Wednesday, October 19, 2016

आत्माभिव्यक्ति

              
भारतवर्ष में जितने भी सन्त महात्मा पैदा हुए हैं, शायद उतने संसार के किसी भी देश में नहीं। सम्भवतः ऐसा इसलिए क्योंकि भारत की भूमि प्राचीनकाल से ही देवभूमि मानी जाती रही है तथा धर्म एवं अध्यात्म का संदेश भारतवर्ष आदिकाल से ही सम्पूर्ण संसार को देता रहा है। सन्त साक्षात ईश्वर के प्रतिरूप माने जाते रहे हैं क्योंकि उनमें न्यूनाधिक ईश्वरीय गुण अथवा उसके लक्षण दिखलायी अवश्य पड़ते हैं। आत्मानुभूति के मार्ग पर चलकर वे ईश्वरीय कृपा प्राप्त कर लेते हैं और उसी कृपा के माध्यम से पीड़ित ,असहाय एवं दुःखी व्यक्तियों की पीड़ा को दूर करके उन्हें सुख व संतोष प्रदान करते रहे हैं। 
वैसे तो संत पुरुष के स्वरूप को किसी भी परिभाषा के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है क्योंकि परिभाषा द्वारा उनका स्वरूप सीमित हो जायेगा तथा उनकी अर्हता भी निर्धारित हो जाएगी फिर भी सन्त दो प्रकार के माने जाते हैं-प्रथम ऐसे सन्त जो भक्ति को ज्ञान की जननी मानते हैं और दूसरे ऐसे सन्त जो ज्ञान को ही भक्ति का मूलस्रोत मानते हैं। कुछ सन्त इन दोनों के समन्वित दृष्टिकोण को लेकर अपने साधना -पथ पर आगे बढ़ते हैं। संत के लिए किसी प्रकार की शैक्षिक व अन्य अर्हताएं निर्धारित करना कदाचित उपयुक्त न होगा क्योंकि भारतीय सन्त परम्परा में कुछ ऐसे सन्त भी हुए हैं जो कोई भी शैक्षिक अर्हता नहीं रखते थे फिर भी अपने आचरण ,कार्य एवं ईश्वर के प्रति अटूट आस्था रखने के कारण वे भारतीय जन मानस में पूज्य रहें हैं। जनकल्याण की भावना तथा ईश्वर के प्रति अटूट निष्ठां ये दोनों लक्षण ही उनको पूज्यनीय बनाने हेतु पर्याप्त हैं।संत को गुरु की उपाधि से भी विभूषित किया जाता है और गुरु का गुरुतर कार्य भक्त को भगवान का साक्षात्कार कराना माना गया है। गुरु और भगवान की द्वैत स्थिति का वर्णन करते हुए गुरु नानकदेव जी ने अपने प्रसिद्ध दोहे के माध्यम से कहा है --
                                            गुरु गोविन्द दोउ खड़े,, काके लागूँ पाँय। 
                                              बलिहारी गुरु आपने ,गोविन्द दियो बताय। 
गुरु नानकदेव ने भगवान की अपेक्षा गुरु को अधिक महत्ता प्रदान की है क्योंकि गुरु ही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है। सामान्यतः मनुष्य किसी सन्त अथवा गुरु की शरण में इसीलिए जाता है कि गुरु उसे सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करते हुए ईश्वर तक पहुँचाने में सहायक होगा। ऐसा वही सन्त कर सकता है जो स्वयम सदाचार के मार्ग पर चलकर ईश्वर का दर्शन प्राप्त कर चुका हो। ऐसे सन्त में ईश्वर का दर्शन यदि भक्त करता है तो गुरु नानकदेव के उक्त कथन की स्वयम पुष्टि हो जाती है क्योंकि गुरु नानकदेव ने ऐसे ही गुरु की परिकल्पना की थी।गुरु के सम्बन्ध में शास्त्रों में कहा गया कि :--
                                  
                                  न  गुरोरधिकं  तत्वम, न  गुरोरधिकं  तपः। 
                                   न  गुरोरधिकं  ज्ञानं, तस्मै  श्री गुरुवे  नमः। 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोध करने के दौरान मुझे पँ श्रीराम शर्मा आचार्य जी का सानिध्य प्राप्त हुआ था और उस विराट व्यक्तित्व ने निश्चित ही मेरे जीवन को एक नई दिशा प्रदान की। वर्ष २०१५ में जब मैं कनिष्ठ पुत्र राजीव के आकस्मिक निधन के कारण कठिन दौर से गुजर रहा था ,ऐसे समय में महांत जन्मेजय शरण जी एवम बिन्दुगाद्याचार्य देवेंद्रप्रसादाचार्य जी द्वारा अपनेक्यों न भारत के अग्रणी सन्तों पूज्य गुरु स्वामी करुणासिन्धुजी महराज की पुण्य स्मृति में उनकी जन्मस्थली ग्राम गोपालपुर ,प्रतापगढ़ में नवकुण्डीय श्रीराम महायज्ञ का आयोजन किया गया था और उसमें मुझे भी सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चूँकि श्रीकरुणासिन्धुजी मेरे पूर्वज {पितामह }थे ,अतः ऐसे पुनीत अवसर पर उनकी पूण्य स्मृति में एक स्मारिका प्रकाशित करते हुए उनके जीवन-दर्शन को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। इसके बाद ही मेरे मन में यह विचार उठने लगा किक्यों न भारत के अग्रणी सन्तों के जीवन -दर्शन को एक पुस्तक में प्रकाशित किया जाये ?इस परिकल्पना को मैंने "हमारे पूज्य सन्त "नामक इस पुस्तक में साकार करने का प्रयास किया है। इस प्रयास में मैं कहाँ तक सफल हुआ,इसका निर्णय तो सुधी पाठकगण ही करेंगे। 
ऐसे सत्ताइस सन्तों के चयन में महांत जन्मेजय शरण जी एवम महांत देवेंद्रप्रसादाचार्य जी का मार्गदर्शन मिला तथा स्वामी आनन्द जी ,स्वामी मंजुलदास जी ,ब्रजेश कुमार मिश्र,श्रीरामेशचंद्र त्रिपाठी,श्री सत्यदेव मिश्र,डॉ दिनेश चन्द्र अवस्थी,इं सुनील बाजपेई ,श्री राजमणि दुबे का सहयोग प्राप्त हुआ। श्री संजीव त्रिपाठी,कु० पूर्णिमा एवम ज्योत्सना ,आयुष त्रिपाठी ने पुस्तक के कवर पृष्ठ एवम संतों के चित्रों को संकलित करने में विशेष योगदान दिया तथा श्री अरुण कुमार जग्गी ने उत्साहपूर्वक इस पुस्तक को "प्रिंट आर्ट आफसेट "प्रेस से मुद्रित किया। अतः इन सभी को साधुवाद देते हुए आशा करता हूँ कि पाठकगण इन संतों के जीवन दर्शन को आत्मसात अवश्य करेंगे।
                ॐ शान्तिः। तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु। ॐ शान्तिः। 

दिनाँक १३ मार्च ,२०१७                                                               डॉ० जटाशंकर त्रिपाठी 
                                                                                             मो ० ९४५४४१३३४६ ,७९०५४३६७९५ 

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