महाराष्ट्र की सन्त -परम्परा अर्थात सन्त पंचायतन में सन्त नामदेव का भी महत्वपूर्ण स्थान है। ज्ञानेश्वर के समकालीन होने के कारण दोनों के साध्य एवं साधन में समरूपता थी। दोनों एक साथ ही भ्रमण करते थे और दोनों अपनी उपदेशात्मक दर्शन प्रणाली से लोगों को कृतकृत्य करते थे। दोनों की रहस्यवादी पृष्ठभूमि की संरचना एक प्रकार की अवसादीय चट्टान से हुई है। नामदेव द्वारा प्रतिपादित ईश्वरानुभव का मार्ग वैसा ही सहज एवं सुगम्य है जैसा की ज्ञानेश्वर का मार्ग था।
नामदेव जी का जन्म कार्तिक सुदी ११ संवत १३२८ सन १२६६ ई में महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयनी गाँव में हुआ था। वे जाति के दर्जी थे। डॉ० भण्डारकर का कथन है कि सन्त नामदेव की मराठी कविता ज्ञानेश्वर की कविता से अधिक परिष्कृत इसलिए है क्योंकि नामदेव ने मात्र उपदेशों के माध्यम से ही अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया था। उन्होंने किसी ग्रन्थ विशेष का निर्माण नहीं किया था। नामदेव ने निर्गुण सम्प्रदाय से अपने को सम्बद्ध माना है। उनके समय में धार्मिक स्थिति यह थी कि नाथ सम्प्रदाय पूर्णतयः स्थापित हो चुका था और उससे सम्बंधित समस्त सन्त अलख निरंजन की योगपरक साधना के प्रचार में व्यस्त थे। इसी बीच नामदेव ने भी योगसाधना को अभंगों के माध्यम से समझना प्रारम्भ किया।
परमात्मा की सर्वव्यापकता ,जगत की निस्सारता एवं आत्मा की अनन्त शक्ति का अभंगों के माध्यम से वर्णन करते हुए उन्होंने ज्ञानेश्वर की साधना से समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। ज्ञानेश्वर की ही भाँति उन्होंने भी ईश्वर एवं जगत के सम्बन्ध में कहा है कि -
एक अनेक विआपक पूरक ,जत देवहुं तत् सोई।
माईआ चित्र विचित्र विमोहित बिला बूझे कोई।
उपर्युक्त पद में चित्र विचित्र शब्द की सार्थकता जगत की रचना के संदर्भ में बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि चित्र विचित्र के साथ माइआ शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ब्रह्म ने अपनी माया शक्ति के द्वारा ही इस विचित्र एवं नाना विधिमूलक संसार की रचना की है। नामदेव द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म का स्वरूप स्वच्छ है, पर अज्ञानतावश मनुष्य बन्धन में पड़ा रहता है। इस संसार को समुद्र मानते हुए बीठन को ही वे खेवनहार बताते हैं। ईश्वर के प्रति अपने अनन्य प्रेम को व्यक्त करते हुए नामदेव जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "जिस प्रकार मधुमक्खियों का समुदाय फूल के सौरभ पर आसक्त होता है अथवा उड़कर शहद एकत्र करता है ठीक उसी प्रकार मेरे मन को ईश्वर के चरणों में आसक्त होना चाहिए। "
नामदेव की साधना भक्ति प्रधान सगुण उपासक की थी। वे ईश्वरीय अनुकम्पा को बहुत बड़ा महत्व देते थे और ईश्वरीय कृपा से सम्पूर्ण जड़ जगत का मिथ्या ज्ञान दूर हो जाता है तथा परब्रह्म के प्रकाशमय रूप का दर्शन होता है। जगत के मिथ्या ज्ञान के पक्ष में उन्होंने कहा है कि "यह छोटा सा संसार जो एकमात्र कर्ता हैं ,को छिपा लेने की शक्ति रखता है। "ईश्वर के नाम स्वरूप एवं महात्म्य का वर्णन नामदेव इन शब्दों में करते हैं _"यदि मैं अपनी साधना को तुम्हारे चरणों में अर्पित कर दूँ तो मेरा जीवनक्रम टूट जायेगा और यदि वाणी में ईश्वर नाम की धारणा का समापन हो जाता है तो जिहवा हजारों खण्डों में विभक्त हो जाएगी। यदि मेरी आँखें तुम्हारे दिव्य रूप को देखने में चूक जाती हैं तब हठात उस स्थान को सदा के लिए बाहर निकल जाएगी।" नामदेव जी का विश्वास था कि ईश्वरानुभूति की प्राप्ति ईश्वरीय अनुकम्पा से ही सम्भव है। एक बार ईश्वरानुभूति प्राप्त कर लेने पर बार बार प्रयत्न नहीं करना पड़ता क्योंकि फिर तो स्मरण मात्र ही पर्याप्त होता है। केवल उस अनुभूति की धारणा को क्रमशः उनके दिव्य रूप के संदर्भ में ह्रदय में जागृत करते रहना चाहिए। यही मुक्ति का मार्ग है। इसी मार्ग पर साधक परमलाभ की प्राप्ति कर सकता है, ऐसा नामदेव ने अपने अभंगों के माध्यम से बताया है। नामदेव जी का मत है कि मनुष्य की ईश्वर साक्षात्कार की प्रवृत्ति ईश्वरप्रदत्त है। इसका उदाहरण वे गाय के उस बछड़े से देते हैं जो जंगल में पैदा होता है और उसका पालन वहां ईश्वर के अतिरिक्त और कौन करता है ? ईश्वर ऐसा वातावरण उत्पन्न करता है कि मनुष्य का तदनुकूल मार्ग स्वतः स्पष्ट हो जाता है। अतः यह पूर्णरूपेण सत्य है कि ईश्वर मनुष्य की प्रवृत्ति को उसकी प्रकृति के अनुरूप ही नियमित करता है। नामदेव ने आगे बताया कि एक बार ईश्वर साक्षात्कार प्राप्त हो जाने पर पुनः ईश्वर के दर्शन की आवश्यकता नहीं है। फिर तो उसका अन्तःदर्शन स्वानुभूति प्रक्रिया से होता ही रहेगा। मात्र स्मरण ही पर्याप्त सिद्ध होता है। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव के सम्बन्ध में नामदेव का कथन है कि "हमें अपनी भूख और प्यास दोनों को ईश्वर के नाम के आगे तिरस्कृत कर देना चाहिए। जो ईश्वर अमरता का एकमात्र श्रोत है तथा नामदेव के ह्रदय में विद्यमान है उसी का वे निरन्तर आनन्दानुभव कर रहे हैं। "
ईश्वर प्राप्ति के सन्दर्भ में नामदेव बहुत ही सजग हैं क्योंकि आत्मानुभूति का परम लक्ष्य ईश्वरानुभव ही है। सामाजिक उन्नयन के लिए अपनी वाणी को उन्होंने उन सभी व्यक्तियों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है जो अज्ञानवश अपने आप को नहीं जान पाते हैं। आत्मज्ञान द्वारा वे यह सिद्ध कर देना चाहते थे कि ईश्वर का साक्षात् दर्शन आत्मा में ही हो सकता है क्योंकि आत्मा परमात्मा का ही रूप है। रूप ज्ञान से पूर्णता की ओर पहुंचा जा सकता है ,ऐसा उदघोष नामदेव जी ने किया। उनके ही शब्दों में -"बेचारे ब्राह्मण ईश्वर के वास्तविक साक्षात्कार मार्ग को नहीं जानते। ईश्वर प्राप्ति केवल उसके नाम की सतत धारणा से ही संभव है। मैं उन युवक एवं वृद्धों को ईश्वर नाम की तीव्र धारणा के लिए आहवान करता हूँ। अपने सभी धार्मिक उत्सवों में उन्हें ईश्वर के अतिरिक्त और किसी बारे में नहीं सोचना चाहिए। "
आत्मानुभूति एवं नामस्मरण की साधना द्वारा ही मोक्ष की कामना करते हुए नामदेव का यह कथन सर्वथा उल्लेखनीय है '-"गन्ना कभी भी अपने मीठेपन का परित्याग नहीं करता है चाहे उसके टुकड़े टुकड़े क्यों न कर डालें ?उसी तरह ईश्वरानुभूति की धारणा जन्मजात है। अतः उसका हृदय से पूर्ण निष्कासन संभव नहीं है क्योंकि इसी के माध्यम से आनन्दानुभूति प्राप्त होती है। "ईश्वरानुभूति के अत्यन्त सरल मार्ग का उल्लेख करते हुए नामदेव जी का कथन है कि ईश्वरानुभूति की धारणा में अपने को सदैव जागृत रखो। तुम्हारे सभी पाप ईश्वर के नाम- स्मरण मात्र से तुमसे अलग हो जायेंगे और तुम्हें स्वर्गलोक में निश्चित स्थान प्राप्त होगा। नामदेव ने ईश्वर को दयालु कर्तव्यनिष्ठ एवं भक्तप्रेमी के रूप में देखा। उनके ही शब्दों में "--ईश्वर स्वयं नामदेव के पास उसी रूप में आता है जैसे की गाय अपने बछड़े के पास आती है। "
नामदेव सगुण ब्रह्म के उपासक थे किन्तु निर्गुण ब्रह्म को भी वे प्रकारान्तर से मान्यता देते थे एवं उसकी भी उपासना उसी रूप में करते थे। उनके अनुसार ईश्वर सर्व व्यापक है। संसार का ऐसा कोई भी स्थल नहीं है जो ईश्वर से रिक्त हो। वह ईश्वर यद्यपि भक्ति के संदर्भ में विभिन्न नामों से जाना जाता है फिर भी मूलतः वह एक ही है। नामदेव ने स्वयं अपने उपास्य को राम शब्द से सम्बोधित किया है। उनके अनुसार "जैसे भंवरा पुष्प के चारों ओर मंडराया करता है उसी प्रकार मेरा जीव कोकिल की भाँति प्रिय को रमईआ शब्द के माध्यम से सदैव रटता रहता है। मछली को जैसे जल प्रिय है उसी प्रकार राम मेरे लिए प्रिय हैं। " नामदेव जी ने कबीर की भाँति परमात्मा को आत्मा का स्वामी एवं रक्षक -"मैं बाउरी मेरा राम भतारु " कहते हुए माना है।
माया के स्वरूप वर्णन में अन्य संतों की भांति नामदेव भी इसे कनक कामिनी की उपाधि देते हैं। "देखत तव रचना विचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये " तुलसीदास की इस पंक्ति में नामदेव की ही भावना बोलती है। वे संसार को ब्रह्म की लीला समझते हैं। ब्रह्म और प्रापंचिक संसार में एकता स्थापित करते हुए वे इसे जल एवं तरंग की उपमा देते हैं।
जल तरंग अरु फें बुदबुदा ,जल तें भिन्न न होइ।
इहु परपंच परब्रह्म की लीला ,विचरत आन न होइ।
ईश्वरानुभूति के संदर्भ में उपरोक्त अज्ञान से मुक्ति परमावश्यक है। ईश्वर का स्वरूप अत्यन्त सरल एवं नैसर्गिक बतलाते हुए उन्होंने कहा है : -"ईश्वर का स्वरूप एक अंधे व्यक्ति के द्वारा भी देखा जा सकता है और एक गूंगा व्यक्ति भी एक बहरे के कानों तक ईश्वर के ज्ञान को पहुंचा सकता है। अनाहत नाद के सम्बन्ध में नामदेव जी का कथन है कि यह सहस्त्रों स्वर में ईश्वर नाम की धारणा प्रकट करता है। ईश्वर के सर्व व्यापक स्वरूप का उल्लेख करते हुए नामदेव उसे एक ऐसा प्रकाश मानते हैं जिसे देखने के लिए किसी बाह्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं प्रकाशमान है और उसे देखने के लिए आत्मप्रकाश ही पर्याप्त है। उनके शब्दों में "केवल उसी में आत्मजागृति हो सकती है जो अपने गुरु के उपदेशों में सच्ची आस्था रखता है। हम अपनी आत्मा को देखने के लिए कौन सा दीपक जलाते हैं ? वह जो सूर्य एवं चन्द्रमा को प्रकाश देता है ,किसी अन्य दीपक से नहीं देखा जा सकता है। यहां पर न तो पूरब है और न पश्चिम ,न दक्षिण और न ही उत्तर बल्कि ईश्वरानुभूति के लिए उद्यत साधक के लिए ईश्वर सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। "
अंत में नामदेव अपनी आत्मानुभूति के संदर्भ में अपने तादात्म्यता का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि "उन्हें ईश्वरानुभूति ने इतना आच्छादित कर लिया है कि उन्हें मालूम पड़ने लगा कि स्वयं ईश्वर ही थे और वह ईश्वर केवल उनका ही था। "नामदेव की इसी रहस्यवादी प्रवृत्ति से प्रेरणा पाकर संत रानडे ने अपने साधना मार्ग को उसी के समनांतर करने का प्रयास किया और उस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए कहा "महाराष्ट्र के सभी संतों में हम ईश्वर के नाम की सामर्थ्य एवं महत्ता पर शाश्वत प्रेरणा पाते हैं और इन सभी संतों में हम नामदेव के नामस्मरण की प्रेरणा को सर्वोत्कृष्ट कह सकते हैं। "
नामदेव जी का कथन है कि निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त हुए बिना मनःशक्ति नहीं मिलती है। ज्ञान का उपयोग आचरण के लिए है जनसमूह को आकृष्ट करने के लिए नहीं। ज्ञान पचाना पड़ता है। सहृदयता ,नम्रता,आत्महित,दक्षता एवं आत्म-सन्तुष्टता ये चार महत्वपूर्ण बातें आदर्श व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं। मनः शान्ति ही मानव की सर्वश्रेष्ठ शक्ति है। यही अखण्डित प्रसन्नता है। आत्म सुख ही यथार्थ सुख है। यह आत्म सुख प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्वयं तैयार ही रहता है। आत्म सुख के स्मरण करने से ही वह सभी को प्राप्त होने वाला है। इस आत्म सुख का विस्मरण होने से अनेक संकट आते हैं। यह आत्म सुख बाह्य परिस्थिति निरपेक्ष है। आत्मसुख से ही इसका उदय होता है।
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