Wednesday, October 19, 2016

गुरु गोरखनाथ


महायोगी गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके जन्मकाल की प्रमाणिकता पर विद्वानों में काफी मतभेद है। राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार वे १३ वीं शताब्दी में पैदा हुए थे। नाथ परम्परा की शुरुआत इनसे पूर्व ही हो चुकी थी किन्तु गोरखनाथ जी ने इस परम्परा को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार अवश्य किया था। गोरखनाथ जी के गुरु मत्स्येंद्रनाथ थे जिन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके जन्म के संबन्ध में एक दंतकथा इस प्रकार प्रचलित है कि वे किसी स्त्री के गर्भ से पैदा नहीं हुए थे बल्कि गुरु मत्स्येंद्रनाथ के मानस पुत्र थे और बाद में उन्हीं से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए थे।
                        न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः। 
                        न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्री गुरुवे नमः। 


इनके जन्म के सम्बन्ध में कहा जाता कि एक बार गुरु मत्स्येंद्रनाथ भिक्षाटन हेतु किसी गांव गए थे और वहां पर किसी गृहस्वामिनी ने उन्हें भिक्षा देने के पश्चात उनसे एक पुत्र की याचना की थी। गुरु मत्स्येंद्रनाथ उसकी याचना से द्रवित होकर उसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देते हुए अपनी झोली से चुटकीभर भभूत देकर उससे कहा था कि तुम उचित समय पर एक यशस्वी पुत्र को जन्म दोगी। बारह वर्ष व्यतीत होने पर जब गुरु मत्स्येंद्रनाथ पुनः उसी गाँव में भिक्षाटन हेतु पहुंचे तब उन्हें अपना पूर्व में दिया गया वरदान याद आ गया था। अतः उसी घर के सम्मुख जाकर उन्होंने भिक्षा हेतु आवाज लगायी तो वही गृहस्वामिनी भिक्षा लेकर उनके समक्ष उपस्थित हो गई और कुछ देर तक शांत रहने के पश्चात उसने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि आपसे आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वह धर्मसंकट में पड़ गई थी क्योंकि गाँव की अनेक स्त्रियों ने उसकी हंसी उड़ाते हुए यह ताना देने लगी थी कि एक घुमक्कड़ साधु के आशीर्वाद पर उसने ऐसा विश्वास कैसे कर लिया कि भभूति से पुत्ररत्न की प्राप्ति हो जाएगी। ऐसा सुनकर लज्जावश उसने वह भभूति अपने घर के निकट स्थित एक घूर {गोबर के गड्ढे }में डाल दिया था।  गृहस्वामिनी से यह बात सुनकर गुरु मत्स्येंद्रनाथ उस भभूति के प्रभाव की यथास्थिति ज्ञात करने हेतु उसके साथ उस गोबर के गड्ढे के पास गए और बालक का आह्वान किया। उनके पुकार लगाते ही उस घूर से एक बारह वर्षीय बालक जो नाक नक्श ,उच्च ललाट एवं आकर्षक व्यक्तित्व का स्वस्थ बालक था, उनके सम्मुख प्रकट हो गया। गुरु गोरखनाथ जी उस बालक को अपने साथ अपने आश्रम ले आये और यही बालक बड़ा होकर गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और आगे चलकर उसने गुरु मत्स्येंद्रनाथ जी से दीक्षा लेकर अघोराचार्य की उपाधि प्राप्त की। गुरु मत्स्येंद्रनाथ द्वारा दी गई भभूति से जन्म लेने के कारण ही गोरखनाथ को उनका मानस-पुत्र कहा जाता है।

नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ जी के सम्बन्ध में पुराणों में कई जगह वर्णन मिलता है। इन्हीं आख्यानों में इनके गुरु के रूप में आदिनाथ जी का उल्लेख भी किया गया है। गोरखनाथ जी एक सिद्ध पुरुष थे कदाचित इसीलिए उनके अनुयायियों व भक्तों ने उनके वास्तविक जन्म ,जन्मस्थान व परिचय आदि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। उनके अनुयायी यह मानते हैं कि गोरखनाथ जी लाहौर {पंजाब } में रहे थे। उन्होंने त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया था और द्वापरयुग में हरभुज में तथा कलियुग में गोरखपुर के गोरखमण्डी में निवास किया था। विद्वानगण इस तथ्य पर सहमत हैं कि गोरखनाथ ने  ११ वीं से १२ वीं शती के मध्य में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था और अनेक ग्रन्थों की रचना भी की थी। गोरखनाथ जी का प्रसिद्ध मन्दिर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में स्थित है। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ के नाम पर ही इस जनपद का नामकरण हुआ था। गुरु गोरखनाथ के नाम पर ही नेपाल के गोरखा जिले का भी नामकरण किया जाना बताया जाता है। गोरखा जिले में स्थित एक गुफा में गोरखनाथ जी के पदचिह्न आज भी मौजूद बताया जाता है और वहीँ पर उनकी एक भव्य मूर्ति भी स्थापित की गई है। यहां पर प्रत्येक वर्ष वैशाख पूर्णिमा को रोट महोत्सव आयोजित होता है।
 गुरु मत्स्येंद्रनाथ व जालन्धरनाथ समकालीन बताए जाते हैं। मत्स्येंद्रनाथ योगमार्ग के प्रवर्तक थे और बाद में वे वामाचारी साधना मार्ग पर चल पड़े थे। मत्स्येंद्रनाथ लिखित कौलज्ञान निर्णय ग्रन्थ से यह सिद्ध होता है कि वे ग्यारहवीं शती के पूर्व के थे। राहुल सांस्कृत्यायन ने इन्हें नवीं शताब्दी का माना है। कबीर एवं नानक दोनों से गुरु गोरखनाथ जी का संवाद होने का भी उल्लेख मिलता है जिसके आधार पर इन्हें चौदहवीं शताब्दी के पूर्व का माना जाता है। गूगा की कहानी ,पश्चिमी नाथों की अनुभूतियाँ ,बंगाल की शैव परम्परा और धर्मपूजा का सम्प्रदाय ,दक्षिण के पुरातत्व के प्रमाण व ज्ञानेश्वर की परम्परा को यदि प्रमाण माना जाये तो यह काल १२०० ई ० के उधर ही जाता है। कथडी नामक एक सिद्ध के साथ भी गोरखनाथ जी का सम्बन्ध बताया जाता है। गोरखनाथ जी नाथयोग के अभिन्न स्वरूप हैं तथा इन्हें साक्षात् शिवस्वरूप भी माना जाता है। गोरखनाथ जी ने प्राणियों के आधिदैविक ,आधिदैहिक एवं आधिभौतिक दुःख की निवृत्ति के लिए मुक्तिदायक योग की जन जन के मन,हृदय औेर शरीर में प्राण-प्रतिष्ठा की थी। यही उनका मांगलिक सार्वभौम ,सार्वकालिक योगस्वरूप है। कल्पद्रुमतन्त्र गोरक्षस्तोत्रराज में उनकी स्तुति इस प्रकार की गई है :-
             निरंजनो  निराकारो निर्विकल्पो निरामयाः।
            अगम्यो अगोचरोलक्ष्यो गोरक्षः सिद्धवन्दितः।
             विश्वतेजो  विश्वरूपों  विश्ववैद्यः सदाशिवः।
               विश्वनामा विश्वनाथ:श्रीगोरक्ष नमोस्तुते
गोरखनाथ जी एक समर्थ महायोगी के रूप में विख्यात हुए जिन्होंने प्रत्येक युग में अपनी उपस्थिति देते हुए अपने अमरकायत्व दिव्य यौगिक व्यक्तित्व एवं मंगलमय चरित से लोक कल्याण किया। उन्होंने अपनी योगसाधना को व्यावहारिक रूप प्रदान कर उसे जन जन के लिए सहज ,सुलभ एवं अभ्यास योग्य बनाया। उनके अनुसार  प्रत्येक प्राणी में,घट घट में स्वसंवेद्य अलख निरंजन नाथतत्व विदयमान है। :-
                 जोगारम्भ की याही बाणी । सबघटि नाथ एकै करि जाणी।
गोरखनाथ जी का मन्तव्य है कि जब तक योगी अपनी ही काया में निर्वाण ,परमानन्द स्वरूप मोक्ष की अनुभूति नहीं करता है तब तक उसे योगयुक्त महाज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है क्योंकि गोरखबानी में कहा गया है  :-
                            उदय न अस्त,राति न दिन, सरबे सचराचर भाव न भिन्न।
                               सोई निरंजन, डाल न मूल ,सब व्यापीक सुषम न स्थूल।
गोरखनाथ जी के जीवन चरित की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने शिवोपदिष्ट योगमृत का निर्मल स्वरूप अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में यथार्थ रूप से सुरक्षित रखा था और इस परम्परा को उन्होंने सनातन एवं त्रिकालव्यापी माना। उन्होंने महायोग के रूप में लययोग,मंत्रयोग और राजयोग तथा हठयोग का समन्वित अभिन्न स्वरूप प्रतिपादित किया। उन्होंने इस महयोग की सिद्धि को गुरुप्रसाद स्वरूप माना तभी तो गोरक्षषतक में कहा गया है :-
                          श्रीगुरुं परमानन्दं वन्दे स्वानन्द विग्रहम्।
                          यस्य सानिध्यमात्रेण चिदानन्दायते  तनुः।
                                                               
नाथसिद्ध भर्तृहरि ने भी गोरखनाथ के साक्षात्कार प्रत्यक्ष दर्शन ,प्रसाद और अनुग्रह मानते हुए कहा है :-
                                गोरष मिल्या भरम सब भागा ,सुरति सबद सूं लागी।
                                 भनंत भरथरी हरिपद परस्या ,सहज भया अविनासी। 
                                                                                     {नाथसिद्धों की बानियाँ ६७९  }
कल्पद्रुमतंत्र गोरक्षस्तोत्रराज में भगवान कृष्ण ने उनके शिवस्वरूप का स्तवन करते हुए कहा है -हे, गोरखनाथ जी ,आप निरञ्जन ,निराकार ,निर्विकल्प ,निरामय ,अगम्य ,अगोचर एवं अलक्ष्य हैं। सिद्ध उसकी वन्दना करते हैं। आप हठयोग के प्रवर्तक शिव हैं।आप अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ की कीर्ति को बढ़ाने वाले हैं। योगी मन में आपका ध्यान करते हैं। आप विश्व के प्रकाशक हैं ,विष्वरूपहैं और विश्व द्वारा वन्दनीय सदाशिव हैं। हे गोरक्ष, आपको नमस्कार है।
महाराष्ट्रीय नाथ सम्प्रदाय की परम्परा में श्रीमदभागवत के ग्यारहवें स्कंध के दूसरे अध्याय में नौ योगीश्वरों का वर्णन मिलता है जिसमें कवि नारायण मत्स्येन्द्रनाथ ,करभाजन नारायण गहिनीनाथ ,अंतरिक्ष नारायण जालंधरनाथ ,प्रबुद्ध नारायण कृष्णपाद ,आविर्होत्र नारायण नागनाथ,पिप्पलायन नारायण चर्पटीनाथ ,चमस नारायण रेवणनाथ ,हरिनारायण भर्तृनाथ और द्रुमिल नारायण गोपीचन्द नाथ हैं। इन नारायणों में गोरखनाथ जी के नाम का उल्लेख न किया जाने से स्वतः स्पष्ट है कि वे शिवस्वरूप हैं। उन्हें "परचे जोगी सिंभ निवासा" कहकर उनके शिवगोरक्षस्वरूप को प्रकारान्तर से स्वीकार किया गया है। लोक व्यवहार में महायोग ज्ञान की प्रतिष्ठा के लिए गोरखनाथ के रूप में उन्होंने मत्स्येन्द्रनाथ जी से योगोपदेश प्राप्त किया अन्यथा यह पृथ्वी बिना गुरु के ही रह जाती। गोरखबानी की एक सबदी में कहा गया है :-"ताथै हम उल्टी थापना थापी " जिसका आशय है कि शिवस्वरूप होकर भी शिवगोरक्षरूप में उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ जी से योगोपदेश प्राप्त किया।
त्रेतायुग में गोरखनाथ जी की उपस्थिति सिद्ध करते हुए श्रीनाथतीर्थावली के २०३ -२०७ श्लोक में कहा गया कि पूर्व दिशा के तीर्थों में सबसे पहले गोरखपुर है जिसके उत्तर में पुण्यप्रद गोरखनाथ का स्थान है। त्रेतायुग में रामावतार में इस स्थान का वर्णन आया है। कहा जाता है कि गोरखपुर में स्थित गोरखनाथ की तपस्थली में रघुवंशी नरेश रघु ,अज और भगवान राम ने उनके दर्शन किये थे। भगवान राम के राज्याभिषेक में गोरखनाथ जी आमंत्रित तो थे किन्तु तपस्यारत होने के कारण वे उसमे उपस्थित नहीं हो सके थे। द्वापरयुग में जूनागढ़ राज्य के प्रभासपाटण के निकट गोरखमढी में उन्होंने तप किया था। इसका विस्तारपूर्वक वर्णन श्रीनाथतीर्थावली के ३१-३८ श्लोक में किया गया है। गोरखमढ़ी में श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी का विवाह सम्पन्न हुआ था और विवाह के समय दोनों ने गोरखनाथ जी का स्तवन भी किया था।कहा जाता है कि जब धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हो रहा था तब गोरखनाथ जी को आमंत्रित करने हेतु पांडववीर भीमसेन यहाँ आये थे। उस समय  गोरखनाथ जी समाधिस्थ थे अतः भीमसेन से  प्रतीक्षा करने को कहा गया, तब वे कुछ देर तक वहां पर विश्राम किये थे। भीमसेन जिस स्थल पर विश्राम किये थे वह भाग उनके भार से नीचे दब गया था और वहां पर एक सरोवर का स्वतः निर्माण हो गया था। कलियुग में महायोगी गोरखनाथ जी ने पेशावर के किले गोरखहट्टी नामक स्थान पर तपस्या की थी। कलियुग में तो वे अनेको स्थानों पर प्रकट होकर योगसाधकों एवं पुण्यात्माओं को दर्शन दिए थे। गोरखनाथ जी अपनी योगदेह में अमरकाय योगी के रूप में नित्य विद्यमान माने जाते हैं। सन्त कबीर ने अपनी साखी में "साखी गोरखनाथ ज्यूँ अमर भये कलिमाहि"कहकर उन्हें अमरत्व प्रदान किया है। इसी तरह सूफी कवि मुहम्मद जायसी ने पदमावत  कि गोरखनाथ जी से जब भेंट होती है तभी योगी   सिद्ध होता है।
उपर्युक्त कथनों से स्वतःस्पष्ट हो जाता है कि चारों युगों में नित्य विद्यमान महायोगी गोरखनाथ जी शिवस्वरूप अयोनिज महायोगी हैं। वे  अपने योगसिद्ध  शरीर में अमर हैं। उनका प्राकट्य जन्म दिव्य है और उनका योगमय चरित भी दिव्य है। उनकी उत्पत्ति रजवीर्य से नहीं हुई थी बल्कि बल्कि वे अयोनिज शिवगोरक्ष  रूप में प्रकट हुए थे। कहा जाता है कि शिवजी की नाभि से मत्स्येंद्रनाथ जी ,हाड से जालन्धरनाथ ,कान से कृष्ण्पाद और जटा से गोरखनाथ जी की उत्पत्ति हुई थी।
नाथ सम्प्रदाय के महायोगी गहिनीनाथ को शिवगोरक्ष गोरखनाथ ने अपनी कृपादृष्टि से महयोग का ज्ञानवैभव प्रदान किया था। गहिनीनाथ ने अपने गेहिनी प्रताप नामक ग्रन्थ में अपने आपको गोरखसुत कहा है ।  कहा जाता है कि एकबार योगी मत्स्येन्द्रनाथ के साथ गोरखनाथ जी भ्रमण पर गए थे तथा उन्होंने  कनकग्राम पहुँचने पर वहां पर बच्चों को मिटटी की मूर्ति बनाकर खेलते हुए देखा। उस  मूर्ति में गोरखनाथजी ने सहज मंत्र का उच्चारण करके उसमें प्राण- संचार कर दिया था और उसी मूर्ति से गहिनीनाथ प्रकट हुए थे। गोरखनाथ जी उस दिव्य बालक को अपने साथ लेकर वापस आश्रम आ गए थे और उसका लालन पालन करके उसे दीक्षा देते हुए उनको  एकाकी भ्रमण करने की अनुमति दे दी थी । गहिनीनाथ ने गोदावरी के तट पर नासिक के निकट ब्रह्मगिरि नामक स्थान पर कठोर तपस्या की थी । यह स्थान आज भी नाथ सम्प्रदाय के तीर्थस्थल के रूप में जाना जाता है। 
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर ने अपने ग्रन्थ ज्ञानेश्वरी में कहा है कि अद्वयज्ञान वैभव मत्स्येंद्रनाथ जी ने गोरखनाथ जी को दिया था और गोरखनाथ जी ने उसे गहिनीनाथ जी को प्रदान किया था। योगीराज गहिनीनाथ को योगदीक्षा देने के पश्चात गोरखनाथ जी श्रीजगन्नाथपुरी की यात्रा करते हुए गौड़ बंगाल के हेलापट्टन होते हुए रास्ते में एक वकुल वृक्ष के नीचे ध्यान में लीन हो गए और उसी समय योगीराज कृष्ण्पाद आकाशमार्ग से गुजर रहे थे। आभास होने पर गोरखनाथ जी ने अपनी सिद्धि के बल से अपने खड़ाऊं को आकाश में स्थापित कर उन्हें उसी पर पैर रखकर उतरने का आमंत्रण दिया। कृष्ण्पाद महयोग ज्ञान के विशेषज्ञ और सिद्धामृत मार्ग के तत्वज्ञ थे अतः उन्होंने आदेश आदेश कहते हुए नीचे उत्तर आये और गोरखनाथ जी से  पके हुए आम के फल प्रस्तुत करने का आग्रह किया। गोरखनाथ जी यौगिक चमत्कार में रूचि नहीं रखते थे फिरभी कृष्ण्पाद के आग्रह पर वे विचार कर ही रहे थे कि इसी बीच कृष्ण्पाद अपनी योगसिद्धि का प्रदर्शन कर उन्हें प्रभावित करने का प्रयास करने लगे और उनसे कहा कि देखो वृक्षों पर कितने मीठे आम के फल लदे  हुए हैं, अतः आपकी इच्छा हो तो आपके साथ मैं भी इन फलों का रसास्वादन कर लूँ। गोरखनाथ जी ने अतिथि की बात मानते हुए अपनी सहमति दे दी, तब कृष्ण्पाद जी मंत्र से भस्म आमंत्रित कर उसे आम के वृक्ष की ओर प्रेरित किया जिसके फलस्वरूप आम के ढेर दोनों के सम्मुख प्रस्तुत हो गए। दोनों ने एक साथ उनका रसास्वादन किया और जो फल बच गए थे उन्हें वापस पेड़ों पर स्थापित करने की बात कही गयी तब कृष्ण्पाद जी ने कहा कि पेड़ों से एकबार अलग हुए आम के फल पुनः कैसे पेड़ों पर वापस जा सकते हैं ? गोरखनाथ जी समझ गए कि कृष्ण्पाद उनका शक्ति परीक्षण करने चाहते हैं, अतः उन्होंने अपने हाथ में भस्म लेकर उसे प्रेषणास्त्र एवं संजीवनी मंत्र से अभिसिंचित कर आम के उन फलों को यथावत पेड़ों पर सुशोभित कर दिया। इसके बाद कृष्ण्पाद हेलापट्टन की ओर चल पड़े और गोरखनाथ जी कृष्ण्पाद के उस कथन कि मत्स्येंद्रनाथ जी की आयु के मात्र तीन दिन ही शेष बच्चे हैं ,की पुष्टि के लिए यमलोक की ओर प्रस्थान कर दिया। यमलोक में जाकर उन्होंने अपने गुरु के आयुक्षीणता को मिटाकर पुनः वापस आकर उसी वकुल के वृक्ष के नीचे आसन लगाकर गुरु मत्स्येंद्रनाथ के उद्धार की रुपरेखा सुनिश्चित करने लगे। इसके बाद वे कदली देश की और प्रस्थान किये। 
कदली देश में मत्स्येंद्रनाथ जी के प्रवेश के सम्बन्ध में एक उपाख्यान प्रचलित है। मत्स्येंद्रनाथ जी परकाया प्रवेश के ज्ञाता थे और वे एकबार गोरखनाथ के साथ भ्रमण के दौरान प्रयाग के राजा के मृत शरीर में प्रवेश कर राजसुख का उपभोग करना चाहा। राजा के शरीर में प्रवेश के पूर्व अपने शरीर की रक्षा का भार गोरखनाथ जी को सौंप दिया था और उनसे कहा था कि बारह वर्ष बाद वे अपने शरीर में पुनः वापस आ जायेंगे। मृत राजा की रानियों को किसी प्रकार से यह रहस्य ज्ञात हो गया तो रानियों ने मत्स्येंद्रनाथ के शरीर को नष्ट कर देने हेतु वीरभद्र को निर्देशित कर दिया। गोरखनाथ जी की अदभुत यौगिक शक्ति के कारण वह ऐसा कर नहीं पाया। गोरखनाथ ने रानी परिमिला के माध्यम से अपने गुरु के  उद्धार की एक  योजना बनायी और रानी परिमिला ने अग्नि में प्रवेश करके उसी घर में जयन्ती नाम से पुनर्जन्म लिया और मत्स्येंद्रनाथ ने उससे पहले जन्म में फिर मिलने का वचन दिया।  इसलिए कदली देश के रमणीय राज्य में उन्होंने उनके साथ विवाह कर लिया और यहीं पर मत्स्येन्द्रनाथ ने तांत्रिक कौलाचार की साधना प्रारम्भ कर दी और गोरखनाथ जी ने नाथयोग मार्ग को अपनाने हेतु सहज सम्बोधन दिया। मत्स्येन्द्रनाथ यहां पर भोग में योग का संरक्षण कर योगिनी कौलमत के पोषण में लगे थे। कहा जाता है कि मत्स्येन्द्रनाथ सिद्धमत त्यागकर कदली देश में योगिनियों की माया में आसक्त होकर योगज्ञान भूल गए थे। उनकी कौलज्ञान -निर्णय रचना में जिस साधना का वर्णन मिलता है वह कामरूप अथवा कदली देश की रानियों के घर में पूर्व से विद्यमान थी। एक दिन गोरखनाथ को किसी से ज्ञात हुआ कि उनके गुरु मंगला एवम कमला  नामक रमणियों द्वारा परिसेवित राजप्रासाद में अपने को बन्द कर रखे हैं।  अतः उन्होंने उस राजप्रासाद में जाने हेतु नर्तकियों का सहारा लिया। कलिंगा नर्तकी ने उनसे कहा कि राजप्रासाद में पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध है, तब गोरखनाथ जी ने कहा की वे मृदंगवादन में निपुण हैं।  अतः वे उन्हें अपने साथ मृदङ्गवादक के रूप में आसानी से ले चल सकती हैं। कलिंगा की स्वीकृति से वे राजप्रासाद में प्रविष्ट हो गए। कदली देश की महारानी को हनुमान जी की विशेष कृपा प्राप्त थी, अतः हनुमान जी उसकी सदा रक्षा  किया करते थे किन्तु गोरखनाथ जी ने अपने नागास्त्र से हनुमान जी का राजप्रासाद में प्रवेश रोकते हुए उन्हें महल के बाहर ही मूर्छित कर दिया था। चेतना वापस आने पर हनुमान जी ने अपने आराध्यदेव श्रीराम का स्मरण किया तब उन्हें ज्ञात हुआ कि राजप्रासाद में गोरखनाथ जी अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी को मुक्त कराने के लिए उपस्थित हो चुके हैं और उन्होंने ही उन्हें मूर्छित  किया था। तब हनुमान जी को स्मरण आया कि मत्स्येन्द्रनाथ को त्रिपाराज्य में उन्होंने ही रहने को प्रेरित किया था , अतः अब यदि वे रानी को छोड़कर गोरखनाथ का साथ देते हैं तो वचन भंग की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। तब उन्होंने श्रीराम से अनुरोध किया कि वे गोरखनाथ जी को सावधान कर दें। तब श्रीराम एवम हनुमान जी ब्राह्मण का वेश धारणकर गोरखनाथ के सम्मुख आये और उन्हें वास्तविकता से भिज्ञ कराया। गोरखनाथ ने कहा कि उनके गुरु नाथ सम्प्रदाय के संरक्षक हैं ,अतः यदि वे तांत्रिक योगिनी कौलाचार साधना में किसी कारणवश लीन हैं तो उन्हें सावधान करना उनका कर्तव्य है। हनुमान जी ने  कहा कि मैं जनता हूँ कि आप शिवस्वरूप हैं किन्तु मैंने रानी को वचन दे रखा है।  अतः आप मेरी भी विवशता का सम्मान करें। ऐसी स्थित में श्रीराम ने हनुमान जी से कहा कि आपने तो मत्स्येन्द्रनाथ जी को केवल बारह वर्ष तक ही त्रिपाराज्य में रहने की प्रेरणा दी थी किन्तु यह अवधि तो समाप्त हो चुकी है।  अतः आपके वचनभंग का अब औचित्य नहीं रह गया है। 
गोरखनाथ जी ने तब रमणी का रूप धारण कर महारानी के सम्मुख उपस्थित हुए तो वह उनके सौन्दर्य से अभिभूत होकर उन्हें मत्स्येन्द्रनाथ के सम्मुख न जाने का आग्रह किया, तब गोरखनाथ  नर्तकी वेश में नृत्यांगनाओं के साथ राजप्रासाद में प्रविष्ट हुए और अपनी मर्दल ध्वनि से गुरु का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। मत्स्येंद्रनाथ जी को तुरन्त आभास हो गया क्योंकि मर्दल ध्वनि से " जाग मछन्दर गोरख आया " के स्पष्ट स्वर उन्हें सुनाई पड़ रहे थे। अवसर पाकर गोरखनाथ जी ने अपने गुरु को यह स्मरण दिलाया कि वे आत्मा के योगी हैं और गुरु पद पर प्रतिष्ठित योगेश्वर भी हैं। गोरखनाथ जी ने रानी के सम्मुख ही उनसे कहा कि गुरुदेव, मैं आपका शिष्य गोरखनाथ हूँ। आपने हनुमान जी को जो वचन दिया था उसकी अवधि भी व्यतीत हो चुकी है। ऐसा सुनकर मत्स्येन्द्रनाथ को आसक्ति से विरक्ति की अनुभूति हुई और सिंहासन से उतरकर गोरखनाथ जी को अपने हृदय से लगा लिया और त्रिपाराज्य से बाहर चलने हेतु सहमत हो गए।इसके बाद वहाँ से दोनों वाल्मीकि आश्रम की ओर चल पड़े।
कहा जाता है कि एकबार गुरु गोरखनाथ जी राजा भर्तृहरि के दरबार में पहुंचे तो राजा ने उनकी अत्यधिक आवभगत एवम सेवा सत्कार किया जिससे प्रसन्न होकर गुरु गोरखनाथ ने राजा को एक अमरफल प्रदान किया था। अमरफल खाने से व्यक्ति चिरयौवन प्राप्त कर लेता है। अतः राजा भर्त्तृहरि ने उस अमरफल को अपनी दूसरी प्रिय रानी जिसे वे अत्यधिक प्रेम करते थे ,को इस आशय से दे दिया ताकि वे चिरकाल तक अपनी रानी को जवान व सुन्दर देख सकेंगे। रानी को जब उस फल की विशेषता ज्ञात हुई तब उसने उस अमरफल को अपने उस सेनापति को दे दी जिसे वह अत्यधिक प्रेम करती थी. .सेनापति ने उस फल को एक वैश्या जिसे वह प्रेम करता था ,को दे दिया। वैश्या ने वह फल प्राप्त होने पर सोचा कि यदि वह अमरफल खा लेती है तो चिरकाल तक उसे वैश्यावृत्ति करनी पड़ेगी अतः उसने वह अमरफल राजा भर्तृहरि को वापस देकर अपनी स्वामी -भक्ति सिद्ध करनी चाही तब राजा ने विस्तारपूर्वक उस फल की प्राप्ति की जानकारी उससे ली तब ज्ञात हुआ कि वह रानी जिसे वे अत्यधिक प्रेम करते थे वह तो किसी अन्य को प्रेम करती है। इस घटना से राजा में वैराग्य भाव जागा और वे गुरु गोरखनाथ की खोज में जंगल की ओर चल पड़े। जंगल में उन्होंने एक हिरन का शिकार किया तो घायल हिरन भागता  हुआ वहां जा पहुंच जहां गुरु गोरखनाथ जी ध्यान लगाए बैठे थे। हिरन को घायल देखकर गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से उस हिरन को जीवित कर दिया तब राजा उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और वैराग्य लेने की अपनी इच्छा प्रकट की। गुरु गोरखनाथ जी द्वारा उन्हें योग की दीक्षा प्रदान की गयी तब राजा उज्जैन में स्थित एक पहाड़ी में एक गुफा के अंदर १२ वर्षों तक घोर तपस्या की और अपूर्व सिद्धि प्राप्त की।   
गोरखनाथ जी से सम्बंधित ऐसी अनेकों कथाएं प्रचलित हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि उनमें अद्भुत यौगिक चमत्कार विद्यमान थे। एकबार उन्होंने खप्पर में खिचड़ी बनाई और आसपास की जनता को प्रसाद के रूप में उसे ग्रहण करने हेतु आमन्त्रित कर दिया। अपार जनसमूह के एकत्रित हो जाने पर भी वह खप्पर खाली नहीं हुआ। आज भी गोरखपुर स्थित मंदिर में मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी भोज का वृहत आयोजन होता है। गोरखनाथ मन्दिर के गर्भगृह में उनकी चरण पादुका आज भी विद्यमान है। वेदी पर गोरखनाथ जी की संगमरमर की बनी भव्य प्रतिमा प्राण -प्रतिष्ठित है और मंदिर में त्रेतायुग से प्रज्ज्वलित अखण्डज्योति आज भी निरन्तर वहां जल रही है। गोरखनाथ के उपदेशों की एक झलक इस प्रकार है :- 
                 हबकि न बोलिबा,ढबकि न चलिबा,धीरे धरिबा पांव। 
                 गरब न  करिबा ,सहजै  रहिबा ,भणत  गोरष  राव। 
                मन मैं रहिणा ,भेद न कहिणा ,बोलिबा अमृत वाणी। 
                 आगिला अगनी,होइबा अवधू,तौं आपण होइबा पाणी। 
                                       

2 comments:

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  2. जाग मछंदर जाग
    गोरख आया
    जय श्री गुरुदेव जी 🙏🙏

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