Wednesday, October 19, 2016

आशीर्वचन

अनंत श्री विभूषित कनिष्ठ जगतगुरु शंकराचार्य                       श्री चौमुखनाथ परमधाम आश्रम 
स्वामी आत्मानंद सरस्वती जी महराज                                              ग्राम लखरौनी पथरिया 
राष्ट्रिय अध्यक्ष -विश्व हिन्दू जागरण परिषद                                        जिला- दमोह {म० प्र० }
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष -श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण न्यास, अयोध्या


                                                                    आशीर्वचन 

परम् श्रद्धेय, डॉ जटाशंकर त्रिपाठी  जी ,
                                      आप द्वारा लिखी गयी दोनों पुस्तकों "भारत के प्रमुख तीर्थस्थल "एवम "हमारे पूज्य सन्त "को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। निश्चित ही आपके द्वारा किया जा रहा आध्यात्मिक एवं वैदिक प्रयास निश्चित ही राष्ट्र के लिए अलौकिक सम्पदा के रूप में संचित होगी। इसी आशा के साथ आपके दीर्घायु होने की शुभकामना सहित। 
                                                                                                 


                                                                                           स्वामी आत्मानंद सरस्वती


              रसिक पीठाधीश्वर जन्मेजय शरण जी महराज                                        १५ अगस्त २०१६ 
जानकीघाट,बड़ा स्थान ,श्री अयोध्या, उ० प्र०                                           स्वतन्त्रता दिवस  

                                                               शुभकामना सन्देश 

                                          गंगादि  तीर्थेषु  वसन्ति मत्स्या,देवालये  पक्षिगणाश्च सन्ति। 
                                            भावोझितास्ते न फलं लभन्ते,तीर्थाच्चदेवायतनाच्चमुख्यात। 
                                              भावं ततो हृत्कमले निधाय ,तीर्थानि सेवेत समाहितात्मा। 
                                                                                                                            {नारद पुराण }
अर्थात गंगा आदि तीर्थों में मछलियां रहती हैं तथा देव मन्दिरों में पक्षीगण रहते हैं किन्तु उन्हें तीर्थ एवं देव मन्दिरों में निवास करने का कोई पुण्य प्राप्त नहीं हो पाता है क्योंकि उनके चित्त में भावभक्ति की श्रद्धा नहीं होती है। अतः हृदय कमल में भक्तिभाव धारण करके एकाग्रचित्त होकर तीर्थ-सेवन करना चाहिए। 
तीर्थस्थलों को परिभाषित करते हुए शास्त्रों में कहा गया है कि "तरति संसार महार्णवं येन तत तीर्थमिति"अर्थात जो संसार रूपी भवसागर को पार कराने में समर्थ है ,ऐसे तरने की यात्रा को ही तीर्थयात्रा कहते हैं। स्कन्दपुराण में स्थावरतीर्थ,जंगमतीर्थ एवं मानसतीर्थ तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि सतयुग में ध्यान द्वारा ,त्रेतायुग में यज्ञानुष्ठान द्वारा,द्वापरयुग में भगवान की पूजा करके जो पुण्य प्राप्त होता है वह पुण्य कलियुग में केवल सत्संग व भगवद -संकीर्तन से ही प्राप्त हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है "कलियुग समजुग आन नहिं जो नर कर विस्वास। गाई राम गुन गन विमल भवतर बिनहिं प्रयास। " तीर्थयात्रा के लिए संकल्प व श्रद्धाभाव इन दोनों प्रधान तत्वों का होना अनिवार्य है अन्यथा तीर्थयात्रा फलदायी नहीं हो सकती। सात्विक मनुष्य निष्काम भाव से मोक्ष प्राप्ति हेतु एवं राजसी व्यक्ति सकाम भाव से अर्थात पुत्र,धन,सम्पत्ति,सुख आदि की लालसा से तीर्थयात्रा करते हैं किन्तु तामसी व्यक्ति यदि तीर्थयात्रा के लिए उद्यत होते हैं तो उनके लोभ,मोह,अहंकार,ईर्ष्या,काम,क्रोध आदि दुर्विकारों का ह्रास अवश्य हो जायेगा। कहा गया है कि अहंभाव एवं आसक्ति की मूर्च्छा टूटते ही चैतन्यता के अनेकों द्वार स्वतः खुल जाते हैं और पुण्यकर्म के अवसर मनुष्य को स्वतः मिलने लगते हैं। 
भारत के प्रमुख तीर्थस्थल नामक इस पुस्तक में डॉ जटाशंकर त्रिपाठी जी  ने चारों धामों ,द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं इक्यावन शक्तिपीठों में से प्रमुख शक्तिपीठों का सामान्य परिचय,भौगोलिक स्थिति,पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों व उनके दर्शनीय स्थलों का परिचय देते हुए उनके सम्बन्ध में जो चित्रण प्रस्तुत किया है उसके लिए वे निश्चित रूप से साधुवाद के पात्र हैं। मैं इनके आध्यात्मिक पथ की इस पुनीत यात्रा के प्रति अपना शुभाशीष देते हुए आशा करता हूँ कि पाठकगण भी इस पुस्तक से लाभान्वित अवश्य होंगे। 

                                                                                               महांत जनमेजय शरण 
                                                                                    श्री जानकीघाट बड़ास्थान ,श्री अयोध्या  
   बिन्दुगाद्याचार्य देवेंद्रप्रसादाचार्य                                                            १५ अगस्त ,२०१६ 
 अध्यक्ष ,श्री रामप्रसाद सेवा ट्रस्ट ,श्री अयोध्या ,उ० प्र०                               स्वतन्त्रता दिवस 


                                                           आशीर्वचन 

हिन्दू धर्मशास्त्रों में सन्त -परम्परा के अन्तर्गत ऐसे अनेक सन्तों का वर्णन मिलता है जिन्हें ईश्वर का सानिध्य प्राप्त हो चुका है। वास्तव में सन्त की न तो कोई जाति होती है और न ही कोई कोई सम्प्रदाय। सन्त निरपेक्ष होते हैं क्योंकि सन्त समस्त प्राणियों को समभाव से देखते हैं। इन्हें महापुरुष की भी संज्ञा दी जाती है क्योंकि सन्त अन्य पुरुषों की अपेक्षा आचारवान,धर्मज्ञ एवं भगवदभक्त होते हैं। इसीलिए हम इन्हें श्रद्धाभाव से देखते हैं। श्रद्धा को कलियुग की औषधि माना जाता है क्योंकि श्रद्धा में ही जीवन की सरसता ,उल्लास,उत्सव और आनन्द समाहित है ।हिन्दू  धर्मशास्त्रों में कहा गया है -"महाजनो येन गताः स पन्थाः "अर्थात महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही मार्ग सर्वथा अनुकरणीय हो जाता है। 
सन्त धर्म के रक्षक भी होते हैं तथा अपनी आध्यात्मिक चेतना द्वारा समाज का मार्ग दर्शन भी करते हैं। सन्त जन्मजात नहीं होते हैं बल्कि इसी समाज से निकलकर वे अपनी प्रतिभा,नियम-संयम एवं भगवदभक्ति के कारण इस परमपद को प्राप्त कर लेते हैं। सन्त की सामाजिक भूमिका का विश्लेषण करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -"शठ सुधरहिं सत संगति पाई "अर्थात शठ का भी सुधार हो सकता है यदि वह श्रद्धायुक्त होकर महापुरुष अथवा सन्त के उपदेशों व उनके आचरण को आत्मसात कर लें। जैसे लोहा भी पारस के संग सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार सन्त की कृपा से मनुष्य सोना ही नहीं  बल्कि पारस भी बन सकता है। 
ड़ॉ० जटाशंकर त्रिपाठी ने ऐसे कतिपय सन्तों के जीवन-दर्शन को इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत करके उन्होंने उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं अटूट विश्वास का प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। महात्मा बुद्ध,आदिगुरु शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ से लेकर महाराष्ट्र के पांचों सन्तों नामदेव,ज्ञानेश्वर,एकनाथ,तुकाराम एवं रामदास तथा अनुवर्ती सन्तों यथा श्री करुणासिन्धु जी महराज, स्वामी श्री रामप्रसादाचार्य जी एवं पँ० श्री राम शर्मा आचार्य जी के जीवन दर्शन को पाठकों के सम्मुख इस पुस्तक में प्रस्तुत किया जा रहा है जो  एक स्तुत्य कार्य है और इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम ही है। हम श्री धनुषधारी भगवान से यह यह प्रार्थना करते हैं कि डॉ जटाशंकर त्रिपाठी के परिश्रम व समर्पित भाव से लिखित यह पुस्तक जनोपयोगी एवं भक्तिमार्ग का प्रदर्शक बने ,ऐसी मेरी शुभकामना है। 
अस्तु" हमारे पूज्य सन्त" नामक इस पुस्तक के सफल  प्रकाशन  हेतु  अपनी  शुभकामना व्यक्त  करते  हुए 
डॉ ० त्रिपाठी को एतदर्थ मैं उन्हें स्नेहाशीष प्रदान करता हूँ। 
  
                                                                      बिन्दुगाद्याचार्य  महांत देवेंद्रप्रसादाचार्य 
                                                                     अध्यक्ष, श्री रामप्रसाद सेवा ट्रस्ट, अयोध्या                                        

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