
गौतमबुद्ध बौद्ध दर्शन के प्रणेता एवं बौद्धधर्म के संस्थापक थे। इनका जन्म ६२४ ई०पू० कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था। कहा जाता है कि जब बुद्ध अपनी माता मायादेवी के गर्भ में थे उसी समय प्रसवकाल निकट होने पर उनकी माता अपने पिता के घर जा रही थीं और मार्ग में लुम्बिनी वन में विश्राम करने के समय ही उन्हें असह्य प्रसव-पीड़ा होने लगी तब वहीँ पर उन्होंने बालक सिद्धार्थ को जन्म दिया था। इनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के राजा थे। गौतमबुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ के जन्म से कुछ समय बाद ही इनकी माता मायादेवी की मृत्यु हो गई थी, अतः इनका लालन- पालन इनकी विमाता गौतमी ने किया था। इनका बचपन राजसी वैभव में व्यतीत हुआ था और इनकी शिक्षा दीक्षा भी एक राजकुमार की भांति हुई थी। गौतमबुद्ध बचपन से ही एकांत प्रिय, विचारशील एवं गम्भीर व्यक्तित्व के थे। ऐसा देखकर इनके पिता ने इनका विवाह शाक्यकुल की रूपवती कन्या यशोधरा से करवा दिया ताकि उनका मन सांसारिक जीवन में लग जाये। कुछ दिनों बाद राहुल नामक एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई फिर भी उनका मन विरक्त ही रहता था। यद्यपि इनके पिता ने इनकी संसारिक जीवन से उदासीनता को दृष्टिगत करते हुए इन्हें वाह्य जगत से दूर रखने का पूर्ण प्रयास किया था किन्तु वे विषयभोग से आसक्त नहीं हो पाए। एक दिन सिद्धार्थ विहार के लिए निकले थे उसी समय मार्ग में एक वृद्ध व्यक्ति को जाते हुए देखा। उसे देखकर उनके मन में अनेकों प्रश्न उठने लगे। पुनः एकदिन उन्होंने एक रोगग्रस्त व्यक्ति को देखा जो असह्य पीड़ा से कराह रहा था और उसी समय एक मृत व्यक्ति की शवयात्रा को देखकर तो उनका मन अत्यधिक विचलित हो उठा और इनसे मुक्ति का मार्ग वे खोजने लगे। कुछ दिनों बाद उन्होंने एक सन्यासी को देखा जो प्रसन्नचित्त भाव से विचरण कर रहा था तो उन्होंने मन ही मन सन्यासी के जीवन को अपने द्वारा पूर्व में देखे गए बुढ़ापा ,व्याधि, तथा मृत्यु जैसी गम्भीर समस्यायों से जूझ रहे सभी व्यक्तिओं से बेहतर समझा और उसी मार्ग का अनुसरण करने का संकल्प ले लिया। इसी चिन्तन में वे प्रायः डूबे रहते थे और एक दिन रात में जब पत्नी और पुत्र दोनों गहरी निद्रा में सो रहे थे तब वे २९ वर्ष की आयु में चुपके से राजभवन छोड़कर किसी अज्ञात स्थल की ओर चल दिए। गौतमबुद्ध के इस गृहत्याग को बौद्ध गर्न्थों में "महांनिष्क्रमण" कहा गया है। वे कंथक अश्व पर सवार होकर तीन राज्यों की सीमा को पार करके अनोमा नदी के किनारे पहुँच गए और वहीँ पर उन्होंने अपने राजसी वस्त्र व आभूषण का त्याग करके सन्यासी का जीवन स्वीकार कर लिया । इसके बाद वे भिक्षाटन करते हुए वृक्षों के नीचे निवास करने लगे। कुछ दिन अनोमा नदी के किनारे स्थित मल्लों के अनुपिया नामक गाँव में रहने के बाद वे वहां से राजगृह की ओर चल पड़े। राजगृह में उनके प्रवेश की सूचना पाकर वहां के तत्कालीन राजा बिंबसार ने उन्हें बुलवाया और उनसे वार्ता करके उन्हें साधना के इस कठिन मार्ग से अलग करना चाहा किन्तु सिद्धार्थ अपने संकल्प पर अडिग रहे। वहां से वे सम्यक ज्ञान की खोज में इधर उधर भ्रमण करते हुए वैशाली के निकट अलारकालाम नामक एक सन्यासी के यहां रहकर साधना करने लगे। कुछ दिनों तक यहां रहने के पश्चात भी जब उन्हें शांति की अनुभूति नहीं हुई तब वे रूद्रकुमारपुत्त नामक दूसरे धर्माचार्य/सन्यासी के यहां पहुँच गए। यहां से भी अपेक्षित ज्ञान व शांति न प्राप्त होने पर वे बोधगया स्थित उरुवेला नामक स्थान पर आ गए। यहां पर उनकी भेंट कौण्डिय, वप्प, भद्दिय, महनम और अश्वजित नामक पांच युवक सन्यासियों से हुई। सिद्धार्थ इन पांचों सन्यासियों के साथ वहीँ पर कठोर तप करना प्रारम्भ कर दिए और कुछ दिनों बाद तप से उन सभी की काया क्षीण होने लगी। अन्य सह सन्यासियों के परामर्श पर उन्होंने इस कठोर तप में किंचित शिथिलता कर साधना के मार्ग को थोड़ा सरल करना चाहा किन्तु सिद्धार्थ को यह उचित नहीं लगा। अतः उन्होंने वहीँ पर महातप करना आरम्भ कर दिया। अन्न जल त्याग देने के कारण उन सभी का शरीर काला पड़ने लगा और उनका शरीर इतना क्षीण हो चला था कि एकदिन सिद्धार्थ वहीँ पर मूर्छित होकर चबूतरे पर गिर गए। कठोर तप करते हुए ६ वर्ष व्यतीत होने के बाद उनके साथ रह रहे अन्य पांच सन्यासियों का धैर्य टूटने लगा और वे सभी सिद्धार्थ से अलग होकर अठारह योजन दूर ऋषिपत्तन मृगदाय की ओर चल पड़े।
अब गौतमबुद्ध अकेले ही साधनारत रहने लगे। उसी समय उरुवेला की ही एक सुजाता नामक धनी परिवार की कन्या ने अपने तरुणी होने पर वहां स्थित एक बरगद के वृक्ष से यह प्रार्थना की थी कि यदि समान जाति के कुल में उसका विवाह होकर वह पुत्रवती हो जाएगी तो प्रतिवर्ष उनकी पूजा किया करेगी। जब उसकी यह प्रार्थना पूर्ण हो गई तब वह वैशाख पूर्णिमा के दिन विधिविधान से खीर बनाकर अपनी पूर्णा नामक दासी के साथ उस बरगद के नीचे एक तपस्वी को बैठा हुआ देखकर उसी को वह खीर अर्पित कर दी। गौतमबुद्ध ने उस खीर को प्रेमपूर्वक खाया और अगले एक सप्ताह तक भोजन नहीं किया। एक दिन उसी बोधवृक्ष के नीचे उन्होंने यह संकल्प लिया कि चाहे मेरा शरीर रहे या ना रहे, मांस, रक्त, नाड़ियां भले ही सूख क्यों ना जाये किन्तु वे सम्यक ज्ञान अर्जित किये बिना यहां से नहीं उठेंगें। अगले दिन प्रातःकाल उन्हें उसी बोधिवृक्ष के नीचे सम्यक सम्बोधि की प्राप्ति हो गई तो उनके मुख से निम्न स्वर फूट पड़े :-
अनेक जाति संसारं सन्धाविस्सं अनिविस्सं।
गहकारकं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।
बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात उन्होंने उरुवेला में उसी वृक्ष के आसपास धर्मचिन्तन एवं आनंद प्राप्ति करते हुए कुछ दिन बिताए और आठवें सप्ताह में उनके मन में यह विचार आया "मैंने बड़े गम्भीर ,उत्तम ,शान्त व विद्वानों द्वारा जानने योग्य धर्म को प्राप्त किया है। सांसारिक व्यक्ति भोग विलास में लीन हैं ,अतः मैं उनको धर्मोपदेश भी करूँ तो यह उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा। "इसी असमंजस में पड़कर वे धर्मोपदेश करने का साहस नहीं कर पा रहे थे तभी सहम्पत्ति ब्रह्मा जी ने उनके मन की बात समझकर उनके असमंजस को दूर करने हेतु स्वयं प्रकट हुए और उनसे कहा कि भन्ते:, धर्मोपदेश करें ,सुगत धर्मोपदेश करें। संसार के प्राणी धर्माचरण न करने पर नष्ट हो जायेंगे। यह आज्ञा पाते ही बुद्ध ने अपनी आँखें खोली और प्राणियों की ओर देखकर धर्मोपदेश के लिए उद्यत हो गए।
सर्वप्रथम वे आलारकालाम को धर्मोपदेश करने हेतु उनके गांव गए तो लोगों ने बताया कि उनकी तो मृत्यु हो चुकी है। यह सुनकर बुद्ध अपने पूर्व के साथी उन पांच भिक्षुओं को धर्मोपदेश देने के लिए आगे बढे तो उन्हें याद आया कि उन्हें तो वाराणसी के ऋषिपत्तन मृगदाय के आश्रम में ही वे छोड़ आये हैं, अतः वे वाराणसी की ओर चल पड़े। उन पंचवर्गीय भिक्षुओं ने जब दूर से आते हुए बुद्ध को देखा तब वे आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि श्रवण, देखो गौतम आ रहा है, उसे कुछ देना नहीं है, केवल बैठने के लिए बस आसन ही दे देना है। जैसे जैसे गौतमबुद्ध उनके निकट आते गए उनके संकल्प स्वयं शिथिल होने लगे और वे दौड़कर उनके पास आकर किसी ने बुद्ध के पात्र चीवर ले लिए तो किसी ने आसन बिछा दिया तो कोई उनके पैर धोने के लिए जल लेने दौड़ पड़ा। यह देखकर गौतमबुद्ध ने उनसे कहा कि ,भिक्षुओं तथागत को नाम लेकर मत पुकारो क्योंकि वह अर्हत सम्यक सम्बुद्ध हो चुका है। मेरी बात सुनो ,जो अमृत मैं पाया हूँ, उसे आपको भी देना चाहता हूँ। तब बुद्ध ने अपने प्रथम उपदेश में उनसे कहा :-"भिक्षुओं को दो अन्तो का सेवन प्रव्रजितों को नहीं करना चाहिए ,पहला -कामवासना अर्थात पृथकजनों के योग्य ,अनार्य सेवित ,अनर्थों से युक्त कामवासनाओं में काम- सुख में लिप्त होना और दूसरा दुःखमय ,अनार्य, अनर्थों से युक्त ,आत्मपीड़ा में लगना। इन दोनों ही अन्तो में न जाकर तथागत ने एक मध्यमार्ग खोज निकाला है जिसे तुम आष्टांगिक मार्ग कह सकते हो ,जो निम्नवत है :-१-सम्यक दृष्टि २-सम्यक संकल्प ३-सम्यक वचन ४-सम्यक कर्म ५-सम्यक जीविका ६-सम्यक व्यायाम ७-सम्यक स्मृति ८-सम्यक समाधि
जन्म,जरा,व्याधि,मरण,अप्रिय संयोग, वियोग,यथेष्ट वस्तु की अनुपलब्धि इन सभी को दुःख बताते हुए कहा कि पांच उपादान स्कन्ध अर्थात रूप, वेदना,संज्ञा, संस्कार व विज्ञानं ही दुःख हैं। चार आर्य सत्यों के अंतर्गत उन्होंने दुःख ,दुःख समुदाय, दुःख निरोध एवं गामिनी प्रतिपदा आदि के उपदेश से उन पांचों भिक्षुओं को भी अपना शिष्य बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। आगे बुद्ध ने फिर उनसे कहा कि इन चार आर्य सत्यों के सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ही मैंने यह घोषणा की है कि मुझे सम्यक सम्बोधि प्राप्त हो चुकी है। बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात अब मैं सांसारिक बंधन से मुक्त हो चुका हूँ। यह मेरा अंतिम जन्म है ,अब मुझे संसार में दुबारा नहीं आना है। बुद्ध ने इसे निर्वाण की संज्ञा दी। बुद्ध के उपदेश को सुनकर उन पांचों भिक्षुओं को भी सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हो गई और उन्होंने उनसे प्रव्रज्या का अनुरोध किया तब बुद्ध ने कौण्डिय ,वप्प और भट्टिय को भिक्षु बनाकर उन्हें उपसम्पदा सौंप दी। दो अन्य भिक्षुओं को उन्होंने बाद में भिक्षु बनाया था। यहीं से गौतमबुद्ध को तथागत की उपाधि से भिक्षुओं ने सम्बोधित करने आरम्भ कर दिया और तथागत की विधिवत पूजा करके "अंतदीपो भव" अर्थात आत्मदीप होकर जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति करके सम्यक सम्बुद्ध कहलाए।
बुद्ध के उक्त प्रथम उपदेश को धर्मचक्र- प्रवर्तन की संज्ञा दी गई। उक्त आष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से व्यक्ति को निर्वाण की प्राप्ति होती है ,ऐसा बुद्ध के उपदेशों में कहा गया। बुद्ध ने अपने आष्टांगिक मार्ग में अधिक सुखपूर्ण जीवन बिताना अथवा अधिक काया क्लेश में संलग्न होना, इन दोनों का निषेध करते हुए मध्यम मार्ग पर चलने के लिए कहा। बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार तो किया किन्तु पुनर्जन्म व कर्म-सिद्धांत को स्वीकार किया। यज्ञीय कर्मकाण्डों एवं पशुबलि जैस कुप्रथाओं का उन्होंने प्रबल विरोध किया और मानवीय एकता व समानता पर उन्होंने विशेष बल दिया। बुद्ध ने सारनाथ में एक संघ की स्थापना की और उनके प्रथम पांच शिष्यों के अतिरिक्त वाराणसी के अनेक वैश्यों ने संघ की सदस्यता ग्रहण की तब बुद्ध ने उन सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों में जाकर बौद्धधर्म का प्रचार -प्रसार करने का आदेश दे दिया था ।
महात्मा बुद्ध के जन्म स्थान ,ज्ञान प्राप्ति स्थल तथा कार्यक्षेत्र अर्थात जहां जहां जाकर उन्होंने उपदेश व धर्म प्रचार किये ,वे स्थल कालान्तर में बौद्धतीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन स्थानों पर बौद्धधर्म ,दर्शन एवं साहित्य का विकास उत्तरोत्तर होता रहा। ऐसे स्थानों उनका जन्मस्थल लुम्बिनी ,{कपिलवस्तु }ज्ञान प्राप्तिस्थल बोधगया ,सारनाथ जहां तथागत ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया एवं कुशीनगर जहां तथागत ने निर्वाण की प्राप्ति की थी ,प्रमुख हैं।
त्रिपाठी जी , कहीं भी भगवान बुद्ध को सन्त कहकर उनके शिष्य नहीं पुकारते थे |
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॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स॥
दीघनिकायो
सीलक्खन्धवग्गपाळि
१. ब्रह्मजालसुत्तं
परिब्बाजककथा
१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा अन्तरा च राजगहं अन्तरा च नाळन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि। सुप्पियोपि खो परिब्बाजको अन्तरा च राजगहं अन्तरा च नाळन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति सद्धिं अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेन। तत्र सुदं सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति। इतिह ते उभो आचरियन्तेवासी अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धा [अनुबद्धा (क॰ सी॰ पी॰)] होन्ति भिक्खुसङ्घञ्च।
पूरे तिपिटक अर्थात ८४०००पालि सुत्त का संकलन ऐसे ही प्रथम संगीति में किया गया था |
अतः भगवा बुद्ध के साथ महात्मा लगाना उनका अपमान है वे मात्र सन्त नहीं बल्कि सन्तों को भी मार्ग दिखाने वाले , मार एवं ब्रह्मा को भी शिक्षा देने वाले अनुत्तर गुरु हैं |
यदि आपको समझ ना आया हो तो इसे ऐसे समझिये -
महात्मा शिव , महात्मा विष्णु, महात्मा कृष्ण ,महात्मा राम .............आदि |