अद्वैत वेदान्त दर्शन के प्रणेता एवं सनातनधर्म के संरक्षक व भारतवर्ष के चारों कोनों पर चार मठों के संस्थापक आदि शंकराचार्य विश्व प्रसिद्ध सन्त एवं दार्शनिक के रूप में जाने जाते हैं।इनके पिता शिवगुरु नामपुदि को विवाह के कई वर्षों बाद भी जब कोई संतान नहीं हुई तब उन्होंने अपनी पत्नी कामाक्षी देवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान शंकर की दीर्घकाल तक आराधना व पूजा करना आरम्भ कर दिया। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने इन्हें स्वप्न में दर्शन देते हुए वरदान मांगने हेतु कहा तब शिवगुरु ने भगवान शंकर से एक दीर्घायु एवं सर्वज्ञ पुत्र की मांग की। उनकी इस मांग पर शंकर जी ने कहा कि वत्स ,दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। अतः इनमें से किसी एक विकल्प के अनुसार वरदान मांगो ,तब शिवगुरु ने पुनः विचार करके एक सर्वज्ञ पुत्र प्राप्ति की अपनी अंतिम इच्छ व्यक्त की। भगवान शिव जी ने तब तथास्तु कहते हुए कहा कि वत्स ,तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी और मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में तुम्हारे यहां जन्म लूँगा। भगवान शिव के इस वरदान के फलस्वरूप इनका जन्म वैशाख शुक्ल पञ्चमी तिथि सन् ७८८ ई० में केरल प्रान्त के कालाड़ी गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह अपने माता -पिता की एकमात्र संतान थे। इनकी माता का नाम कामाक्षी देवी था। जन्म के समय इनके मुख पर एक दिव्य कान्ति देखी गई थी। देवज ब्राह्मण ने इस बालक के मस्तक पर चक्रचिह्न ,ललाट पर नेत्रचिह्न एवं स्कन्ध पर शूलचिह्न देखकर इन्हें शिव का अवतार मानते हुए इनका नाम शंकर रखा दिया । इनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारत में वैदिक धर्म लगभग क्षीण हो रहा था तथा बौद्ध धर्म का प्रसार सम्पूर्ण भारत में तेजी से हो चुका था। ऐसे समय में शंकर का आविर्भाव सनातन धर्म के उत्थान हेतु एक प्रकाश स्तम्भ सिद्ध हुआ।इनके पिता शंकर को बाल्यावस्था से ही श्रेष्ठ संस्कार देना आरम्भ कर दिया था। तीन वर्ष की अल्पायु में इन्होने मलयालम भाषा का पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया था। इनके पिता की इच्छा थी कि बालक शंकर संस्कृत भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर उसमें पारंगत हों और धार्मिक संस्कारयुक्त नैतिक शिक्षा ग्रहण करें किन्तु इनके शैशवावस्था में ही इनके पिता की मृत्यु हो जाने के कारण आगे की शिक्षा एवं लालन -पालन का गुरुतर भार इनकी माता पर आ गया।शिवगुरु के एक मित्र विष्णुस्वामी ने एक दिन कामाक्षी से कहा कि भाभी ,शिवगुरु ने शंकर में जैसे संस्कार डाले हैं ,उसी के अनुरूप इनकी आगे की शिक्षा दीक्षा होनी चाहिए। अलवाई नदी के तट पर ब्रह्मस्वामी का गुरुकुल है। अतः वहीं पर इनकी शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था करना उचित होगा। इस पर कामाक्षी ने कहा -भैय्या ,मेरे एक ही बच्चा है ,इसे अपने पास ही रखूंगी। थोड़ा बहुत पढ़कर यहीं मन्दिर में पुरोहिती करेगा ,यही काफी है। विष्णु ने हँसकर कहा कि भैय्या होते तो वे आपकी बात से सहमत नहीं होते। तभी शंकर ने इसका समर्थन कर दिया तब माता भी गुरुकुल भेजने को तैयार हो गयीं। पांच वर्ष की अवस्था में ही इनका यज्ञोपवीत संस्कार भी सम्पन्न करा दिया गया एवं ततपश्चात इन्हें गुरुकुल शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेज दिया गया।गुरुकुल में शिक्षार्जन कर रहे सात वर्षीय बालक शंकर गुरुकुल के नियम के अनुपालन में भिक्षा मांगते हुए एक दिन किसी निर्धन ब्राह्मण के घर पहुँच गए तब उस ब्राह्मण की पत्नी ने भिक्षा के रूप में इस बालक के हाथ पर एक आँवला रखते हुए अपनी विपन्नता से उन्हें अवगत कराया। यह सुनकर बालक शंकर का हृदय द्रवित हो गया और उसने दयाभाव से आर्तस्वर में मां महालक्ष्मी के स्त्रोत पढ़कर उसकी विपन्नता को दूर करने की प्रार्थना की। बालक की प्रार्थना से प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने उस गरीब ब्राह्मण के घर को धनधान्य से परिपूर्ण करते हुए उसके घर में सोने के आँवले की वर्षा कर दी। इस गरीब ब्राह्मण की विपन्नता को दूर करने का श्रेय जिसे मिला वह बालक शंकर ही था जो आगे चलकर जगतगुरु शंकराचार्य के रूप में विश्वविख्यात हुआ।एक दिन शंकर अस्वस्थ थे उसी दौरान भिक्षा मांगते हुए गुरुकुल से दूर किसी गांव के पास स्थित मन्दिर के सामने मूर्छित हो गए। जब उनकी मूर्छा टूटी तब उन्होंने देखा कि कुछ लोग मन्दिर में किसी आयोजन की तैयारी कर रहें हैं और आयामोड़-प्रमोद तथा मांस -मंदिर की भी व्यवस्था कर रहें हैं। यह देखकर शंकर का हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक देश की इस अनास्था व अन्धविश्वास को समूल नष्ट नहीं देंगें वे चैन से नहीं बैठेंगे।
बालक शंकर जन्म से ही असाधारण प्रतिभा के धनी थे जिसके कारण प्रायः इनके गुरुजन भी यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे। अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न शंकर ने तीन वर्षों में ही वेद ,पुराण ,उपनिषद,रामायण ,महाभारत आदि ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया था और गुरुकुल से वापस होकर अपनी माता के पास आ गए। शंकर की मातृशक्ति इतनी प्रबल थी कि उनके अनुरोध पर आलबाई {पूर्णा }नदी जो उनके घर से बहुत दूर बहतीं थीं ,को अपना मार्ग बदलकर उनके गाँव कालाड़ी के निकट बहना पड़ा था । एक ज्योतिषी ने भी इनकी जन्मपत्री देखकर बताया था कि इनकी अल्पायु में ही मृत्यु का योग बन रहा है।यह सुनकर इनकी माता ने इनके विवाह हेतु कई बार प्रयास किया किन्तु शंकर हमेशा गृहस्थी से दूर रहने का अपना संकल्प व्यक्त किया करते।शंकर के सन्यास ग्रहण करने की खबर जब उस राज्य के राजा राजशेखर को मिली तब वे उनके पास आये और उन्हें मन्दिर की पुरोहिती का कार्यभार देने का प्रस्ताव कर दिया किन्तु शंकर ने प्रस्ताव को ठुकराते हुए उनसे कहा कि राजन ,संसार में जो बुद्धिमान लोग हैं उन्हें अपनी आवश्यकताएं सीमित करके समाज सेवा करनी चाहिए। विद्या,ज्ञान,सदाचार,न्याय,नैतिकता तथा धर्मनिष्ठा से सामाजिक जीवन ओतप्रोत रहे ,स्वार्थ,कलह,कुटिलता से लोग बचे रहें ,यह उत्तरदायित्व राजा का ही नहीं है बल्कि उन व्यक्तियों का भी है जो प्रबुद्ध हैं। सन्यास ग्रहण करने की अपनी इच्छा जब इन्होंने अपनी माता के समक्ष प्रकट की तब माता ने भी इंकार कर दिया। एक दिन शंकर पूर्णा नदी में स्नान कर रहे थे तभी इन्हें किसी घड़ियाल ने पकड़ लिया और इन्होंने शोर मचाना शुरू किया तब इनकी माता भी वहां पहुंच गयीं। माता को देखकर शंकर ने यह शर्त रखी कि यदि वह उन्हें सन्यास लेने की अनुमति दे दें तो वे घड़ियाल के मुख से बाहर आ सकते हैं। यह सुनकर माता जी ने उन्हें सन्यास ग्रहण करने की अनुमति दे दी थी। आचार्य शंकर के मन में सन्यास लेकर लोक सेवा की भावना और अधिक दृढ हो गयी और वे सात वर्ष की अल्पायु में ही सन्यास ग्रहण कर लिए और घरबार छोड़ दिया।
आचार्य शंकर पदयात्रा करते हुए सर्वप्रथम नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँच गए जहां उन्होंने गुरु गोविंद भगवदपाद सेदीक्षा ली और वहीं पर योग की शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म का सम्यक ज्ञान प्राप्त किया। यहीं पर रहकर उन्होंने साधना भी आरम्भ कर दी। शंकर वेदांत से काफी प्रभावित हुए और इसी की साधना ने उन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य बना दिया। तीन वर्ष तक यहां पर अद्वैत तत्व की साधना करने के पश्चात अपने गुरु की आज्ञा लेकर काशी विश्वनाथ जी के दर्शन हेतु वे काशी {वाराणसी } आ गए। काशी आते समय मार्ग में उनकी एक चाण्डाल से भेंट हुई तो शंकर के शिष्यों ने उस चाण्डाल को मार्ग से हट जाने को कहा ,पर वह मार्ग से नहीं हटा । अन्त में शंकर ने स्वयं उससे मार्ग से हट जाने का अनुरोध किया तब चाण्डाल ने उत्तर दिया कि आचार्य आप शरीरस्थ परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप ब्राह्मण नहीं प्रतीत होते। चाण्डाल के इस कथन का शंकर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और नतमस्तक होते हुए उन्होंने चाण्डाल से विनम्र भाव में कहा कि आपने मुझे सद्ज्ञान दिया है ,अतः मैं अब आपको अपना गुरु मानता हूँ। ऐसा कहकर ज्योंहि वे चाण्डाल को प्रणाम करने हेतु उनके समक्ष नतमस्तक होना चाहे त्योंहि उस चाण्डाल के स्थान पर उन्हें भगवान शिव के साथ चार अन्य देवताओं के दर्शन हुए।शंकराचार्य का प्रथम प्रवचन अद्वैत एवं वेदान्त पर काशी में हुआ था। एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि "वेदांत विशुद्ध रूप से मनुष्य की आत्मा के आध्यात्मिक उत्थान को प्रशस्त करता है। वह व्यक्तियों के बीच बिलगाव की नहीं ,प्रेम,दया,करुणा,उदारता,तप,त्याग,सेवा,संगठन शक्ति संवर्द्धन और निष्काम भावना से धर्म कर्तव्यों के पालन की शिक्षा देता है। धर्म के नाम पर वर्ग,सम्प्रदाय और विभिन्न मत खड़े किये गए हैं। हिन्दू जाति के पतन का यही कारण है। आत्म-कल्याण और विश्व के आध्यात्मिक पुनरुत्थान के लिए हमें उन मानवीय गुणों पर ही लौटना पड़ेगा जिसमें चींटी से लेकर हाथी तक को अपने अस्तित्व की सुरक्षा करने का अधिकार है। "
काशी में कुछ दिनों तक निवास करने के दौरान वे माहिष्मती नगरी {सम्प्रति बिहार की महिषी }में आचार्य मण्डन मिश्र से भेंट हुई। कहा जाता है कि आचार्य मिश्र के घर पर एक पालतू मैना थी जो वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। शंकराचार्य की मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ हुआ और मिश्र जी जब हारने लगे थे तब मण्डन मिश्र की पत्नी भारती ने शंकर से कहा कि अभी तो आप मेरे आधे अंग को ही हराया है। आप मुझसे शास्त्रार्थ करके मुझे भी हरा दें तब आप पूर्ण रूप से विजयी हो जायेंगे। भारती ने जब शंकर से कामशास्त्र पर प्रश्न करना आरम्भ किया तब बालब्रह्मचारी शंकर असहज महशूस करते हुए उनसे प्रश्नोत्तर हेतु कुछ समय देने का अनुरोध किया और परकाया में प्रवेश करके कामशास्त्र का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भारती से पुनः शास्त्रार्थ करके उन्हें हरा दिया। काशी प्रवास के दौरान उन्होंने अनेकों प्रकाण्ड पंडितों एवं ज्ञानियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और अंततः गुरु पद पर प्रतिष्ठित हो गए। काशी में कई पण्डितों ने उनसे दीक्षा भी ली और इसके बाद वे धर्म प्रचार करते हुए अनेकों गर्न्थों की रचना की। अद्वैत ब्रह्म के समर्थक आचार्य केवल ब्रह्म को ही सत्य मानते थे और वे ब्रह्मज्ञान में ही हमेशा लीन रहा करते थे।बाद में मण्डन मिश्र शंकराचार्य के परम् शिष्य बन गए और एकदिन दोनों ने मिलकर मन्त्रणा की कि सरे देश को उत्तर से दक्षिण तक एक सांस्कृतिक सूत्र में कैसे बाँधा जा सकता है ?सबसे बड़ी बाधा यह थी कि उत्तर के निवासी दक्षिण के निवासियों सम्पर्क में नहीं आ पते थे और दक्षिण के निवासी उत्तरी लोगों के विचार सम्पर्क से वंचित रह जाते थे। शासन तन्त्र भी अनेक मतों में विभक्त थे और यातायात के साधन भी नहीं थे। मण्डन मिश्र जिनका नाम तब सर्वेश्वराचार्य हो गया था ने अपना अभिमत देते हुए कहा गुरुदेव ,उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम को एक धागे में बाँधने के लिए चार धर्मपीठों की स्थापना करनी चाहिए। शंकराचार्य इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इसी उद्देश्य की घोषणा कर दी कि जो लोग बद्रिकाश्रम से जल लेकर रामेश्वरम में चढ़ाया करेंगे वे मुक्ति के अधिकारी हुआ करेंगें। इस भवन के पीछे सांस्कृतिक एकता के प्रयत्न और संकल्प पूर्ति की भावना का विस्तार छुपा हुआ था जो आज तक यथावत चलता आ रहा है और उत्तर दक्षिण में एक धार्मिक मेखला का कार्य कर रहा है। पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका के समीप भी शंकर मठ स्थापित हुए और यह चारों धाम आज भी धार्मिक जनता के लिए श्रद्धा के केंद्र और राष्ट्रीय संगठन की आधारशिला बने हुए हैं।
काशी में कुछ दिनों तक निवास करने के दौरान वे माहिष्मती नगरी {सम्प्रति बिहार की महिषी }में आचार्य मण्डन मिश्र से भेंट हुई। कहा जाता है कि आचार्य मिश्र के घर पर एक पालतू मैना थी जो वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। शंकराचार्य की मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ हुआ और मिश्र जी जब हारने लगे थे तब मण्डन मिश्र की पत्नी भारती ने शंकर से कहा कि अभी तो आप मेरे आधे अंग को ही हराया है। आप मुझसे शास्त्रार्थ करके मुझे भी हरा दें तब आप पूर्ण रूप से विजयी हो जायेंगे। भारती ने जब शंकर से कामशास्त्र पर प्रश्न करना आरम्भ किया तब बालब्रह्मचारी शंकर असहज महशूस करते हुए उनसे प्रश्नोत्तर हेतु कुछ समय देने का अनुरोध किया और परकाया में प्रवेश करके कामशास्त्र का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भारती से पुनः शास्त्रार्थ करके उन्हें हरा दिया। काशी प्रवास के दौरान उन्होंने अनेकों प्रकाण्ड पंडितों एवं ज्ञानियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और अंततः गुरु पद पर प्रतिष्ठित हो गए। काशी में कई पण्डितों ने उनसे दीक्षा भी ली और इसके बाद वे धर्म प्रचार करते हुए अनेकों गर्न्थों की रचना की। अद्वैत ब्रह्म के समर्थक आचार्य केवल ब्रह्म को ही सत्य मानते थे और वे ब्रह्मज्ञान में ही हमेशा लीन रहा करते थे।बाद में मण्डन मिश्र शंकराचार्य के परम् शिष्य बन गए और एकदिन दोनों ने मिलकर मन्त्रणा की कि सरे देश को उत्तर से दक्षिण तक एक सांस्कृतिक सूत्र में कैसे बाँधा जा सकता है ?सबसे बड़ी बाधा यह थी कि उत्तर के निवासी दक्षिण के निवासियों सम्पर्क में नहीं आ पते थे और दक्षिण के निवासी उत्तरी लोगों के विचार सम्पर्क से वंचित रह जाते थे। शासन तन्त्र भी अनेक मतों में विभक्त थे और यातायात के साधन भी नहीं थे। मण्डन मिश्र जिनका नाम तब सर्वेश्वराचार्य हो गया था ने अपना अभिमत देते हुए कहा गुरुदेव ,उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम को एक धागे में बाँधने के लिए चार धर्मपीठों की स्थापना करनी चाहिए। शंकराचार्य इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इसी उद्देश्य की घोषणा कर दी कि जो लोग बद्रिकाश्रम से जल लेकर रामेश्वरम में चढ़ाया करेंगे वे मुक्ति के अधिकारी हुआ करेंगें। इस भवन के पीछे सांस्कृतिक एकता के प्रयत्न और संकल्प पूर्ति की भावना का विस्तार छुपा हुआ था जो आज तक यथावत चलता आ रहा है और उत्तर दक्षिण में एक धार्मिक मेखला का कार्य कर रहा है। पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका के समीप भी शंकर मठ स्थापित हुए और यह चारों धाम आज भी धार्मिक जनता के लिए श्रद्धा के केंद्र और राष्ट्रीय संगठन की आधारशिला बने हुए हैं।
कहा जाता है कि एकबार वे ब्रह्ममुहूर्त में काशी के मणिकर्णिका घाट पर गंगा स्नान हेतु जा रहे थे तब रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का शव अपनी गोद में रखकर विलाप कर रही थी। उसे विलाप करता देखकर आचार्य शंकर के शिष्यों ने उसे मार्ग से हटने के लिए कहा तब वह युवती अधिक जोर से रोने लगी। यह देखकर शंकर ने स्वयं उससे शव को हटाने की प्रार्थना की, तब उस युवती ने कहा कि ,हे ,सन्यासी आप बार बार मुझसे शव हटाने के लिए कह रहे हैं किन्तु अच्छा होगा कि आप इस शव को हट जाने के लिए कह दें। यह सुनकर आचार्य शंकर ने कहा कि देवी ,आप शोक में सम्भवतः यह भूल गईं हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती है। तब उस युवती ने कहा कि आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता है ? युवती के प्रश्न को सुनकर आचार्य वहीँ पर बैठकर समाधिस्थ हो गए और इसी अवस्था में कुछ देर बाद उन्हें ज्ञान हुआ कि सर्वत्र आद्याशक्ति माया लीला विलाप कर रही है। यह देखकर उनका ह्रदय अनिर्वचनीय आनन्द से परिपूर्ण हो गया और उनके मुख से मातृवन्दना की एक धारा फूट पड़ी। इसके बाद शंकर में अद्वैतवाद ,विशिष्टाद्वैतवाद और निर्गुण ब्रह्मज्ञान के साथ साथ सगुण ब्रह्म की भक्ति भी प्रवाहित होने लगी। शंकराचार्य जी ने तब यह अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण ,निराकार ब्रह्म प्रतीत होता है वही द्वैत की भूमि पर सगुण एवं साकार भी प्रतीत होता है। इस प्रकार शंकर ने निर्गुण एवं सगुण दोनों का समर्थन करते हुए निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को आवश्यक बताया और अद्वैतज्ञान को सभी साधनाओं की परम उपलब्धि भी माना।
धर्म-यात्रा :-
धर्म-यात्रा :-
आचार्य शंकर काशी से पैदल यात्रा करके बदरिकाश्रम पहुंचे और वहाँ सोलह वर्ष की अल्पायु में ही ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखकर अद्वैत वेदान्त का प्रचार -प्रसार करना आरम्भ कर दिया। उनके द्वारा संस्थापित चार धार्मिक मठों में भारत के दक्षिणी भाग में श्रृंगेरी मठ ,पूर्वी भाग के जगन्नाथपुरी भाग में गोवर्धन पीठ ,पश्चिमी भाग के द्वारिका में शारदामठ तथा उत्तरी भाग अर्थात बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना करके भारत की एकात्मकता को प्रदर्शित किया। यह कार्य उन्होंने ३२ वर्ष की अवस्था में सम्पन्न कर लिया था।वेदांत और धर्माचरण का प्रसार करते हुए जगद्गुरु शंकराचार्य कश्मीर की ओर चल पड़े। उनके प्रशिक्षण का उडेश्य मनुष्य को हृदय,बुद्धि और आत्मा से सच्चा मनुष्य बनाना था। भक्ति का उन्होंने खण्डन नहीं किया किन्तु उन्होंने कर्म से पलायन करने वाले गृहत्यागी बौद्धों की तीव्र भर्त्सना की। शंकराचार्य ने ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित की और कहा कि यह ज्ञान ही मनुष्य की जीवात्मा को पवित्र करेगा। भक्ति और कर्म में समन्वय के लिए ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान से बन्धन-मुक्ति मिलती है ,ज्ञान ही वर्तमान जीवन को क्लेश और कष्टों से बचाने में समर्थ होता है। " आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा कि मनुष्य परमात्मा का ज्येष्ठ पुत्र है उसको परमात्मा ने विचार,वाणी,ज्ञान,बुद्धि,संकल्प,सुनने देखने ,बातचीत करने के ऐसे सर्वांगपूर्ण साधन दिए हैं जिनका समुचित सदुपयोग करके मनुष्य अपने आप ब्राह्मी स्थिति तक पहुँच सकता है।
शंकराचार्य के सम्पूर्ण जीवनकाल के परिशीलन से यह उद्घाटित होता है कि उन्होंने आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था और उसमें पारंगत भी हो गए थे। वे बारह वर्ष की आयु में सभी धर्मशास्त्रों का सम्यक ज्ञान प्राप्त किया था और सोलह वर्ष की आयु में शांकर भाष्य ,ब्रह्मसूत्र भाष्य लिखकर अपनी अदभुत प्रतिभा का परिचय दे दिया था। शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में ही सन् ८२० ई में केदारनाथ धाम में शरीर- त्याग दिया था।शंकर ने दिग्विजय ,शंकर विजय विलास ,शकरजप आदि अन्य धर्मगर्न्थों की रचनाएँ भी की थी।
तत्व-विचार :-
तत्व-विचार :-
शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों को समान रूप से आत्मसात किया गया। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। उन्होंने तत्वमसि ,अहं ब्रह्मास्मि ,अयमात्मा ब्रह्म आदि की उक्तियों से आत्मा को ब्रह्मस्वरूप माना। ब्रह्म को जगत की उत्पत्ति ,स्थिति एवं प्रलय का निमित्त कारण मानते हुए अद्वैत दर्शन की स्थापना की। सांसारिक वस्तुओं को उन्होंने माया माना। ब्रह्म को सत् ,चित व आनन्द मानते हुए उन्होंने उसे सच्चिदानन्द की संज्ञा दी। जगत के सम्बन्ध में उनका मानना है कि नाम एवं रूप से व्याकृत,अनेक कर्ता,अनेक भोक्ता से संयुक्त जिसमें देशकाल ,निमित्त और कर्मफल भी नियत है।इस प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति एवं विनाश एकमात्र ब्रह्म से होने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।जब तक जगत को दुःखस्वरूप समझोगे तब तक उससे वैराग्य होगा। जब तक इसे जड़ समझोगे तब तक यह दृश्य और द्रष्टा रहेगा किन्तु जब हम अपने को सत और जगत को असत समझ लेंगे तो जगत भिन्न वस्तु कैसे रहेगा। असत वस्तु अधिष्ठान से भिन्न नहीं रहती। अतः सम्पूर्ण जगत अपनी आत्मा से भिन्न नहीं है। शंकराचार्य जी के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति निषिद्ध कर्म नहीं करता किन्तु निषिद्ध कर्म से दोष जानकर उसका त्याग नहीं करता और विहित कर्म करता है। बालक के समान ज्ञानी की सहज प्रवृत्ति होती है।
ज्ञानमार्ग के प्रमुख आचार्य एवम प्रचारक आदि शंकराचार्य हैं जिन्होंने अपने समग्र भाष्यों में यही सिद्ध किया है कि जीव नामका कोई पृथक तत्व नहीं है और न तो माया नामकी कोई शक्ति है। जीव स्वयं ब्रह्म है। ब्रह्म सजातीय एवम विजातीय स्वगत भेद शून्य है एवं सत्य ज्ञानानंद रूप है,साक्षी है ,उदासीन है तथा निर्गुण ,निर्विशेष शुद्ध चैतन्य है। जगत मिथ्या है ,माया अनिर्वचनीय तत्व है। जीव ही एकमात्र ब्रह्म का आभास या प्रतिबिम्ब है और्वब्रह्म के ही समान है। घटाकाश के समाप्त होते ही महाकाश बन जाता है ,वैसे ही अंतःकरण की उपाधि समाप्त होते ही जीव ब्रह्म बन जाता है। माया ,अविद्या,अज्ञान ये तीनों ही एक हैं। यही माया आश्रय करके नाना प्रकार के भ्र्मात्मक कार्य करती है।उनका कथन है कि जब अज्ञान के कारण द्वैतभाव रहता है तब सभी वस्तुएं स्व से भिन्न दिखाई पड़ती हैं किन्तु जब सब वस्तुएं आत्मरूप दिखाई पड़ती हैं तब एक अणु भी स्व से भिन्न नहीं रहता। जिस प्रकार जाग जाने पर स्वप्न का अस्तित्व नहीं रहता उसी प्रकार सत्य का ज्ञान प्राप्त होते ही शरीर के मिथ्यात्व के कारण पिछले कर्मों का फल भी नष्ट हो जाता है।उनका कथन है कि तुम पहले बद्ध थे अब जीव हो गए और अब ज्ञान से मुक्त हुए ,यही तो भ्रम है। तुम ज्यों के त्यों हो। तुम मुक्त ही थे इसे तुमने बस जान लिया है। ब्रह्म ज्ञान नहीं हुआ करता ,केवल अविद्या की निवृत्ति होती है। वृत्ति ज्ञान भी अविद्या निवृत्त करके बाधित हो जाता है। अंतःकरण को शुद्ध करने हेतु उन्होंने बताया कि मनुष्य शांत भाव से बैठ जाये और अपनी नाभि के पास एक त्रिकोण ज्योतिमय कुण्डली मन में धारण करके उसमें हवन करे। राग,द्वेषः ,काम,क्रोध,लोभ,मोह आदि की अट्ठाइस आहुतियाँ देने का विधान है। इसे प्रतिदिन करके देखो। इससे अंतःकरण शुद्ध हो जायेगा। तात्पर्य यह है कि स्थूल को सूक्ष्म में हवन कर दो।
ज्ञानमार्ग के प्रमुख आचार्य एवम प्रचारक आदि शंकराचार्य हैं जिन्होंने अपने समग्र भाष्यों में यही सिद्ध किया है कि जीव नामका कोई पृथक तत्व नहीं है और न तो माया नामकी कोई शक्ति है। जीव स्वयं ब्रह्म है। ब्रह्म सजातीय एवम विजातीय स्वगत भेद शून्य है एवं सत्य ज्ञानानंद रूप है,साक्षी है ,उदासीन है तथा निर्गुण ,निर्विशेष शुद्ध चैतन्य है। जगत मिथ्या है ,माया अनिर्वचनीय तत्व है। जीव ही एकमात्र ब्रह्म का आभास या प्रतिबिम्ब है और्वब्रह्म के ही समान है। घटाकाश के समाप्त होते ही महाकाश बन जाता है ,वैसे ही अंतःकरण की उपाधि समाप्त होते ही जीव ब्रह्म बन जाता है। माया ,अविद्या,अज्ञान ये तीनों ही एक हैं। यही माया आश्रय करके नाना प्रकार के भ्र्मात्मक कार्य करती है।उनका कथन है कि जब अज्ञान के कारण द्वैतभाव रहता है तब सभी वस्तुएं स्व से भिन्न दिखाई पड़ती हैं किन्तु जब सब वस्तुएं आत्मरूप दिखाई पड़ती हैं तब एक अणु भी स्व से भिन्न नहीं रहता। जिस प्रकार जाग जाने पर स्वप्न का अस्तित्व नहीं रहता उसी प्रकार सत्य का ज्ञान प्राप्त होते ही शरीर के मिथ्यात्व के कारण पिछले कर्मों का फल भी नष्ट हो जाता है।उनका कथन है कि तुम पहले बद्ध थे अब जीव हो गए और अब ज्ञान से मुक्त हुए ,यही तो भ्रम है। तुम ज्यों के त्यों हो। तुम मुक्त ही थे इसे तुमने बस जान लिया है। ब्रह्म ज्ञान नहीं हुआ करता ,केवल अविद्या की निवृत्ति होती है। वृत्ति ज्ञान भी अविद्या निवृत्त करके बाधित हो जाता है। अंतःकरण को शुद्ध करने हेतु उन्होंने बताया कि मनुष्य शांत भाव से बैठ जाये और अपनी नाभि के पास एक त्रिकोण ज्योतिमय कुण्डली मन में धारण करके उसमें हवन करे। राग,द्वेषः ,काम,क्रोध,लोभ,मोह आदि की अट्ठाइस आहुतियाँ देने का विधान है। इसे प्रतिदिन करके देखो। इससे अंतःकरण शुद्ध हो जायेगा। तात्पर्य यह है कि स्थूल को सूक्ष्म में हवन कर दो।
भारत की संस्कृति एवं धार्मिक चेतना को सुदृढ़ करने में शंकराचार्य जी का अपूर्व योगदान अविस्मरणीय है। भारत की एकता के प्रतीक के रूप में स्थापित चारों धामों की स्थापना से राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने का महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया। शंकराचार्य ने तत्कालीन भारत में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों ,अंधविश्वासों को समाप्त करके अद्वैत वेदान्त की अलौकिक ज्योति से भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित किया था। सनातन धर्म की रक्षा हेतु भारत के चारों दिशाओं में चार पवित्र मठों की स्थापना तथा शंकराचार्य जैसे महत्वपूर्ण पद /उपाधि की परिकल्पना करके उन्होंने इसे जीवन्त रखा। यह सम्पूर्ण कार्य उनकी अलौकिक प्रतिभा के कारण ही संभव हो पाया और अन्त में उन्होंने केदारनाथ धाम की पावन भूमि पर शरीर त्याग करके भारत के अमर एवं पूज्य सन्तों में अपने को प्रतिष्ठित कर दिया।
शंकराचार्य जी ने वेदांत के सूत्रों पर टीका लिखकर वेदों में वर्णित व्यवस्था की पुनर्स्थापना की थी और ३५ वर्ष की अल्पायु में बौद्ध धर्म की व्यवस्था को छिन्नभिन्न कर दिया था। शंकराचार्य ने नवीन वेदांत की नींव डाली एवं उपनिषदों को वेदों के अंतर्गत मानते हुए उसे वेदांत की संज्ञा दी। उन्होंने व्यास रचित वेदांत सूत्रों पर भी भाष्य लिखा और बौद्ध धर्म के अनीश्वरवाद के समक्ष ईश्वरवादी धर्म का प्रचार प्रसार किया। वे ईश्वर-प्रेम में इतने निमग्न हो गए थे कि जीव और ब्रह्म की एकता का उपदेश देने लगे थे।
महाप्रयाण :-
ऐसी उन्मुक्त आत्माओं ने स्वयं पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर भारतवर्ष की अधार्मिकता को समय समय पर नष्ट किया और सत्य धर्म की प्रतिष्ठा की। उन्होंने अपने प्रयाण से पूर्व वह व्यवस्था भी कर दी जिससे उनके न रहने पर भी धार्मिक शक्तियों का प्रभाव और प्रसार बढ़ता रहे। चार मठों की स्थापना हो चुकी थी किन्तु वे अपने आप में तब तक अपूर्ण थे जब तक उनमें जनजागरण का मन्त्र फूंकने वाली जीवित प्रतिमायें न प्रतिष्ठित कर दी जाएँ। जगद्गुरु ने साडी जिंदगी लोगों की मानसिक समीक्षा में ही बिता दी थी। सँसार में बुरे लोग हैं ,पर भलों की संख्या उनसे अधिक है। उन्होंने ऐसे कुछ उत्कृष्ट,निष्ठावान और त्यागी शिष्य भी ढूंढ निकाले थे जो उनके न रहने पर वैदिक धर्म की पताका फहराये रहते और फिर इस परम्परा को बहुत काल तक जीवित बनाये रहते। तोटकाचार्य को उत्तर दिशा में शारदामठ और सुरेश्वर को दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी मठ का भार सौंपकर उन्होंने एक दीर्घ निश्चिन्तता अनुभव की। जगद्गुरु के त्याग ,तपस्या और साधना का ही यह प्रभाव है कि यह परम्परा आज भी चली आ रही है। सारी व्यवस्थाएं सम्पन्न करके जगद्गुरु बद्रिकाश्रम चले गए और जीवन के अन्तिम दिनों में भी अद्वैत धर्म का उपदेश देते रहे तथा मनुष्यों के कल्याण की अन्य योजनाएं भी बनाते रहे। इसके बाद कुछ समय केदारनाथ में व्यतीत किया और यहीं पर इन्होंने ३२ वर्ष की अत्यन्त अल्पायु में समाधि लेकर इस नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया। संसार को ज्ञानामृत पिलाने के कारण उन्हें जगद्गुरु की उपाधि से स्मरण किया जाता है। सनातन धर्म चिरकाल तक उनके इस महान कार्य को स्मरण करता रहेगा।
शंकराचार्य जी ने वेदांत के सूत्रों पर टीका लिखकर वेदों में वर्णित व्यवस्था की पुनर्स्थापना की थी और ३५ वर्ष की अल्पायु में बौद्ध धर्म की व्यवस्था को छिन्नभिन्न कर दिया था। शंकराचार्य ने नवीन वेदांत की नींव डाली एवं उपनिषदों को वेदों के अंतर्गत मानते हुए उसे वेदांत की संज्ञा दी। उन्होंने व्यास रचित वेदांत सूत्रों पर भी भाष्य लिखा और बौद्ध धर्म के अनीश्वरवाद के समक्ष ईश्वरवादी धर्म का प्रचार प्रसार किया। वे ईश्वर-प्रेम में इतने निमग्न हो गए थे कि जीव और ब्रह्म की एकता का उपदेश देने लगे थे।
महाप्रयाण :-
ऐसी उन्मुक्त आत्माओं ने स्वयं पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर भारतवर्ष की अधार्मिकता को समय समय पर नष्ट किया और सत्य धर्म की प्रतिष्ठा की। उन्होंने अपने प्रयाण से पूर्व वह व्यवस्था भी कर दी जिससे उनके न रहने पर भी धार्मिक शक्तियों का प्रभाव और प्रसार बढ़ता रहे। चार मठों की स्थापना हो चुकी थी किन्तु वे अपने आप में तब तक अपूर्ण थे जब तक उनमें जनजागरण का मन्त्र फूंकने वाली जीवित प्रतिमायें न प्रतिष्ठित कर दी जाएँ। जगद्गुरु ने साडी जिंदगी लोगों की मानसिक समीक्षा में ही बिता दी थी। सँसार में बुरे लोग हैं ,पर भलों की संख्या उनसे अधिक है। उन्होंने ऐसे कुछ उत्कृष्ट,निष्ठावान और त्यागी शिष्य भी ढूंढ निकाले थे जो उनके न रहने पर वैदिक धर्म की पताका फहराये रहते और फिर इस परम्परा को बहुत काल तक जीवित बनाये रहते। तोटकाचार्य को उत्तर दिशा में शारदामठ और सुरेश्वर को दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी मठ का भार सौंपकर उन्होंने एक दीर्घ निश्चिन्तता अनुभव की। जगद्गुरु के त्याग ,तपस्या और साधना का ही यह प्रभाव है कि यह परम्परा आज भी चली आ रही है। सारी व्यवस्थाएं सम्पन्न करके जगद्गुरु बद्रिकाश्रम चले गए और जीवन के अन्तिम दिनों में भी अद्वैत धर्म का उपदेश देते रहे तथा मनुष्यों के कल्याण की अन्य योजनाएं भी बनाते रहे। इसके बाद कुछ समय केदारनाथ में व्यतीत किया और यहीं पर इन्होंने ३२ वर्ष की अत्यन्त अल्पायु में समाधि लेकर इस नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया। संसार को ज्ञानामृत पिलाने के कारण उन्हें जगद्गुरु की उपाधि से स्मरण किया जाता है। सनातन धर्म चिरकाल तक उनके इस महान कार्य को स्मरण करता रहेगा।
गुरोरब्रह्मा गुरोरविष्णु गुरोरदेवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।
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