।