ज्ञानेश्वर जाति से मराठा ब्राह्मण थे सामाजिक तिरस्कार के परिणामस्वरूप वे जातिगत भेदभाव नहीं मानते थे। इनकी योगसाधना इतनी प्रबल थी कि मुसलमानी आतंक के बावजूद इस परम्परा का इन्होने विधिवत निर्वाह किया था। अपने संत जीवन में इन्होने इतनी ख्याति प्राप्त कर ली थी कि एक बार लोगों ने ज्ञानेश्वर द्वारा भैंसे के मस्तक पर हाथ रखने से उसके मुख्य से ऋग ,यजुर और सामवेद के मंत्रों को विधिवत उच्चारित होते हुए सुना। संत रानडे ने इनके सम्बन्ध में कहा था कि "ज्ञानेश्वर एक ऐसे संत थे जो हमारे सामने अपने आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ से लेकर अंत तक एक साधु जीवन का अनुकरण करते रहे। वे साधु बनाए नहीं गए थे बल्कि स्वयं बना हुआ था। "संत ज्ञानेश्वर को ज्ञानदेव के नाम से भी जाना जाता था। उनका आध्यात्मिक रहस्यवाद एकेश्वरवाद एवं सर्वेश्वरवाद दोनों को अपने विचारों में समाहित करता है। ज्ञानेश्वर ने रहस्यवादी प्रक्रिया एवं अनुभूति को अपने आप में पूर्ण मानते हैं। इसके लिए वे किसी ज्ञान, तप या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं मानते। उनके ही शब्दों में "आनन्द साधक के पास स्वयं आता है और यह अपने प्रभाव में इतना शक्तिशाली है कि इसको सुनाने से ही सांसारिक सत्ता लुप्त हो जाती है और नित्यता हमारे पास स्वयं आ जाती है। "ज्ञानदेव की असीम भक्ति का अनुमान ज्ञानेश्वरी के इस कथन से लगाया जा सकता है कि वे इस क्षेत्र में कितने प्रवीण थे। "जब मैं ध्यानस्थ हुआ तब आपके दिव्यरूप के दर्शन हुए। वह मणि सा मोहक था ,प्रज्ज्वलित अग्नि के समान उज्ज्वल था ,मणियों से गुंथे हुए सूर्य के समान उज्जवल था और करोड़ों शशि व सूर्य के प्रकाश से भी अधिक चमकीला था। "इस प्रकार हम देखते हैं कि संत ज्ञानदेव की साधना भक्तिप्रधान सगुण उपासना से परिपूर्ण रहस्यवादी प्रक्रिया का अनुकरण करती हुई निश्चित लक्ष्य को नित्य प्राप्त मानती है।
ज्ञानदेव के रहस्यवाद को प्रकारान्तर से बौद्धिक रहस्यवाद माना जाता है क्योंकि उसका उदभव भगवदगीता की दार्शनिक भावभूमि से हुआ है और गीता का प्रभाव उनके ऊपर विशेष रूप से पड़ा। गीता की मूल शिक्षाओं को लेकर उसे और अधिक सरल प्रक्रिया द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास इनकी सफलता का परिचायक है। गीता पर भाष्य प्रस्तुत करते हुए इन्होने उसके सम्पूर्ण तथ्यों को ग्रहण किया और उसे एक ग्रन्थ के रूप में निबद्ध किया। उनका यह ग्रन्थ ज्ञानेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। चूँकि इसमें गीता के श्लोकों की व्याख्या उसी के अनुरूप की गई थी, अतः विद्वानों के बीच यह अत्यधिक गौरवान्वित हुई। ज्ञानेश्वरी की रचना ज्ञानदेव जी ने पंद्रह वर्ष की अल्पायु में ही की थी। लगातार तीस वर्षों तक इसमें परवर्ती संतों एवं विद्वानों ने मूलभूत सुधार भी किया जिसके कारण ज्ञानेश्वरी की विषयवस्तु कुछ अंशों में परिवर्तित हो गई किन्तु ज्ञानेश्वरकृत अंशों को निकाला नहीं गया।
तत्व-विचार :-
ज्ञानदेव के रहस्यवाद को प्रकारान्तर से बौद्धिक रहस्यवाद माना जाता है क्योंकि उसका उदभव भगवदगीता की दार्शनिक भावभूमि से हुआ है और गीता का प्रभाव उनके ऊपर विशेष रूप से पड़ा। गीता की मूल शिक्षाओं को लेकर उसे और अधिक सरल प्रक्रिया द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास इनकी सफलता का परिचायक है। गीता पर भाष्य प्रस्तुत करते हुए इन्होने उसके सम्पूर्ण तथ्यों को ग्रहण किया और उसे एक ग्रन्थ के रूप में निबद्ध किया। उनका यह ग्रन्थ ज्ञानेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। चूँकि इसमें गीता के श्लोकों की व्याख्या उसी के अनुरूप की गई थी, अतः विद्वानों के बीच यह अत्यधिक गौरवान्वित हुई। ज्ञानेश्वरी की रचना ज्ञानदेव जी ने पंद्रह वर्ष की अल्पायु में ही की थी। लगातार तीस वर्षों तक इसमें परवर्ती संतों एवं विद्वानों ने मूलभूत सुधार भी किया जिसके कारण ज्ञानेश्वरी की विषयवस्तु कुछ अंशों में परिवर्तित हो गई किन्तु ज्ञानेश्वरकृत अंशों को निकाला नहीं गया।
तत्व-विचार :-
ज्ञानेश्वरी की रचना के प्रारम्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी के "बन्दहुँ गुरु पद पदुम परागा "की भाँति क्रमशः गणेश एवं गुरु की वन्दना की गई है। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञानदेव की गुरु के प्रति असीम आस्था थी। उन्होंने अपने गुरु के प्रति ज्ञानेश्वरी के प्रथम अध्याय में लिखा है "जैसे कि वृक्ष की जड़ को सींचने पर वह पल्लवित होकर अनेक शाखाओं में विभक्त हो जाती है और जिस प्रकार मनुष्य सागर में स्नान करके यह कह सकता है कि उसने संसार की पवित्र नदियों में स्नान किया है ,जिस तरह परमानन्द जब एक बार प्राप्त हो जाता है तब सभी समरूपताएँ अपने आप प्राप्त हो जाती हैं ,उसी तरह गुरु सम्यक रूप से प्रसन्न कर लिया जाता है तो सभी इच्छाएं अपने आप पूर्ण हो जाती हैं। ज्ञानेश्वर बताते हैं कि ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए संतों से प्रेम करना नितांत आवश्यक है क्योंकि वे संत ही उस दिव्य परमात्मा के दर्शन का मार्ग निर्देशन करते हैं। संत ज्ञान के साक्षात् मंदिर हैं और हमारी सेवा ही इनके प्रवेशद्वारों का निर्माण करती है। हमें अहं का परित्याग कर अहर्निश उनकी सेवा में तत्पर रहना चाहिए। ऐसा करने पर सम्पूर्ण संसार ईश्वर में ही दिखाई पड़ने लगता है। इससे मूर्खतापूर्ण प्रेम का अंत हो जाता है और ज्ञान का प्रकाश स्वतः प्रकाशित हो जाता है तथा गुरु अपनी कृपा से भक्तों को कृतकृत्य बनाने में सक्षम होता है।
ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में ज्ञानदेव का विचार है कि वह कभी प्रकट होता तो कभी अदृश्य हो जाता है और वह साधक के सामने तरह तरह के रहस्यपूर्ण अभिनय करता है। संत ज्ञानेश्वर ने इसका बड़ा ही मार्मिक उल्लेख प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार हैं -"दिसे तब तब लये ,लपे तब तब अभ्भासे "उन्होंने बताया की जब साधक ईश्वर का दर्शन करना चाहता है तब वह नहीं दिखाई पड़ता किन्तु यदि साधक उससे मुंह मोड़ता है तो ईश्वर उसे दूसरी दिशा में दिखाई पड़ता है जैसाकि अर्जुन को श्रीकृष्ण दिखाई पड़े थे। इस विरोधाभास का ज्ञानेश्वरी के ग्यारहवें अध्याय में बड़ा ही मार्मिक वर्णन मिलता है कि यदि साधक ईश्वर को छूना चाहता है तो ईश्वर ऐसा न होने देगा। इसका तात्पर्य यह है कि उसे जानने के लिए इंद्रियों का प्रयोग निरर्थक है। वह तो मात्र आत्मानुभूति द्वारा ही जाना जा सकता है। ईश्वर के दर्शन के सम्बन्ध में भी वे ऐसा ही मत व्यक्त करते हैं "जब मैंने आपके तेज को देखने का प्रयास किया तो करोड़ों सूर्य का प्रकाश मेरी आँखों के सामने से गुजरा। कितना महान आश्चर्य ,आप का रूप करोडो बिजलियों से विभूषित था।" इसी स्थल पर ज्ञानेश्वर ने यह तर्क दिया कि जिसे आँखें देखने में असमर्थता व्यक्त करती हैं उसे वे बिना आँख के देख सकते हैं।
ज्ञानेश्वर ने इन समस्त तथ्यों को अपनी पुस्तक ज्ञानेश्वरी में समाविष्ट किया है। उसमें ऐसा कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा है जिसकी अनुपस्थिति से आत्मानुभूति प्रक्रिया में बाधा पड़े। उसमें बताया है कि आत्मानुभूति का सबसे सशक्त पहलू है ; गुरु का वरण। यदि सदगुरु की प्राप्ति हो गई तब ईश्वर साक्षात्कार में कोई संदेह नहीं रह जाता है। ज्ञानेश्वरी में संतों की जागरूकता उल्लेख करते हुए कहा गया है कि "यह आध्यात्मिक ज्ञान का पौध तुम्हारे द्वारा ही बोया गया है,अब तुमसे यही अपेक्षा है कि तुम अपने एकाग्र चिन्तन से इसका विकास करो, तभी यह पुष्पित होगा और विभिन्न प्रकार के फलों को जन्म देगा। अन्यत्र भी उन्होंने संतों को लोक कल्याण के प्रति जागृत किया है:- "यदि हंस स्वच्छ्न्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरण करता है तो क्या वह अन्य प्राणी को विचरण करने से रोकता है ? यदि आकाश समुद्र में प्रतिबिम्बित होता है तो क्या वह छोटे से तालाब में अपना प्रतिबिम्ब डालने से इंकार कर सकता है ?" सन्त ज्ञानेश्वर के अनुसार ईश्वर ही विश्व का एकमात्र संचालक,परिपालक एवं संहारकर्ता है। प्रकृति की अन्य शक्ति उनकी सृष्टि में सहायक मानी जाती हैं। उनके अनुसार जब कभी ईश्वर चाहता है कि हम अंतिम उच्छ्वास लें तब यह क्रिया अंततः समाप्त हो जाती है क्योंकि उसकी प्रेरक शक्ति "ईश्वरीय आदेश "इसे मूलतः विनष्ट कर देता है। ज्ञानेश्वर द्वारा प्रतिपादित भ्रम बाहुल्य का सिद्धांत अथवा माया का विचार जिसे शंकर ने पहले ही प्रतिपादित कर दिया था ,एक उत्कृष्ट काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण के माध्यम से ज्ञानेश्वरी में वर्णित है। उन्होंने ब्रह्म रूपी स्रोत से निःसृत माया रूपी नदी का कथन प्रस्तुत करके अद्वैतवादी सिद्धांत की पुनर्प्रतिष्ठा की। एक उपमा के माध्यम से वे कहते हैं कि जैसे नदी अपने परवाह में फेनाकृति का निर्माण करती है ,उसी तरह ईश्वर माया या भ्रम का प्रतिपादन जगत सृष्टि के सन्दर्भ में करती है। बुद्धिमान व्यक्ति इस माया नदी को तैरकर पर करना चाहता है जिसके परिणामस्वरूप बिना कोई चिह्न छोड़े हुए वह अथाह जल में डूब जाता है। ज्ञानेश्वर ने शब्द प्रमाण को उस पवित्र प्रस्तर की भांति बताया जिसे मनुष्य अपने वक्ष से बांधकर माया नदी को पर करना चाहता है परन्तु आगे चलकर वह भी किसी मछली के मुंह में जा गिरता है क्योंकि उन्हें प्रस्तर के आश्रय का अहंकार रहता है। अतः ज्ञानेश्वर ने माया नदी को पार करने का एक सरल उपाय खोजते हुए बताया कि यदि हम इस भयानक परवाह को पर करना चाहते हैं तब हमें एक कुशल नाविक की भांति एक सदगुरु की खोज करनी पड़ेगी तभी इस माया परवाह को पर करके आनंदस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति सम्भव हो सकती है। इस आत्मानुभूति के मार्ग पर व्यक्ति को अष्टसात्त्विक भाव का सहारा लेना पड़ता है। ये अष्टसात्त्विक भाव रोमांच,स्वेदश्राव,अश्रुपात,स्पन्द,आंशिक पक्षाघात,युगारम्भ,शांति और प्रसन्नता है। ज्ञानेश्वर ने इसका प्रयोग स्पष्ट करते हुए कहा है -"अपने अन्दर ब्रह्म का अपूर्वानुभव करके शरीर को निष्क्रिय समझकर ईश्वर के चरणों में नतमस्तक होने से सहज ही उसकी प्राप्ति होती है। "ज्ञानेश्वर के अनुसार स्वानुभूति के माध्यम से अद्वय परब्रह्म के साथ तदाकारता एक अनिर्वचनीय आनंद का कारण बन जाती है और तब ऐसी अवस्था में सगुण और निर्गुण दोनों एकरूप होकर केवल मुक्त स्वभाव परमानन्द रूप में शेष बचा रहता है। ज्ञानेश्वर ने ईश्वर और भक्त का बहुत ही मार्मिक वर्णन ज्ञानेश्वरी में किया है। उन्होंने ईश्वर और आत्मा की एकरूपता को विशेषण और विशेष्य की संगति द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि जैसे फूल और उसका सौरभ अलग नहीं किया जा सकता है उसी तरह भक्त और भगवान एकरूप हैं। इस रहस्यवादी अनुभूति के प्रथम चरण में ईश्वर की सन्निकटता की अनुभूति भक्त को होने लगती हैऔर भक्त अपने पूर्ण विलय के बाद ईश्वर को स्वयं प्राप्त कर लेता है।
ज्ञानेश्वरी के नवें अध्याय में ज्ञानेश्वर ने पुरुष एवं प्रकृति के अवियोज्य समबन्ध का वर्णन किया है। उनके अनुसार आत्मन एक शाश्वत द्रष्टा है तथा प्रकृति पूर्णरूपेण कर्ता है। इसी तरह उन्होंने क्षर एवं अक्षर की भी व्याख्या की है। क्षर का अर्थ इन्होने परिवर्तनीय एवं विनाशशील वस्तु से लिया है और इसके विपरीत अक्षर का अर्थ अपरिवर्तनीय, शाश्वत एवं स्थिर बताया है। शरीर के संबन्ध बताया है कि यह विभिन्न प्रकार के तत्वों का मिश्रण है। जिस प्रकार एक रथ उसके सभी अंगों को जोड़कर ही जाना जाता है उसी प्रकार आत्मा छत्तीस तत्वों का मिश्रण है। आत्मा शरीर की प्रतिबिम्बित करती है जैसे सूर्य झील को। शरीर कर्मों के प्रभाव का परिणाम है एवं जन्म मृत्यु के साथ चक्कर लगता रहता है। यह आग में फेंके हुए मक्खन के टुकड़े के समान है। मृत्यु में उतना ही समय लगता जितना कि पक्षी को उड़ने के लिए पंख फ़ैलाने में समय लगता है।
आत्मा के पश्चात ईश्वर के स्वरूप का उल्लेख करते हुए ज्ञानेश्वर ने कहा है कि ईश्वर वास्तविक रूप से संसार से अलग नहीं है। वह संसार में ही अंतर्यामी है। घट घट में व्याप्त और सर्वत्र चेतन है। आत्मा एवं ईश्वर के स्वरूप वर्णन के पश्चात ज्ञानेश्वर ने दोनों की तादाम्य अवस्था का वर्णन करने हेतु अग्रसर होते हैं। उन्होंने इस मार्ग को अत्यन्त सरल एवं सुगम बताया। उनके अनुसार कोई भी साधक सहज ही यह मार्ग अपना सकता है। ईश्वर साक्षात्कार के संदर्भ में बताया कि यह अनुभूतियों के पदचिह्नों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है और उन्हें कहीं अन्यत्र जाने की आवश्कता नहीं है। इस मार्ग पर चलता हुआ साधक दिन और रात्रि का अंतर नहीं जान पाता है।
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