Wednesday, October 19, 2016

लेखक-परिचय

डॉ जटाशंकर त्रिपाठी का जन्म ६ अप्रैल १९५८ ई० को उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रतापगढ़ जिलान्तर्गत कुंडा तहसील स्थित ग्राम गोपालापुर में हुआ था। अपने पिता स्व० शिवशंकर त्रिपाठी एवं माता स्व० रामदुलारी ने अपनी अनेकों मनौतियों के फलस्वरूप आठवीं सन्तान के रूप में इनको जन्म दिया था। अतः इनका लालन-पालन एवं प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही सम्पन्न हुई तथा आठंवीं  की परीक्षा जूनियर हाईस्कूल बहोरिकपुर विद्यालय से तथा हाईस्कूल एवं इंटर की परीक्षा छत्रधारी इंटर मीडिएट कालेज  लखपेड़ा कोटा भवानीगंज से उत्तीर्ण की।स्नातक की पढ़ाई हेतु प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और यहीं से स्नातक एवं स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण करके डी०फिल०की उपाधि दर्शनशास्त्र में प्राप्त की।इनका विवाह श्रीमती शांति देवी से हुआ एवम इन्होंने दो पुत्र सञ्जीव एवं राजीव तथा दो पुत्रियां पूर्णिमा एवं ज्योत्स्ना को जन्म दिया किन्तु वर्ष २०१५ में कनिष्ठ पुत्र राजीव, जो पूर्वांचल ग्रामीण बैंक में सहायक मैनेजर थे, की आकस्मिक मृत्यु से इन्हें गहरा आघात लगा।विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान ही अपनी साहित्यिक अभिरुचि को साकार करते हुए इन्होंने  कविताएं,कहानी एवम लेख आदि लिखना आरम्भ कर दिया था तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके प्रकाशन के साथ ही आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद से रेडियो कार्यक्रमों  के प्रसारण में भी सहभागिता करने लगे थे ।वर्ष १९८९ ई ० में लोकसेवा आयोग से सहायक समीक्षा अधिकारी के पद  पर उत्तरप्रदेश सचिवालय में चयनित हुए और सम्प्रति डिप्टी सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत हैं।इनका शोध प्रबन्ध "भारतीय समकालीन दर्शन में प्रो० रानडे के योगदान "को एकेडमी ऑफ कम्परेटिव फिलासफी एन्ड रिलीजन ,बेलगांव ,कर्नाटक द्वारा वर्ष १९८२ ई में प्रकाशित किया गया था । इनका काव्य संग्रह"श्रृंखला"वर्ष १९८९ में एवं"जीवेम शरदः शतम {योगासन,प्रणायाम एवं ध्यान}"वर्ष २०१४ ई में प्रकाशित हुआ। राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान उत्तरप्रदेश द्वारा इन्हें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं साहित्य गौरव इक्यावन हजार एवम दो हजार रुपये का  पुरस्कार एवं सम्मानपत्र प्रदान किया गया था । रसिकपीठ जानकीघाट बड़ा स्थान, श्रीअयोध्या के संस्थापक अनंत श्रीविभूषित स्वामी करुणासिन्धु जी महराज,जो इनके पूर्वज थे, के ३४१वीं जन्मतिथि पर उनकी जन्मभूमि ग्राम गोपालापुर कुंडा, प्रतापगढ़  में माह अप्रैल २०१५ को सम्पन्न हुए नवकुंडीय श्रीराम महायज्ञ के अवसर पर उनकी पुण्यस्मृति में एक स्मारिका का प्रकाशन करके अपनी धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभिरुचि को मूर्तरूप देते हुए तदुपरान्त"भारत के प्रमुख तीर्थस्थल"एवं"हमारे पूज्य सन्त" नामक दो पुस्तकों की रचना की। सम्प्रति  "गाओ मेरे मन"काव्य संग्रह एवं महात्मा बुद्ध एवं बौद्धस्थल प्रकाशनाधीन है।

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    डॉ० प्रणव पण्ड्या, एम डी {मेडिसिन }
कुलाधिपति -देव संस्कृति विश्वविद्यालय 
प्रमुख -अखिल विश्व गायत्री परिवार 
निदेशक -ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान 
सम्पादक -अखण्ड ज्योति                                                                        २५ अगस्त २०१६ 
                                                                                                          श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 

                                                                 " दो शब्द " 

यह जानकर प्रसन्नता है कि परमपूज्य गुरुदेव पँ० श्रीराम शर्मा आचार्य जी एवं परम् वन्दनीया माताजी के प्रति असीम श्रद्धा रखने वाले हमारे अभिन्न डॉ जटाशंकर त्रिपाठी ने "हमारे पूज्य सन्त" विषय पर लेखनी चलाई है एवं इसे ग्रन्थ का रूप दिया है। इसके अन्तर्गत महात्मा बुद्ध,आद्यगुरु शंकराचार्य,गुरु गोरखनाथ,सन्त नामदेव,सन्त ज्ञानेश्वर,गोस्वामी तुलसीदास,गुरु नानकदेव,सन्त एकनाथ,स्वामी दयानन्द सरस्वती,स्वामी रामकृष्ण परमहंस,स्वामी विशुद्धानन्द परमहंसदेव जी ,स्वामी विवेकानन्द,महर्षि अरविन्द,स्वामी रामतीर्थ,सन्त रानाडे, पँ० गोपीनाथ कविराज,ठाकुर अनुकूल चन्द्र,सन्त देवराहा बाबा,स्वामी करपात्रीजी ,कृपालु जी एवं पँ० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के जीवन- परिचय, कृतित्व एवं साधनापथ का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। 
यूँ तो इन महापुरुषों की जीवनी विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध है लेकिन अपने स्वाध्याय एवं अनुभूति के आधार पर तथ्यपूर्ण साधना विधानों के साथ प्रेरक स्वरूप में इनके विचारों को लिखना निश्चित रूप से विशेष पुरुषार्थ है। इसे गागर में सागर भरने की संज्ञा दी जा सकती है। तुलसीदास जी की जीवनी में आपने रत्नावली के वाक्य को इस रूप में प्रस्तुत किया है -"मेरे इस हांड-मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आशक्ति है यदि इसकी आधी आशक्ति भी भगवान से होती तो तुम्हारा बेडा पार हो गया होता। लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ। धिक् धिक् ऐसे  प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ। अस्थि चर्ममय देह ममतामें ऐसी प्रीति। तैसी जो श्रीराम महँ ,होति न भव भीति। कहते हैं कि ये शब्द तुलसीदास जी को बाण की तरह आहत कर दिए और बिना कोई क्षण बिताये सीधे काशी चले गए एवं अपने गृहस्थ वेश का परित्याग कर साधुवेश धारण कर लिया। 
स्वामी रामप्रसादाचार्य के विषय में लिखा है -"स्वामी जी अपने १०१ वर्ष के जीवनकाल में अयोध्या की सन्त -परम्परा को ऊंचाइयों तक पहुँचाया था तथा रसिकपीठ की स्थापना करके उस पद पर श्रीरामचरणदास "करुणासिन्धु जी महराज" को प्रतिष्ठित किया था। पँ० गोपीनाथ कविराज के सम्बन्ध में वक्तत्य है "बाहरी जगत में जैसे ब्रह्माण्ड है, वैसे ही मनुष्य के देहरूप अंतर्जगत में भी ब्रह्माण्ड है अर्थात पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों स्तरों की बनावट एक ही प्रकार की है। जो योगी अपने देह को ब्रह्माण्ड के रूप में धारण कर सकता है एवं इस धारणा से अपने को ब्रह्माण्ड के अधिष्ठाता के रूप में पहचान सकता है तभी वह ब्रह्मा के समकक्ष हो जाता है। श्री अरविन्द के बारे में मार्मिक पंक्तियाँ हैं -स्वामी विवेकानन्द के पश्चात भारतीय समकालीन दर्शन का विकास महर्षि अरविन्द के संरक्षण में उत्तरोत्तर आगे बढ़ा। इनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है इनका गम्भीर चिन्तन एवं स्पष्ट लेखन। इनकी रचनाएँ एक प्रकार से उनके मानसिक स्तर एवं अप्रतिम व्यक्तित्व की सर्वोत्तम प्रतिनिधि है। इनकी प्रतिभा का सर्वतोमुखी स्वरूप इनकी बुद्धि की भेदन शक्ति,असाधारण अभिव्यक्ति क्षमता,उत्कट निष्ठा एवं उद्देश्य की एकांतिकता आदि का सहज अनुभव इनकी कृतियों से आसानी से हो जाता है। डॉ ए सी भट्टाचार्य का इनके बारे में कथन है -भारत के स्वतन्त्रता यज्ञ के ऋत्विक आचार्य यदि स्वामी विवेकानन्द को कहा जाये तथा मन्त्र द्रष्टा ऋषि बंकिम को कहा जाये तो निःसन्देह रूप से श्री अरविन्द उस यज्ञानुष्ठान के प्रमुख पुरोधा कहे जायेंगे। 
स्वामी विवेकानन्द को आपने भारतमाता के सच्चे सपूत व देशप्रेमी की संज्ञा दी है। १७ दिनों की धर्मसभा की कार्यवाही में स्वामी जी कई बार भाषण दिए और २७ सितम्बर को अंतिम भाषण हुआ। अमेरिका के प्रसिद्ध समाचारपत्र न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा -स्वामी विवेकानन्द धर्मसभा में निःसन्देह सबसे महान व्यक्तित्व हैं। उनका भाषण सुनकर हमें ऐसा लग रहा है कि इतने विद्वानों के देश को धर्म प्रचारक भेजना कितनी मूर्खता की बात है। अन्य समाचारपत्रों में भी उनकी फोटो के साथ विस्तृत भाषण छपे। धर्म सम्मेलन के बाद वे अमेरिका में प्रचारक के रूप में यत्र-तत्र भ्रमण किये। वे जहाँ भी जाते हजारों लोग उनको सुनने हेतु आतुर दिखने लगे। प्रत्येक भाषण में उनका देशप्रेम से भरा  हुआ हृदय उभरकर सामने आ जाता था। उन्होंने स्वयं कहा था कि मैं उस धर्म का प्रचार करने जा रहा हूँ बौद्धमत जिसका बिगड़ा हुआ बच्चा है और ईसाई धर्म दूर की गूंज मात्र। 
वेदमूर्ति तपोनिष्ठ परम् पूज्य गुरुदेव एवम परम् वन्दनीया माताजी भगवतीदेवी शर्मा  को भी हमारे पूज्य सन्त में सम्मिलित करते हुए आपने लिखा है -सन १९३५ ई के पश्चात उनके जीवन का नया दौर आरम्भ हुआ जब गुरु सत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पांडिचेरी आश्रम,रवीन्द्रनाथ टैगोर सी मिलने शांतिनिकेतन तथा महात्मा गाँधी से मिलने साबरमती आश्रम गए। सांस्कृतिक आध्यात्मिक मोर्चे पर राष्ट्र की स्वतन्त्रता हेतु उपयुक्त मार्ग निकाले जाने सम्बन्धी सुझाव व अनुष्ठान यथावत चलाते रहते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और आगरा से प्रकाशित हो रहे सैनिक समाचारपत्र के सम्पादक श्री कृष्णदत्त पालीवाल के सम्पर्क में आये और उनके साथ सहसम्पादन का कार्य किया। बाबू गुलाबराय व पालीवाल से सम्पादन के गुर सीखकर ही उन्होंने सन १९३८ ई में अखण्ड ज्योति पत्रिका के प्रकाशन प्रारम्भ किया। यह कार्य उन्होंने आरम्भ में परिजनों के नाम पाती लिखकर पैर से संचालित मशीन द्वारा मात्र २५० पत्रिका छपवाने से की थी किन्तु क्रमशः इसकी संख्या बढ़ती गयी और आज अखण्ड ज्योति की पन्द्रह लाख प्रतियां विभिन्न भाषाओँ में प्रकाशित हो रही है। इसके साथ विज्ञान एवं आध्यात्म का समन्वय करने वाले ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना ,स्वतन्त्रता आंदोलन एवम रचनात्मक कार्यक्रमों को भी बारीकी से प्रस्तुत किया। इसके लिए आपने चेतना की  शिखर यात्रा एवं मेरी वसीयत सहित अन्य साहित्य का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया है। आपने युग ऋषि द्वारा प्रकाशित प्रमुख पुस्तकों की सूची  भी दी है।
डॉ जटाशंकर त्रिपाठी को "हमारे पूज्य सन्त "के प्रकाशन हेतु हार्दिक साधुवाद देता हूँ। उनके मंगलमय जीवन की कामना करते हुए मैं सूक्ष्मसत्ता में विराजमान परम्  पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माता जी से यह प्रार्थना करते हूँ कि वे डॉ जटाशंकर त्रिपाठी को इसी प्रकार सत्कार्य में सतत संलग्न रहने ,साहित्यिक प्रतिभा निखारने एवं अभ्युदय निःश्रेयस का लाभ प्राप्त करने का आशीर्वाद प्रदान करें। 

                                                                                                           डॉ0प्रणव पण्ड्या  
                                                                        शान्तिकुञ्ज ,हरिद्धार    

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